शनिवार, 15 मई 2021

प्रेत और देव

 साधारण व्यक्ति, सामान्यजन, जो न बहुत बुरा है, न बहुत अच्छा है...। चार तरह के लोग हैं। साधारणजन, जो अच्छाई और बुराई के मिश्रण हैं। असाधारणजन, जो या तो शुद्ध बुराई हैं अधिकतम या शुद्ध अच्छाई हैं अधिकतम। तीसरे वे लोग, जो न बुराई हैं, न अच्छाई हैं--दोनों नहीं हैं। इनके लिए क्या नाम दें, कहना कठिन है। चौथे वे लोग, जो बुराई और अच्छाई में बिलकुल समतुल हैं, बैलेंस्ड हैं। ये तीसरे और चौथे लोग ऐसे हैं, जिनकी जन्म की यात्रा बंद हो जाएगी।  पहले और दूसरे लोग ऐसे हैं, जिनकी जन्म की यात्रा जारी रहेगी।

जो पहली तरह के लोग हैं--मिश्रण; अच्छे भी, बुरे भी, दोनों ही एक साथ; कभी बुरे, कभी अच्छे; अच्छे में भी बुरे, बुरे में भी अच्छे; सबका जोड़ हैं; निर्णायक नहीं, इनडिसीसिव; इधर से उधर डोलते रहते हैं--इनके लिए साधारणतया मरने के बाद तत्काल गर्भ मिल जाता है। क्योंकि इनके लिए बहुत गर्भ उपलब्ध हैं। सारी पृथ्वी इन्हीं के लिए मैन्युफैक्चर कर रही है। इनके लिए फैक्टरी जगह-जगह है। इनकी मांग बहुत असाधारण नहीं है। ये जो चाहते हैं, वह बहुत साधारण व्यक्तित्व है, जो कहीं भी मिल सकता है। ऐसे आदमी प्रेत नहीं होते। ऐसे आदमी तत्काल नया शरीर ले लेते हैं।

लेकिन बहुत अच्छे लोग और बहुत बुरे लोग, दोनों ही बहुत समय तक अटक जाते हैं। उनके लिए उनके योग्य गर्भ मिलना मुश्किल हो जाता है।  हिटलर के लिए या चंगेज के लिए या स्टैलिन के लिए या गांधी के लिए या अलबर्ट शवित्जर के लिए, इस तरह के लोगों के लिए जन्म एक मृत्यु के बाद काफी समय ले लेता है--जब तक योग्य गर्भ उपलब्ध न हो। तो बुरी आत्माएं और अच्छी आत्माएं, एक्सट्रीमिस्ट; जिन्होंने बुरे होने का ठेका ही ले रखा था जीवन में, ऐसी आत्माएं; जिन्होंने भले होने का ठेका ले रखा था, ऐसी आत्माएं--इनको रुक जाना पड़ता है।

जो इनमें बुरी आत्माएं हैं, उनको ही हम भूत-प्रेत कहते हैं। और इनमें जो अच्छी आत्माएं हैं, उनको ही हम देवता कहते रहे हैं। ये काफी समय तक रुक जाती हैं, कई बार तो बहुत समय तक रुक जाती हैं। हमारी पृथ्वी पर हजारों साल बीत जाते हैं, तब तक रुक जाती हैं।

 क्या ये दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकती हैं?

कर सकती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जितनी संकल्पवान आत्मा हो, उतनी ही रिक्त जगह नहीं होती। जितनी विल पावर की आत्मा हो, उतनी ही उसके शरीर में रिक्त जगह नहीं होती, जिसमें कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सके। जितनी संकल्पहीन आत्मा हो, उतनी ही रिक्त जगह होती है।

इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जब आप संकल्प से भरते हैं, तब आप फैलते हैं। संकल्प एक्सपैंडिंग चीज है। और जब आपका संकल्प निर्बल होता है, तब आप सिकुड़ते हैं। जब आप हीन-भाव से भरते हैं, तो सिकुड़ जाते हैं। यह बिलकुल सिकुड़ने और फैलने की घटना घटती है भीतर।

तो जब आप कमजोर होते हैं, भयभीत होते हैं, डरे हुए होते हैं, आत्मग्लानि से भरे होते हैं, आत्म-अविश्वास से भरे होते हैं, स्वयं के प्रति अश्रद्धा से भरे होते हैं, स्वयं के प्रति निराशा से भरे होते हैं, तब आपके भीतर का जो सूक्ष्म शरीर है, वह सिकुड़ जाता है। और आपके इस शरीर में इतनी जगह होती है फिर कि कोई भी आत्मा प्रवेश कर सकती है। आप दरवाजा दे सकते हैं।

आमतौर से भली आत्माएं प्रवेश नहीं करती हैं। नहीं करने का कारण है। क्योंकि भली आत्मा जिंदगीभर एंद्रिक सुखों से मुक्त होने की चेष्टा में लगी रहती है। एक अर्थ में, भली आत्मा शरीर से ही मुक्त होने की चेष्टा में लगी रहती है। लेकिन बुरी आत्मा के जीवन के सारे अनुभव शरीर के सुख के अनुभव होते हैं। और बुरी आत्मा, शरीर से बाहर होने पर जब उसे नया जन्म नहीं मिलता, तो उसकी तड़फन भारी हो जाती है; उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। उसको अपना शरीर तो मिल नहीं रहा है, गर्भ उपलब्ध नहीं है, लेकिन वह किसी के शरीर पर सवार होकर इंद्रिय के सुखों को चखने की चेष्टा करती है। तो अगर कहीं भी कमजोर संकल्प का आदमी हो...।

इसीलिए पुरुषों की बजाय स्त्रियों में प्रेतात्माओं का प्रवेश मात्रा में ज्यादा होता है। क्योंकि स्त्रियों को हम अब तक संकल्पवान नहीं बना पाए हैं। जिम्मा पुरुष का है, क्योंकि पुरुष ने स्त्रियों का संकल्प तोड़ने की निरंतर कोशिश की है। क्योंकि जिसे भी गुलाम बनाना हो, उसे संकल्पवान नहीं बनाया जा सकता। जिसे गुलाम बनाना हो, उसके संकल्प को हीन करना पड़ता है, इसलिए स्त्री के संकल्प को हीन करने की निरंतर चेष्टा की गई है हजारों साल में। जो आध्यात्मिक संस्कृतियां हैं, उन्होंने भी भयंकर चेष्टा की है कि स्त्री के संकल्प को हीन करें, उसे डराएं, उसे भयभीत करें। क्योंकि पुरुष की प्रतिष्ठा उसके भय पर ही निर्भर करेगी।

तो स्त्री में जल्दी प्रवेश...। और मात्रा बहुत ज्यादा है। दस प्रतिशत पुरुष ही प्रेतात्माओं से पीड़ित होते हैं, नब्बे प्रतिशत स्त्रियां पीड़ित होती हैं। संकल्प नहीं है; जगह खाली है; प्रवेश आसान है।

संकल्प जितना मजबूत हो, स्वयं पर श्रद्धा जितनी गहरी हो, तो हमारी आत्मा हमारे शरीर को पूरी तरह घेरे रहती है। अगर संकल्प और बड़ा हो जाए, तो हमारा सूक्ष्म शरीर हमारे इस शरीर के बाहर भी घेराव बनाता है--बाहर भी। इसलिए कभी किन्हीं व्यक्तियों के पास जाकर, जिनका संकल्प बहुत बड़ा है, आप तत्काल अपने संकल्प में परिवर्तन पाएंगे। क्योंकि उनका संकल्प उनके शरीर के बाहर भी वर्तुल बनाता है। उस वर्तुल के भीतर अगर आप गए, तो आपका संकल्प परिवर्तित होता हुआ मालूम पड़ेगा। बहुत बुरे आदमी के पास भी।

अगर एक वेश्या के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। एक संत के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। क्योंकि उसके संकल्प का वर्तुल, उसके सूक्ष्म शरीर का वर्तुल, उसके स्थूल शरीर के भी बाहर फैला होता है। यह फैलाव बहुत बड़ा भी हो सकता है। इस फैलाव के भीतर आप अचानक पाएंगे कि आपके भीतर कुछ होने लगा, जो आपका नहीं मालूम पड़ता। आप कुछ और तरह के आदमी थे, लेकिन कुछ और हो रहा है भीतर।

तो हमारा संकल्प इतना छोटा भी हो सकता है कि इस शरीर के भीतर भी सिकुड़ जाए, इतना बड़ा भी हो सकता है कि इस शरीर के बाहर भी फैल जाए। वह इतना बड़ा भी हो सकता है कि पूरे ब्रह्मांड को घेर ले। जिन लोगों ने कहा, अहं ब्रह्मास्मि, वह संकल्प के उस क्षण में उन्हें अनुभव हुआ है, जब सारा संकल्प सारे ब्रह्मांड को घेर लेता है। तब चांदत्तारे बाहर नहीं, भीतर चलते हुए मालूम पड़ते हैं। तब सारा अस्तित्व अपने ही भीतर समाया हुआ मालूम पड़ता है। संकल्प इतना भी सिकुड़ जाता है कि आदमी को यह भी पक्का पता नहीं चलता कि मैं जिंदा हूं कि मर गया। इतना भी सिकुड़ जाता है।

इस संकल्प के अति सिकुड़े होने की हालत में ही नास्तिकता का गहरा हमला होता है। संकल्प के फैलाव की स्थिति में ही आस्तिकता का गहरा हमला होता है। संकल्प जितना फैलता है, उतना ही आदमी आस्तिक अनुभव करता है अपने को। क्योंकि अस्तित्व इतना बड़ा हो जाता है कि नास्तिक होने का कोई कारण नहीं रह जाता। संकल्प जब बहुत सिकुड़ जाता है, तो नास्तिक अनुभव करता है। अपने ही पैर डांवाडोल हों, अपना ही अस्तित्व न होने जैसा हो, उस क्षण आस्तिकता नहीं उभर सकती; उस वक्त जीवन के प्रति नहीं का भाव, न का भाव पैदा होता है। नास्तिकता और आस्तिकता मनोवैज्ञानिक सत्य हैं--मनोवैज्ञानिक।

सिमन वेल ने लिखा है कि तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में भारी दर्द था। चौबीस घंटे होता था। तो मैं कभी सोच ही नहीं पाई कि परमात्मा हो सकता है। जिसके सिर में चौबीस घंटे दर्द है, उसको बहुत मुश्किल है मानना कि परमात्मा हो सकता है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि सिरदर्द जैसी छोटी चीज भी परमात्मा को दरवाजे के बाहर कर सकती है। वह ईश्वर के न होने की बात करती रही। उसे कभी खयाल भी न आया कि ईश्वर के न होने का बहुत गहरा कारण मेडिकल है। उसे खयाल भी नहीं आया कि ईश्वर के न होने का कारण सिरदर्द है। तर्क और दलीलें और नहीं। जिसके सिर में दर्द है, उसके मन से नहीं का भाव उठता है। उसके मन से हां का भाव नहीं उठता। हां के भाव के लिए भीतर बड़ी प्रफुल्लता चाहिए, तब हां का भाव उठता है।

फिर सिरदर्द ठीक हो गया। तब उसे एहसास हुआ कि उसके भीतर से इनकार का भाव कम हो गया है। तब उसे एहसास हुआ कि वह न मालूम किस अनजाने क्षण में नास्तिक से आस्तिक होने लगी।

संकल्प अगर क्षीण है, तो प्रेतात्माएं प्रवेश कर सकती हैं; बुरी प्रेतात्माएं, जिन्हें हम भूत कहें, प्रवेश कर सकती हैं, क्योंकि वे आतुर हैं। पूरे समय आतुर हैं कि अपना शरीर नहीं है, तो आपके शरीर से ही थोड़ा-सा रस ले लें। और शरीर के रस शरीर के बिना नहीं लिए जा सकते हैं, यह तकलीफ है। शरीर के रस शरीर से ही लिए जा सकते हैं।

अगर एक कामुक आत्मा है, सेक्सुअल आत्मा है और उसके पास अपना शरीर नहीं है, तो सेक्सुअलिटी तो पूरी होती है, शरीर नहीं होता, इंद्रियां नहीं होतीं। अब उसकी पीड़ा आप समझ सकते हैं। उसकी पीड़ा बड़ी मुश्किल की हो गई। चित्त कामुक है, और उपाय बिलकुल नहीं है, शरीर नहीं है पास में। वह किसी के भी शरीर में प्रवेश करके कामवासना को तृप्त करने की चेष्टा कर सकती है।

शुभ आत्माएं आमतौर से प्रवेश नहीं करतीं, जब तक कि आमंत्रित न की जाएं। अनइनवाइटेड उनका प्रवेश नहीं होता। क्योंकि उनके लिए शरीर की कोई आकांक्षा नहीं है। लेकिन इनविटेशन पर, आमंत्रण पर, उनका प्रवेश हो सकता है। आमंत्रण का मतलब इतना ही हुआ कि अगर कोई ऐसी घड़ी हो, जहां उनका उपयोग किया जा सके, जहां वे सहयोगी हों और सेवा दे सकें, तो वे तत्काल उपलब्ध हो जाती हैं। बुरी आत्मा हमेशा अनइनवाइटेड प्रवेश करती है, घर के पीछे के दरवाजे से; भली आत्मा आमंत्रित होकर प्रवेश कर सकती है।

लेकिन भली आत्माओं का प्रवेश निरंतर कम होता चला गया है, क्योंकि आमंत्रण की विधि खो गई है। और बुरी आत्माओं का प्रवेश बढ़ता चला गया है। क्यों? क्योंकि संकल्प दीन-हीन और नकारात्मक, निगेटिव हो गया है। इसलिए आज पृथ्वी पर देवता की बात करना झूठ है; भूत की बात करना झूठ नहीं है। प्रेत अभी भी अस्तित्ववान हैं; देवता कल्पना हो गए हैं।

लेकिन देवताओं को बुलाने की, निमंत्रण की विधियां थीं। सारा वेद उन्हीं विधियों से भरा हुआ है। उसके अपने सीक्रेट मैथड्स हैं कि उन्हें कैसे बुलाया जाए, उनसे कैसे तारतम्य, उनसे कैसे कम्युनिकेशन, उनसे कैसे संबंध स्थापित किया जाए, उनसे चेतना कैसे जुड़े। और निश्चित ही, बहुत कुछ है जो उनके द्वारा ही जाना गया है। और इसीलिए उसके लिए आदमी के पास कोई प्रमाण नहीं है।

अब यह जानकर आपको हैरानी होगी कि सात सौ साल पुराना एक पृथ्वी का नक्शा बेरूत में मिला है। सात सौ साल पुराना, पृथ्वी का नक्शा, बेरूत में मिला है। वह नक्शा ऐसा है, जो बिना हवाई जहाज के नहीं बनाया जा सकता। जिसके लिए हवाई जहाज की ऊंचाई पर उड़कर पृथ्वी देखी जाए, तो ही बनाया जा सकता है। लेकिन सात सौ साल पहले हवाई जहाज ही नहीं था। इसलिए बड़ी मुश्किल में वैज्ञानिक पड़ गए हैं उस नक्शे को पाकर। बहुत कोशिश की गई कि सिद्ध हो जाए कि वह नक्शा सात सौ साल पुराना नहीं है, लेकिन सिद्ध करना मुश्किल हुआ है। वह कागज सात सौ साल पुराना है। वह स्याही सात सौ साल पुरानी है। वह भाषा सात सौ साल पुरानी है। जिन दीमकों ने उस कागज को खा लिया है, वे छेद भी पांच सौ साल पुराने हैं। लेकिन वह नक्शा बिना हवाई जहाज के नहीं बन सकता।

तो एक तो रास्ता यह है कि सात सौ साल पहले हवाई जहाज रहा हो, जो कि ठीक नहीं है। सात हजार साल पहले रहा हो, इसकी संभावना है; सात सौ साल पहले रहा हो, इसकी संभावना नहीं है। क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबा फासला नहीं है। सात सौ साल पहले हवाई जहाज रहा हो और बाइसिकल न रही हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि हवाई जहाज एकदम से आसमान से नहीं बनते। उनकी यात्रा है--बाइसिकल है, कार है, रेल है, तब हवाई जहाज बन पाता है। ऐसा एकदम से टपक नहीं जाता आसमान से। तो एक तो रास्ता यह है कि हवाई जहाज रहा हो, जो कि सात सौ साल पहले नहीं था।

दूसरा रास्ता यह है कि अंतरिक्ष के यात्री आए हों--जैसा कि एक रूसी वैज्ञानिक ने सिद्ध करने की कोशिश की है--कि किसी दूसरे प्लेनेट से कोई यात्री आए हों और उन्होंने यह नक्शा दिया हो। लेकिन दूसरे प्लेनेट से यात्री सात सौ साल पहले आए हों, यह भी संभव नहीं है। सात हजार साल पहले आए हों, यह संभव है। क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबी बात नहीं है। इतिहास के घेरे की बात है। हमारे पास कम से कम दो हजार साल का तो सुनिश्चित इतिहास है। उसके पहले का इतिहास नहीं है। इसलिए इतनी बड़ी घटना सात सौ साल पहले घटी हो कि अंतरिक्ष से यात्री आए हों और उसका एक भी उल्लेख न हो, जब कि सात सौ साल पहले की किताबें पूरी तरह उपलब्ध हैं, संभव नहीं है।

मैं तीसरा सुझाव देता हूं, जो अब तक नहीं दिया गया। और वह सुझाव मेरा यह है कि यह जो नक्शे की खबर है, यह किसी आत्मा के द्वारा दी गई खबर है, जो किसी व्यक्ति में इनवाइटेड हुई। जो किसी व्यक्ति के द्वारा बोली।

पृथ्वी गोल है, यह तो पश्चिम में अभी पता चला। ज्यादा समय नहीं हुआ, अभी कोई तीन सौ साल। लेकिन हमारे पास भूगोल शब्द हजारों साल पुराना है। तब भूगोल जिन्होंने शब्द गढ़ा होगा, उनको पृथ्वी गोल नहीं है, ऐसा पता रहा हो, नहीं कहा जा सकता। नहीं तो भूगोल शब्द कैसे गढ़ेंगे! लेकिन आदमी के पास--जमीन गोल है--इसको जानने के साधन बहुत मुश्किल मालूम पड़ते हैं। सिवाय इसके कि यह संदेश कहीं से उपलब्ध हुआ हो।

आदमी के ज्ञान में बहुत-सी बातें हैं, जिनकी कि प्रयोगशालाएं नहीं थीं, जिनका कि कोई उपाय नहीं था। जैसे कि लुकमान के संबंध में कथा है। और अब तो वैज्ञानिक को भी संदेह होने लगा है कि कथा ठीक होनी चाहिए।

लुकमान के संबंध में कथा है कि उसने पौधों से जाकर पूछा कि बता दो, तुम किस बीमारी में काम आ सकते हो? पौधे बताते हुए मालूम नहीं पड़ते। लेकिन दूसरी बात भी मुश्किल मालूम पड़ती है कि लाखों पौधों के संबंध में लुकमान ने जो खबर दी है, वह इतनी सही है, कि या तो लुकमान की उम्र लाखों साल रही हो और लुकमान के पास आज से भी ज्यादा विकसित फार्मेसी की प्रयोगशालाएं रही हों, तब वह जांच कर पाए कि कौन-सा पौधा किस बीमारी में काम आता है। लेकिन लुकमान की उम्र लाखों साल नहीं है। और लुकमान के पास कोई प्रयोगशाला की खबर नहीं है। लुकमान तो अपना झोला लिए जंगलों में घूम रहा है और पौधों से पूछ रहा है। पौधे बता सकेंगे?

मेरी अपनी समझ और है। पौधे तो नहीं बता सकते, लेकिन शुभ आत्माएं पौधों के संबंध में खबर दे सकती हैं। बीच में मीडिएटर कोई आत्मा काम कर रही है, जो पौधों की बाबत खबर दे सकती है कि यह पौधा इस काम में आ जाएगा।

अब यह बड़े मजे की बात है, जैसे कि हमारे मुल्क में आयुर्वेद की सारी खोज बहुत गहरे में प्रयोगात्मक नहीं है, बहुत गहरे में देवताओं के द्वारा दी गई सूचनाओं पर निर्भर है। इसलिए आयुर्वेद की कोई दवा आज भी प्रयोगशाला में सिद्ध होती है कि ठीक है। लेकिन हमारे पास कभी कोई बड़ी प्रयोगशाला नहीं थी, जिसमें हमने उसको सिद्ध किया हो।

जैसे सर्पगंधा है। अब आज हमको पता चला कि वह सच में ही, सुश्रुत से लेकर अब तक सर्पगंधा के लिए जो खयाल था, वह ठीक साबित हुआ। लेकिन अब पश्चिम में सर्पेंटीना--सर्पगंधा का रूप है वह--अब वह भारी उपयोग की चीज हो गई है। पागलों के इलाज के लिए अनिवार्य चीज हो गई है। लेकिन यह सर्पगंधा का पता कैसे चला होगा? क्योंकि आज तो पश्चिम के पास प्रयोगशाला है, जिसमें सर्पगंधा की केमिकल एनालिसिस हो सकती है। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई प्रयोगशाला थी, इसकी खबर नहीं मिलती। यह सर्पगंधा की खबर, आमंत्रित आत्माओं से मिली हुई खबर है। और बहुत देर नहीं है कि हमें आमंत्रित आत्माओं के उपयोग फिर खोजने पड़ेंगे।

इसलिए आज जब आप वेद को पढ़ें, तो कपोल-कल्पना हो जाती है, झूठ मालूम पड़ता है कि क्या बातचीत कर रहे हैं ये--इंद्र आओ, वरुण आओ, फलां आओ, ढिकां आओ। और इस तरह बात कर रहे हैं कि जैसे सच में आ रहे हों। और फिर इंद्र को भेंट भी कर रहे हैं, इंद्र से प्रार्थना भी कर रहे हैं। और इतने बड़े वेद में कहीं भी एक जगह कोई ऐसी बात नहीं मालूम पड़ती कि कोई एक भी आदमी शक कर रहा हो कि क्या पागलपन की बात कर रहे हो! किससे बात कर रहे हो! देवता, वेद के समय में बिलकुल जमीन पर चलते हुए मालूम पड़ते हैं।

निमंत्रण की विधि थी। सब हवन, यज्ञ बहुत गहरे में निमंत्रण की विधियां हैं, इनविटेशंस हैं, इनवोकेशंस हैं। उसकी बात तो कहीं आगे होगी, तो बात कर लेंगे।

लेकिन यह जो आपने पूछा, तो सूक्ष्म शरीर ही स्थूल शरीर से मुक्त रहकर प्रेत और देव दिखाई पड़ता है।

ओशो रजनीश








शुक्रवार, 14 मई 2021

Corona

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⚠️ IMPORTANT NOTE

These medicines are to be taken after consultation with a certified doctor. 

🚫 Do Not Self-Medicate Yourself.


❦ Tab Dolo 650 mg (Paracetamol) 

         As and when required ⚫ x 14 Days


❦ Zinconia 50 mg (Zinc Supplement)  

        1 tablet 2 times a day for 5 days ⚫ ⚫  x 5 Days


❦ Tab. Azithral 500 mg (Azithromycin) 

         1 tablet 1 time a day for 5 days ⚫ x 5 Days


❦ Tab Limcee 500 (Vitamin-C Supplement)  

        1 tablet 1 time a day for 30 days ⚫ x 30 Days


❦ Tab Bicasule (Vitamin-B Supplement) 

        1 tablet 1 time a day for 15 days ⚫ x 15 Days


❦ Tab Ivermectol 12 mg (Ivermectin) 

         1 tablet 1 time a day for 3 days ⚫ x 3 Days


❦ Tab Montair LC (Levocetirizine + Montelukast ) 

         1 tablet 1 time a day for 5 days ⚫ x 5 Days


❦ Tab Omnacortil 40mg (Prednisolone) 

        1 tablet 1 time a day for 5 days after breakfast     ⚫ x 5 Days

        (To be started on the 8th day calculated from the first day of fever) 


❦ Tab Omnacortil 20mg (Prednisolone) 

         1 tablet 1 time a day for 5 days after breakfast.  ⚫ x 5 Days

          (To be started after completing 5 days of Omnacortil 40mg)


❦ Cap Ocid 20 mg 

        1 tablet 1 time a day for 17 days before breakfast.  ⚫ x 17 Days

         (To be taken with Tab Omnacortil)








मंगलवार, 11 मई 2021

अध्यात्म

  ऐसा नहीं है कि जो लोग मन से पीड़ित और परेशान हैं, वे ही लोग ध्यान, योग और अध्यात्म की ओर झुकते हैं; यह तो ठीक है। लेकिन जो अपने को सोचते हैं कि मानसिक रूप से पीड़ित नहीं हैं, वे भी उतने ही पीडित हैं और उन्हें भी झुक जाना चाहिए।

मनुष्य का होना ही संत्रस्त है। मनुष्य जिस ढंग का है, उसमें ही पीड़ा है। मनुष्य का अस्तित्व ही दुखपूर्ण है। इसलिए असली तो नासमझ वह है, जो सोचता है कि बिना अध्यात्म की ओर झुके हुए आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। आनंद पाने का कोई उपाय और है ही नहीं। और जो जितनी जल्दी झुक जाए, उतना हितकर है।

यह बात सच है कि जो लोग अध्यात्म की ओर झुकते हैं, वे मानसिक रूप से पीड़ित और परेशान हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल में ले लेना, झुकते ही उनकी मानसिक पीड़ा समाप्त होनी शुरू हो जाती है। झुकते ही मानसिक उन्माद समाप्त हो जाता है। और अध्यात्म की प्रक्रिया से गुजरकर वे स्वस्थ, शांत और आनंदित हो जाते हैं।

देखें बुद्ध की तरफ, देखें महावीर की तरफ, देखें कृष्ण की तरफ। उस आग से गुजरकर सोना निखर आता है। लेकिन जो झुकते ही नहीं, वे पागल ही बने रह जाते हैं।

आप ऐसा मत सोचना कि अध्यात्म की तरफ नहीं झुक रहे हैं, तो आप स्वस्थ हैं। अध्यात्म से गुजरे बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। स्वास्थ्य का अर्थ ही होता है, स्वयं में हो जाना। स्वयं में स्थित हुए बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। तब तक तो दौड़ और परेशानी और चिंता और तनाव बना ही रहेगा।

तो जो झुकते हैं, वे तो पागल हैं। जो नहीं झुकते हैं, वे और भी ज्यादा पागल हैं। क्योंकि झुके बिना पागलपन से छूटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए यह मत सोचना कि आप बहुत समझदार हैं। क्योंकि आपकी समझदारी का कोई मूल्य नहीं है। अगर भीतर चिंता है, पीड़ा है, दुख है, तो आप कितना ही जानते हों, कितनी ही समझदारी हो, वह कुछ काम न आएगी। आपके भीतर पागलपन तो इकट्ठा हो ही रहा है।

और मैंने कहा कि आदमी का होना ही पागलपन है। उसके कारण हैं। क्योंकि आदमी सिर्फ बीज है, सिर्फ एक संभावना है कुछ होने की। और जब तक वह हो न जाए तब तक परेशानी रहेगी। जब तक उसके भीतर का फूल पूरा खिल न जाए, तब तक बीज के प्राण तनाव से भरे रहेंगे। बीज टूटे, अंकुरित हो और फूल बन जाए, तो ही आनंद होगा।

दुख का एक ही अर्थ है आध्यात्मिक भाषा में, कि आप जो हैं, वह नहीं हो पा रहे हैं। और आनंद का एक ही अर्थ है कि आप जो हो सकते हैं, वह हो गए हैं। आनंद का अर्थ है कि अब आपके भीतर कोई संभावना नहीं बची आप सत्य हो गए हैं। आप जो भी हो सकते थे, वह आपने आखिरी शिखर छू लिया है। आप अपनी पूर्णता पर पहुंच गए हैं। और जब तक पूर्णता उपलब्ध नहीं होती, तब तक बेचैनी रहेगी।

जैसे नदी दौड़ती है सागर की तरफ, बेचैन, परेशान, तलाश में, वैसा आदमी दौड़ता है। सागर से मिलकर शांति हो जाती है। लेकिन कोई नदी ऐसा भी सोच सकती है कि ये पागल नदियां हैं, जो सागर की तरफ दौड़ रही हैं। और जो नदी सागर की तरफ दौड़ना बंद कर देगी, वह सरोवर बन जाएगी। नदी तो सागर में दौड़कर मिल जाती है, विराट हो जाती है। लेकिन सरोवर सडता है केवल, कहीं पहुंचता नहीं।

अध्यात्म गति है, मनुष्य के पार, मनुष्य के ऊपर, वह जो आत्यंतिक है, अंतिम है, उस दिशा में। लेकिन आप अपने को यह मत समझा लेना कि सिर्फ पागल इस ओर झुकते हैं। मैं तो बुद्धिमान आदमी हूं। मैं क्यों झुकूं!

आपकी बुद्धिमानी का सवाल नहीं है। अगर आप आनंद को उपलब्ध हो गए हैं, तब कोई सवाल नहीं है झुकने का। लेकिन अगर आपको आनंद की कोई खबर नहीं मिली है, और आपका हृदय नाच नहीं रहा है, और आप समाधि के, शांत होने के परम गुह्य रहस्य को उपलब्ध नहीं हुए हैं, तो इस डर से कि कहीं कोई पागल न कहे, अध्यात्म से बच मत जाना। नहीं तो जीवन की जो परम खोज है, उससे ही बच जाएंगे।

पागल झुकते हैं अध्यात्म की ओर, यह सच है। लेकिन वे पागल सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें कम से कम इतना होश तो है कि झुक जाएं इलाज की तरफ। उन पागलों के लिए क्या कहा जाए, जो पागल भी हैं और झुकते भी नहीं हैं, जो बीमार भी हैं और चिकित्सक की तलाश भी नहीं करते और चिकित्सा की खोज भी नहीं करते। उनकी बीमारी दोहरी है। वे अपनी बीमारी को स्वास्थ्य समझे बैठे हैं।

मेरे पास रोज ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनके पास बड़े—बड़े सिद्धांत हैं, जिन्होंने बड़े शास्त्र अध्ययन किए हैं। और जिन्होंने बड़ी उधार बुद्धि की बातें इकट्ठी कर ली हैं। मैं उनसे कहता हूं कि मुझे इसमें कोई उत्सुकता नहीं है कि आप क्या जानते हैं। मेरी उत्सुकता इसमें है कि आप क्या हैं। अगर आपको आनंद मिल गया हो, तो आपकी बातों का कोई मूल्य है मेरे लिए, अन्यथा यह सारी की सारी बातचीत सिर्फ दुख को छिपाने का उपाय है।


 तो बुनियादी बात मुझे बता दें, आपको आनंद मिल गया है? तो फिर आप जो भी कहें, उसे मैं सही मान लूंगा। और आनंद न मिला हो, तो आप जो भी कहें, उस सबको मैं गलत मानूंगा, चाहे वह कितना ही सही दिखाई पड़ता हो। क्योंकि जिससे जीवन का फूल न खिलता हो, उसके सत्य होने का कोई आधार नहीं है। और जिससे जीवन का फूल तो बंद का बंद रह जाता हो, बल्कि और ज्ञान का कचरा उसे दबा देता हो और खुलना मुश्किल हो जाता हो, उसका सत्य से कोई भी संबंध नहीं है।

मेरे हिसाब में आनंद की तरफ जो ले जाए, वह सत्य है; और दुख की तरफ जो ले जाए, वह असत्य है। अगर आप आनंद की तरफ जा रहे हैं, तो आप जो भी कर रहे हैं, वह ठीक है। और अगर आप आनंद की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप कुछ भी कर रहे हों, वह सब गलत है। क्योंकि अंतिम कसौटी तो एक ही बात की है कि आपने जीवन के परम आनंद को अनुभव किया या नहीं।

तो ये मित्र ठीक कहते हैं, विक्षिप्त लोग झुके हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन सभी विक्षिप्त हैं।

मनसविद से पूछें, कौन स्वस्थ है? जिसको आप नार्मल, सामान्य आदमी कहते हैं, उसे आप यह मत समझ लेना कि वह स्वस्थ है। वह केवल नार्मल ढंग से पागल है। और कोई खास बात नहीं है। और पागलों जैसा ही पागल है। पूरी भीड़ उसके जैसे ही पागल है। इसलिए वह पागल नहीं मालूम पड़ता। जरा ही ज्यादा आगे बढ़ जाता है, तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

पागल में और आप में जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। थोड़ा डिग्रीज का फर्क है। आप निन्यानबे डिग्री पर हैं और पागल सौ डिग्री पर उबलकर पागल हो गया है। एक डिग्री आप में कभी भी जुड़ सकती है, किसी भी क्षण। जरा—सी कोई घटना, और आप पागल हो सकते हैं।

बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी को जरा—सी गाली दे दो और वह पागल हो जाता है। वह तैयार ही खड़ा था; एक छोटी—सी गाली ऊंट पर आखिरी तिनके का काम करती है और ऊंट बैठ जाता है। आपकी बुद्धिमानी जरा में सरकाई जा सकती है; उसका कोई मूल्य नहीं है। आप किसी तरह अपने को सम्हाले खड़े हैं।

इस सम्हाले खड़े रहने से कोई सार नहीं है। यह विक्षिप्तता से मुक्त होना जरूरी है। और योग विक्षिप्तता से मुक्ति का उपाय है। अच्छा है कि आप अपनी विक्षिप्तता को पहचान लें।

ध्यान रहे, बीमारी को पहचान लेना अच्छा है, क्योंकि पहचाने से उपाय हो सकता है, इलाज हो सकता है। बीमारी को झुठलाना — खतरनाक है। क्योंकि बीमारी झुठलाने से मिटती नहीं, भीतर बढ़ती चली जाती है।

लेकिन अनेक बीमार ऐसे हैं, जो इस डर से कि कहीं यह पता न चल जाए कि हम बीमार हैं, अपनी बीमारी को छिपाए रखते हैं। अपने घावों को ढांक लेते हैं फूलों से, सुंदर वस्त्रों से, सुंदर शब्दों से और अपने को भुलाए रखते हैं। लेकिन धोखा वे किसी और को नहीं दे रहे हैं। धोखा वे अपने को ही दे रहे हैं। घाव भीतर बढ़ते ही चले जाएंगे। पागलपन ऐसे मिटेगा नहीं, गहन हो जाएगा। और आज नहीं कल उसका विस्फोट हो जाएगा।

अध्यात्म की तरफ उत्सुकता चिकित्सा की उत्सुकता है। और उचित है कि आप पहचान लें कि अगर दुखी हैं, तो दुखी होने का कारण है। उस कारण को मिटाया जा सकता है। उस कारण को मिटाने के लिए उपाय हैं। उन उपायों का प्रयोग किया जाए, तो चित्त स्वस्थ हो जाता है।

आप अपनी फिक्र करें; दूसरे क्या कहते हैं, इसकी बहुत चिंता न करें। आप अपनी चिंता करें कि आपके भीतर बेचैनी है, संताप है, संत्रस्तता है, दुख है, विषाद है, और आप भीतर उबल रहे हैं आग से और कहीं कोई छाया नहीं जीवन में, कहीं कोई विश्राम का स्थल नहीं है! तो फिर भय न करें। अध्यात्म आपके जीवन में छाया बन सकता है, और योग आपके जीवन में शांति की वर्षा कर सकता है।

अगर प्यासे हैं, तो उस तरफ सरोवर है। और प्यासे हैं, तो सरोवर की तरफ जाएं। सिर्फ बुद्ध या कृष्ण जैसे व्यक्तियों को योग की तरफ जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि योग से वे गुजर चुके हैं। आपको तो जरूरत है ही। आपको तो जाना ही होगा। एक जन्म आप झुठला सकते हैं, दूसरे जन्म में जाना होगा। आप अनेक जन्मों तक झुठला सकते हैं, लेकिन बिना जाए कोई उपाय नहीं है। और जब तक कोई अपने भीतर के आत्यंतिक केंद्र को अनुभव न कर ले, और जीवन के परम स्रोत में न डूब जाए, तब तक विक्षिप्तता बनी ही रहती है।

दो शब्द हैं। एक है विक्षिप्तता और एक है, विमुक्तता। मन का होना ही विक्षिप्तता है। ऐसा नहीं है कि कोई—कोई मन पागल होते हैं; मन का स्वभाव ही पागलपन है। मन का अर्थ है, मैडनेस। वह पागलपन है। और जब कोई मन से मुक्त होता है, तो स्वस्थ होता है, तो विमुक्त होता है।

आमतौर से हम सोचते हैं कि किसी का मन खराब है और किसी का मन अच्छा है। यह जानकर आपको हैरानी होगी, योग की दृष्टि से मन का होना ही खराब है। कोई अच्छा मन नहीं होता। मन होता ही रोग है। कोई अच्छा रोग नहीं होता; रोग बुरा ही होता है।

जैसे हम अगर कहें, अभी तूफान था सागर में और अब तूफान शांत हो गया है। तो आप मुझसे पूछ सकते हैं कि शांत तूफान कहां है? तो मैं कहूंगा, शांत तूफान का अर्थ ही यह होता है कि अब तूफान नहीं है। शांत तूफान जैसी कोई चीज नहीं होती। शांत तूफान का अर्थ ही होता है कि तूफान अब नहीं है। तूफान तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।

ठीक ऐसे ही अगर आप पूछें कि शांत मन क्या है, तो मैं आपसे कहूंगा कि शांत मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। मन तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।

शांत मन का अर्थ है कि मन रहा ही नहीं। मन और अशांति पर्यायवाची हैं। उन दोनों का एक ही मतलब है। भाषाकोश में नहीं; भाषाकोश में तो मन का अलग अर्थ है और अशांति का अलग अर्थ है। लेकिन जीवन के कोश में मन और अशांति एक ही चीज के दो नाम हैं। और शांति और अमन एक ही चीज के दो नाम हैं। नो—माइंड, अमन।

जब तक आपके पास मन है, आप विक्षिप्त रहेंगे ही। मन भीतर पागल की तरह चलता ही रहेगा। और अगर आपको भरोसा न हो, तो एक छोटा—सा प्रयोग करना शुरू करें।

अपने परिवार को या अपने मित्रों को लेकर बैठ जाएं। एक घंटे दरवाजा बंद कर लें। अपने निकटतम दस—पांच मित्रों को लेकर बैठ जाएं, और एक छोटा—सा प्रयोग करें। आपके भीतर जो चलता हो, उसको जोर से बोलें। जो भी भीतर चलता हो, जिसको आप मन कहते हैं, उसे जोर से बोलते जाएं—ईमानदारी से, उसमें बदलाहट न करें। इसकी फिक्र न करें कि लोग सुनकर क्या कहेंगे। एक छोटा—सा खेल है। इसका उपयोग करें।

आपको बड़ा डर लगेगा कि यह जो भीतर धीमे— धीमे चल रहा है, इसको जोर से कहूं? पत्नी क्या सोचेगी! बेटा क्या सोचेगा! मित्र क्या सोचेंगे! लेकिन अगर सच में हिम्मत हो, तो यह प्रयोग करने जैसा है।

फिर एक—एक व्यक्ति करे; पंद्रह—पंद्रह मिनट एक—एक व्यक्ति बोले। जो भी उसके भीतर हो, उसको जोर से बोलता जाए। आप एक घंटेभर के प्रयोग के बाद पूरा कमरा अनुभव करेगा कि हम सब पागल हैं।

आप कोशिश करके देखें। अगर आपको डर लगता हो दूसरों का, तो किसी दिन अकेले में ही पहले करके देख लें। आपको पता चल जाएगा कि पागल कौन है। लेकिन राहत भी बहुत मिलेगी। अगर इतनी हिम्मत कर सकें मित्रों के साथ, तो यह खेल बड़े ध्यान का है; बहुत राहत मिलेगी। क्योंकि भीतर का बहुत—सा कचरा बाहर निकल जाएगा, और एक हल्कापन आ जाएगा और पहली दफा यह अनुभव होगा कि मेरी असली हालत क्या है। मैं अपने को बुद्धिमान समझ रहा हूं; बड़ा सफल समझ रहा हूं; बड़े पदों पर पहुंच गया हूं; धन कमा लिया है; बड़ा नाम है; इज्जत है; और भीतर यह पागल बैठा है! और इस पागल से छुटकारा पाने का नाम अध्यात्म है।

मेहरबाबा उन्नीस सौ छत्तीस में अमेरिका में थे। और एक व्यक्ति को उनके पास लाया गया। उस व्यक्ति को दूसरों के विचार पढ़ने की कुशलता उपलब्ध थी। उसने अनेक लोगों के विचार पढे थे। वह किसी भी व्यक्ति के सामने आंख बंद करके बैठ जाता था; और वह व्यक्ति जो भीतर सोच रहा होता, उसे बोलना शुरू कर देता। मेहरबाबा वर्षों से मौन थे। तो उनके भक्तों को, मित्रों को जिज्ञासा और कुतूहल हुआ कि वह जो आदमी वर्षों से मौन है, वह भी भीतर तो कुछ सोचता होगा! तो इस आदमी को लाया जाए क्योंकि वे तो कुछ बोलते नहीं।

तो उस आदमी को लाया गया। वह मेहरबाबा के सामने आंख बंद करके, बड़ी उसने मेहनत की। पसीना—पसीना हो गया। फिर उसने कहा कि लेकिन बड़ी मुसीबत है। यह आदमी कुछ सोचता ही नहीं। मैं बताऊं भी तो क्या बताऊं! मैं बोलूं तो भी क्या बोलूं! मैं आंख बंद करता हूं और जैसे मैं एक दीवाल के सामने हूं जहां कोई विचार नहीं है।

इस निर्विचार अवस्था का नाम विमुक्तता है। जब तक भीतर विचार चल रहा है, वह पागल है, वह पागलपन है। यह ऐसा ही समझिए कि आप बैठे—बैठे दोनों टल चलाते रहें यहां। तो आपको पड़ोसी आदमी कहेगा, बंद करिए टांग चलाना! आपका दिमाग ठीक है? आप टांगें क्यों चला रहे हैं? टांग को चलाने की जरूरत है, जब कोई चल रहा हो रास्ते पर। बैठकर टांग क्यों चला रहे हैं?

मन की भी तब जरूरत है, जब कोई सवाल सामने हो, उसको हल करना हो, तो मन चलाएं। लेकिन न कोई सवाल है, न कोई बात सामने है। बैठे हैं, और मन की टांगें चल रही हैं। यह विक्षिप्तता है, यह पागलपन है।

आपका मन चलता ही रहता है। आप चाहें भी रोकना, तो रुकता नहीं। कोशिश करके देखें। रोकना चाहेंगे, तो और भी नहीं रुकेगा। और जोर से चलेगा। और सिद्ध करके बता देगा कि तुम मालिक नहीं हो, मालिक मैं हूं। छोटी—सी कोई बात रोकने की कोशिश करें। और वही—वही बात बार—बार मन में आनी शुरू हो जाएगी। लोग बैठकर राम का स्मरण करते हैं। राम का स्मरण करते हैं, नहीं आता। कुछ और—और आता है, कुछ दूसरी बातें आती हैं। एक महिला मेरे पास आई, वह कहने लगी कि मैं राम की भक्त हूं। बहुत स्मरण करती हूं लेकिन वह नाम छूट—छूट जाता है और दूसरी चीजें आ जाती हैं!

मैंने कहा कि तू एक काम कर। कसम खा ले कि राम का नाम कभी न लूंगी। फिर देख। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मैंने कहा, तू कसम खाकर देख। और हर तरह से कोशिश करना कि राम का नाम भर भीतर न आने पाए।

वह तीसरे दिन मेरे पास आई। उसने कहा कि आप मेरा दिमाग खराब करवा दोगे। चौबीस घंटे सिवाय राम के और कुछ आ ही नहीं रहा है। और मैं कोशिश में लगी हूं कि राम का नाम न आए, और राम का नाम आ रहा है!

मन सिद्ध करता है हमेशा कि आप मालिक नहीं हैं, वह मालिक है। और जब तक मन मालिक है, आप पागल हैं। जिस दिन आप मालिक हों, उस दिन स्वस्थ हुए स्वयं में स्थित हुए।

अध्यात्म से गुजरे बिना कोई भी स्वस्थ नहीं होता है।

ओशो रजनीश






सोमवार, 10 मई 2021

इनहेलर

 

जानिए अस्थमा का आम इनहेलर कोविड-19 के इलाज में कैसे करता है मदद?

 अस्थमा के इलाज में काम आनेवाली आम दवा कोविड-19 के इलाज में असरदार साबित हुई है. अस्थमा के इन्हेलर ने कोविड-19 मरीजों को अस्पताल भेजने की 90 फीसद जरूरत को कम करती है और रिकवरी के समय को घटाती है.

आमतौर पर अस्थमा के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला इलाज कोविड-19 मरीजों के अस्पताल में ठहरने का समय कम करने और ठीक होने की रफ्तार बढ़ाने में मदद कर सकता है.  दवा को लक्षण जाहिर होने के सात दिनों में देने से फायदा पहुंच सकता है.
बुडेसोनाइड का इस्तेमाल धूम्रपान से प्रभावित फेफड़े का इलाज करने में किया जाता है. एस्ट्राजेनेका दवा कंपनी उसे पल्मीकोर्ट के ब्रांड नाम से बेचती है. उसके इस्तेमाल से कोविड-19 के इलाज में मरीजों को लगनेवाला समय कम हो गया.  एक दिन में दो बार बुडेसोनाइड का 800 माइक्रोग्राम दिया गया .
  सांस के जरिए ली जानेवाली बुडेसोनाइड ने फौरी चिकित्सा की जरूरत या अस्पताल में भर्ती होने का खतरा 90 फीसद कम कर दिया.   सांस का स्टेरॉयड महामारी के दौरान सामने आ रहे दबावों पर प्रभाव डाल सकती है.


 स्टेरॉयड बुडेसोनाइड से इलाज के 14 और 28 दिनों के बाद कोरोना वायरस के लगातार लक्षणों में भी कई आ गई.  कोरोना वायरस महामारी के शुरुआती दिनों में पुरानी सांस की बीमारी से पीड़ित जिनको अक्सर सांस का स्टेरॉयड लिखा जाता है, उनकी बहुत कम तादाद कोविड-19 का शिकार होकर अस्पताल में दाखिल हुई थी. पल्मीकोर्ट एस्ट्राजेनेका की बहुत ज्यादा बिकनेवाली दवा है. 

डेक्सामेथासोन (Dexamethasone) नामक स्टेराइड के इस्तेमाल से गंभीर रूप से बीमार मरीजों की मृत्यु दर एक तिहाई तक कम किया जा सकता है। डेक्सामेथासोन दवा को मरीजों को केवल 10 दिनों तक दिया जाता है। 





कृष्ण की शिक्षाएं

  बुद्ध, महावीर की शिक्षाएं नैतिक हैं और बहुत साधारण आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं। कृष्ण की शिक्षाएं धार्मिक हैं और बहुत असाधारण आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं।

बुद्ध, महावीर की शिक्षाएं अत्यंत साधारण बुद्धि के आदमी की भी समझ में आ जाएंगी; उनमें जरा भी अड़चन नहीं है। उसमें थर्ड रेट, जो आखिरी बुद्धि का आदमी है, उसको ध्यान में रखा गया है।

कृष्ण की शिक्षाएं प्रथम कोटि के मनुष्य की ही समझ में आ सकती हैं। वे अति जटिल हैं। और महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत ऊंची हैं। थोड़ा कठिन होगा समझना।

हम सबको समझ में आ जाता है कि चोरी करना पाप है। चोर को भी समझ में आता है। आपको ही समझ में आता है, ऐसा नहीं; चोर को भी समझ में आता है कि चोरी करना बुरा है। लेकिन चोरी करना बुरा क्यों है?

चोरी करना बुरा तभी हो सकता है, जब संपत्ति सत्य हो; पहली बात। धन बहुत मूल्यवान हो और धन पर किसी का कब्जा माना जाए व्यक्तिगत अधिकार माना जाए तब चोरी करना बुरा हो सकता है।

धन किसका है? एक तो यह माना जाए कि व्यक्ति का अधिकार है धन पर, इसलिए उससे जो धन छीनता है, वह नुकसान करता है। दूसरा यह माना जाए कि धन बहुत मूल्यवान है। अगर धन में कोई मूल्य ही न हो, तो चोरी में कितना मूल्य रह जाएगा? इसे थोड़ा समझें।

जितना मूल्य धन में होगा, उतना ही मूल्य चोरी में हो सकता है। अगर धन का बहुत मूल्य है, तो चोरी का मूल्य है। लेकिन कृष्ण जिस तल से बोल रहे हैं, वहां धन मिट्टी है।

यह बड़े मजे की बात है कि महावीर को मानने वाले जैन साधु भी कहते हैं, धन मिट्टी है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है। मिट्टी को चुराना क्या पाप होगा? धन कचरा है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है! अगर धन कचरा है, तो चोरी पाप कैसे हो सकती है? कचरे को चुराने को कोई पाप नहीं कहता। वह धन लगता तो मूल्यवान ही है।

असल में जो समझाते हैं कि कचरा है, वे भी इसीलिए अपने को समझा रहे हैं, बाकी लगता तो उनको भी धन मूल्यवान है। इसलिए धन की चोरी भी मूल्यवान मालूम पड़ती है।

कोई भी तो नहीं कहता कि मिट्टी मिट्टी है। लोग स्वर्ण मिट्टी है, ऐसा क्यों कहते हैं? स्वर्ण तो स्वर्ण ही दिखाई पड़ता है, लेकिन वासना को दबाने के लिए आदमी अपने को समझाता है कि मिट्टी है, क्या चाहना उसको! लेकिन चाह भीतर खड़ी है, उस चाह को काटता है। मिट्टी है, क्या चाहना उसको!

यह स्त्री की देह है, इसमें कोई भी सौंदर्य नहीं है; हड्डी, मांस—मज्जा भरा है, ऐसा अपने को समझाता है। सौंदर्य उसको दिखाई पड़ता है। उसकी वासना मांग करती है। उसकी वासना दौड़ती है। वह वासना को काटने के उपाय कर रहा है। वह यह समझा रहा है कि नहीं, इसमें हड्डी, मांस—मज्जा है; कुछ भी नहीं है। सब गंदी चीजें भीतर भरी हैं; यह मल का ढेर है।

लेकिन यह समझाने की जरूरत क्या है? मल के ढेर को देखकर कोई भी नहीं कहता कि यह मल का ढेर है, इसकी चाह नहीं करनी चाहिए। अगर स्त्री में मल ही दिखाई पड़ता है, तो बात ही खतम हो गई; चाह का सवाल क्या है! और चाह नहीं करनी चाहिए, ऐसी धारणा का क्या सवाल है!

कृष्ण बहुत ऊंची जगह से बोल रहे हैं। महावीर और बुद्ध भी उसी ऊंची जगह पर खड़े हैं, लेकिन वे बोल बहुत नीची जगह से रहे हैं, वहां जहां आप खड़े हैं।

सदगुरु अपने हिसाब से चुनते हैं। वे किसको कहना चाहते हैं, इस पर निर्भर करता है।

महावीर आपको समझते हैं। वे जानते हैं कि आप चोर हो। और आपको यह कहना कि चोरी और गैर—चोरी में कोई फर्क नहीं है, आप चोरी में ही लगे रहोगे। तो आपको समझा रहें हैं कि चोरी पाप है। हालांकि महावीर भी जानते हैं कि चोरी तभी पाप हो सकती है, जब धन में मूल्य हो। और जब धन में कोई मूल्य नहीं है, चोरी में कोई मूल्य नहीं रह गया।

इसे हम ऐसा समझें। महावीर और बुद्ध समझा रहे हैं कि हिंसा पाप है; और साथ ही यह भी समझा रहे हैं कि आत्मा अमर है, उसे काटा नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में विरोध है। अगर मैं किसी को काट ही नहीं सकता, तो हिंसा हो कैसे सकती है? इसे थोड़ा समझें।

महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि हिंसा पाप है; किसी को मारो मत। और पूरी जिंदगी समझा रहे हैं कि मारा तो जा ही नहीं सकता, क्योंकि आत्मा अमर है; और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है।

आपके भीतर दो चीजें हैं, शरीर है और आत्मा है। महावीर और बुद्ध भी कहते हैं कि आत्मा अमर है, उसको मारा नहीं जा सकता, और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है। तो फिर हिंसा का क्या मतलब है? फिर हिंसा में पाप कहां है? आत्मा मर नहीं सकती, शरीर मरा ही हुआ है, तो हिंसा में पाप कैसे हो सकता है? और जब आप किसी को मार ही नहीं सकते, तो बचा कैसे, सकते हैं? यह भी थोड़ा समझ लें।

अहिंसा की कितनी कीमत रह जाएगी! अगर हिंसा में कोई मूल्य नहीं है, तो अहिंसा का सारा मूल्य चला गया। अगर आत्मा काटी ही नहीं जा सकती, तो अहिंसा का क्या मतलब है? आप हिंसा कर ही नहीं सकते, अहिंसा कैसे करिएगा! इसे थोड़ा ठीक से समझें। हिंसा कर सकते हों, तो अहिंसा भी हो सकती है। जब हिंसा हो ही नहीं सकती, तो अहिंसा कैसे करिएगा?

लेकिन महावीर और बुद्ध आपकी तरफ देखकर बोल रहे हैं। वे जानते हैं कि आपको न तो आत्मा का पता है, जो अमर है; न आपको इस बात का पता है कि शरीर जो कि मरणधर्मा है। आप तो शरीर को ही अपना होना मान रहे हैं, जो मरणधर्मा है। इसलिए जरा ही क्रोध आता है, तो लगता है, दूसरे आदमी को तलवार से काटकर दो टुकड़े कर दो। आप जब दूसरे आदमी को काटने की सोचते हैं, तो आप दूसरे आदमी को भी शरीर मानकर चल रहे हैं। इसलिए हिंसा का भाव पैदा होता है।

इस हिंसा के भाव के पैदा होने में आपकी भूल है, आपका अज्ञान है। यह अज्ञान टूटे, इसकी महावीर और बुद्ध चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन कृष्ण का संदेश अंतिम है, आत्यंतिक है; वह अल्टिमेट है। वह पहली क्लास के बच्चों के लिए दिया गया नहीं है। वह आखिरी कक्षा में बैठे हुए लोगों के लिए दिया गया है।

इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू पागलपन की बात मत कर कि तू लोगों को काट सकता है। आज तक दुनिया में कोई भी नहीं काट सका। काटना असंभव है। क्योंकि वह जो भीतर है, शरीर को काटे जाने से कटता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को जलाने से जलता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को छेद सकते हैं शस्त्र, वह छिदता नहीं। तो इसलिए तू पहली तो भ्रांति छोड दे कि तू काट सकता है। इसलिए तू हिंसक हो सकता है, यह बात ही भूल। और जब तू हिंसक ही नहीं हो सकता, तो अहिंसक होने का कोई सवाल नहीं है।

यह परम उपदेश है। और इसलिए जिनके पास छोटी बुद्धि है, सांसारिक बुद्धि है, उनकी समझ में नहीं आ सकेगा। पर कुछ हर्जा नहीं, वे महावीर और बुद्ध को समझकर चलें। जैसे—जैसे उनकी समझ बढ़ेगी, वैसे—वैसे उनको दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर और बुद्ध भी कहते तो यही हैं।

समझ बढ़ेगी, तब उनके खयाल में आएगा कि वे भी कहते हैं, आत्मा अमर है। वे भी कहते हैं कि आत्मा को मारने का कोई उपाय नहीं है। और वे भी कहते हैं कि धन केवल मान्यता है, उसमें कोई मूल्य है नहीं; मान्यता का मूल्य है। लेकिन जो माने हुए बैठे हैं, उनको छीनकर अकारण दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि दुख वे आपके द्वारा धन छीनने के कारण नहीं पाते हैं। वे धन में मूल्य मानते हैं, इसलिए पाते हैं।

थोड़ा समझ लें। अगर मेरा कोई धन चुरा ले जाता है, तो मैं जो दुख पाता हूं वह उसकी चोरी के कारण नहीं पाता हूं; वह दुख मैं इसलिए पाता हूं कि मैंने अपने धन में बड़ा मूल्य माना हुआ था। वह मेरे ही अज्ञान के कारण मैं पाता हूं, चोर के कारण नहीं पाता। मैं तो पाता हूं इसलिए कि मैं सोचता था, धन बड़ा मूल्यवान है और कोई मुझसे छीन ले गया।

कृष्ण कह रहे हैं, धन का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए न चोरी का कोई मूल्य है और न दान का कोई मूल्य है।

ध्यान रखें, धन में मूल्य हो, तो चोरी और दान दोनों में मूल्य है। फिर चोरी पाप है और दान पुण्य है। लेकिन अगर धन ही निर्मूल्य है, तो चोरी और दान, सब निर्मूल्य हो गए। यह आखिरी संदेश है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप चोरी करने चले जाएं।

इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप दान न करें। इसका कुल मतलब इतना है कि आप जान लें कि धन में कोई भी मूल्य नहीं है।

कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तू हिंसा करने में लग जा। क्योंकि कृष्ण तो मानते ही नहीं कि हिंसा हो सकती है। इसलिए कैसे कहेंगे कि हिंसा करने में लग जा! कृष्ण तो यह कह रहे हैं कि हिंसा—अहिंसा भ्रांतियां हैं। तू कर नहीं सकता। लेकिन करने की अगर तू चेष्टा करे, तो तू अकारण दुख में पड़ेगा।

इसे हम और तरह से भी समझें। क्योंकि यह बहुत गहरा है, और जैनों, बौद्धों और हिंदुओं के बीच जो बुनियादी फासला है, वह यह है।

इसलिए गीता को जैन और बौद्ध स्वीकार नहीं करते। कृष्ण को उन्होंने नरक में डाला हुआ है। अपने शास्त्रों में उन्होंने लिखा है कि कृष्ण नरक में पड़े हैं। और नरक से उनका छुटकारा आसान नहीं है, क्योंकि इतनी खतरनाक बात समझाने वाला आदमी नरक में होना ही चाहिए। जो यह समझा रहा है कि अर्जुन, तू बेफिक्री से काट, क्योंकि कोई कटता ही नहीं है। इससे ज्यादा खतरनाक और क्या संदेश होगा!

और जो कह रहा है, किसी भी तरह का वर्तन करो, वर्तन का कोई मूल्य नहीं है; सिर्फ पुरुष के भाव में प्रतिष्ठा चाहिए। तुम्हारे आचरण की कोई भी कीमत नहीं है। तुम्हारा अंतस कहां है, यही सवाल है। तुम्हारा आचरण कुछ भी हो, उसका कोई भी मूल्य नहीं है, न निषेधात्मक, न विधायक। तुम्हारे आचरण की कोई संगति ही नहीं है। तुम्हारी आत्मा बस, काफी है। ऐसी समाज विरोधी, आचरण विरोधी, नीति विरोधी, अहिंसा विरोधी बात!

तो जैनों ने उन्हें नरक में डाल दिया है। और तब तक वे न छूटेंगे, जब तक इस सृष्टि का अंत न हो जाए। दूसरी सृष्टि जब जन्मेगी, तब वे छूटेंगे।

ठीक है। जैनों की मान्यता के हिसाब से कृष्ण खतरनाक हैं, नरक में डालना चाहिए। लेकिन कृष्ण को समझने की कोशिश करें, तो कृष्ण ने इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम बात कही जा सकती है, वह कही है। लेकिन कहने का ढंग भी उनका उतना ही श्रेष्ठ है, जितनी बात श्रेष्ठ है। उन्होंने उसे छोटे लोगों के लिए साधारण बुद्धि के लोगों के लिए मिश्रित नहीं किया, समझौता नहीं किया है। उन्होंने आपसे कोई समझौता नहीं किया है। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही कह दिया है। उसके क्या परिणाम होंगे, इसकी भी फिक्र नहीं की। और निश्चित ही कुछ लोग तो चाहिए जो सत्य को वैसा ही कह दें जैसा है, बिना परिणामों की फिक्र किए। अन्यथा कोई भी सत्य कहा नहीं जा सकता।

महावीर, बुद्ध समझाते हैं, दूसरे को दुख मत दो। और महावीर, बुद्ध यह भी समझाते हैं कि तुम्हें जब दुख होता है, तो तुम्हारे अपने कारण होता है, दूसरा तुम्हें दुख नहीं देता। इन दोनों बातों का मतलब क्या हुआ?

एक तरफ कहते हैं, दूसरे को दुख मत दो; दुख देना पाप है। दूसरी तरफ कहते हैं कि तुम्हें जब कोई दुख देता है, तो तुम अपने ही कारण दुख पाते हो, दूसरा तुम्हें दुख नहीं दे रहा है। दूसरा तुम को दुख दे नहीं सकता।

ये दोनों बातें तो विरोधी हो गईं। इसमें पहली बात साधारण बुद्धि के लोगों के लिए कही गई है; दूसरी बात परम सत्य है। और अगर दूसरी सत्य है, तो पहली झूठ हो गई।

जब मैं दुख पाता हूं तो महावीर कहते हैं कि तुम अपने कारण दुख पा रहे हो, कोई तुम्हें दुख नहीं देता। एक आदमी मुझे पत्थर मार देता है। महावीर कहते हैं, तुम अपने कारण दुख पा रहे हो। क्योंकि तुमने शरीर को मान लिया है अपना होना, इसलिए पत्थर लगने से शरीर की पीड़ा को तुम अपनी पीड़ा मान रहे हो। ठीक! मैं किसी के सिर में पत्थर मार देता हूं तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख मत पहुंचाओ।

यह बात कंट्राडिक्टरी हो गई। जब मुझे कोई पत्थर मारता है, तो दुख का कारण मैं हूं! और जब मैं किसी को पत्थर मारता हूं तब भी दुख का कारण मैं हूं!

यह दो तल पर है बात। दूसरे को दुख मत पहुंचाओ, यह क्षुद्र आदमी के लिए कहा गया है। क्योंकि क्षुद्र आदमी दूसरे को दुख पहुंचाने में बड़ा उत्सुक है; उसके जीवनभर का एक ही सुख है कि दूसरे को कैसे दुख पहुंचाएं। वह मरते दम तक एक ही बस काम करता रहता है कि दूसरों को कैसे दुख पहुंचाएं। जब वह सोचता भी है कि मेरा सुख क्या हो, तब भी दूसरे के दुख पर ही उसका सुख निर्भर होता है।

आप अपने सुखों को खोजें, तो आप पता लगा लेंगे कि जब तक आपका सुख दूसरे को दुख न देता हो, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप एक बड़ा मकान बना लें, लेकिन जब तक दूसरों के मकान छोटे न पड़ जाएं, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप जो भी कर रहे हैं, आपके सुख में दूसरे के सुख को मिटाने की चेष्टा है।

इस तरह के आदमी के लिए महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि दूसरे को दुख पहुंचाओ मत। लेकिन यह बात ऐसे झूठ है, क्योंकि दूसरे को कोई दुख पहुंचा नहीं सकता, जब तक कि दूसरा दुख पाने को राजी न हो। यह दूसरे की सहमति पर निर्भर है। आप पहुंचा नहीं सकते।

फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि दूसरे को दुख पहुंचाने की चेष्टा में दूसरे को तो दुख नहीं पहुंचाया जा सकता, तुम अपने को ही दुख पहुंचाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता दूसरे को दुख पहुंचाना, लेकिन तुम अपने को दुख पहुचाओगे। क्योंकि तुम दुख के बीज बो रहे हो। और जो तुम दूसरे के लिए करते हो, वह तुम्हारे लिए होता जाता है।

और जब तुम्हारे लिए कोई दुख पहुंचाए तब तुम समझना कि कोई दूसरा तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। यह हो सकता है कि तुम्हारे अपने ही दूसरों को पहुंचाए गए दुखों के बीज दूसरे की सहायता से, संयोग से, निमित्त से अब तुम्हारे लिए फल बन रहे हों। लेकिन दुख का मूल कारण तुम स्वयं ही हो।

यह दूसरी बात ऊंचे तल से कही गई है। और पहली बात को जो पूरा कर लेगा, उसको दूसरी बात समझ में आ सकेगी। जो दूसरे को दुख पहुंचाना बंद कर देगा, उसे यह भी खयाल में आ जाएगा कि कोई दूसरा मुझे दुख नहीं पहुंचा सकता। यह दो तल की, दो कक्षाओं की बात है।

कृष्ण एक तल की सीधी बात कह रहे हैं, वे आखिरी बात कह रहे हैं। उनके सामने जो व्यक्ति खड़ा था, वह साधारण नहीं है। जिस अर्जुन से वे बात कर रहे थे, उसकी प्रतिभा कृष्ण से जरा भी कम नहीं है। संभावना उतनी ही है, जितनी कृष्ण की है। वह कोई मंद बुद्धि व्यक्ति नहीं है। वह धनी है प्रतिभा का। उसके पास वैसा ही निखरा हुआ चैतन्य है, वैसी ही बुद्धि है, वैसा ही प्रगाढ़ तर्क है। वे जिससे बात कर रहे हैं; वह शिखर की बात है।

और इसीलिए गीता लोग कंठस्थ तो कर लेते हैं, लेकिन गीता को समझ नहीं पाते। और बहुत—से लोग जो गीता को मानते हैं, वे भी गीता में अड़चन पाते हैं। मान लेते हैं, तो भी गीता उनको दिक्कत देती है। कठिनाई मालूम पड़ती है।

महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को भी, जो गीता को माता कहते हैं, उनको भी गीता में तकलीफ है। क्योंकि यह हिंसा—अहिंसा उनको भी सताती है। वे भी रास्ता निकालते हैं कोई। क्योंकि उनका मन भी यह मानने की हिम्मत नहीं कर पाता कि कृष्ण जो कहते हैं, वह ठीक ही कहते हैं कि काटो, कोई कटता नहीं। मारो, कोई मरता नहीं। भयभीत मत होओ, डरो मत, तुम दूसरे को दुख पहुंचा नहीं सकते। इसलिए दूसरे को दुख न पहुंचाऊं, ऐसी चेष्टा भी व्यर्थ है। और मैंने दूसरे को दुख नहीं पहुंचाया, ऐसा अहंकार पागलपन है।

गांधी तक को तकलीफ होती है कि क्या करें। एक तरफ अहिंसा है। गांधी बुद्धि से जैन हैं, नब्बे प्रतिशत। जन्म से हिंदू हैं, दस प्रतिशत। तो गीता के साथ मोह भी है, लगाव भी है; कृष्ण को छोड़ भी नहीं सकते। और वह जो नब्बे प्रतिशत जैन होना है, क्योंकि गुजरात की हवा जैनियों की हवा है। वहां हिंदू भी जैन ही हैं। उसके सोचने के तरीके के ढंग, वह सब जैन की आधारशिला पर निर्मित हो गए हैं।

तो गांधी गीता को भ्रष्ट कर देते हैं। वे फिर तरकीबें निकाल लेते हैं समझाने की। वे कहते हैं, यह युद्ध वास्तविक नहीं है। यह युद्ध तो मनुष्य के भीतर जो बुराई और अच्छाई है, उसका युद्ध है। यह कोई युद्ध वास्तविक नहीं है। और कृष्ण जो समझा रहे हैं काटने—पीटने को, यह बुराई को काटने—पीटने को समझा रहे हैं, मनुष्यों को नहीं। ये कौरव बुराई के प्रतीक हैं; और ये पांडव भलाई के प्रतीक हैं। यह मनुष्य की अंतरात्मा में चलता शुभ और अशुभ का द्वंद्व है। बस, इस प्रतीक को पकड़कर फिर गीता में दिक्कत नहीं रह जाती, फिर अड़चन नहीं रह जाती।

मगर यह बात सरासर गलत है। यह प्रतीक अच्छा है, लेकिन यह बात गलत है। कृष्ण तो वही कह रहे हैं, जो वे कह रहे हैं। वे तो यह कह रहे हैं कि मारने की घटना घटती ही नहीं, इसलिए मार सकते नहीं हो, तो मारने की सोचो भी मत। पहली बात। और बचाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। बचाओगे कैसे?

तुम दूसरे के साथ कुछ कर ही नहीं सकते हो, तुम जो भी कर सकते हो, अपने ही साथ कर सकते हो! और जब तुम दूसरे को. भी मारते हो, तो तुम अपने को ही मार रहे हो। जब तुम दूसरे को बचाते हो, तो तुम अपने को ही बचा रहे हो। कृष्ण यह कह रहे हैं कि तुम अपने से बाहर जा ही नहीं सकते। तुम अपने पुरुष में ही ठहरे हुए हो। तुम सिर्फ भावनाओं में जा सकते हो।

एक आदमी सोच रहा है कि दूसरे को मार डालूं चोट पहुंचाऊं। वह सब भावनाएं कर रहा है। वह जाकर शरीर को तोड़ भी सकता है। शरीर तक उसकी पहुंच हो जाएगी, क्योंकि शरीर टूटा ही हुआ है। लेकिन वह जो भीतर चैतन्य था, उसको छू भी नहीं पाएगा। और अगर आपको लगता है कि आप छू पाए तो अपने कारण नहीं, वह जो चैतन्य था भीतर, उसके भाव के कारण। अगर उसने मान लिया कि तुम मुझे मारने आए हो, तुम मुझे मार रहे हो, तुम मुझे दुख दे रहे हो, तो यह उसका अपना भाव है। इस कारण तुम्हें लगता है कि तुम उसको दुख दे पाए।

इसे हम ऐसा समझें। अगर आप महावीर को मारने जाएं, तो आप महावीर को दुख नहीं पहुंचा पाएंगे। बहुत लोगों ने मारा है और दुख नहीं पहुंचा पाए। महावीर के कानों में किसी ने खीले छेद दिए, लेकिन दुख नहीं पहुंचा पाए। क्यों? क्योंकि महावीर अब भावना नहीं करते। तुम उन्हें दुख पहुंचाने की कोशिश करते हो, लेकिन वे दुख को लेते नहीं हैं। और जब तक वे न लें, दुख घटित नहीं हो सकता। तुम पहुंचाने की कामना कर सकते हो; लेने का काम उन्हीं का है कि वे लें भी। जब तक वे न लें, तुम नहीं पहुंचा सकते। इसलिए महावीर को हम दुख नहीं पहुंचा सकते, क्योंकि महावीर दुख लेने को अपने भीतर राजी नहीं हैं।

आप उस व्यक्ति को दुख पहुंचा सकते हैं, जो दुख लेने को राजी है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आपके कारण दुख नहीं लेता; वह दुख लेने को राजी है, इसलिए लेता है। और अगर आप न पहुंचाते, तो कोई और पहुंचाता। और अगर कोई भी पहुंचाने वाला न मिलता, तो भी वह आदमी कल्पित करके दुख पाता। वह दुख लेने को राजी था। वह कोई भी उपाय खोज लेता और दुखी होता।

आप थोड़े दिन, सात दिन के लिए एक कमरे में बंद हो जाएं, जहां कोई दुख पहुंचाने नहीं आता, कोई गाली नहीं देता, कोई क्रोध नहीं करवाता। आप चकित हो जाएंगे कि सात दिन में अचानक आप किसी क्षण में दुखी हो जाते हैं, जब कि कोई दुख पहुंचाने वाला नहीं है। और किसी क्षण में अचानक क्रोध से भर जाते हैं, जब कि किसी ने कोई गाली नहीं दी, किसी ने कोई अपमान नहीं किया। और किसी समय आप बड़े आनंदित हो जाते हैं, जब कि कोई प्रेम करने वाला नहीं है।

अगर सात दिन आप मौन में, स्वात में बैठें, तो आप चकित हो जाएंगे कि आपके भीतर भावों का वर्तन चलता ही रहता है। और बिना किसी के आप सुखी—दुखी भी होते रहते हैं।

एक दफा यह आपको दिखाई पड़ जाए कि मैं बिना किसी के सुखी—दुखी हो रहा हूं तो आपको खयाल आ जाएगा कि दूसरे ज्यादा से ज्यादा आपको अपनी भावनाएं टांगने के लिए खूंटी का काम करते हैं, इससे ज्यादा नहीं। वे निमित्त से ज्यादा नहीं हैं।

यही कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू निमित्त से ज्यादा नहीं है। तू यह खयाल ही छोड़ दे कि तू कर्ता है। उस कर्ता में ही कृष्ण के लिए एकमात्र अज्ञान है।

हमें समझ में आता है कि हिंसा करना बुरा है। हमें यह समझ में नहीं आता कि अहिंसा करना भी बुरा है। हिंसा करना बुरा है, क्योंकि दूसरे को दुख पहुंचता है, हमारा खयाल है। लेकिन कृष्ण के हिसाब से हिंसा करना इसलिए बुरा है कि कर्ता का भाव बुरा है, कि मैं कर रहा हूं। इससे अहंकार घना होता है।

अगर हिंसा करना बुरा है कर्ता के कारण, तो अहिंसा करना भी उतना ही बुरा है कर्ता के कारण। और कृष्ण कहते हैं, जड़ को ही काट दो; तुम कर्ता मत बनो। न तो तुम हिंसा कर सकते हो, न तुम अहिंसा कर सकते हो। तुम कुछ कर नहीं सकते। तुम केवल हो सकते हो। तुम अपने इस होने में राजी हो जाओ। फिर जो कुछ हो रहा हो, उसे होने दो।

ओशो रजनीश




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...