बुधवार, 22 नवंबर 2023

 भारतीय संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले चौबीस अथवा दस अवतारों  में भगवान राम और कृष्ण का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाले सूर्य और चंद्र कहा जा सकता है। उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे अपने पुण्य-चरित्रों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया है। ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्म-चरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाय। यों सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर भगवान राम और भगवान कृष्ण ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप में बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है ।

राम और कृष्ण की लीलाओं का कथन तथा श्रवण पुण्य माना जाता है। रामायण के रूप में रामचरित्र और भागवत के रूप में कृष्ण चरित्र प्रख्यात है। यों इन ग्रंथों के अतिरिक्त भी अन्य पुराणों में उनकी कथाएँ आती हैं। उनके घटनाक्रमों में भिन्नता एवं विविधता भी है। इनमें से किसी कथानक का कौन सा प्रसंग आज की परिस्थिति में अधिक प्रेरक है यह शोध और विवेचन का विषय है। यहाँ तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि उपरोक्त दोनों ग्रंथ दोनों भगवानों के चरित्र की दृष्टि से अधिक प्रख्यात और लोकप्रिय हैं। उन्हीं में वर्णित कथाक्रम की लोगों को अधिक जानकारी है ।

कथा चरित्रों के माध्यम से लोक शिक्षण अधिक सरल पड़ता है। इस रीति से वह सर्वसाधारण के लिए अधिक बुद्धिगम्य हो जाता है और हृदयंगम भी। तत्वदर्शी मनीषियों ने इस तथ्य को समझा था और जनमानस के परिष्कार के लिए आवश्यक लोक शिक्षण की व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से कथा शैली को अपनाया था। वही सुबोध रही और लोकप्रिय बनी । अस्तु, एक प्रकार से इसी प्रक्रिया के माध्यम से धर्म चर्चा करने की रीति अपनाई गई और सफल भी हुई । वेद चार हैं और चारों को मिलाकर २० हजार मंत्र हैं। पर एक-एक पुराण का आधार विस्तार कहीं अधिक है, जितना कि चारों वेदों का सम्मिलित रूप है । अकेले महाभारत में एक लाख से अधिक श्लोक हैं। स्कंद पुराण भी ८१ हजार श्लोकों का है । उपयोगिता के अनुरूप पुराणों का विस्तार होता ही गया। १८ पुराण बने और इसके बाद १८ उप पुराण । यह विस्तार उस शैली की लोकप्रियता और सफलता पर प्रकाश डालता है ।

भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों में लोक-शिक्षण की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । रामायण और भगवान के कथानकों के माध्यम से जनमानस का परिष्कार और सामाजिक सुव्यवस्था का प्रतिपादन बहुत ही अच्छी तरह किया जा सकता है, किया जाता भी रहा है ।

इस प्रयास प्रचलन में एक त्रुटि यह थी कि कथा-ग्रंथों का श्रवण एवं पाठ मात्र पुण्य फल प्राप्त करने के लिए पर्याप्त बताया जाने लगा था और नाम जप की महिमा आकाश- पाताल जैसी बताई गई थी। साथ ही भक्ति को अमुक कर्मकांडों के बोध (नवधा भक्ति) तक सीमित रखा जा रहा था। इससे कथा-प्रसंगों की उपयोगिता ही नष्ट न हुई वरन उल्टी गंगा बहने लगी । जब श्रवण, पठन, जप और सरलतम कर्मकांडों में कुछ मिनट लगाने से पाप कट सकते हैं, पुण्य फल, ईश्वर का अनुग्रह और मुक्ति जैसी उपलब्धियाँ सहज ही मिल सकती हैं, तो फिर उन कष्ट साध्य आदर्शों को जीवन में उतारने का झंझट मोल क्यों लिया जाय ? सरल कृत्यों का अत्यधिक माहात्म्य बताने की परोक्ष प्रक्रिया यह हुई कि लोगों ने अनाचार से बचने और सदचार को अपनाने के लिए जिस उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की अनिवार्य आवश्यकता है उसकी उपेक्षा आरंभ कर दी। फलतः लोग पाप-कर्मों का दंड मिलने की ओर से निर्भय हो गए। जब पाप अमुक कथा सुनने से नष्ट हो जाते हों और उनका दंड न मिलता हो तो उनके सहारे जो भौतिक लाभ मिल सकते हैं उन्हें क्यों छोड़ा जाय ? इसी प्रकार यदि अति सरल कर्मकांड आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करा सकते हैं तो आदर्श जीवन जीने और लोक मंगल के लिए त्याग, बलिदान के झंझट में पड़ने की क्या जरूरत ? यह उल्टे तर्क लोगों के मन में बैठते चले गए। कथा वाचकों ने इसी सरलता को प्रस्तुत करते हुए शायद सोचा होगा कि इस सरल प्रक्रिया से आकर्षित होकर लोग जल्दी धर्मप्रेमी बनेंगे । पर वैसा होना संभव ही नहीं था और हुआ भी नहीं। छुटपुट क्रिया-कृत्यों की टंट-घंट तो इस प्रलोभन में बहुत फैली पर धर्म की आत्मा का हनन हो गया । धर्माडंबर ओढ़े हुए लोग अपने को पाप दंडों से मुक्त और ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी मानकर चलने लगे । उन्होंने उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व को झंझट कहना आरंभ कर दिया। सरलता के आकर्षण ने उस ओर से मुँह मोड़ लेने के लिए जन साधारण को प्रेरणा दी । इस प्रकार कथा शैली के विकास का मूलभूत आधार ही नष्ट हो गया ।

सीधी धारा को उल्टी बहाया गया यह अनर्थ ही हुआ। अनर्थ को सुधारना, सही करना आवश्यक था । इसके बिना कथाक्रम का लक्ष्य भ्रष्ट ही बना रहता। रामचरित्र और कृष्णचरित्र का वही उद्देश्य और स्वरूप जन साधारण के सामने रखा जाना चाहिए जिसके लिए उनका अवतरण हुआ। धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन यही दो प्रयोजन अवतार के रहे हैं। यह प्रयोजन उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व अपनाए बिना और किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। अवतारों की कथा-गाथाओं में यही तथ्य पग-पग पर उभर रहा है । हमारी कथा शैली की दिशा यही होनी चाहिए। आज धर्म की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए, उसके मूल स्वरूप से जनसाधारण को परिचित कराते हुए धर्मनिष्ठा को प्राणवान बनाने का यही तरीका है। अब कर्मकांडों का अलंकारिक माहात्म्य न बताकर चरित्र निष्ठा को अवतारों के अवतरण का मूल प्रयोजन बताया जाय और उसी के अनुगमन की दिशा में लोक मानस को प्रोत्साहित किया जाय ।

एक अन्य विकृति कथा-शैली में और भी घुस पड़ी थी जिसमें चरित्र नायकों के जीवन क्रम में ऐसी घटनाएँ जोड़ दी गई थीं जो नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन और अवांछनीय आचरण के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लोग गुणाग्रही कम और दोषों के अनुकरण में कुशल होते हैं। जहाँ भी देवताओं, अवतारों, ऋषियों, महामानवों के चरित्रों में दोष की बात सुनते हैं, वहाँ न केवल अश्रद्धा करते हैं, वरन अपनी पथ-भ्रष्टता को सरल स्वाभाविक सिद्ध करने के लिए उन चरित्रों का संदर्भ देते हैं, जो महामानवों के लीला प्रसंग में जोड़ दिए गए हैं। दुःख की बात यह है कि कथावाचक उन्हीं को लोक रंजन की दृष्टि से चटपटा बनाकर कहते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे धर्ममंच से किन अवांछनीय प्रेरणाओं का प्रवाह बहा रहे हैं।

कथा शौली के माध्यम से लोक-शिक्षण भारत की वर्तमान मनोभूमि एवं आवश्यकताओं को देखते हुए एक नितांत उपयोगी और वांछनीय प्रक्रिया है। 

- श्रीराम शर्मा आचार्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...