बुद्ध, महावीर की शिक्षाएं नैतिक हैं और बहुत साधारण आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं। कृष्ण की शिक्षाएं धार्मिक हैं और बहुत असाधारण आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं।
बुद्ध, महावीर की शिक्षाएं अत्यंत साधारण बुद्धि के आदमी की भी समझ में आ जाएंगी; उनमें जरा भी अड़चन नहीं है। उसमें थर्ड रेट, जो आखिरी बुद्धि का आदमी है, उसको ध्यान में रखा गया है।
कृष्ण की शिक्षाएं प्रथम कोटि के मनुष्य की ही समझ में आ सकती हैं। वे अति जटिल हैं। और महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत ऊंची हैं। थोड़ा कठिन होगा समझना।
हम सबको समझ में आ जाता है कि चोरी करना पाप है। चोर को भी समझ में आता है। आपको ही समझ में आता है, ऐसा नहीं; चोर को भी समझ में आता है कि चोरी करना बुरा है। लेकिन चोरी करना बुरा क्यों है?
चोरी करना बुरा तभी हो सकता है, जब संपत्ति सत्य हो; पहली बात। धन बहुत मूल्यवान हो और धन पर किसी का कब्जा माना जाए व्यक्तिगत अधिकार माना जाए तब चोरी करना बुरा हो सकता है।
धन किसका है? एक तो यह माना जाए कि व्यक्ति का अधिकार है धन पर, इसलिए उससे जो धन छीनता है, वह नुकसान करता है। दूसरा यह माना जाए कि धन बहुत मूल्यवान है। अगर धन में कोई मूल्य ही न हो, तो चोरी में कितना मूल्य रह जाएगा? इसे थोड़ा समझें।
जितना मूल्य धन में होगा, उतना ही मूल्य चोरी में हो सकता है। अगर धन का बहुत मूल्य है, तो चोरी का मूल्य है। लेकिन कृष्ण जिस तल से बोल रहे हैं, वहां धन मिट्टी है।
यह बड़े मजे की बात है कि महावीर को मानने वाले जैन साधु भी कहते हैं, धन मिट्टी है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है। मिट्टी को चुराना क्या पाप होगा? धन कचरा है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है! अगर धन कचरा है, तो चोरी पाप कैसे हो सकती है? कचरे को चुराने को कोई पाप नहीं कहता। वह धन लगता तो मूल्यवान ही है।
असल में जो समझाते हैं कि कचरा है, वे भी इसीलिए अपने को समझा रहे हैं, बाकी लगता तो उनको भी धन मूल्यवान है। इसलिए धन की चोरी भी मूल्यवान मालूम पड़ती है।
कोई भी तो नहीं कहता कि मिट्टी मिट्टी है। लोग स्वर्ण मिट्टी है, ऐसा क्यों कहते हैं? स्वर्ण तो स्वर्ण ही दिखाई पड़ता है, लेकिन वासना को दबाने के लिए आदमी अपने को समझाता है कि मिट्टी है, क्या चाहना उसको! लेकिन चाह भीतर खड़ी है, उस चाह को काटता है। मिट्टी है, क्या चाहना उसको!
यह स्त्री की देह है, इसमें कोई भी सौंदर्य नहीं है; हड्डी, मांस—मज्जा भरा है, ऐसा अपने को समझाता है। सौंदर्य उसको दिखाई पड़ता है। उसकी वासना मांग करती है। उसकी वासना दौड़ती है। वह वासना को काटने के उपाय कर रहा है। वह यह समझा रहा है कि नहीं, इसमें हड्डी, मांस—मज्जा है; कुछ भी नहीं है। सब गंदी चीजें भीतर भरी हैं; यह मल का ढेर है।
लेकिन यह समझाने की जरूरत क्या है? मल के ढेर को देखकर कोई भी नहीं कहता कि यह मल का ढेर है, इसकी चाह नहीं करनी चाहिए। अगर स्त्री में मल ही दिखाई पड़ता है, तो बात ही खतम हो गई; चाह का सवाल क्या है! और चाह नहीं करनी चाहिए, ऐसी धारणा का क्या सवाल है!
कृष्ण बहुत ऊंची जगह से बोल रहे हैं। महावीर और बुद्ध भी उसी ऊंची जगह पर खड़े हैं, लेकिन वे बोल बहुत नीची जगह से रहे हैं, वहां जहां आप खड़े हैं।
सदगुरु अपने हिसाब से चुनते हैं। वे किसको कहना चाहते हैं, इस पर निर्भर करता है।
महावीर आपको समझते हैं। वे जानते हैं कि आप चोर हो। और आपको यह कहना कि चोरी और गैर—चोरी में कोई फर्क नहीं है, आप चोरी में ही लगे रहोगे। तो आपको समझा रहें हैं कि चोरी पाप है। हालांकि महावीर भी जानते हैं कि चोरी तभी पाप हो सकती है, जब धन में मूल्य हो। और जब धन में कोई मूल्य नहीं है, चोरी में कोई मूल्य नहीं रह गया।
इसे हम ऐसा समझें। महावीर और बुद्ध समझा रहे हैं कि हिंसा पाप है; और साथ ही यह भी समझा रहे हैं कि आत्मा अमर है, उसे काटा नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में विरोध है। अगर मैं किसी को काट ही नहीं सकता, तो हिंसा हो कैसे सकती है? इसे थोड़ा समझें।
महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि हिंसा पाप है; किसी को मारो मत। और पूरी जिंदगी समझा रहे हैं कि मारा तो जा ही नहीं सकता, क्योंकि आत्मा अमर है; और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है।
आपके भीतर दो चीजें हैं, शरीर है और आत्मा है। महावीर और बुद्ध भी कहते हैं कि आत्मा अमर है, उसको मारा नहीं जा सकता, और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है। तो फिर हिंसा का क्या मतलब है? फिर हिंसा में पाप कहां है? आत्मा मर नहीं सकती, शरीर मरा ही हुआ है, तो हिंसा में पाप कैसे हो सकता है? और जब आप किसी को मार ही नहीं सकते, तो बचा कैसे, सकते हैं? यह भी थोड़ा समझ लें।
अहिंसा की कितनी कीमत रह जाएगी! अगर हिंसा में कोई मूल्य नहीं है, तो अहिंसा का सारा मूल्य चला गया। अगर आत्मा काटी ही नहीं जा सकती, तो अहिंसा का क्या मतलब है? आप हिंसा कर ही नहीं सकते, अहिंसा कैसे करिएगा! इसे थोड़ा ठीक से समझें। हिंसा कर सकते हों, तो अहिंसा भी हो सकती है। जब हिंसा हो ही नहीं सकती, तो अहिंसा कैसे करिएगा?
लेकिन महावीर और बुद्ध आपकी तरफ देखकर बोल रहे हैं। वे जानते हैं कि आपको न तो आत्मा का पता है, जो अमर है; न आपको इस बात का पता है कि शरीर जो कि मरणधर्मा है। आप तो शरीर को ही अपना होना मान रहे हैं, जो मरणधर्मा है। इसलिए जरा ही क्रोध आता है, तो लगता है, दूसरे आदमी को तलवार से काटकर दो टुकड़े कर दो। आप जब दूसरे आदमी को काटने की सोचते हैं, तो आप दूसरे आदमी को भी शरीर मानकर चल रहे हैं। इसलिए हिंसा का भाव पैदा होता है।
इस हिंसा के भाव के पैदा होने में आपकी भूल है, आपका अज्ञान है। यह अज्ञान टूटे, इसकी महावीर और बुद्ध चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन कृष्ण का संदेश अंतिम है, आत्यंतिक है; वह अल्टिमेट है। वह पहली क्लास के बच्चों के लिए दिया गया नहीं है। वह आखिरी कक्षा में बैठे हुए लोगों के लिए दिया गया है।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू पागलपन की बात मत कर कि तू लोगों को काट सकता है। आज तक दुनिया में कोई भी नहीं काट सका। काटना असंभव है। क्योंकि वह जो भीतर है, शरीर को काटे जाने से कटता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को जलाने से जलता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को छेद सकते हैं शस्त्र, वह छिदता नहीं। तो इसलिए तू पहली तो भ्रांति छोड दे कि तू काट सकता है। इसलिए तू हिंसक हो सकता है, यह बात ही भूल। और जब तू हिंसक ही नहीं हो सकता, तो अहिंसक होने का कोई सवाल नहीं है।
यह परम उपदेश है। और इसलिए जिनके पास छोटी बुद्धि है, सांसारिक बुद्धि है, उनकी समझ में नहीं आ सकेगा। पर कुछ हर्जा नहीं, वे महावीर और बुद्ध को समझकर चलें। जैसे—जैसे उनकी समझ बढ़ेगी, वैसे—वैसे उनको दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर और बुद्ध भी कहते तो यही हैं।
समझ बढ़ेगी, तब उनके खयाल में आएगा कि वे भी कहते हैं, आत्मा अमर है। वे भी कहते हैं कि आत्मा को मारने का कोई उपाय नहीं है। और वे भी कहते हैं कि धन केवल मान्यता है, उसमें कोई मूल्य है नहीं; मान्यता का मूल्य है। लेकिन जो माने हुए बैठे हैं, उनको छीनकर अकारण दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि दुख वे आपके द्वारा धन छीनने के कारण नहीं पाते हैं। वे धन में मूल्य मानते हैं, इसलिए पाते हैं।
थोड़ा समझ लें। अगर मेरा कोई धन चुरा ले जाता है, तो मैं जो दुख पाता हूं वह उसकी चोरी के कारण नहीं पाता हूं; वह दुख मैं इसलिए पाता हूं कि मैंने अपने धन में बड़ा मूल्य माना हुआ था। वह मेरे ही अज्ञान के कारण मैं पाता हूं, चोर के कारण नहीं पाता। मैं तो पाता हूं इसलिए कि मैं सोचता था, धन बड़ा मूल्यवान है और कोई मुझसे छीन ले गया।
कृष्ण कह रहे हैं, धन का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए न चोरी का कोई मूल्य है और न दान का कोई मूल्य है।
ध्यान रखें, धन में मूल्य हो, तो चोरी और दान दोनों में मूल्य है। फिर चोरी पाप है और दान पुण्य है। लेकिन अगर धन ही निर्मूल्य है, तो चोरी और दान, सब निर्मूल्य हो गए। यह आखिरी संदेश है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप चोरी करने चले जाएं।
इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप दान न करें। इसका कुल मतलब इतना है कि आप जान लें कि धन में कोई भी मूल्य नहीं है।
कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तू हिंसा करने में लग जा। क्योंकि कृष्ण तो मानते ही नहीं कि हिंसा हो सकती है। इसलिए कैसे कहेंगे कि हिंसा करने में लग जा! कृष्ण तो यह कह रहे हैं कि हिंसा—अहिंसा भ्रांतियां हैं। तू कर नहीं सकता। लेकिन करने की अगर तू चेष्टा करे, तो तू अकारण दुख में पड़ेगा।
इसे हम और तरह से भी समझें। क्योंकि यह बहुत गहरा है, और जैनों, बौद्धों और हिंदुओं के बीच जो बुनियादी फासला है, वह यह है।
इसलिए गीता को जैन और बौद्ध स्वीकार नहीं करते। कृष्ण को उन्होंने नरक में डाला हुआ है। अपने शास्त्रों में उन्होंने लिखा है कि कृष्ण नरक में पड़े हैं। और नरक से उनका छुटकारा आसान नहीं है, क्योंकि इतनी खतरनाक बात समझाने वाला आदमी नरक में होना ही चाहिए। जो यह समझा रहा है कि अर्जुन, तू बेफिक्री से काट, क्योंकि कोई कटता ही नहीं है। इससे ज्यादा खतरनाक और क्या संदेश होगा!
और जो कह रहा है, किसी भी तरह का वर्तन करो, वर्तन का कोई मूल्य नहीं है; सिर्फ पुरुष के भाव में प्रतिष्ठा चाहिए। तुम्हारे आचरण की कोई भी कीमत नहीं है। तुम्हारा अंतस कहां है, यही सवाल है। तुम्हारा आचरण कुछ भी हो, उसका कोई भी मूल्य नहीं है, न निषेधात्मक, न विधायक। तुम्हारे आचरण की कोई संगति ही नहीं है। तुम्हारी आत्मा बस, काफी है। ऐसी समाज विरोधी, आचरण विरोधी, नीति विरोधी, अहिंसा विरोधी बात!
तो जैनों ने उन्हें नरक में डाल दिया है। और तब तक वे न छूटेंगे, जब तक इस सृष्टि का अंत न हो जाए। दूसरी सृष्टि जब जन्मेगी, तब वे छूटेंगे।
ठीक है। जैनों की मान्यता के हिसाब से कृष्ण खतरनाक हैं, नरक में डालना चाहिए। लेकिन कृष्ण को समझने की कोशिश करें, तो कृष्ण ने इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम बात कही जा सकती है, वह कही है। लेकिन कहने का ढंग भी उनका उतना ही श्रेष्ठ है, जितनी बात श्रेष्ठ है। उन्होंने उसे छोटे लोगों के लिए साधारण बुद्धि के लोगों के लिए मिश्रित नहीं किया, समझौता नहीं किया है। उन्होंने आपसे कोई समझौता नहीं किया है। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही कह दिया है। उसके क्या परिणाम होंगे, इसकी भी फिक्र नहीं की। और निश्चित ही कुछ लोग तो चाहिए जो सत्य को वैसा ही कह दें जैसा है, बिना परिणामों की फिक्र किए। अन्यथा कोई भी सत्य कहा नहीं जा सकता।
महावीर, बुद्ध समझाते हैं, दूसरे को दुख मत दो। और महावीर, बुद्ध यह भी समझाते हैं कि तुम्हें जब दुख होता है, तो तुम्हारे अपने कारण होता है, दूसरा तुम्हें दुख नहीं देता। इन दोनों बातों का मतलब क्या हुआ?
एक तरफ कहते हैं, दूसरे को दुख मत दो; दुख देना पाप है। दूसरी तरफ कहते हैं कि तुम्हें जब कोई दुख देता है, तो तुम अपने ही कारण दुख पाते हो, दूसरा तुम्हें दुख नहीं दे रहा है। दूसरा तुम को दुख दे नहीं सकता।
ये दोनों बातें तो विरोधी हो गईं। इसमें पहली बात साधारण बुद्धि के लोगों के लिए कही गई है; दूसरी बात परम सत्य है। और अगर दूसरी सत्य है, तो पहली झूठ हो गई।
जब मैं दुख पाता हूं तो महावीर कहते हैं कि तुम अपने कारण दुख पा रहे हो, कोई तुम्हें दुख नहीं देता। एक आदमी मुझे पत्थर मार देता है। महावीर कहते हैं, तुम अपने कारण दुख पा रहे हो। क्योंकि तुमने शरीर को मान लिया है अपना होना, इसलिए पत्थर लगने से शरीर की पीड़ा को तुम अपनी पीड़ा मान रहे हो। ठीक! मैं किसी के सिर में पत्थर मार देता हूं तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख मत पहुंचाओ।
यह बात कंट्राडिक्टरी हो गई। जब मुझे कोई पत्थर मारता है, तो दुख का कारण मैं हूं! और जब मैं किसी को पत्थर मारता हूं तब भी दुख का कारण मैं हूं!
यह दो तल पर है बात। दूसरे को दुख मत पहुंचाओ, यह क्षुद्र आदमी के लिए कहा गया है। क्योंकि क्षुद्र आदमी दूसरे को दुख पहुंचाने में बड़ा उत्सुक है; उसके जीवनभर का एक ही सुख है कि दूसरे को कैसे दुख पहुंचाएं। वह मरते दम तक एक ही बस काम करता रहता है कि दूसरों को कैसे दुख पहुंचाएं। जब वह सोचता भी है कि मेरा सुख क्या हो, तब भी दूसरे के दुख पर ही उसका सुख निर्भर होता है।
आप अपने सुखों को खोजें, तो आप पता लगा लेंगे कि जब तक आपका सुख दूसरे को दुख न देता हो, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप एक बड़ा मकान बना लें, लेकिन जब तक दूसरों के मकान छोटे न पड़ जाएं, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप जो भी कर रहे हैं, आपके सुख में दूसरे के सुख को मिटाने की चेष्टा है।
इस तरह के आदमी के लिए महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि दूसरे को दुख पहुंचाओ मत। लेकिन यह बात ऐसे झूठ है, क्योंकि दूसरे को कोई दुख पहुंचा नहीं सकता, जब तक कि दूसरा दुख पाने को राजी न हो। यह दूसरे की सहमति पर निर्भर है। आप पहुंचा नहीं सकते।
फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि दूसरे को दुख पहुंचाने की चेष्टा में दूसरे को तो दुख नहीं पहुंचाया जा सकता, तुम अपने को ही दुख पहुंचाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता दूसरे को दुख पहुंचाना, लेकिन तुम अपने को दुख पहुचाओगे। क्योंकि तुम दुख के बीज बो रहे हो। और जो तुम दूसरे के लिए करते हो, वह तुम्हारे लिए होता जाता है।
और जब तुम्हारे लिए कोई दुख पहुंचाए तब तुम समझना कि कोई दूसरा तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। यह हो सकता है कि तुम्हारे अपने ही दूसरों को पहुंचाए गए दुखों के बीज दूसरे की सहायता से, संयोग से, निमित्त से अब तुम्हारे लिए फल बन रहे हों। लेकिन दुख का मूल कारण तुम स्वयं ही हो।
यह दूसरी बात ऊंचे तल से कही गई है। और पहली बात को जो पूरा कर लेगा, उसको दूसरी बात समझ में आ सकेगी। जो दूसरे को दुख पहुंचाना बंद कर देगा, उसे यह भी खयाल में आ जाएगा कि कोई दूसरा मुझे दुख नहीं पहुंचा सकता। यह दो तल की, दो कक्षाओं की बात है।
कृष्ण एक तल की सीधी बात कह रहे हैं, वे आखिरी बात कह रहे हैं। उनके सामने जो व्यक्ति खड़ा था, वह साधारण नहीं है। जिस अर्जुन से वे बात कर रहे थे, उसकी प्रतिभा कृष्ण से जरा भी कम नहीं है। संभावना उतनी ही है, जितनी कृष्ण की है। वह कोई मंद बुद्धि व्यक्ति नहीं है। वह धनी है प्रतिभा का। उसके पास वैसा ही निखरा हुआ चैतन्य है, वैसी ही बुद्धि है, वैसा ही प्रगाढ़ तर्क है। वे जिससे बात कर रहे हैं; वह शिखर की बात है।
और इसीलिए गीता लोग कंठस्थ तो कर लेते हैं, लेकिन गीता को समझ नहीं पाते। और बहुत—से लोग जो गीता को मानते हैं, वे भी गीता में अड़चन पाते हैं। मान लेते हैं, तो भी गीता उनको दिक्कत देती है। कठिनाई मालूम पड़ती है।
महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को भी, जो गीता को माता कहते हैं, उनको भी गीता में तकलीफ है। क्योंकि यह हिंसा—अहिंसा उनको भी सताती है। वे भी रास्ता निकालते हैं कोई। क्योंकि उनका मन भी यह मानने की हिम्मत नहीं कर पाता कि कृष्ण जो कहते हैं, वह ठीक ही कहते हैं कि काटो, कोई कटता नहीं। मारो, कोई मरता नहीं। भयभीत मत होओ, डरो मत, तुम दूसरे को दुख पहुंचा नहीं सकते। इसलिए दूसरे को दुख न पहुंचाऊं, ऐसी चेष्टा भी व्यर्थ है। और मैंने दूसरे को दुख नहीं पहुंचाया, ऐसा अहंकार पागलपन है।
गांधी तक को तकलीफ होती है कि क्या करें। एक तरफ अहिंसा है। गांधी बुद्धि से जैन हैं, नब्बे प्रतिशत। जन्म से हिंदू हैं, दस प्रतिशत। तो गीता के साथ मोह भी है, लगाव भी है; कृष्ण को छोड़ भी नहीं सकते। और वह जो नब्बे प्रतिशत जैन होना है, क्योंकि गुजरात की हवा जैनियों की हवा है। वहां हिंदू भी जैन ही हैं। उसके सोचने के तरीके के ढंग, वह सब जैन की आधारशिला पर निर्मित हो गए हैं।
तो गांधी गीता को भ्रष्ट कर देते हैं। वे फिर तरकीबें निकाल लेते हैं समझाने की। वे कहते हैं, यह युद्ध वास्तविक नहीं है। यह युद्ध तो मनुष्य के भीतर जो बुराई और अच्छाई है, उसका युद्ध है। यह कोई युद्ध वास्तविक नहीं है। और कृष्ण जो समझा रहे हैं काटने—पीटने को, यह बुराई को काटने—पीटने को समझा रहे हैं, मनुष्यों को नहीं। ये कौरव बुराई के प्रतीक हैं; और ये पांडव भलाई के प्रतीक हैं। यह मनुष्य की अंतरात्मा में चलता शुभ और अशुभ का द्वंद्व है। बस, इस प्रतीक को पकड़कर फिर गीता में दिक्कत नहीं रह जाती, फिर अड़चन नहीं रह जाती।
मगर यह बात सरासर गलत है। यह प्रतीक अच्छा है, लेकिन यह बात गलत है। कृष्ण तो वही कह रहे हैं, जो वे कह रहे हैं। वे तो यह कह रहे हैं कि मारने की घटना घटती ही नहीं, इसलिए मार सकते नहीं हो, तो मारने की सोचो भी मत। पहली बात। और बचाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। बचाओगे कैसे?
तुम दूसरे के साथ कुछ कर ही नहीं सकते हो, तुम जो भी कर सकते हो, अपने ही साथ कर सकते हो! और जब तुम दूसरे को. भी मारते हो, तो तुम अपने को ही मार रहे हो। जब तुम दूसरे को बचाते हो, तो तुम अपने को ही बचा रहे हो। कृष्ण यह कह रहे हैं कि तुम अपने से बाहर जा ही नहीं सकते। तुम अपने पुरुष में ही ठहरे हुए हो। तुम सिर्फ भावनाओं में जा सकते हो।
एक आदमी सोच रहा है कि दूसरे को मार डालूं चोट पहुंचाऊं। वह सब भावनाएं कर रहा है। वह जाकर शरीर को तोड़ भी सकता है। शरीर तक उसकी पहुंच हो जाएगी, क्योंकि शरीर टूटा ही हुआ है। लेकिन वह जो भीतर चैतन्य था, उसको छू भी नहीं पाएगा। और अगर आपको लगता है कि आप छू पाए तो अपने कारण नहीं, वह जो चैतन्य था भीतर, उसके भाव के कारण। अगर उसने मान लिया कि तुम मुझे मारने आए हो, तुम मुझे मार रहे हो, तुम मुझे दुख दे रहे हो, तो यह उसका अपना भाव है। इस कारण तुम्हें लगता है कि तुम उसको दुख दे पाए।
इसे हम ऐसा समझें। अगर आप महावीर को मारने जाएं, तो आप महावीर को दुख नहीं पहुंचा पाएंगे। बहुत लोगों ने मारा है और दुख नहीं पहुंचा पाए। महावीर के कानों में किसी ने खीले छेद दिए, लेकिन दुख नहीं पहुंचा पाए। क्यों? क्योंकि महावीर अब भावना नहीं करते। तुम उन्हें दुख पहुंचाने की कोशिश करते हो, लेकिन वे दुख को लेते नहीं हैं। और जब तक वे न लें, दुख घटित नहीं हो सकता। तुम पहुंचाने की कामना कर सकते हो; लेने का काम उन्हीं का है कि वे लें भी। जब तक वे न लें, तुम नहीं पहुंचा सकते। इसलिए महावीर को हम दुख नहीं पहुंचा सकते, क्योंकि महावीर दुख लेने को अपने भीतर राजी नहीं हैं।
आप उस व्यक्ति को दुख पहुंचा सकते हैं, जो दुख लेने को राजी है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आपके कारण दुख नहीं लेता; वह दुख लेने को राजी है, इसलिए लेता है। और अगर आप न पहुंचाते, तो कोई और पहुंचाता। और अगर कोई भी पहुंचाने वाला न मिलता, तो भी वह आदमी कल्पित करके दुख पाता। वह दुख लेने को राजी था। वह कोई भी उपाय खोज लेता और दुखी होता।
आप थोड़े दिन, सात दिन के लिए एक कमरे में बंद हो जाएं, जहां कोई दुख पहुंचाने नहीं आता, कोई गाली नहीं देता, कोई क्रोध नहीं करवाता। आप चकित हो जाएंगे कि सात दिन में अचानक आप किसी क्षण में दुखी हो जाते हैं, जब कि कोई दुख पहुंचाने वाला नहीं है। और किसी क्षण में अचानक क्रोध से भर जाते हैं, जब कि किसी ने कोई गाली नहीं दी, किसी ने कोई अपमान नहीं किया। और किसी समय आप बड़े आनंदित हो जाते हैं, जब कि कोई प्रेम करने वाला नहीं है।
अगर सात दिन आप मौन में, स्वात में बैठें, तो आप चकित हो जाएंगे कि आपके भीतर भावों का वर्तन चलता ही रहता है। और बिना किसी के आप सुखी—दुखी भी होते रहते हैं।
एक दफा यह आपको दिखाई पड़ जाए कि मैं बिना किसी के सुखी—दुखी हो रहा हूं तो आपको खयाल आ जाएगा कि दूसरे ज्यादा से ज्यादा आपको अपनी भावनाएं टांगने के लिए खूंटी का काम करते हैं, इससे ज्यादा नहीं। वे निमित्त से ज्यादा नहीं हैं।
यही कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू निमित्त से ज्यादा नहीं है। तू यह खयाल ही छोड़ दे कि तू कर्ता है। उस कर्ता में ही कृष्ण के लिए एकमात्र अज्ञान है।
हमें समझ में आता है कि हिंसा करना बुरा है। हमें यह समझ में नहीं आता कि अहिंसा करना भी बुरा है। हिंसा करना बुरा है, क्योंकि दूसरे को दुख पहुंचता है, हमारा खयाल है। लेकिन कृष्ण के हिसाब से हिंसा करना इसलिए बुरा है कि कर्ता का भाव बुरा है, कि मैं कर रहा हूं। इससे अहंकार घना होता है।
अगर हिंसा करना बुरा है कर्ता के कारण, तो अहिंसा करना भी उतना ही बुरा है कर्ता के कारण। और कृष्ण कहते हैं, जड़ को ही काट दो; तुम कर्ता मत बनो। न तो तुम हिंसा कर सकते हो, न तुम अहिंसा कर सकते हो। तुम कुछ कर नहीं सकते। तुम केवल हो सकते हो। तुम अपने इस होने में राजी हो जाओ। फिर जो कुछ हो रहा हो, उसे होने दो।
ओशो रजनीश
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