शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

 आचार्य द्रोण ने आज बहुत दिनों के पश्चात् अपने अतीत को पलटा था; अंतर्मुखी हो कर अपने भीतर झाँक कर देखा था। ... वे तो जैसे उस सारे काल को ही भूल गए थे। पर उनके भूलने से ही तो किसी काल-खंड का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। उसमें उत्पन्न हुई परिस्थितियाँ नष्ट नहीं हो जातीं। वे परिस्थितियाँ ही उन्हें स्मरण कराती रहेंगी कि वे कौन हैं; और किन परिस्थितियों में वे किन लोगों के मध्य रह रहे हैं...

हस्तिनापुर में वे आजीविका के लिए आए थे; किंतु हस्तिनापुर ही क्यों ? क्योंकि जीविका उपार्जित करने के साथ-साथ द्रुपद से प्रतिशोध भी लेना था उनको । तब भीष्म ने उन्हे कुरु राजकुमारों का गुरु नियुक्त किया था। उन राजकुमारों की प्रतिभा, उनकी भक्ति और शक्ति देख कर वे प्रसन्न हो गए थे। उन्होंने स्वयं युद्ध नहीं किया था, द्रुपद से: किंतु जब अर्जुन और उसके भाई, द्रुपद को बॉध कर ले आए थे, तो द्रोण को पहली बार अपनी शक्ति का अनुभव हुआ था। उस बोध से ही जैसे उनको मद चढ़ आया था। उन्होंने द्रुपद जैसे शक्तिशाली राजा का आधा राज्य छीन लेने का साहस किया था।

तब से अब तक हस्तिनापुर की राजनीति ने कई करवटें ली थीं। और आचार्य ने हर बार सावधान हो कर उस सत्ता समीकरण को साधा था। युधिष्ठिर का युवराज्याभिषेक हुआ था, तो भी उन्हें बहुत संकट का अनुभव नहीं हुआ था। यद्यपि युधिष्ठिर का चिंतन उनके बहुत अनुकूल नहीं था; किंतु युधिष्ठिर उनका शिष्य था। और फिर अर्जुन था वहाँ। अर्जुन के बिना युधिष्ठिर हस्तिनापुर पर शासन नहीं कर सकता था; और अर्जुन किन्हीं भी परिस्थितियों में द्रोण का विरोध नहीं कर सकता था। अर्जुन के रहते उन्हें युधिष्ठिर से किसी प्रकार की कोई आशंका नहीं हो सकती थी।... किंतु जब उनकी समझ में आ गया कि धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर को हस्तिनापुर में टिकने नहीं देगा, तो उनके लिए दुर्योधन के निकट हो कर उसे अपने अनुकूल रखना ही, अधिक लाभकारी था। वे भली प्रकार समझते थे कि डूबती नाव में बैठे रहनेवाले लोग नदी के पार नहीं उतरा करते। दुर्योधन भी अपने सहायकों को ढूँढ़ रहा था। अश्वत्थामा से उसकी मित्रता थी ही। उसे आचार्य द्रोण अपना संबल लगने लगे थे...

वारणावत प्रसंग के पश्चात् जब पांडव हस्तिनापुर लौटे थे, तो वे द्रोण के परम शत्रु द्रुपद के जामाता बन चुके थे। द्रोण ने अपने भाग्य को सराहा था कि उन्होंने समय रहते, दुर्योधन का समर्थन आरंभ कर दिया था, अन्यथा वे कहीं के भी न रहते। पांडव, द्रुपद और द्रोण दोनों का एक साथ न तो समर्थन कर सकते थे, न दोनों से एक साथ सहायता पा सकते थे। और अपने ससुर का पक्ष छोड कर पांडव अपने आचार्य का समर्थन कैसे कर सकते थे। दूसरी ओर दुर्योधन, पांडवों के किसी समर्थक को हस्तिनापुर में टिकने नहीं देता।  किन्तु  वे न तो अपने मन में दुर्योधन को अर्जुन का स्थान दे पाए, न दुर्योधन ही उन्हें अर्जुन की सी भक्ति दे पाया। अर्जुन उनसे प्यार करता था, और दुर्योधन उनको अपने लिए उपयोगी मानता था। अश्वत्थामा भी, दुर्योधन का वैसा मित्र नहीं हो पाया, जैसा कि उसे हो जाना चाहिए था। दुर्योधन अपने लाभ की दृष्टि से सारी घटनाओं को देख रहा था।... अश्वत्थामा और अर्जुन में न कोई प्रतिस्पर्धा थी, न ईर्ष्या। तो दुर्योधन अर्जुन के वध के लिए, अश्वत्थामा पर कैसे निर्भर रह सकता था। उसे उस कार्य के लिए कर्ण ही अधिक उपयोगी लगता था। कर्ण की क्षमता किसी भी रूप में अश्वत्थामा से अधिक नहीं थी, किंतु कर्ण के मन में अर्जुन के प्रति जैसी घृणा थी, वैसी अश्वत्थामा के मन में कैसे हो सकती थी। और दुर्योधन के लिए पांडवों के प्रति कर्ण की घृणा, अधिक मूल्यवान थी, कर्ण का धनुष नहीं ।

हस्तिनापुर के सत्ता समीकरण में अन्य लोगों के उतार-चढ़ाव से द्रोण को उतना अंतर नहीं पड़ता था, जितना कर्ण के अभ्युदय से। कर्ण वह व्यक्ति था, जिसे द्रोण ने धनुर्वेद का ज्ञान देना अस्वीकार किया था। उन्होंने कर्ण का तिरस्कार किया था। अब यदि कर्ण दुर्योधन पर अपना प्रभाव जमा लेता है, तो उसका अर्थ है कि सत्ता पर द्रोण के एक विरोधी का प्रभाव। और यह स्थिति हस्तिनापुर में द्रोण के महत्त्व के लिए कभी भी संकटपूर्ण हो सकती थी । अश्वत्थामा ने कक्ष में प्रवेश कर पिता को प्रणाम किया। "क्या समाचार है ?" 

"यह सत्य है पिताजी ! हस्तिनापुर की अधिकांश वाहिनियाँ युद्धाभ्यास कर रही हैं।" "तुमने सेनापति से पूछा कि  यह सब किसकी आज्ञा से हो रहा है ?"

द्रोण ने प्रश्न किया। "युवराज की आज्ञा से।"

"कारण ?"

"अंगराज महावीर कर्ण दिग्विजय के लिए प्रस्थान करनेवाले हैं।" अश्वत्थामा ने बताया ।

द्रोण ने लक्ष्य किया कि अश्वत्थामा ने कर्ण के नाम से पूर्व ये सारे विशेषण सम्मान के कारण नहीं जोड़े थे। वह उसका उपहास कर रहा था।

"हाँ । पांडवों ने दिग्विजय की थी तो दुर्योधन उसके बिना कैसे रह सकता था। अब यह राजसूय यज्ञ भी करना चाहेगा।" द्रोण जैसे सशब्द चिंतन कर रहे थे।

अश्वत्थामा अपने पिता की गंभीर मुद्रा देखता रहा। कुछ बोला नहीं । वह समझ रहा था कि इन शब्दों में दुर्योधन का समर्थन नहीं था।


बुधवार, 22 नवंबर 2023

 भारतीय संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले चौबीस अथवा दस अवतारों  में भगवान राम और कृष्ण का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाले सूर्य और चंद्र कहा जा सकता है। उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे अपने पुण्य-चरित्रों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया है। ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्म-चरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाय। यों सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर भगवान राम और भगवान कृष्ण ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप में बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है ।

राम और कृष्ण की लीलाओं का कथन तथा श्रवण पुण्य माना जाता है। रामायण के रूप में रामचरित्र और भागवत के रूप में कृष्ण चरित्र प्रख्यात है। यों इन ग्रंथों के अतिरिक्त भी अन्य पुराणों में उनकी कथाएँ आती हैं। उनके घटनाक्रमों में भिन्नता एवं विविधता भी है। इनमें से किसी कथानक का कौन सा प्रसंग आज की परिस्थिति में अधिक प्रेरक है यह शोध और विवेचन का विषय है। यहाँ तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि उपरोक्त दोनों ग्रंथ दोनों भगवानों के चरित्र की दृष्टि से अधिक प्रख्यात और लोकप्रिय हैं। उन्हीं में वर्णित कथाक्रम की लोगों को अधिक जानकारी है ।

कथा चरित्रों के माध्यम से लोक शिक्षण अधिक सरल पड़ता है। इस रीति से वह सर्वसाधारण के लिए अधिक बुद्धिगम्य हो जाता है और हृदयंगम भी। तत्वदर्शी मनीषियों ने इस तथ्य को समझा था और जनमानस के परिष्कार के लिए आवश्यक लोक शिक्षण की व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से कथा शैली को अपनाया था। वही सुबोध रही और लोकप्रिय बनी । अस्तु, एक प्रकार से इसी प्रक्रिया के माध्यम से धर्म चर्चा करने की रीति अपनाई गई और सफल भी हुई । वेद चार हैं और चारों को मिलाकर २० हजार मंत्र हैं। पर एक-एक पुराण का आधार विस्तार कहीं अधिक है, जितना कि चारों वेदों का सम्मिलित रूप है । अकेले महाभारत में एक लाख से अधिक श्लोक हैं। स्कंद पुराण भी ८१ हजार श्लोकों का है । उपयोगिता के अनुरूप पुराणों का विस्तार होता ही गया। १८ पुराण बने और इसके बाद १८ उप पुराण । यह विस्तार उस शैली की लोकप्रियता और सफलता पर प्रकाश डालता है ।

भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों में लोक-शिक्षण की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । रामायण और भगवान के कथानकों के माध्यम से जनमानस का परिष्कार और सामाजिक सुव्यवस्था का प्रतिपादन बहुत ही अच्छी तरह किया जा सकता है, किया जाता भी रहा है ।

इस प्रयास प्रचलन में एक त्रुटि यह थी कि कथा-ग्रंथों का श्रवण एवं पाठ मात्र पुण्य फल प्राप्त करने के लिए पर्याप्त बताया जाने लगा था और नाम जप की महिमा आकाश- पाताल जैसी बताई गई थी। साथ ही भक्ति को अमुक कर्मकांडों के बोध (नवधा भक्ति) तक सीमित रखा जा रहा था। इससे कथा-प्रसंगों की उपयोगिता ही नष्ट न हुई वरन उल्टी गंगा बहने लगी । जब श्रवण, पठन, जप और सरलतम कर्मकांडों में कुछ मिनट लगाने से पाप कट सकते हैं, पुण्य फल, ईश्वर का अनुग्रह और मुक्ति जैसी उपलब्धियाँ सहज ही मिल सकती हैं, तो फिर उन कष्ट साध्य आदर्शों को जीवन में उतारने का झंझट मोल क्यों लिया जाय ? सरल कृत्यों का अत्यधिक माहात्म्य बताने की परोक्ष प्रक्रिया यह हुई कि लोगों ने अनाचार से बचने और सदचार को अपनाने के लिए जिस उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की अनिवार्य आवश्यकता है उसकी उपेक्षा आरंभ कर दी। फलतः लोग पाप-कर्मों का दंड मिलने की ओर से निर्भय हो गए। जब पाप अमुक कथा सुनने से नष्ट हो जाते हों और उनका दंड न मिलता हो तो उनके सहारे जो भौतिक लाभ मिल सकते हैं उन्हें क्यों छोड़ा जाय ? इसी प्रकार यदि अति सरल कर्मकांड आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करा सकते हैं तो आदर्श जीवन जीने और लोक मंगल के लिए त्याग, बलिदान के झंझट में पड़ने की क्या जरूरत ? यह उल्टे तर्क लोगों के मन में बैठते चले गए। कथा वाचकों ने इसी सरलता को प्रस्तुत करते हुए शायद सोचा होगा कि इस सरल प्रक्रिया से आकर्षित होकर लोग जल्दी धर्मप्रेमी बनेंगे । पर वैसा होना संभव ही नहीं था और हुआ भी नहीं। छुटपुट क्रिया-कृत्यों की टंट-घंट तो इस प्रलोभन में बहुत फैली पर धर्म की आत्मा का हनन हो गया । धर्माडंबर ओढ़े हुए लोग अपने को पाप दंडों से मुक्त और ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी मानकर चलने लगे । उन्होंने उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व को झंझट कहना आरंभ कर दिया। सरलता के आकर्षण ने उस ओर से मुँह मोड़ लेने के लिए जन साधारण को प्रेरणा दी । इस प्रकार कथा शैली के विकास का मूलभूत आधार ही नष्ट हो गया ।

सीधी धारा को उल्टी बहाया गया यह अनर्थ ही हुआ। अनर्थ को सुधारना, सही करना आवश्यक था । इसके बिना कथाक्रम का लक्ष्य भ्रष्ट ही बना रहता। रामचरित्र और कृष्णचरित्र का वही उद्देश्य और स्वरूप जन साधारण के सामने रखा जाना चाहिए जिसके लिए उनका अवतरण हुआ। धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन यही दो प्रयोजन अवतार के रहे हैं। यह प्रयोजन उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व अपनाए बिना और किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। अवतारों की कथा-गाथाओं में यही तथ्य पग-पग पर उभर रहा है । हमारी कथा शैली की दिशा यही होनी चाहिए। आज धर्म की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए, उसके मूल स्वरूप से जनसाधारण को परिचित कराते हुए धर्मनिष्ठा को प्राणवान बनाने का यही तरीका है। अब कर्मकांडों का अलंकारिक माहात्म्य न बताकर चरित्र निष्ठा को अवतारों के अवतरण का मूल प्रयोजन बताया जाय और उसी के अनुगमन की दिशा में लोक मानस को प्रोत्साहित किया जाय ।

एक अन्य विकृति कथा-शैली में और भी घुस पड़ी थी जिसमें चरित्र नायकों के जीवन क्रम में ऐसी घटनाएँ जोड़ दी गई थीं जो नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन और अवांछनीय आचरण के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लोग गुणाग्रही कम और दोषों के अनुकरण में कुशल होते हैं। जहाँ भी देवताओं, अवतारों, ऋषियों, महामानवों के चरित्रों में दोष की बात सुनते हैं, वहाँ न केवल अश्रद्धा करते हैं, वरन अपनी पथ-भ्रष्टता को सरल स्वाभाविक सिद्ध करने के लिए उन चरित्रों का संदर्भ देते हैं, जो महामानवों के लीला प्रसंग में जोड़ दिए गए हैं। दुःख की बात यह है कि कथावाचक उन्हीं को लोक रंजन की दृष्टि से चटपटा बनाकर कहते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे धर्ममंच से किन अवांछनीय प्रेरणाओं का प्रवाह बहा रहे हैं।

कथा शौली के माध्यम से लोक-शिक्षण भारत की वर्तमान मनोभूमि एवं आवश्यकताओं को देखते हुए एक नितांत उपयोगी और वांछनीय प्रक्रिया है। 

- श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

शादी करना जहां एक खूबसूरत और अनोखा एहसास होता है, वहीं इस फैसले के साथ आपके मन में एक सवाल भी आता है। वो सवाल यह है कि एक सही जीवन साथी कैसा होना चाहिए? हमारे लाइफ पार्टनर में वो कौन-सी बातें होनी चाहिए, जिससे हमारी जिंदगी सुख और शांति से गुजरे? हर कोई चाहता है कि उसका जीवन साथी जिंदगी में हर कदम पर साथ खड़ा रहे और हर चुनौती को अवसर में बदलना जानता हो। 

 पति-पत्नी का अस्तित्व दो शरीर और एक आत्मा का स्वरुप होता है। उनमे से किसी एक के भी स्वतंत्र रूप से सुखी रहने की आशा कम ही की जाती है। सच्चा जीवनसाथी  वही है जो अपने पति या पत्नी के लिये अपनी अभिलाषाओं, अपने सुखों का त्याग कर सके, उसके दुःख को अपना दुःख मानते हुए हरदम उसका साथ निभाये। उसकी उन्नति और प्रगति के लिये प्रयासरत रहे, उससे प्यार करे, सम्मान दे, और सबसे बढकर उसे अपने जीवन लक्ष्य को पाने में हरसंभव सहयोग दे।

मान-सम्मान सभी के लिए उन अभूषणो की तरह है जो बहुत ही कीमती है, यदि आपका जीवन साथी आपका अत्यधिक सम्मान करता है व आपके साथ-साथ परिवार के अन्यों व्यक्तियों का भी उसी तरह सम्मान करता है तो वह /वो आपसे असीम प्रेम करता है, यदि आपका जीवन साथी आपको प्यार तो जताते है परंतु सम्मान नहीं करते व बात-बात पर आपको गाली देते है व आपके चरित्र पे लांछन लगाते है तो वह व्यक्ति आपको ज़िंदगी में कभी खुश नहीं रख पाएगा सच्चे प्रेम की नींव सम्मान से है।

सच्चा जीवन साथी आपके बुरे वक्त मे एक सेकंड के लिए भी आपका साथ नहीं छोड़ेगा, यदि आप बीमार है या कोई भी ऐसी दुर्घटना घटित होती है आपके साथ तब आपका सच्चा प्रेम आपको इग्नोर नहीं करेगा आपके हर कदम पर आपसे कहेगा घबराओ मत मैं हू ना सब ठीक हो जाएगा।

यदि आपके जीवन साथी में उपरोक्त गुण पाए है तो आप इस दुनिया के उन भाग्यशाली  इंसानों में से है। आप स्वयं को गोरान्वित महसूस कर सकते हैं। सौभाग्य से मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे ऐसा जीवन साथी मिला।

अनजान राही की तरह मिलें। सफ़र जैसे जैसे आगे बढ़ा तो लगने लगा हम एक दूसरे के लिए ही बने हैं। आज बाराह सदस्यों  का परिवार एक दूसरे के सुख-दुख में एक साथ खड़ा रहता है।यह सब मेरे हमसफ़र की परवरिश से सम्भव हो सका है।

“जीवनसाथी वो है जो हमें हमसे भी अधिक प्यार करता है।”



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...