गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 22

  

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथानर्‌तज्योतिरेव यः।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।। 24।।


जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, ऐसा वह ब्रह्म के साथ एकीभाव हुआ सांख्ययोगी ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त होता है।



जो आत्मा में ही विश्राम में जीता है, जो आत्मा में ही आनंद को अनुभव करता है, जो आत्मा में ही ज्ञान को पाता है, जिसके जीवन का सब कुछ उसकी आत्मा है! इसे दोत्तीन मार्गों से खयाल में लेना जरूरी है।

हमारा सब कुछ सदा ही आत्मा के बाहर होता है। सुख, बाहर; ज्ञान, बाहर। कोई देगा, तो हमें मिलेगा। कोई नहीं देगा, तो हम अज्ञानी रह जाएंगे। यूनिवर्सिटी, कालेज ज्ञान देंगे, तो हम ज्ञानी हो जाएंगे। इसीलिए तो सारी दुनिया पढ़े-लिखे अज्ञानियों से भरती चली जाती है!

दूसरे से मिलेगा--चाहे ज्ञान हो, चाहे सुख हो, चाहे शांति हो--दूसरे से मिलेगी। सब कुछ आएगा सदा दूसरे से। अपने भीतर कुछ भी नहीं है। तो हम बिलकुल खाली हैं? कोई कंटेंट नहीं भीतर! कंटेनर हैं, सिर्फ एक डब्बा हैं खाली, जिसके भीतर कुछ भी नहीं है! भिक्षापात्र हैं! दूसरे जो डाल देंगे, वही भर जाएगा; वही हमारी संपदा है! तो दूसरे कहां से ले आएंगे? वे भी खाली हैं। वे भी हमारे जैसे ही रिक्त डब्बे हैं। तो फिर हम एक-दूसरे को प्रवंचना देते रहते हैं।

न तो दूसरे से मिलता है सुख, न दूसरे से मिलता है ज्ञान। दूसरे से मिल सकता है सुख का आभास, और अंततः दुख। दूसरे से मिल सकती हैं सूचनाएं, अंततः अज्ञान को छिपाने वाली; और कुछ भी नहीं। इनफर्मेशन मिल सकती है दूसरे से, नालेज नहीं।

कोई विश्वविद्यालय ज्ञान नहीं दे रहा है। सब विश्वविद्यालय सिर्फ नालेज की जगह इनफर्मेशन, सूचनाएं दे रहे हैं। ज्ञान बड़ी आंतरिक घटना है। सूचना बाहर से मिलती है, ज्ञान भीतर से आता है। आभास बाहर खड़े किए जा सकते हैं, वास्तविक सुख का कोई अनुभव बाहर नहीं होता है। कभी नहीं हुआ; कभी हो भी नहीं सकता है।

बाहर से मिलता है तनाव, टेंशन; विश्राम नहीं, विराम नहीं। कृष्ण कहते हैं, आत्मा को ही जिसने आराम जाना! बाहर से सिवाय तनाव के और कुछ भी नहीं मिलता। और अगर तनाव बहुत बढ़ जाएं, तो निद्रा मिल सकती है, और कुछ भी नहीं मिल सकता। रोज तनाव बढ़ते जाते हैं, विश्राम खोता चला जाता है। टेंशंस बढ़ते चले जाते हैं, इकट्ठे होते चले जाते हैं। एक-एक आदमी हिमालय जैसे टेंशंस, तनाव अपने सिर पर लिए चल रहा है।

तनाव बहुत बढ़ जाते हैं, अब क्या करना? इन तनावों के बीच कैसे जीना? तो बाहर से तनाव को भुलाने की तरकीबें मिल सकती हैं; केमिकल ड्रग्स मिल सकते हैं, शराब मिल सकती है, एल एस डी मिल सकती है, मेस्कलीन मिल सकती है, मारिजुआना मिल सकता है। फिर बाहर से केमिकल ड्रग्स मिल सकते हैं कि पी लो इनको और नींद में खो जाओ; डूब जाओ अंधेरे में।

बाहर से मिल सकते हैं तनाव, और विश्राम के नाम पर मिल सकती है निद्रा। टूटेगी निद्रा, तनाव वापस दुगुने वेग से खड़े हो जाएंगे। दुगुने वेग से क्यों? क्योंकि निद्रा की इस रासायनिक मूर्च्छा के बाद आप कमजोर होकर वापस आएंगे। तनाव तो वही रहेंगे, लेकिन आप कमजोर होकर वापस आएंगे। तनाव दुगुनी ताकत के हो जाएंगे, आप और कमजोर हो जाएंगे। फिर एक ही उपाय है कि और पीओ शराब।

आज मूर्च्छा में खोएंगे, कल और बड़ी मूर्च्छा चाहिए, परसों और बड़ी मूर्च्छा चाहिए; प्याली पर प्याली बढ़ती चली जाएगी।

तनाव मिलते हैं बाहर से, विश्राम नहीं। या मिल सकती है तंद्रा, जो कि विश्राम नहीं है, जो कि केवल मूर्च्छा है। विश्राम तो आंतरिक घटना है, विराम, सब ठहर गया जहां। शांत, जैसे झील पर लहर न हो। आकाश, जहां कि बदलियां न हों। निरभ्र आकाश। सब चुप, मौन। होश पूरा, शांति भी पूरी। ऐसे विराम के क्षण तो भीतर ही हैं।

कृष्ण कहते हैं, सुख जिसने जाना भीतर, विश्राम जिसने जाना भीतर, ज्ञान जिसने जाना भीतर, ऐसा पुरुष ही सांख्य का ज्ञानयोगी है। ऐसा पुरुष ही ज्ञानयोगी है।

तीन चीजों पर जोर देते हैं वे। कारण है। तीन ही तरह की चीजें हैं, जो हम चाहते हैं। या तो सुख चाहते हैं। कुछ लोग हैं, जो सुख के लिए दौड़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं, जो सुख से भी ज्यादा ज्ञान चाहते हैं।

एक वैज्ञानिक है। सब तरह के दुख झेलता है। सब तरह की पीड़ा झेलता है। बीमारियां अपने ऊपर बुला लेता है कि बीमारियों को मिटाने की तरकीब खोज ले। जहर चख लेता है कि जहर का पता चल जाए कि आदमी मरता है कि नहीं मरता है। सुख से भी ज्यादा ज्ञान की तलाश है।

कुछ लोग हैं, जो सुख की खोज में हैं। कुछ लोग हैं, जो ज्ञान की खोज में हैं। कुछ लोग विश्राम की खोज में हैं। सुख के खोजी, हम जिनको संसारी कहते हैं, ऐसे सारे लोग सुख के खोजी हैं। जिनको हम विचारक, वैज्ञानिक, कलाकार, इस कोटि में रखते हैं--दार्शनिक, चिंतक--ये सारे के सारे लोग ज्ञान के खोजी हैं। जिनको हम कहते हैं, साधु, संत, मिस्टिक्स, ये सब के सब विश्राम के खोजी हैं। बस, ये तीन तरह के खोजी हैं इस जगत में। लेकिन इसीलिए कृष्ण ने तीन गिनाए कि इन तीनों की भूल हो जाए, अगर ये बाहर खोजें।

भीतर खोज शुरू हो जाए--तो कोई सुख को खोजता हुआ भीतर पहुंच जाए तो भी चलेगा, ज्ञान को खोजता हुआ पहुंच जाए तो भी चलेगा, विश्राम को खोजता हुआ पहुंच जाए तो भी चलेगा।

जान लें आपकी खोज क्या है तीन में से। जो भी खोज हो, फिर यह देख लें कि उसको बाहर खोज रहे हैं, तो भ्रांत है खोज। भटकेंगे। कभी पहुंचेंगे नहीं कहीं। यात्रा बहुत होगी, नाव बहुत चलेगी, किनारा कभी नहीं आएगा। पैर बहुत दौड़ेंगे, थक जाएंगे, मंजिल कभी नहीं आएगी; मुकाम कभी नहीं आएगा। मुकाम तो केवल उनको मिलता है, जो स्वयं को एक खाली डब्बे की तरह नहीं मानते हैं। और स्वयं को खाली डब्बे की तरह, एंप्टी मानने से बड़ा अपमान और हीनता कुछ भी नहीं है।

धर्म मनुष्य की बड़ी गरिमा की घोषणा करता है। धर्म कहता है, तुम जो भी चाहते हो, वह तुम्हारे भीतर है। और इस कारण से भी कहता है कि अगर तुम्हारे भीतर न होता, तो तुम चाह भी न सकते थे। इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए।

अगर मनुष्य के भीतर विश्राम की क्षमता और संभावना न हो, तो मनुष्य विश्राम की मांग भी नहीं कर सकता था। हम वही मांगते हैं, जो हमारे भीतर पोटेंशियल छिपा है और एक्चुअल होना चाहता है। जो हमारे भीतर बीज की तरह बंद है और वृक्ष की तरह खुलना चाहता है। हमारी सब मांगें हमारे बीज की मांगें हैं, जो वृक्ष होना चाहती हैं। हमारी सब मांगें हमारी संभावनाओं की मांगें हैं, जो वास्तविक होने के लिए आतुर हैं।



खोजें सुख को, तो ध्यान रखना, अगर बाहर खोजा, तो कभी मिलेगा नहीं। भीतर छिपा है। खोजा ज्ञान को बाहर, तो इनफर्मेशन इकट्ठी हो जाएगी, पंडित हो जाएंगे, पांडित्य हो जाएगा। जानेंगे सब, और कुछ भी न जानेंगे। लगेगा सब जानते हैं, और हाथ में सिवाय शब्दों की राख के कुछ भी न होगा। लगेगा कि सब पता चल गया, और सिवाय शास्त्रों के नीचे दबे हुए जानवर की भांति स्थिति होगी। बोझ ढोएंगे, और कुछ भी नहीं होगा।

सोचा कि मिलेगा बाहर विश्राम, बहुत बड़े महल में मिलेगा। महल बन जाएगा। विश्राम जितना महल बनने के पहले था, उससे भी कम हो जाएगा। क्योंकि महल बनाने में जितने तनाव अर्जित करने पड़ेंगे, वे कहां जाएंगे! महल में नहीं जाएंगे, आप में चले जाएंगे। सोचा कि बहुत धन-दौलत होगी, तब विश्राम करेंगे। तो बहुत धन-दौलत बनाने में जो तनाव लेने पड़ेंगे, वे तनाव कहां जाएंगे? धन-दौलत बाहर इकट्ठी हो जाएगी; तनाव भीतर इकट्ठे हो जाएंगे। जब तक धन-दौलत हाथ में आएगी, तब तक तनाव इतने हो जाएंगे कि किसी मतलब की न रह जाएगी।

यह बड़े मजे की बात है। जिनके पास खाने को नहीं है, उनके पास पेट होता है, जो पचा सकता है। और जिनके पास खाने को है, उनके पास पेट नहीं होता, जो पचा सकता है। जिनके पास गहरी नींद है, उनके पास सिरहाने तकिया नहीं होता। और जिनके पास सुंदर तकिए आ जाते हैं, उनकी नींद खो जाती है। चमत्कार है! मगर ऐसा ही होता है; बिलकुल ऐसा ही होता है। क्यों ऐसा होता है?

ऐसा होता इसलिए है कि जिसे हम खोजने निकले, वह मार्ग, वह दिशा, वह आयाम गलत था। जिसे हमने खोजा, गलत माध्यम और गलत साधन से खोजा। कोई आदमी तनाव का अभ्यास करके विश्राम को नहीं पा सकता। यह बिलकुल बेहूदी बात है, एब्सर्ड है, इल्लाजिकल है, तर्कसंगत भी नहीं है। आपका अभ्यास इतना ज्यादा हो जाएगा कि फिर रुकिएगा कैसे?

एक आदमी कहता है कि हमें विश्राम करना है, तो हम पहले सौ मील की दौड़ दौड़ेंगे। फिर तभी तो विश्राम करेंगे, सौ मील के बाद जो वृक्ष है, उसके नीचे विश्राम करेंगे। लेकिन सौ मील तक दौड़ने वाला आदमी अक्सर तो सौ मील के वृक्ष तक पहुंच नहीं पाता, बीच में ही टूटकर मर जाता है। और अगर कभी पहुंच भी जाए, तो दौड़ने की ऐसी आदत मजबूत हो जाती है कि फिर वह वृक्ष के चक्कर लगाता है। वह कहता है, अब बैठें कैसे? पैरों का अभ्यास भारी हो गया, अब बैठते बनता नहीं! अब वह दौड़ता है। जिस वृक्ष की छाया में सोचा था कि पहुंचकर विश्राम करेंगे। अनेक तो पहुंच नहीं पाते, पहले ही टूट जाते हैं। इतना तनाव झेल नहीं पाते। जो पहुंच जाते हैं, वे भी अभागे सिद्ध होते हैं। पहुंचकर वृक्ष का चक्कर लगाते हैं! अभ्यास मजबूत हो गया। अभ्यास को छोड़ना बड़ा कठिन है। अब अभ्यास को हटाओ; अब इस अभ्यास के विपरीत अभ्यास करो।

जिस व्यक्ति ने भी, जिस तरह का संस्कार अर्जित कर लिया, उसे छोड़ना रोज कठिन होता चला जाता है। रोज-रोज कठिन होता चला जाता है। हम सब अपने-अपने अर्जित संस्कारों में ग्रस्त हो जाते हैं। पहले सोचा कि धन मिलेगा, फिर आनंद से मौज करेंगे। लेकिन धन कमाते वक्त मौज पर रोक लगानी पड़ती है, नहीं तो धन इकट्ठा नहीं हो पाएगा। धन कमाना है अगर और बचाना है मौज के लिए, तो कंजूस होना पड़ेगा, कृपण होना पड़ेगा। एक-एक दमड़ी पकड़नी पड़ेगी जोर से।

फिर चालीस-पचास साल दमड़ी पकड़ते-पकड़ते करोड़ इकट्ठे हो जाएंगे। लेकिन तब तक दमड़ी पकड़ने वाला आदमी भी काफी मजबूत हो जाएगा। और जब करोड़ पास में आएंगे और आपका मन कहेगा कि ठीक, आ गई मंजिल; अब जरा मजा करें। तब वह दमड़ी पकड़ने वाला मन कहेगा, क्या कह रहे हो! प्राण निकल जाएंगे मेरे। एक-एक दमड़ी तो बचाई मैंने।

ये जिंदगी के कंट्राडिक्शंस हैं। अनिवार्य हैं।

कृष्ण कहते हैं, भीतर तू खोज। अभी मिल जाएगा। कल की जरूरत नहीं है। तीन चीजों को तू भीतर खोज ले, आनंद को...।

कभी आप सोचते हैं कि दुख बाहर से आता है, शांति भीतर से आती है! जब आप शांत होते हैं कभी एक क्षण को, तो आप बता सकते हैं, यह शांति कहां से आई? आप न बता सकेंगे। लेकिन जब आप अशांत होते हैं, तब तो आप पक्का बता सकते हैं न कि अशांति कहां से आई? फलां आदमी ने गाली दी। फलां आदमी ने धक्का मार दिया। दुकान में नुकसान लग गया। लाटरी मिलना पक्की थी, नहीं मिली। कुछ कारण आप बता सकते हैं।

अशांति कहां से आई? आप बता सकते हैं  वहां से आई। लेकिन जब भी आप शांत होंगे--कभी हुए ही न हों, तो बात अलग--जब भी आप शांत होंगे, तब आप नहीं बता सकते कि शांति कहां से आती है।  कहीं से नहीं आती। जब भी आप दुख में होते हैं, तो दुख कहीं से आता है। और जब आप आनंदमग्न होते हैं,  वह कहीं से नहीं आता। जब आप आनंद में होते हैं, तब वह कहीं से नहीं आता; आपके भीतर से उठता है और फैलता है। और जब आप दुख में होते हैं, तब वह बाहर से आता है और बादलों की तरह आपको घेरता है।

इस भेद को थोड़ा देखने की कोशिश करेंगे। जैसे-जैसे यह दिखाई पड़ने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि अगर आनंद को खोजना है, तो चलो भीतर, गहरे, वहां पहुंच जाओ, जहां कोई दिशा नहीं है। उत्तर-पश्चिम कोई नहीं है जहां। जहां कोई दूसरा नहीं है। जहां बिलकुल अकेले हैं। जहां स्वयं ही बचे। और आखिर में ऐसी घड़ी आ जाती है कि स्वयं भी नहीं बचते, सिर्फ बचना ही बच रह जाता है। सिर्फ अस्तित्व। सिर्फ धड़कती छाती, चलती श्वास। सिर्फ होना, बीइंग रह जाता है। चलो वहां। और जो भी उसकी एक झलक पा ले, वह कहेगा, सब कुछ भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं है।

लेकिन जब तक झलक न मिले, भरोसा नहीं आता। मैं कितना ही कहूं कि तैरने का बड़ा आनंद है, उतरो पानी में। लेकिन जो कभी पानी में उतरा नहीं और जिसने कभी तैरना जाना नहीं, वह सुनेगा। जब मैं उससे कहूंगा, उतरो पानी में, अगर मैं कूदूं भी उसके सामने, पानी में तैरूं भी, तो उसे तैरने के आनंद का कुछ पता न चलेगा। उसे इतना ही पता चलेगा कि अगर मैं कूदा, तो डूबा और मरा! उसे सिर्फ भय का ही पता चलेगा, मेरे आनंद का नहीं, अपने भय का।

और वह आदमी मुझसे कह सकता है कि मानते हैं आपकी बात। राजी हैं बिलकुल। उतरेंगे पानी में। लेकिन उतरने के पहले तैरना सिखा दें!

स्वभावतः, उसका तर्क दुरुस्त है। कहता है, पहले तैरना सिखा दें, फिर हम उतरने को राजी हैं। मेरी भी अपनी मजबूरी होगी। मैं कहूंगा, पहले तुम उतरो, तो तैरना सिखाया जा सकता है। नहीं तो तैरना कैसे मैं सिखाऊंगा? गद्देत्तकियों पर तैरना अभी तक भी नहीं सिखाया जा सका है। कुछ लोग कोशिश करते हैं गद्देत्तकियों पर तैरना सीखने की। हाथ-पैर में चोट लग जाएगी, लूले-लंगड़े हो जाएंगे। गद्देत्तकियों पर तैरना नहीं सीखा जाता! असल में तैरना उस खतरे में ही पैदा होता है, जहां जिंदगी को लगता है कि गई, डूबी, मिटी। उसके मिटने के खयाल से ही ऊर्जा उठती है और व्यवस्थित होती है।

तो आप अगर कहते हों कि पहले थोड़ा आनंद मिलने लगे, तो हम भीतर जाएंगे, तो यह कभी नहीं होगा। आप भीतर जाएं, तो आनंद मिलेगा। आप कहेंगे, अभी हम कैसे जाएं?

कभी भी क्षणभर को, जब भी मौका मिले, आंख बंद कर लें। क्षणभर को भीतर होने की बात को खयाल में लें। जब भी मौका मिले, आंख बंद कर लें; थोड़ी देर को भीतर हो जाएं। भूल जाएं बाहर को। भूलते-भूलते भूल जाएंगे। रोज-रोज अगर एक क्षण को भी दस-बीस दफा आंख बंद कर लें--कार में चलते, बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कुर्सी पर दफ्तर में बैठे--एक क्षण को आंख बंद कर लें। भूल जाएं बाहर को कि नहीं है! मैं ही हूं अकेला। देखने लगें अपनी श्वास को, अपने हृदय की धड़कन को। भीतर उतर जाएं।

धीरे-धीरे-धीरे आपको पता लगेगा, भीतर परम विश्राम है। महीनों की थकान क्षणभर में मिट सकती है भीतर। पहाड़ जैसे दुख, भीतर के जरा सी सुख की किरण के सामने विसर्जित हो जाते हैं। अज्ञान कितना ही जीवन का हो, भीतर प्रकाश की एक जरा सी ज्योति जलती है और अज्ञान एकदम अंधेरे की तरह खो जाता है। लेकिन कोई उपाय नहीं; जाने बिना कोई उपाय नहीं है, गए बिना कोई उपाय नहीं है, उतरे बिना कोई उपाय नहीं है। उतरें।

वही कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस जगत में तेरे लिए सुख की राह बन जाएगी। योगी हो जाएगा तू। योग का अर्थ होता है, अपने से जुड़ जाएगा तू। योग का अर्थ है, कम्यूनियन। योग का अर्थ है, एक हो जाना अपने से। और परलोक में मुक्ति तेरी है। और इसे वे कहते हैं, यह सांख्ययोग है। इसे वे कहते हैं, यही सांख्ययोगी का लक्षण है।

सांख्य के संबंध में एक बात खयाल में ले लें। फिर हम कीर्तन में उतरेंगे। कृष्ण कहते हैं, यही सांख्ययोग है। सांख्य इस पृथ्वी पर ज्ञान की परम कुंजी है, दि मोस्ट सीक्रेट की। सांख्य का आग्रह क्या है? सांख्य की व्यवस्था क्या है? सांख्य क्या कहता है?

सांख्य शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान! सांख्य का कहना है, करना कुछ भी नहीं है। करने योग्य कुछ भी नहीं है। करना नहीं है, होना है। करने से जो भी मिलेगा, वह बाहर मिलेगा। न करने से जो भी मिलेगा, वह भीतर मिलेगा! यह तो हमें समझ में आ सकता है। अगर बाहर की दुनिया में कुछ भी पाना है, तो कुछ करना पड़ेगा; धन पाना है, तो कुछ करना पड़ेगा। बिना किए बाहर कुछ भी मिलने वाला नहीं है। कुछ भी पाना है, तो करना पड़ेगा। लेकिन भीतर अगर कुछ पाना है, तो? तो न करना सीखना पड़ेगा। उलटी यात्रा है।

जैसे रात आपको नींद नहीं आती है और बड़ी मुश्किल में पड़े हैं। पूछते हैं, क्या करें? नींद कैसे आए? क्या करें? गलत सवाल पूछते हैं। किसी से पूछना ही मत। और अगर कोई जवाब दे, तो कान पर हाथ रख लेना; सुनना मत। जब आप पूछते हैं, नींद नहीं आती, क्या करें, तो आप गलत सवाल पूछते हैं। क्योंकि आपने कुछ किया कि नींद फिर बिलकुल नहीं आएगी। करने से नींद की दुश्मनी है। करने से कहीं नींद आई है! करने से तो लगी हुई नींद हो, तो भी टूट जाएगी। करना मत।

कोई अगर कह दे कि भेड़ों को गिनो; एक से लेकर सौ तक गिनती करो; सौ से एक तक गिनती करो। बस, गए आप! कभी यह नहीं होगा। इससे नींद नहीं आएगी। और अगर कभी आती हुई मालूम पड़ी, तो वह इससे नहीं आएगी। कर-करके थक जाएंगे; थोड़ी देर में पाएंगे कि नहीं आती; छोड़ो। तब आ जाएगी। न करने से आएगी। कुछ न करें। पड़े रह जाएं। नींद उतर आती है।

कुछ न करें; पड़े रह जाएं। होश से भरे रहें। ध्यान उतर आता है, ज्ञान उतर आता है। कुछ न करें। एक घड़ीभर के लिए चौबीस घंटे में एक कोने में बैठ जाएं और कुछ न करें। बाहर भी नहीं करें, भीतर भी नहीं करें। बाहर नहीं करना तो बहुत आसान है। हाथ-पैर छोड़कर बैठ गए, तो बाहर नहीं होगा कुछ। मन भीतर करेगा। उसकी आदत है। उसको कभी हमने बिना काम छोड़ा नहीं; उससे काम लेते ही रहते हैं। कुछ न कुछ करेगा वह भीतर। उसको भी कह दें कि काहे को परेशान हो रहा है। मत कर। एक दिन में मानेगा नहीं; दो दिन में नहीं मानेगा। लेकिन आप भी मत मानें। चलते जाएं।

आज नहीं कल, कल नहीं परसों, धीरे-धीरे मन पाएगा कि कोई उत्सुकता नहीं है आपकी, शिथिल होने लगेगा। कभी-कभी गैप्स आ जाएंगे, खाली जगह आ जाएगी। कुछ नहीं करेगा मन भी। उसी खाली जगह में से अचानक विश्राम, अचानक विश्राम उतर जाएगा। अचानक जैसे कोई बड़ी गहन शांति ने सब तरफ से आपको घेर लिया। भीतर, बाहर, सब तरफ आकाश जैसा विराट कुछ शांत हो गया, ठहर गया। फिर विराम बढ़ने लगेगा। इस विराम में ही ज्ञान भी उतरेगा, इस विराम में आनंद भी उतरेगा।

सांख्य कहता है, कुछ करके नहीं पाना है। जो पाना है, वह हमारे भीतर मौजूद है। सदा मौजूद है। है ही। सिर्फ विस्मृत, सिर्फ फारगेटफुलनेस, भूल गए हैं। बस, इससे ज्यादा नहीं है। खोया नहीं, सिर्फ भूल गए हैं। भीतर जाएं, याद आ जाए, स्मरण आ जाए।

लेकिन हम बाहर उलझे हैं, उलझे ही चले जाते हैं। और एक उलझाव दस नए उलझाव बना जाता है। और हम सोचते रहते हैं कि आज नहीं कल जब सब उलझाव सुलझ जाएंगे, तो हम भीतर चले जाएंगे। इस भ्रांत तर्क में जो पड़ा, वह सदा के लिए खो जाता है।

बाहर के उलझाव कभी कम न होंगे, कभी कम न होंगे। एक उलझाव दस निर्मित करता है। दस, सौ निर्मित कर जाते हैं। सौ, हजार निर्मित कर जाते हैं।

आप यह मत सोचना कि हम एक दिन उलझाव हल कर लेंगे। उलझाव हल करने में जो आप कर रहे हैं, वह हर करना नए उलझाव बनाता चला जाता है। अगर किसी भी दिन आपको खयाल आ जाए कि इस अंतर्लोक ज्ञान की खोज में निकलना है, तो उलझावों को रहने देना अपनी जगह; उलझावों के बीच ही कभी-कभी भीतर डूबना शुरू कर देना।

लेकिन जैसा मैंने कहा, आदतें खराब हैं। अगर छुट्टी का भी दिन हो--अंग्रेजी में नाम अच्छा है, हॉली-डे। दिया तो था इसी खयाल से कि एक दिन आप कुछ न करेंगे। ईसाइयों का खयाल यही है कि परमात्मा ने भी छः दिन काम किया और सातवें दिन विश्राम किया। रविवार के दिन उसने कोई काम नहीं किया, इसलिए वह हॉली-डे हो गया, पवित्र दिन हो गया।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि छुट्टी के दिन ज्यादा काम होता है, जितना बाकी दिन होता है। और अमेरिका में तो एक मजाक चलती है कि एक दिन की छुट्टी के लिए सात दिन विश्राम करना पड़ता है बाद में। इतनी भाग-दौड़ कर लेते हैं लोग छुट्टी के दिन कि फिर सात दिन विश्राम चाहिए। छुट्टी के दिन इतना काम हो जाता है। सबसे ज्यादा एक्सिडेंट छुट्टी के दिन होते हैं। सारे लोग निकल पड़े हैं समुद्र की तरफ! सारे लोग पहाड़ की तरफ, हिल स्टेशन की तरफ! भारी काम चल रहा है। गले से गले में उलझी हुई कारें लाखों की तादाद में दौड़ी जा रही हैं।

बड़े मजे की बात है। जब सारा बाजार ही बीच पर पहुंच जाएगा, तो बीच पर जाने से क्या होगा! वहां सबके सब पहुंच गए! वही सारी दुनिया वहीं खड़ी हो गई! फिर भागे; फिर घर आ गए। फिर वही काम की दुनिया शुरू हो गई!

पवित्र क्षण का या पवित्र दिन का अर्थ है कि उस दिन कुछ मत करना, कुछ करना ही मत। उस दिन पूरे विश्राम में भीतर चले जाना।

पर नहीं; उस दिन सिनेमा देखना है, थिएटर जाना है! टिकटें खरीद ली गई हैं। सारा उपद्रव पहले से तैयार है। पवित्र दिन को अपवित्र करने की पूरी तैयारी पहले से है। तो फिर अंतर में उतरने का समय कब आएगा? कब? फिर शायद कभी न आए। आज से ही, अभी से ही जो थोड़ा-थोड़ा भीतर की तरफ यात्रा करने लगे...।

तो सांख्य का कहना है कि ज्ञान है आपके पास; वह आपका स्वभाव है। कोई अर्जन नहीं करना है। वह आप हैं ही। सिर्फ जानना है; जागना है; होश से भरना है कि मैं कौन हूं। विश्राम पाने कहीं जाना नहीं है किसी यात्रा पर। जहां खड़े हैं, वहीं मिल जाएगा। एक बार पीछे लौटकर देखना है कि मैं कहां हूं!

ज्ञान किसी के हाथ से भीख नहीं मांगनी है। कोई सिखाएगा नहीं ज्ञान। ज्ञान दबा पड़ा है; ऐसे ही जैसे कि हर जमीन के नीचे पानी दबा है। जरा मिट्टी की पर्तों को अलग करना है, और पानी के फव्वारे छूटने लगेंगे।

हां, यह हो सकता है कि कहीं सौ फीट पर है, कहीं पचास फीट पर है, कहीं दस फीट है, कहीं दो फीट पर है। यह फर्क हो सकता है मिट्टी की पर्तों का। क्योंकि सभी लोगों ने अलग-अलग जन्मों में अलग-अलग मिट्टी की पर्तें निर्मित कर ली हैं। लेकिन एक बात सुनिश्चित है, ऐसा कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है, जिसके नीचे पानी न दबा हो। कितना ही गहरा हो, एक बात का आश्वासन दिया जा सकता है कि पानी दबा ही है। चट्टान भी आ जाए बीच में, तो कोई हर्ज नहीं; पानी तो नीचे है ही। बीच की पर्त को अलग कर देंगे और जल-स्रोत उपलब्ध हो जाते हैं।

ऐसा ही ज्ञान दबा है भीतर। पर भीतर की यात्रा, दि इनवर्ड जर्नी, कब करेंगे? कैसे करेंगे? जिसने पोस्टपोन किया, वह कभी नहीं करेगा। जिसने कहा, कल करेंगे, अच्छा है कि वह कह दे कि नहीं करेंगे। वह कम से कम सच्चा तो रहेगा। कल नहीं। घर में आग लगी हो, तो कोई नहीं कहता कि कल बुझाएंगे!

जिंदगी में लगी है आग, और आप कहते हैं, कल! जिंदगी पूरी जलती हुई है--दुख, पीड़ा, चिंता, संताप--सब तरफ धुआं और आग है। और आप कहते हैं, कल! तो इसका मतलब यही है कि आपको पता ही नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं। और आप ही हैं कि अपनी इस जलती हुई आग में रोज पेट्रोल डाले चले जा रहे हैं, वासनाएं भभकाए चले जा रहे हैं। खुद रोज उसमें पेट्रोल डालते हैं। और जब आग जोर से जलती है, तो कहते हैं कि बड़ी तकलीफ उठा रहा हूं; बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ हूं।

रोज अपेक्षा में जीते हैं, फिर दुख आता है, तो कहते हैं कि बड़ी तकलीफ में पड़ा हूं! किसने कहा था, अपेक्षा करो? एक्सपेक्टेशन किया कि दुख आया। रोज वासना से भर रहे हैं और कह रहे हैं कि बड़ा विषाद आता है मन में; बड़ा हारापन लगता है। किसने कहा था?


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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