गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 31

  

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।। 32।।



ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं। उन सबको शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान। इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्मयोग द्वारा संसार-बंधन से मुक्त हो जाएगा।



इन सारे यज्ञों के द्वारा, इन सारे यज्ञों को करते हुए, निष्काम कर्म के भाव से दृष्टारूप हुआ व्यक्ति मुक्त हो जाता है।

यह सूत्र कनक्लूसिव है। वह जो भी कहा है इसके पहले, उसकी निष्पत्ति है। निष्पत्ति में, जीवन के समस्त कर्मों को कामना के कारण नहीं, निष्कामना के आधार पर करते हुए, यह आधार है निष्पत्ति का। दो बातें आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।

एक, हम एक ही तरह के कर्म को जानते हैं अब तक। वह कर्म है, सकाम। बिना कामना के हमने कोई कर्म कभी जाना नहीं। इसीलिए तो हमने आनंद कभी जाना नहीं। सिवाय दुख के हमारा कोई परिचय नहीं है।


सकाम कर्म की एक खूबी है, जब तक नहीं पूरा होता, तब तक सुख की आशा रहती है। जब पूरा होता है, दुख के फल हाथ में आते हैं। निष्काम कर्म की एक खूबी है, जब तक करते हैं, तब तक कामना और आशा से शून्य होना पड़ता है; और जब कर्म पूरा हो जाता है, तो आनंद से भर जाते हैं, आपूरित हो जाते हैं।

सकाम कर्म को हम भलीभांति जानते हैं। हम सब ने सकाम कर्म किए हैं। हमने प्रेम किया, तो सकाम। हमने मित्रता की, तो सकाम। हमने दुकान चलाई, तो सकाम। हमने प्रार्थना भी की, तो सकाम। हम प्रभु के मंदिर में भी खड़े हुए, तो कामना को लेकर। हमने यज्ञ भी किया, तो कामना को लेकर। हमने भजन भी किया, तो भी कामना को लेकर। हमारा अनुभव कामना का अनुभव है। निष्पत्ति भी हमारी दुख की निष्पत्ति है। इतना हम भी जानते हैं।

कृष्ण जो कहते हैं, वह इससे उलटी बात कहते हैं।

हमारा अनुभव यह है कि हमने जहां-जहां कामना के फूल को तोड़ना चाहा, वहीं-वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां-जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढ़ाया, फूल दिखाई पड़ा जब तक, हाथ में न आया; जब हाथ में आया, तो सिर्फ लहू, खून; कांटा चुभा; फूल तिरोहित हो गया।

लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, अनुभव से सदा गलत सीखता है। सीखता नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं। सीखता है; गलत सीखता है।

अगर हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया और कांटा हाथ में आया, तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ हाथ बढ़ा दिया; अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊं। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है। यह नहीं सीखता।

और साधारण आदमियों का तो हम छोड़ दें। राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे हैं। स्वर्णमृग दिखाई पड़ जाता है। स्वर्णमृग! सोने का हिरण! होता नहीं। पर जो नहीं होता, वह दिखाई पड़ सकता है। जिंदगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। और जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है।

स्वर्णमृग दिखाई पड़ता है राम को। उठा लेते हैं धनुष-बाण। सीता कहती है, जाओ, ले आओ। निकल पड़ते हैं स्वर्णमृग को मारने। यह कथा बड़ी मीठी है! राम स्वर्णमृग को मारने निकल पड़ते हैं! सोने का मृग कहीं होता है?

लेकिन आपको भी दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाए। असली मृग हो, तो रुक भी जाएं; सोने का मृग दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाएगा।

हम सभी तो सोने के मृग के पीछे भटकते हैं। एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है। और हम सबके भीतर की सीता उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ।

हम सबके भीतर की कामना, हम सबके भीतर की वासना, हम सबके भीतर की डिजायरिंग कहती है भीतर की शक्ति को, ऊर्जा को, राम को--कि जाओ। इच्छा है सीता; शक्ति है राम। कहती है, जाओ, स्वर्णमृग को ले आओ। दौड़ते फिरते हैं। स्वर्णमृग हाथ में न आए, तो लगता है कि अपनी कोशिश में कुछ कमी रह गई। और दौड़ो। स्वर्णमृग को तीर मारो; गिर जाए, न लगे, तो लगता है और विषधर तीर बनाओ। लेकिन यह खयाल में नहीं आता कि स्वर्ण का मृग होता ही नहीं है।

कामना के फूल आकाश-कुसुम हैं; होते नहीं हैं; आकाश के फूल हैं। जैसे धरती पर तारे नहीं होते, वैसे आकाश में फूल नहीं होते हैं। कामना के कुसुम या तो धरती के तारे हैं या आकाश के फूल।

सकाम हमारी दौड़ है। बार-बार थककर, गिर-गिरकर भी, बार-बार कांटे से उलझकर भी फूल की आकांक्षा नहीं जाती है। दुख हाथ लगता है। लेकिन कभी हम दूसरा प्रयोग करने का नहीं सोचते।

कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से...।

बड़ा मजा है। निष्काम भाव से कांटा भी पकड़ा जाए, तो पकड़ने पर पता चलता है कि फूल हो गया! ऐसा ही पैराडाक्स है। ऐसा जिंदगी का नियम है। ऐसा होता है।

आपने एक अनुभव तो करके देख लिया। फूल को पकड़ा और कांटा हाथ में आया, यह आप देख चुके। और अगर ऐसा हो सकता है कि फूल पकड़ें और कांटा हाथ में आए, तो उलटा क्यों नहीं हो सकता है कि कांटा पकड़ें और फूल हाथ में आ जाए? क्यों नहीं हो सकता? अगर यह हो सकता है, तो इससे उलटा होने में कौन-सी कठिनाई है!

हां, जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, होता है।

तो एक प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे में एकाध काम निष्काम करके देखें। पूरा तो करना मुश्किल है, एकाध काम। चौबीस घंटे में एक काम सिर्फ, निष्काम करके देखें। छोटा-सा ही काम; ऐसा कि जिसका कोई बहुत अर्थ नहीं होता। रास्ते पर किसी को बिलकुल निष्काम नमस्कार करके देखें। इसमें तो कुछ खर्च नहीं होता! लेकिन लोग निष्काम नमस्कार तक नहीं कर सकते हैं!

नमस्कार तक में कामना होती है। मिनिस्टर है, तो नमस्कार हो जाती है! पता नहीं, कब काम पड़ जाए। मिनिस्टर नहीं रहा अब, एक्स हो गया, तो कोई उसकी तरफ देखता ही नहीं। वही नमस्कार करता है। वह इसलिए नमस्कार करता है कि अब फिर कभी न कभी काम पड़ सकता है।

कामना के बिना नमस्कार तक नहीं रही! कम से कम नमस्कार तो बिना कामना के करके देखें। और हैरान हो जाएंगे। अगर साधारण से जन को भी, राहगीर को भी, अपरिचित को भी, भिखारी को भी हाथ जोड़कर नमस्कार कर ली, बिना कामना के, तो भीतर तत्काल पाएंगे कि आनंद की एक झलक आ गई। सिर्फ नमस्कार भी--कोई बड़ा कृत्य नहीं, कोई बड़ी डीड नहीं, कुछ नहीं--सिर्फ हाथ जोड़े निष्काम, और भीतर पाएंगे कि एक लहर शांति की दौड़ गई। एक अनुग्रह, एक ईश्वर की कृपा भीतर दौड़ गई।

और अगर अनुभव आने लगे, तो फिर बड़े काम में भी निष्काम होने की भावना जगने लगेगी। जब इतने छोटे काम में इतनी आनंद की पुलक पैदा होती है, तो जितना बड़ा काम होगा, उतनी बड़ी आनंद की पुलक पैदा होगी। फिर तो धीरे-धीरे पूरा जीवन निष्काम होता चला जाता है।

इन सब यज्ञों को करते हुए जो व्यक्ति निष्काम भाव में जीता है...।

जीवन ही यज्ञ है। अगर कोई निष्काम भाव में जी सके, तो वह मुक्त हो जाता है। मुक्त--समस्त बंधनों से, दुखों से, पीड़ाओं से, संतापों से, चिंताओं से।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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