गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 16

 


 यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युग्जतो योगमात्मनः।। 19।।


और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।



जैसे वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति थिर हो, अकंप, निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी का चित्त, चेतना थिर हो जाती है। यही उपमा योगी की चेतना के लिए कही गई है।

ध्यान रहे, जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना की लौ कंपित होगी। राह पर बजता है एक कार का हार्न, चेतना कंपित होगी। कोई सज्जन पीछे ही व्याख्यान दिए जा रहे हैं, चेतना कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी। तो निष्कंप चेतना कब हो पाएगी?

जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही वायु है।

तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है। और निश्चित ही ऐसी संभावनाएं हैं। आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं। कोई विशेषता नहीं है कि किसी विशेष को उपलब्ध हों। जो भी श्रम करे उस दिशा में सतत, उसे उपलब्ध हो जाएं; तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर ही बंद हो जाता है।

बौद्धों ने उसे मंडल कहा है। ऐसा मंडल बन जाता है कि आप अपने भीतर ही घूमते हैं, बाहर से कुछ आता नहीं, बाहर आप जाते नहीं। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनित्तरंग आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि निष्कंप होना ही प्रभु में प्रतिष्ठित हो जाना है--निष्कंप होना ही।

कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है। कंपे, कंपित हुए, संसार में गए। अगर ठीक से समझें, तो संसार एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे हवा में एक पत्ता कंप रहा हो वृक्ष का। बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है। दाएं आती है, दाएं कंप जाता है। हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी थिर नहीं हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त कंपता रहता है, कंपित होता रहता है, डोलता रहता है।

इस डोलते हुए चित्त को अवसर नहीं है कि यह जान सके उस जगह को, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, प्राण मिल रहे हैं। यह तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी ज्योति, उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए ठहर जाना, थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है।

यह रुक जाना कैसे फलित हो? यह योगी की उपमा तो ठीक है, लेकिन यह योगी आदमी हो कैसे? ठहरे कैसे? रुके कैसे?

कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें बहुत छोटे-से प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। सरल हो जाती हैं उसी क्षण, जब हम कुछ करते हैं! कोई अनुभव, बड़ी से बड़ी कठिनाई को कोई छोटा-सा अनुभव तोड़ जाता है।

आप अगर सोच-सोचकर हल करना चाहें, तो जिंदगी में कोई प्रश्न हल नहीं होगा। अगर आप चाहते हों कि शांत हो जाएं और विचार कर-करके शांत होना चाहें, आप कभी शांत न हो पाएंगे। क्योंकि विचार करना सिर्फ एक और तरह की अशांति है, और कुछ भी नहीं। आप सोचते हों, विचार कर-करके शांत होंगे, तो आप और अशांत हो जाएंगे; क्योंकि विचार करना एक अशांति से ज्यादा नहीं है।

इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे उन लोगों से भी ज्यादा अशांत हो जाते हैं, जो शांत होने की फिक्र नहीं करते। उनकी अशांति दोहरी हो जाती है। एक तो अशांति होती ही है और एक अशांति और पकड़ लेती है कि शांत कैसे हों!

लेकिन कोई छोटी-सी प्रक्रिया चित्त को एकदम शांत कर जाती है। कोई बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, कोई मेथड चित्त को ऐसे शांत कर जाता है, जैसे वह कभी अशांत ही न था।

करीब-करीब ऐसा है कि जैसे कोई किसी वृक्ष के पत्ते काटता रहे और सोचे कि वृक्ष को समाप्त करना है। वह पत्ते काट न पाए और नए पत्ते आ जाएं। और वृक्ष की आदतें ऐसी हैं कि एक पत्ता काटो, तो चार आ जाते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की जा रही है। जब तक जड़ न काटी जाए, तब तक वृक्ष के पत्ते काटने से वृक्ष का अंत नहीं होता।

हम सब एक-एक विचार से लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि मुझे क्रोध बहुत आता है, तो मेरा क्रोध कैसे ठीक हो जाए?

योग कहता है, जड़ को काटिए, पत्तों को मत काटिए। जड़ कट गई, तो पूरा वृक्ष गिर जाएगा।

क्रोध नहीं गिर सकता उस आदमी का, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का लोभ नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का मान नहीं गिर सकता, अहंकार नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। और मजा यह है कि चार में से कोई एक भी बच जाए, तो बाकी तीन अनिवार्य रूप से मौजूद रहेंगे। वे जा नहीं सकते।

हां, यह हो सकता है कि आपमें एक की मात्रा थोड़ी ज्यादा हो, दूसरे की थोड़ी कम हो। लेकिन अगर चारों का हिसाब जोड़ा जाए, तो सब आदमियों में बराबर मात्रा मिलेगी--चारों को जोड़ लिया जाए, तो।


एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, दोनों का जोड़ बराबर सात होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। और एक-एक को, जिसको क्रोध ज्यादा लगता है, वह कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं? लोभ की तो मुझे झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, तो क्रोध की जितनी रोटियां हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध कट नहीं सकता अकेला। चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते हैं।

योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो। जड़ पकड़ो।

जड़ कहां है? जड़ कहां है? न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है। जड़ कहां है?

योग कहता है, जड़ आपके मन की सिस्टम, मन की जो व्यवस्था है आपकी, उसमें जड़ है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध होगा ही; काम, अहंकार होगा ही। यह मन का, जो आपके पास मन है, उसका स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा।


लेकिन इस मन को बदलने का राज क्या है?

योग उसी राज का विस्तार है। और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए। क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है जिनके भीतर, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा।

योग की तीन शाखाएं हैं प्रमुख--फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं--कर्म, भक्ति और ज्ञान। और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। और एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी को वह कुंजी लागू होती है। ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं।

अब जो आदमी विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका कसूर नहीं है, वैसा मन उसके पास है। वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा! क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां प्रश्न उठते हैं विचार में, वहां भाव में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते। भाव निष्प्रश्न हैं। भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, विचार संघर्ष करता है। तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़े। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा।

ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है। ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो; और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो जानने की क्षमता है, उसमें ही ठहरो, उसी में रमो। वह जो ज्ञान की क्षमता है, नोइंग फैकल्टी जो है, जानने की क्षमता, उसी में रमो।

जैसे मैं फूल देख रहा हूं। तो तीन हैं वहां। एक मैं हूं, जो देख रहा है। एक फूल है, जिसे देख रहा हूं। और हम दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ--ज्ञान की धारा में।

भाव वाले आदमी को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं! नहीं पड़ेगी समझ में, क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से जीता नहीं। भाव वाला आदमी भावना से जीता है, समझ से नहीं। भाव वाले आदमी से कहो कि नाचो, आनंदमग्न होकर नाचो, प्रभु-समर्पित होकर नाचो। वह नाचने लगेगा। वह यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा? वह नाचने लगेगा। और नाचने से सब हो जाएगा।

नाचने में वह क्षण आता है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है--नृत्य ही। परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता था, वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है--सिर्फ नृत्य, जस्ट डांसिंग। जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है। जैसे सिर्फ जानना रह जाता है, बस द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह जाता है, तो भी द्वार खुल जाता है।

मीरा अगर गाएगी, तो गाने में कृष्ण भी खो जाएंगे, मीरा भी खो जाएगी, गीत ही रह जाएगा। ध्यान रहे, जब मीरा गाती है, मेरे तो गिरधर गोपाल, तो न तो गोपाल रह जाते, न मेरा कोई रह जाता। मेरे तो गिरधर गोपाल, यह गीत ही रह जाता है--सिर्फ यह गीत। गिरधर भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, कृष्ण भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। सिर्फ गीत जहां रह जाता है, वहां वही घटना घट जाती है, जो सिर्फ ज्ञान रह जाता है।

लेकिन महावीर गीत को पसंद नहीं कर पाएंगे। महावीर कहेंगे, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग, सिर्फ ज्ञान रह जाए, बस। वहीं द्वार खुलेगा। वह महावीर का टाइप है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करेंगे! गीत रह जाए। ज्ञान बड़ा रूखा-सूखा है। ज्ञान का करेंगे भी क्या! गीत बड़ा आर्द्र, बड़ा गीला, नहा जाता है आदमी। ज्ञान तो रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा मीरा को। उसके चारों तरफ रेगिस्तान था भी। वह परिचित भी थी अच्छी तरह। रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा, रूखा-सूखा, जहां कभी कोई वर्षा नहीं होती। और गीत तो बड़ी हरियाली से भरा है। अमृत बरस जाता है। गीत बड़ा गीला है--स्नान से। प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करिएगा? गीत काफी है।

लेकिन और लोग भी हैं, जिनको न गीत में कोई अर्थ होगा और न ज्ञान में कोई अर्थ होगा। जिनका अर्थ और जिनके जीवन का अभिप्राय तो कर्म से खुलेगा। कर्म ही!

 अब जैसे अर्जुन जैसा आदमी है, जब तलवारें चमकेंगी और जब कर्म का पूर्ण क्षण होगा, जब अर्जुन भी नहीं बचेगा, दुश्मन भी नहीं बचेगा, सिर्फ कर्म रह जाएगा। तलवार मैं चला रहा हूं, ऐसा नहीं रहेगा; तलवार चल रही है, ऐसे क्षण की स्थिति आ जाएगी, तब अर्जुन जैसे आदमी को समाधि का अनुभव होगा।

ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। और योग ने इन तीनों पर, वैसे फिर इन तीनों के बहुत विभाजन हैं और योग ने बहुत-सी विधियां खोजी हैं, लेकिन इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी व्यक्ति चेतना को उस थिर स्थान में ले आ सकता है।

ज्ञान रह जाए केवल; भाव रह जाए केवल; कर्म रह जाए केवल। तीन की जगह एक बचे, दो कोने मिट जाएं। द्रष्टा मिट जाए, दृश्य मिट जाए, दर्शन रह जाए। ज्ञाता मिट जाए, ज्ञेय मिट जाए, ज्ञान रह जाए। तीन की जगह एक रह जाए। बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना थिर हो जाती है, ऐसी जैसे कि जहां वायु न बहती हो, पवन न बहता हो, वहां दीए की ज्योति थिर हो जाती है।

उस दीए की ज्योति के थिर होने को ही, कृष्ण कहते हैं, योगी को उपमा दी गई है। योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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