गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 9

  वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।। 10।।


और हे अर्जुन! पहले भी राग, भय और क्रोध से रहित, अनन्य भाव से मेरे में स्थित रहने वाले, मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष, ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।



और पहले भी राग के ऊपर उठे, क्रोध से मुक्त हुए, मोह के पाश के बाहर, तप से पवित्र हुए पुरुष मेरे शरीर को उपलब्ध हो चुके हैं!

राग के पार हुए, वीतराग हुए। वीतराग शब्द गहरा है और बहुत अर्थपूर्ण है। वीतराग का अर्थ वैराग्य नहीं है। वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। विराग का अर्थ है, राग के विपरीत हुआ। वीतराग का अर्थ है, राग के पार हुआ।

राग का अर्थ है, एक आदमी धन के पीछे पागल है। धन को पकड़ता है। धन देखता है, तो लार टपक-टपक जाती है। रात-दिन गिनता ही रहता है! विराग का अर्थ है, धन के विपरीत हुआ; धन से भागता है। कोई धन उसके सामने करे, तो आंख फेर लेता है। कोई रुपया उसके पास रखे, तो छलांग लगाकर खड़ा हो जाता है।


राग धन को पकड़ता है, विराग धन को छोड़ता है। विराग, विपरीत राग है; उलटा हुआ राग है। राग स्त्री के पीछे दौड़ता, पुरुष के पीछे दौड़ता; विराग स्त्री से भागता, पुरुष से भागता; लेकिन दोनों का केंद्र एक ही है। हां, कोई उसकी तरफ भागता, कोई उससे पीठ करके भागता, लेकिन वही दोनों के ध्यान में है। दोनों की अटेंशन, दोनों की एकाग्रता वही है। दोनों की एकाग्रता में भेद नहीं है।

जो आदमी स्त्री के पीछे भागता, उस आदमी की एकाग्रता, और जो आदमी स्त्री को छोड़कर भागता, उस आदमी की एकाग्रता में भेद नहीं है। उनका कनसनट्रेशन एक है--स्त्री। जो आदमी स्त्री के लिए पागल है, उसके मन में भी स्त्री के चित्र चलते हैं। या जो स्त्री आदमी के लिए पागल है, उसके मन में पुरुष के चित्र चलते हैं। और जो छोड़कर भागता है, विपरीत रूप से पागल हो जाता है, उसके मन में भी चित्र चलते हैं।

वीतराग का अर्थ है, पार हुआ। वीतराग तीसरी बात है। न राग, न विराग। जो राग और विराग दोनों के पार होता है, वह वीतराग है। जिसके लिए बात बस व्यर्थ हो जाती है।

ध्यान रहे, जो आदमी कहता है, मैं धन का त्याग कर रहा हूं, धन उसे व्यर्थ नहीं हुआ; धन उसे अभी भी सार्थक है। जो आदमी कहता है, मैं लाखों त्याग किया हूं, उसके लिए भी व्यर्थ नहीं हुआ; अभी उसके लिए भी धन सार्थक है, मीनिंगफुल है। हां, मीनिंग बदल गया, अर्थ बदल गया। पहले तिजोरी में बंद करने का अर्थ था, अब त्याग करने का अर्थ है; लेकिन अर्थ है। जो आदमी तिजोरी में बंद कर रहा था, वह भी कह रहा था, मेरे पास इतने लाख हैं; और जिस आदमी ने त्याग किया, वह भी कह रहा है, मैंने इतने लाख का त्याग किया। लेकिन धन दोनों के लिए मूल्यवान है, वेल्युएबल है।

वीतराग वह है, जो कहता है, धन में कुछ अर्थ ही नहीं। न मैं तिजोरी में बंद करता, न मैं त्यागता। धन में कुछ अर्थ नहीं। जिसके लिए धन बस मिट्टी जैसा हो गया। जिसके लिए धन मिट्टी जैसा हो गया, वह त्याग के अहंकार से भी नहीं भरता है।

कृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है--बियांड। वीतराग का अर्थ है, बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के दूसरे छोर पर सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत नहीं होता।

कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। वीतराग, वीतभय, वीतक्रोध; जो इन सबके पार हो जाता है। वीतलोभ। वह तीसरा ही आयाम है। 

तीन आयाम हैं जगत में। किसी चीज के प्रति राग, अर्थात उसे पास रखने की इच्छा। किसी चीज के प्रति विराग, अर्थात उसे पास न रखने की इच्छा। और किसी चीज के प्रति वीतराग, अर्थात वह पास हो या दूर, अर्थहीन; उससे भेद नहीं पड़ता।

इसलिए एक बहुत अदभुत घटना घटती है मनुष्य के मन में। और वह घटना यह घटती है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे कभी-कभी इंटरवल्स में, बीच-बीच में छुट्टी भी लेते हैं। बीच-बीच में उनका मन आता है, छोड़ो सब; कुछ सार नहीं है। तेईस घंटे दुकान पर होते हैं; कभी घंटेभर मंदिर भी हो आते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, इससे उलटी घटना भी घटती है। जो चौबीस घंटे मंदिर में रहता है, उसका मन भी घंटे दो घंटे को बाजार में आ जाता है। वह भी छुट्टी लेता है। भला हिम्मत न हो, खुद न आ पाता हो, लेकिन मन आ जाता है।

विरागी भी छुट्टी पर होते हैं। चौबीस घंटे विरागी होना मुश्किल है। चौबीस घंटे रागी होना मुश्किल है। क्योंकि मन थक जाता है, ऊब जाता है एक ही चीज से। इसलिए जो रागी हैं, वे अक्सर विराग के सपने देखते हैं; और जो विरागी हैं, वे राग के सपने देखते हैं। जो रागी हैं, वे कई बार सोचते हैं, सब छोड़-छाड़कर चले जाएं; सब बेकार है। जो विरागी हैं, वे कई बार सोचते हैं कि बड़ी मुश्किल में पड़ गए; नाहक छोड़-छाड़कर आ गए। इसमें कुछ सार नहीं है, इस छोड़ने-छाड़ने में कुछ अर्थ नहीं है।

मन द्वंद्वों में डोलता रहता है। विश्राम चाहता है मन। इसलिए बुरे आदमियों के भी अच्छे क्षण होते हैं, और अच्छे आदमियों के भी बुरे क्षण होते हैं। ऐसा बुरा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अच्छे क्षण न होते हों। और कभी-कभी बुरे आदमी अच्छे क्षणों में साधुओं को पार कर जाते हैं। और अच्छे आदमी भी खोजने मुश्किल हैं, जिनके बुरे क्षण न होते हों। और अच्छे आदमी भी, जब उनके बुरे क्षण होते हैं, तो असाधुओं को पार कर जाते हैं।

उसका कारण है। क्योंकि जो आदमी तेईस घंटे कोशिश करके अच्छा है, जब वह एक घंटे बुरा होगा, तो साधारण बुरा नहीं होगा। तेईस घंटे का बदला एक घंटे में चुकाना पड़ेगा। और जो आदमी तेईस घंटे बुरा है, वह जब एक घंटे के लिए अच्छा होगा, तो साधारण अच्छा नहीं होगा; अतिशय अच्छा हो जाएगा। तेईस घंटे की रुकी हुई अच्छाई बदला मांगती है।

कृष्ण इन दोनों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, वीतराग। वीतराग को कभी छुट्टी नहीं लेनी पड़ती है, क्योंकि वीतराग द्वंद्व में नहीं होता। इसलिए सिर्फ वीतरागी पुरुष चौबीस घंटा एक-रस हो सकता है; न रागी हो सकता है, न विरागी हो सकता है। सिर्फ वीतराग एक-रस हो सकता है।

वीतराग ऐसा होता है, जैसे हम सागर को कहीं से भी चखें, और वह नमकीन है। बस, ऐसा वीतरागी होता है; उसे हम कहीं से भी चखें, वह एक ही स्वाद है उसका। वह वेश्या के गृह में बैठकर भी वही होता है, जो प्रभु के मंदिर में बैठकर होता है। वह वेश्यागृह से भी नहीं डरता, मंदिर के लिए भी लोलुप नहीं होता। असल में इतना आश्वस्त होता है अपने में कि अब उसका न कोई भय है, न कोई लोभ है। इतना आश्वस्त, अपने में इतना भरोसे से भरा हुआ कि छुट्टी का उसे डर ही नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग होता, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। इसमें बड़े मजे की बात है। वे कह रहे हैं, मेरे शरीर को। अच्छा न होता क्या कि वे कहते, मेरी आत्मा को! लेकिन वे कहते हैं, मेरे शरीर को, टु माई बाडी। अच्छा होता न कि वे कहते, मेरी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

क्या राज है? राज बड़ा है।

यह जो ब्रह्मांड है, यह जो विश्व है, यह शरीर है परमात्मा का। यह जो दृश्य चारों ओर फैला है, यह शरीर है। ये चांदत्तारे, यह सूरज, यह अरबों-अरबों प्रकाश वर्ष की दूरियों तक फैला हुआ एक्सपैंशन जो है, यह जो विस्तार है...।

क्या कभी आपने सोचा कि ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार, वृहत, जो फैलता ही चलता गया; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है। ब्रह्म बड़ा साइंटिफिक शब्द है, बहुत वैज्ञानिक--धार्मिक बहुत कम। ब्रह्म शब्द धार्मिक जरा भी नहीं, बिलकुल वैज्ञानिक टरमिनालाजी है। ब्रह्म का मतलब है, जो फैलता ही गया है, दि एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है; जिसके फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। इस फैले हुए का नाम ब्रह्म है।

इस फैले हुए, दिखाई पड़ने वाले अस्तित्व को कृष्ण कहते हैं, मेरा शरीर। जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

क्यों? आत्मा को तो हम उपलब्ध ही हैं, हमारी भूल सिर्फ शरीर की है। कृष्ण की आत्मा को तो हम अभी भी उपलब्ध हैं, लेकिन हम अपने-अपने शरीरों में अपने को बंद मान रहे हैं, वह हमारी भूल है। इसलिए कृष्ण आत्मा की बात नहीं करते। उसको तो हम उपलब्ध ही हैं, सिर्फ यह शरीर की भूल भर टूट जाए हमारी। हमें किसी दिन यह पूरा ब्रह्मांड अपना शरीर मालूम पड़ने लगे, बस।

आत्मा तो हम अभी भी हैं। आत्मा तो हमारी इस अज्ञान के क्षण में भी कृष्ण का हिस्सा है। हमारी भ्रांति है शरीर की सीमा की। अगर शरीर की सीमा की भ्रांति टूट जाए, और हम कृष्ण के शरीर को--कृष्ण का शरीर अर्थात ब्रह्मांड को--उपलब्ध हो जाएं, तो बात पूरी हो जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

शरीर का क्या अर्थ है? शरीर का अर्थ है, आत्मा का आवरण। शरीर का अर्थ है, आत्मा का गृह। अंग्रेजी का शब्द बाडी बहुत अच्छा है। जिसके भीतर आत्मा एंबाडीड है, जिसके भीतर शरीर छिपा है।

यह जो हमारा शरीर, हमें लगता है, मेरा शरीर! यह हमें क्यों लगता है? राग के कारण, विराग के कारण। अगर राग और विराग दोनों छूट जाएं, तो यह मेरा शरीर है, ऐसा नहीं लगेगा। तब सब शरीर मेरे हैं। तब चांदत्तारे मेरे शरीर के भीतर हो जाएंगे; तब मेरी जो चमड़ी है, वह असीम को छू लेगी।

ब्रह्म के शरीर को उपलब्ध होना या अपने शरीर को भूल जाना, एक ही बात है। जो व्यक्ति अपने शरीर की सीमा को भूल जाता है, वह ब्रह्म के शरीर की सीमा के स्मरण से भर जाता है।

यह शरीर मेरा है, यह हमारे राग और विराग के कारण है। जब तक कोई चीज मेरी है और कोई चीज तेरी है, तब तक यह शरीर मेरा है। अगर ठीक से समझें, तो मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। बहुत मनोवैज्ञानिक अर्थों में मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। जहां तक मेरे का भाव है, वहां तक शरीर है। अगर मेरे का भाव बड़ा हो जाए, इतना बड़ा हो जाए कि वह ब्रह्म को घेर ले, ब्रह्मांड के साथ एक हो जाए, तो फिर सभी कुछ मेरा शरीर है। वस्तुतः सभी कुछ शरीर है--वस्तुतः। लेकिन हमारी एक भ्रांति है।

किस जगह आप अपने शरीर को समाप्त मानते हैं? किस जगह? चमड़ी पर अपने शरीर को आप समाप्त मानते हैं। लेकिन आपकी चमड़ी हवा के बिना एक क्षण जी सकती है? नहीं जी सकती। तो हवा भी आपकी चमड़ी के पार की एक पर्त है आपके शरीर की। उसके बिना आप नहीं जी सकते। हवा की पर्त अगर हटा ली जाए, तो आप जी नहीं सकते। जिसके बिना आप नहीं जी सकते, वह आपका शरीर है। जिसके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा, वह आपका शरीर है।

यह चारों तरफ हवा की जो पर्त है, वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना आप नहीं जी सकते। दो सौ मील तक पृथ्वी के चारों तरफ हवा की पर्त है। लेकिन वह हवा की पर्त भी नहीं जी सकती, अगर उसके पास सूरज की किरणों का जाल न हो। वह हवा भी नहीं जी सकती। फिर दस करोड़ मील दूर तक सूरज की किरणों का जाल है; वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना भी आप नहीं जी सकते।

वहां सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। हमको पता भी नहीं चलेगा कि हम ठंडे हो गए, क्योंकि पता चलने के लिए भी हमारा बचना जरूरी है। इसलिए सूरज जब ठंडा होगा, तो हम लिखने के लिए बचेंगे नहीं; अखबार में खबर न निकाल पाएंगे कि सूरज ठंडा हो गया। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। सूरज दस करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज की गर्मी हमारी पर्त है शरीर की। हम एंबाडीड हैं; सूरज की पर्त के भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर है।

लेकिन सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों से उसे दिन-रात शक्ति न मिलती हो। हमारा सूरज बड़ा छोटा है। ऐसे बहुत बड़ा है; हमसे बहुत बड़ा लगता है। पृथ्वी से कोई साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और सूर्यों के मुकाबले बहुत मीडियाकर है, बहुत छोटा सूरज है। रात को जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे महासूर्य हैं। हमारा सूरज कोई तीन-चार अरब महासूर्यों की भीड़ में एक छोटा-सा सूरज है, बहुत मीडियाकर, बहुत मध्यमवर्गीय। कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। उससे करोड़ों बड़े सूर्य हैं। अगर उन सूर्यों से उसे दिन-रात ऊर्जा न मिलती हो, तो वह कभी का ठंडा हो जाए। वे भी हमारा शरीर हैं।

हमारा शरीर समाप्त कहां होता है? जहां ब्रह्मांड समाप्त होता हो, वहीं समाप्त होता है। उसके पहले समाप्त नहीं होता।

एक छोटे-से फूल के खिलने में पूरा ब्रह्मांड सहयोगी है। एक छोटा-सा फूल खिलता है घास का। इस घास के फूल के खिलने में अरबों-खरबों मील दूर बैठे हुए महासूर्यों का हाथ है; वे इसका शरीर हैं। उनके बिना यह न हो सके।

तों कृष्ण कहते हैं कि जो वीतराग हो जाता है, जो मेरेत्तेरे के भाव से उठ जाता है; जो आकर्षण-विकर्षण के पार हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

मेरे शरीर का अर्थ है, समस्त ब्रह्मांड उसका शरीर बन जाता है। और जब ब्रह्मांड शरीर बनता है, तभी हमें ब्रह्म का पता चलता है कि हम कौन हैं! मैं कौन हूं, हमें तब तक पता न चलेगा--निश्चित ही, जिन्हें अपने शरीर का भी पता नहीं, उन्हें अपनी आत्मा का क्या पता होगा? जिन्हें शरीर का ही पता नहीं, उन्हें आत्मा का पता न हो सकेगा। जो अपने शरीर के संबंध में ही अज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा के संबंध में ज्ञानी कैसे हो सकेंगे?

इसलिए कृष्ण का कहना बहुत अर्थपूर्ण है कि वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाते हैं। और अर्जुन से वे कहते हैं कि तुझसे जो मैं कह रहा हूं, उससे पहले भी जिन-जिन पुरुषों ने वीतरागता पाई, वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो गए हैं, वे मेरे साथ एक हो गए हैं।

दुई, दो का भाव भ्रम है, लेकिन बड़ा गहरा है। बड़ा गहरा है। लगता है कि हम अलग हैं। यह हमारा अलग होना बड़ी से बड़ी भ्रांति, दि ग्रेटेस्ट इलूजन है। हम अलग जरा भी नहीं हैं। एक क्षण को भी नहीं हैं। एक क्षण को भी हमें अलग कर दिया जाए, और हम विलीन हो जाएंगे; हम बचेंगे नहीं।

हमारे अलग होने की भ्रांति वैसी है, जैसे कि नदी की छाती पर एक बबूला। पानी का बबूला उठ आया। तैर रहा है, चल रहा है, फिर रहा है, सूरज की किरणों में चमक रहा है। उस बबूले को भी लगता है, मैं अलग।

जरा भी अलग नहीं है। जरा अलग करें नदी से और पता चलेगा, कहीं भी न रहा। नदी के पानी की जरा पतली-सी पर्त उसका शरीर थी; वह पानी में खो गई। हवा का छोटा-सा आयतन उसके भीतर कैद था, वह मुक्त होकर हवा में मिल गया। बस, हम नदी पर तैरते हुए बबूलों की भांति अलग हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तुझसे पहले भी, कभी भी, पर जिसने भी जान लिया है इस सत्य को, वह मेरे शरीर को, वह ब्रह्मांड के साथ एक हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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