मंगलवार, 11 मई 2021

अध्यात्म

  ऐसा नहीं है कि जो लोग मन से पीड़ित और परेशान हैं, वे ही लोग ध्यान, योग और अध्यात्म की ओर झुकते हैं; यह तो ठीक है। लेकिन जो अपने को सोचते हैं कि मानसिक रूप से पीड़ित नहीं हैं, वे भी उतने ही पीडित हैं और उन्हें भी झुक जाना चाहिए।

मनुष्य का होना ही संत्रस्त है। मनुष्य जिस ढंग का है, उसमें ही पीड़ा है। मनुष्य का अस्तित्व ही दुखपूर्ण है। इसलिए असली तो नासमझ वह है, जो सोचता है कि बिना अध्यात्म की ओर झुके हुए आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। आनंद पाने का कोई उपाय और है ही नहीं। और जो जितनी जल्दी झुक जाए, उतना हितकर है।

यह बात सच है कि जो लोग अध्यात्म की ओर झुकते हैं, वे मानसिक रूप से पीड़ित और परेशान हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल में ले लेना, झुकते ही उनकी मानसिक पीड़ा समाप्त होनी शुरू हो जाती है। झुकते ही मानसिक उन्माद समाप्त हो जाता है। और अध्यात्म की प्रक्रिया से गुजरकर वे स्वस्थ, शांत और आनंदित हो जाते हैं।

देखें बुद्ध की तरफ, देखें महावीर की तरफ, देखें कृष्ण की तरफ। उस आग से गुजरकर सोना निखर आता है। लेकिन जो झुकते ही नहीं, वे पागल ही बने रह जाते हैं।

आप ऐसा मत सोचना कि अध्यात्म की तरफ नहीं झुक रहे हैं, तो आप स्वस्थ हैं। अध्यात्म से गुजरे बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। स्वास्थ्य का अर्थ ही होता है, स्वयं में हो जाना। स्वयं में स्थित हुए बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। तब तक तो दौड़ और परेशानी और चिंता और तनाव बना ही रहेगा।

तो जो झुकते हैं, वे तो पागल हैं। जो नहीं झुकते हैं, वे और भी ज्यादा पागल हैं। क्योंकि झुके बिना पागलपन से छूटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए यह मत सोचना कि आप बहुत समझदार हैं। क्योंकि आपकी समझदारी का कोई मूल्य नहीं है। अगर भीतर चिंता है, पीड़ा है, दुख है, तो आप कितना ही जानते हों, कितनी ही समझदारी हो, वह कुछ काम न आएगी। आपके भीतर पागलपन तो इकट्ठा हो ही रहा है।

और मैंने कहा कि आदमी का होना ही पागलपन है। उसके कारण हैं। क्योंकि आदमी सिर्फ बीज है, सिर्फ एक संभावना है कुछ होने की। और जब तक वह हो न जाए तब तक परेशानी रहेगी। जब तक उसके भीतर का फूल पूरा खिल न जाए, तब तक बीज के प्राण तनाव से भरे रहेंगे। बीज टूटे, अंकुरित हो और फूल बन जाए, तो ही आनंद होगा।

दुख का एक ही अर्थ है आध्यात्मिक भाषा में, कि आप जो हैं, वह नहीं हो पा रहे हैं। और आनंद का एक ही अर्थ है कि आप जो हो सकते हैं, वह हो गए हैं। आनंद का अर्थ है कि अब आपके भीतर कोई संभावना नहीं बची आप सत्य हो गए हैं। आप जो भी हो सकते थे, वह आपने आखिरी शिखर छू लिया है। आप अपनी पूर्णता पर पहुंच गए हैं। और जब तक पूर्णता उपलब्ध नहीं होती, तब तक बेचैनी रहेगी।

जैसे नदी दौड़ती है सागर की तरफ, बेचैन, परेशान, तलाश में, वैसा आदमी दौड़ता है। सागर से मिलकर शांति हो जाती है। लेकिन कोई नदी ऐसा भी सोच सकती है कि ये पागल नदियां हैं, जो सागर की तरफ दौड़ रही हैं। और जो नदी सागर की तरफ दौड़ना बंद कर देगी, वह सरोवर बन जाएगी। नदी तो सागर में दौड़कर मिल जाती है, विराट हो जाती है। लेकिन सरोवर सडता है केवल, कहीं पहुंचता नहीं।

अध्यात्म गति है, मनुष्य के पार, मनुष्य के ऊपर, वह जो आत्यंतिक है, अंतिम है, उस दिशा में। लेकिन आप अपने को यह मत समझा लेना कि सिर्फ पागल इस ओर झुकते हैं। मैं तो बुद्धिमान आदमी हूं। मैं क्यों झुकूं!

आपकी बुद्धिमानी का सवाल नहीं है। अगर आप आनंद को उपलब्ध हो गए हैं, तब कोई सवाल नहीं है झुकने का। लेकिन अगर आपको आनंद की कोई खबर नहीं मिली है, और आपका हृदय नाच नहीं रहा है, और आप समाधि के, शांत होने के परम गुह्य रहस्य को उपलब्ध नहीं हुए हैं, तो इस डर से कि कहीं कोई पागल न कहे, अध्यात्म से बच मत जाना। नहीं तो जीवन की जो परम खोज है, उससे ही बच जाएंगे।

पागल झुकते हैं अध्यात्म की ओर, यह सच है। लेकिन वे पागल सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें कम से कम इतना होश तो है कि झुक जाएं इलाज की तरफ। उन पागलों के लिए क्या कहा जाए, जो पागल भी हैं और झुकते भी नहीं हैं, जो बीमार भी हैं और चिकित्सक की तलाश भी नहीं करते और चिकित्सा की खोज भी नहीं करते। उनकी बीमारी दोहरी है। वे अपनी बीमारी को स्वास्थ्य समझे बैठे हैं।

मेरे पास रोज ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनके पास बड़े—बड़े सिद्धांत हैं, जिन्होंने बड़े शास्त्र अध्ययन किए हैं। और जिन्होंने बड़ी उधार बुद्धि की बातें इकट्ठी कर ली हैं। मैं उनसे कहता हूं कि मुझे इसमें कोई उत्सुकता नहीं है कि आप क्या जानते हैं। मेरी उत्सुकता इसमें है कि आप क्या हैं। अगर आपको आनंद मिल गया हो, तो आपकी बातों का कोई मूल्य है मेरे लिए, अन्यथा यह सारी की सारी बातचीत सिर्फ दुख को छिपाने का उपाय है।


 तो बुनियादी बात मुझे बता दें, आपको आनंद मिल गया है? तो फिर आप जो भी कहें, उसे मैं सही मान लूंगा। और आनंद न मिला हो, तो आप जो भी कहें, उस सबको मैं गलत मानूंगा, चाहे वह कितना ही सही दिखाई पड़ता हो। क्योंकि जिससे जीवन का फूल न खिलता हो, उसके सत्य होने का कोई आधार नहीं है। और जिससे जीवन का फूल तो बंद का बंद रह जाता हो, बल्कि और ज्ञान का कचरा उसे दबा देता हो और खुलना मुश्किल हो जाता हो, उसका सत्य से कोई भी संबंध नहीं है।

मेरे हिसाब में आनंद की तरफ जो ले जाए, वह सत्य है; और दुख की तरफ जो ले जाए, वह असत्य है। अगर आप आनंद की तरफ जा रहे हैं, तो आप जो भी कर रहे हैं, वह ठीक है। और अगर आप आनंद की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप कुछ भी कर रहे हों, वह सब गलत है। क्योंकि अंतिम कसौटी तो एक ही बात की है कि आपने जीवन के परम आनंद को अनुभव किया या नहीं।

तो ये मित्र ठीक कहते हैं, विक्षिप्त लोग झुके हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन सभी विक्षिप्त हैं।

मनसविद से पूछें, कौन स्वस्थ है? जिसको आप नार्मल, सामान्य आदमी कहते हैं, उसे आप यह मत समझ लेना कि वह स्वस्थ है। वह केवल नार्मल ढंग से पागल है। और कोई खास बात नहीं है। और पागलों जैसा ही पागल है। पूरी भीड़ उसके जैसे ही पागल है। इसलिए वह पागल नहीं मालूम पड़ता। जरा ही ज्यादा आगे बढ़ जाता है, तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

पागल में और आप में जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। थोड़ा डिग्रीज का फर्क है। आप निन्यानबे डिग्री पर हैं और पागल सौ डिग्री पर उबलकर पागल हो गया है। एक डिग्री आप में कभी भी जुड़ सकती है, किसी भी क्षण। जरा—सी कोई घटना, और आप पागल हो सकते हैं।

बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी को जरा—सी गाली दे दो और वह पागल हो जाता है। वह तैयार ही खड़ा था; एक छोटी—सी गाली ऊंट पर आखिरी तिनके का काम करती है और ऊंट बैठ जाता है। आपकी बुद्धिमानी जरा में सरकाई जा सकती है; उसका कोई मूल्य नहीं है। आप किसी तरह अपने को सम्हाले खड़े हैं।

इस सम्हाले खड़े रहने से कोई सार नहीं है। यह विक्षिप्तता से मुक्त होना जरूरी है। और योग विक्षिप्तता से मुक्ति का उपाय है। अच्छा है कि आप अपनी विक्षिप्तता को पहचान लें।

ध्यान रहे, बीमारी को पहचान लेना अच्छा है, क्योंकि पहचाने से उपाय हो सकता है, इलाज हो सकता है। बीमारी को झुठलाना — खतरनाक है। क्योंकि बीमारी झुठलाने से मिटती नहीं, भीतर बढ़ती चली जाती है।

लेकिन अनेक बीमार ऐसे हैं, जो इस डर से कि कहीं यह पता न चल जाए कि हम बीमार हैं, अपनी बीमारी को छिपाए रखते हैं। अपने घावों को ढांक लेते हैं फूलों से, सुंदर वस्त्रों से, सुंदर शब्दों से और अपने को भुलाए रखते हैं। लेकिन धोखा वे किसी और को नहीं दे रहे हैं। धोखा वे अपने को ही दे रहे हैं। घाव भीतर बढ़ते ही चले जाएंगे। पागलपन ऐसे मिटेगा नहीं, गहन हो जाएगा। और आज नहीं कल उसका विस्फोट हो जाएगा।

अध्यात्म की तरफ उत्सुकता चिकित्सा की उत्सुकता है। और उचित है कि आप पहचान लें कि अगर दुखी हैं, तो दुखी होने का कारण है। उस कारण को मिटाया जा सकता है। उस कारण को मिटाने के लिए उपाय हैं। उन उपायों का प्रयोग किया जाए, तो चित्त स्वस्थ हो जाता है।

आप अपनी फिक्र करें; दूसरे क्या कहते हैं, इसकी बहुत चिंता न करें। आप अपनी चिंता करें कि आपके भीतर बेचैनी है, संताप है, संत्रस्तता है, दुख है, विषाद है, और आप भीतर उबल रहे हैं आग से और कहीं कोई छाया नहीं जीवन में, कहीं कोई विश्राम का स्थल नहीं है! तो फिर भय न करें। अध्यात्म आपके जीवन में छाया बन सकता है, और योग आपके जीवन में शांति की वर्षा कर सकता है।

अगर प्यासे हैं, तो उस तरफ सरोवर है। और प्यासे हैं, तो सरोवर की तरफ जाएं। सिर्फ बुद्ध या कृष्ण जैसे व्यक्तियों को योग की तरफ जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि योग से वे गुजर चुके हैं। आपको तो जरूरत है ही। आपको तो जाना ही होगा। एक जन्म आप झुठला सकते हैं, दूसरे जन्म में जाना होगा। आप अनेक जन्मों तक झुठला सकते हैं, लेकिन बिना जाए कोई उपाय नहीं है। और जब तक कोई अपने भीतर के आत्यंतिक केंद्र को अनुभव न कर ले, और जीवन के परम स्रोत में न डूब जाए, तब तक विक्षिप्तता बनी ही रहती है।

दो शब्द हैं। एक है विक्षिप्तता और एक है, विमुक्तता। मन का होना ही विक्षिप्तता है। ऐसा नहीं है कि कोई—कोई मन पागल होते हैं; मन का स्वभाव ही पागलपन है। मन का अर्थ है, मैडनेस। वह पागलपन है। और जब कोई मन से मुक्त होता है, तो स्वस्थ होता है, तो विमुक्त होता है।

आमतौर से हम सोचते हैं कि किसी का मन खराब है और किसी का मन अच्छा है। यह जानकर आपको हैरानी होगी, योग की दृष्टि से मन का होना ही खराब है। कोई अच्छा मन नहीं होता। मन होता ही रोग है। कोई अच्छा रोग नहीं होता; रोग बुरा ही होता है।

जैसे हम अगर कहें, अभी तूफान था सागर में और अब तूफान शांत हो गया है। तो आप मुझसे पूछ सकते हैं कि शांत तूफान कहां है? तो मैं कहूंगा, शांत तूफान का अर्थ ही यह होता है कि अब तूफान नहीं है। शांत तूफान जैसी कोई चीज नहीं होती। शांत तूफान का अर्थ ही होता है कि तूफान अब नहीं है। तूफान तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।

ठीक ऐसे ही अगर आप पूछें कि शांत मन क्या है, तो मैं आपसे कहूंगा कि शांत मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। मन तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।

शांत मन का अर्थ है कि मन रहा ही नहीं। मन और अशांति पर्यायवाची हैं। उन दोनों का एक ही मतलब है। भाषाकोश में नहीं; भाषाकोश में तो मन का अलग अर्थ है और अशांति का अलग अर्थ है। लेकिन जीवन के कोश में मन और अशांति एक ही चीज के दो नाम हैं। और शांति और अमन एक ही चीज के दो नाम हैं। नो—माइंड, अमन।

जब तक आपके पास मन है, आप विक्षिप्त रहेंगे ही। मन भीतर पागल की तरह चलता ही रहेगा। और अगर आपको भरोसा न हो, तो एक छोटा—सा प्रयोग करना शुरू करें।

अपने परिवार को या अपने मित्रों को लेकर बैठ जाएं। एक घंटे दरवाजा बंद कर लें। अपने निकटतम दस—पांच मित्रों को लेकर बैठ जाएं, और एक छोटा—सा प्रयोग करें। आपके भीतर जो चलता हो, उसको जोर से बोलें। जो भी भीतर चलता हो, जिसको आप मन कहते हैं, उसे जोर से बोलते जाएं—ईमानदारी से, उसमें बदलाहट न करें। इसकी फिक्र न करें कि लोग सुनकर क्या कहेंगे। एक छोटा—सा खेल है। इसका उपयोग करें।

आपको बड़ा डर लगेगा कि यह जो भीतर धीमे— धीमे चल रहा है, इसको जोर से कहूं? पत्नी क्या सोचेगी! बेटा क्या सोचेगा! मित्र क्या सोचेंगे! लेकिन अगर सच में हिम्मत हो, तो यह प्रयोग करने जैसा है।

फिर एक—एक व्यक्ति करे; पंद्रह—पंद्रह मिनट एक—एक व्यक्ति बोले। जो भी उसके भीतर हो, उसको जोर से बोलता जाए। आप एक घंटेभर के प्रयोग के बाद पूरा कमरा अनुभव करेगा कि हम सब पागल हैं।

आप कोशिश करके देखें। अगर आपको डर लगता हो दूसरों का, तो किसी दिन अकेले में ही पहले करके देख लें। आपको पता चल जाएगा कि पागल कौन है। लेकिन राहत भी बहुत मिलेगी। अगर इतनी हिम्मत कर सकें मित्रों के साथ, तो यह खेल बड़े ध्यान का है; बहुत राहत मिलेगी। क्योंकि भीतर का बहुत—सा कचरा बाहर निकल जाएगा, और एक हल्कापन आ जाएगा और पहली दफा यह अनुभव होगा कि मेरी असली हालत क्या है। मैं अपने को बुद्धिमान समझ रहा हूं; बड़ा सफल समझ रहा हूं; बड़े पदों पर पहुंच गया हूं; धन कमा लिया है; बड़ा नाम है; इज्जत है; और भीतर यह पागल बैठा है! और इस पागल से छुटकारा पाने का नाम अध्यात्म है।

मेहरबाबा उन्नीस सौ छत्तीस में अमेरिका में थे। और एक व्यक्ति को उनके पास लाया गया। उस व्यक्ति को दूसरों के विचार पढ़ने की कुशलता उपलब्ध थी। उसने अनेक लोगों के विचार पढे थे। वह किसी भी व्यक्ति के सामने आंख बंद करके बैठ जाता था; और वह व्यक्ति जो भीतर सोच रहा होता, उसे बोलना शुरू कर देता। मेहरबाबा वर्षों से मौन थे। तो उनके भक्तों को, मित्रों को जिज्ञासा और कुतूहल हुआ कि वह जो आदमी वर्षों से मौन है, वह भी भीतर तो कुछ सोचता होगा! तो इस आदमी को लाया जाए क्योंकि वे तो कुछ बोलते नहीं।

तो उस आदमी को लाया गया। वह मेहरबाबा के सामने आंख बंद करके, बड़ी उसने मेहनत की। पसीना—पसीना हो गया। फिर उसने कहा कि लेकिन बड़ी मुसीबत है। यह आदमी कुछ सोचता ही नहीं। मैं बताऊं भी तो क्या बताऊं! मैं बोलूं तो भी क्या बोलूं! मैं आंख बंद करता हूं और जैसे मैं एक दीवाल के सामने हूं जहां कोई विचार नहीं है।

इस निर्विचार अवस्था का नाम विमुक्तता है। जब तक भीतर विचार चल रहा है, वह पागल है, वह पागलपन है। यह ऐसा ही समझिए कि आप बैठे—बैठे दोनों टल चलाते रहें यहां। तो आपको पड़ोसी आदमी कहेगा, बंद करिए टांग चलाना! आपका दिमाग ठीक है? आप टांगें क्यों चला रहे हैं? टांग को चलाने की जरूरत है, जब कोई चल रहा हो रास्ते पर। बैठकर टांग क्यों चला रहे हैं?

मन की भी तब जरूरत है, जब कोई सवाल सामने हो, उसको हल करना हो, तो मन चलाएं। लेकिन न कोई सवाल है, न कोई बात सामने है। बैठे हैं, और मन की टांगें चल रही हैं। यह विक्षिप्तता है, यह पागलपन है।

आपका मन चलता ही रहता है। आप चाहें भी रोकना, तो रुकता नहीं। कोशिश करके देखें। रोकना चाहेंगे, तो और भी नहीं रुकेगा। और जोर से चलेगा। और सिद्ध करके बता देगा कि तुम मालिक नहीं हो, मालिक मैं हूं। छोटी—सी कोई बात रोकने की कोशिश करें। और वही—वही बात बार—बार मन में आनी शुरू हो जाएगी। लोग बैठकर राम का स्मरण करते हैं। राम का स्मरण करते हैं, नहीं आता। कुछ और—और आता है, कुछ दूसरी बातें आती हैं। एक महिला मेरे पास आई, वह कहने लगी कि मैं राम की भक्त हूं। बहुत स्मरण करती हूं लेकिन वह नाम छूट—छूट जाता है और दूसरी चीजें आ जाती हैं!

मैंने कहा कि तू एक काम कर। कसम खा ले कि राम का नाम कभी न लूंगी। फिर देख। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मैंने कहा, तू कसम खाकर देख। और हर तरह से कोशिश करना कि राम का नाम भर भीतर न आने पाए।

वह तीसरे दिन मेरे पास आई। उसने कहा कि आप मेरा दिमाग खराब करवा दोगे। चौबीस घंटे सिवाय राम के और कुछ आ ही नहीं रहा है। और मैं कोशिश में लगी हूं कि राम का नाम न आए, और राम का नाम आ रहा है!

मन सिद्ध करता है हमेशा कि आप मालिक नहीं हैं, वह मालिक है। और जब तक मन मालिक है, आप पागल हैं। जिस दिन आप मालिक हों, उस दिन स्वस्थ हुए स्वयं में स्थित हुए।

अध्यात्म से गुजरे बिना कोई भी स्वस्थ नहीं होता है।

ओशो रजनीश






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