गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 9

 

हृदय की अंतर-गुफा 


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9।।


और जो पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बंधुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह अति श्रेष्ठ है।


कृष्ण के लिए समत्वबुद्धि समस्त योग का सार है। इसके पूर्व के सूत्रों में भी अलग-अलग द्वारों से समत्वबुद्धि के मंदिर में ही प्रवेश की योजना कृष्ण ने कही है। इस सूत्र में भी पुनः किसी और दिशा से वे समत्वबुद्धि की घोषणा करते हैं। बहुत-बहुत रूपों में समत्वबुद्धि की बात करने का प्रयोजन है।

प्रयोजन है, भिन्न-भिन्न, भांति-भांति प्रवृत्ति और प्रकृतियों के लोग हैं। समत्वबुद्धि का परिणाम तो एक ही होगा, लेकिन यात्रा भिन्न-भिन्न होगी। हो सकता है, कोई सुख और दुख के बीच समबुद्धि को साधे। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि सुख और दुख के प्रति किसी व्यक्ति की संवेदनशीलता ही बहुत कम हो।

हम सबकी संवेदनशीलताएं, सेंसिटिविटीज अलग-अलग हैं। हो सकता है, किसी व्यक्ति के लिए सुख और दुख उतने महत्वपूर्ण द्वार ही न हों; यश और अपयश ज्यादा महत्वपूर्ण हों।

आप कहेंगे कि यश तो सुख ही है और अपयश दुख ही है! नहीं; थोड़ा बारीकी से देखेंगे, तो फर्क खयाल में आ जाएगा।

ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति यश पाने के लिए कितना ही दुख झेलने को राजी हो जाए; और ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति, अपयश न मिले, इसलिए कितना ही दुख झेलने को राजी हो जाए। इससे उलटा भी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो अपने सुख के लिए कितना ही अपयश झेलने को राजी हो जाए। ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो दुख से बचने के लिए कितना ही यश खोने को राजी हो जाए।

तो जिसके लिए अपयश और यश ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, उसके लिए सुख और दुख का द्वार काम नहीं करेगा। उसके लिए यश और अपयश में समबुद्धि को साधना पड़ेगा।

वही साधना पड़ेगा हमें, जो हमारा चुनाव है, जो हमारा द्वंद्व है। हम सबके द्वंद्व अलग अलग हैं।

यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति के लिए अपयश, यश का भी कोई मूल्य न हो, लेकिन मित्रता और शत्रुता का भारी मूल्य हो। एक व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि मित्र के लिए हजार तरह के यश खोने को राजी हो जाए; और एक व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है कि यश के लिए हजार मित्रों को खोने के लिए राजी हो जाए। तो जिस व्यक्ति के लिए मित्र और शत्रु महत्वपूर्ण बात है, उसे न यश महत्वपूर्ण है, न सुख; न दुख महत्वपूर्ण है, न अपयश। उसके लिए मित्रता और शत्रुता के बीच ही समत्व को साधना होगा।

जो आपके लिए महत्वपूर्ण है द्वंद्व, वही द्वंद्व आपके लिए मार्ग बनेगा। दूसरे का द्वंद्व आपके लिए मार्ग नहीं बनेगा।

एक व्यक्ति हो सकता है, जिसे सौंदर्य का कोई बोध ही न हो। बहुत लोग हैं, जिन्हें सौंदर्य का कोई बोध ही नहीं है। वे भी दिखलाते हैं कि उन्हें सौंदर्य का बोध है। और अगर उनके पास थोड़ी पैसे की सुविधा है, तो वे भी अपने घर में वानगाग के चित्र लटका सकते हैं और पिकासो की पेंटिंग्स लटका सकते हैं, लेकिन फिर भी सौंदर्य का बोध और बात है। जिसे सौंदर्य का बोध है, उसके लिए द्वंद्व, कुरूपता और सौंदर्य के बीच संतुलन का होगा। सभी को वह बोध नहीं है।


प्रत्येक व्यक्ति के बोधत्तंतु भिन्न-भिन्न हैं। हम सभी के पास अपना-अपना द्वंद्व है। तो समझें कि अपना द्वंद्व ही अपना द्वार बनेगा। इसलिए कृष्ण हर द्वंद्व की बात करते हैं।

इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच जो सम है।

अर्जुन के लिए यह सूत्र उपयोगी हो सकता है। अर्जुन के लिए मित्रता और शत्रुता कीमत की बात है। क्षत्रिय के लिए सदा से रही है। बहुत संवेदनशील क्षत्रिय अपनी जान दे दे, वचन न छोड़े। मित्र को दिया गया वायदा पूरा करे, चाहे प्राण चले जाएं। अगर वणिक बुद्धि का व्यक्ति हो, तो एक पैसा बचा ले, चाहे हजार वचन चले जाएं, हजार मित्र खो जाएं। बुरे-भले की बात नहीं है, अपना-अपना द्वंद्व है।

प्रत्येक व्यक्ति का टाइप है, और प्रत्येक व्यक्ति के रुझान हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की संवेदनशीलताएं हैं, और प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके जीवन का महत्वपूर्ण द्वंद्व है। और हर एक को अपना द्वंद्व देख लेना चाहिए कि मेरा द्वंद्व क्या है? प्रेम और घृणा मेरा द्वंद्व है? मित्रता-शत्रुता मेरा द्वंद्व है? धन-निर्धनता मेरा द्वंद्व है? यश-अपयश मेरा द्वंद्व है? सुख-दुख, ज्ञान-अज्ञान, शांति-अशांति, मेरा द्वंद्व क्या है?

और जो भी आपका द्वंद्व हो, कृष्ण कहते हैं, उस द्वंद्व में समबुद्धि को उपलब्ध होना मार्ग है।

ध्यान रहे, दूसरे के द्वंद्व में आप समबुद्धि को बड़ी आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। अपने ही द्वंद्व का सवाल है। दूसरे के द्वंद्व में आपको समबुद्धि लाने में जरा भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक है। अगर आपकी जिंदगी में कभी यश का खयाल नहीं पकड़ा, अगर आपको कभी राजनीति का प्रेत सवार नहीं हुआ, यश का, तो आप कहेंगे कि ठीक है, इलेक्शन जीते कि हारे। इसमें तो हम सम ही रहते हैं, इसमें कोई हमें कठिनाई नहीं है। आपको कभी वह भूत नहीं पकड़ा हो, तो आप बिलकुल समबुद्धि बता सकते हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि आप बताएं; असली सवाल वह है कि जिसे भूत पकड़ा हो। आपका अपना भूत क्या है, आपका अपना प्रेत क्या है, जो आपका पीछा कर रहा है? उसकी ठीक पहचान जरूरी है।

इसलिए कृष्ण अलग-अलग सूत्र में अलग-अलग प्रेतों की चर्चा कर रहे हैं। वे यहां कहते हैं कि मित्र और शत्रु के बीच समभाव।

बड़ी कठिनाई है। एक बार धन और निर्धनता के बीच समभाव आसान है, क्योंकि धन निर्जीव वस्तु है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेंगे।

एक बार यश और अपयश के बीच समभाव आसान है, क्योंकि यश और अपयश आपकी निजी बात है। लेकिन मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखना बहुत कठिन है। क्योंकि एक तो निजी बात नहीं रही; कोई और भी सम्मिलित हो गया; मित्र और शत्रु भी सम्मिलित हो गए। आप अकेले न रहे, दूसरा भी मौजूद हो गया। और इसलिए भी महत्वपूर्ण और कठिन है कि धन जैसी निर्जीव वस्तु नहीं है सामने। आप सोने को और मिट्टी को समान समझ लें एक बार, तो बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दोनों जड़ हैं। लेकिन मित्र और शत्रु दोनों जीवंत हैं, चेतन हैं, उतने ही जितने आप। आपके ही तल पर खड़े हुए लोग हैं; आप जैसे ही लोग हैं। कठिनाई, जटिलता ज्यादा है।

इसलिए मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने की क्या प्रक्रिया होगी? कौन रख सकेगा मित्र और शत्रु के बीच समभाव? उसको ही कृष्ण योगी कहते हैं। कौन रख सकेगा? तो इसके थोड़े से सूत्र खयाल में ले लें।

एक, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, वही व्यक्ति मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने में सफल हो पाएगा।

आप मित्र कहते ही उसे हैं, जो आपके काम पड़ता है। कहावत है कि मित्र की कसौटी तब होती है, जब मुसीबत पड़े। जो आपके काम पड़ जाए, उसे आप मित्र कहते हैं। जो आपके काम में बाधा बन जाए, उसे आप शत्रु कहते हैं। और तो कोई फर्क नहीं है। इसलिए मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है, अगर काम में बाधा डाले। और शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है, अगर काम में सहयोगी बन जाए।

अगर आपका कोई भी काम है, तो आप समभाव न रख सकेंगे। मित्र और शत्रु के बीच वही समभाव रख सकता है, जो कहता है, मेरा कोई काम ही नहीं है, जिसमें कोई सहयोगी बन सके और जिसमें कोई विरोधी बन सके। जो कहता है, इस जिंदगी को मैं नाटक समझता हूं, काम नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए सपने जैसी है, सत्य नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए रंगमंच है; यहां मैं खेल रहा हूं, कोई काम नहीं कर रहा हूं।

जो थोड़ा भी गंभीर है जीवन के प्रति और कहता है कि यह काम मुझे करना है, वह शत्रुओं और मित्रों के बीच कभी भी समभाव को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि काम ही कहेगा कि मित्रों के प्रति भिन्न भाव रखो, शत्रुओं के प्रति भिन्न भाव रखो। अगर मुझे कुछ भी करना है इस जमीन पर, अगर मुझे कोई भी खयाल है कि मैं कुछ करना चाहता हूं, तो फिर मैं मित्र और शत्रु के बीच समभाव न रख सकूंगा। मित्र और शत्रु के बीच समभाव तभी हो सकता है, जब मेरा कोई काम ही नहीं है इस पृथ्वी पर। मुझे कहीं पहुंचना नहीं है। मुझे कुछ करके नहीं दिखा देना है।

इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं बिलकुल निठल्ला और निष्क्रिय बैठ जाऊं, तो मित्र और शत्रु के बीच समभाव हो जाएगा। अगर मैंने निठल्ला बैठना भी अपनी जिंदगी का काम बना लिया, तो कुछ मेरे मित्र होंगे जो निठल्ले बैठने में सहायता देंगे और कुछ मेरे शत्रु हो जाएंगे जो बाधा डालेंगे।

इसका यह अर्थ नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि काम तो मैं करता ही रहूंगा, लेकिन यह जिद्द, यह अहंकार मेरे भीतर न हो कि यह काम मुझे करके ही रहना है। तो फिर ठीक है। जो काम में साथ दे देता है, उसका धन्यवाद; और जो काम में बाधा दे देता है, उसका भी धन्यवाद। जो रास्ते से पत्थर हटा देता है, उसका भी धन्यवाद; और रास्ते पर जो पत्थर बिछा देता है, उसका भी धन्यवाद।

न मुझे कहीं पहुंचना है, न मुझे कुछ कर लेना है। जीता हूं; परमात्मा जो काम मुझसे लेना चाहे, ले ले। जितना मुझसे बन सकेगा, कर दूंगा। कोई ऐसी जिद्द नहीं है कि यह लक्ष्य पूरा होना ही चाहिए। तो फिर मित्र और शत्रु के बीच कोई बाधा नहीं रह जाती। फिर समान हो जाती है बात।

तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूं कि जिस व्यक्ति को भी जीवन को एक काम समझ लेने की नासमझी आ गई हो, और जिसे ऐसा खयाल हो कि उसे जिंदगी में कुछ करके जाना है, वह शत्रु और मित्र निर्मित करेगा ही। और वह समभाव भी न रख सकेगा।

दूसरी बात आपसे यह कहना चाहता हूं कि शत्रु और मित्र के बीच समभाव रखना तभी संभव है, जब आपके भीतर वह जो प्रेम पाने की आकांक्षा है, वह विदा हो गई हो। दूसरी बात भी ठीक से समझ लें।

हम सबके मन में मरते क्षण तक भी प्रेम पाने की आकांक्षा विदा नहीं होती। पहले दिन बच्चा पैदा होता है तब भी वह प्रेम पाने के लिए आतुर होता है, उतना ही जितना बूढ़ा मरते वक्त आखिरी श्वास लेते वक्त होता है। प्रेम पाने की आतुरता बनी रहती है; ढंग बदल जाते हैं। लेकिन प्रेम कोई करे मुझे! कोई मुझे प्रेम दे! प्रेम का भोजन न मिलेगा, तो मैं भूखा होकर मर जाऊंगा, मुश्किल में पड़ जाऊंगा।

एक बार शरीर को भोजन न मिले, तो हम सह पाते हैं। लेकिन अगर चित्त को भोजन न मिले--प्रेम चित्त का भोजन है। चित्त को प्राण मिलते हैं प्रेम से।

तो जब तक जरूरत है प्रेम की, तब तक मित्र और शत्रु को एक कैसे समझिएगा! सम कैसे हो जाइएगा! तटस्थ कैसे होंगे! मित्र वह है, जो प्रेम देता है। शत्रु वह है, जो प्रेम नहीं देता है। तो जब तक आपकी प्रेम की आकांक्षा शेष है कि कोई मुझे प्रेम दे...।

और यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में सारे लोग चाहते हैं कि कोई उन्हें प्रेम दे। शायद ही कोई चाहता है कि मैं किसी को प्रेम दूं! इसको थोड़ा बारीकी से समझ लेना उचित होगा।

हम सबको यह भ्रम होता है कि हम प्रेम देते हैं। लेकिन अगर आप प्रेम सिर्फ इसीलिए देते हैं, ताकि आपको लौटते में प्रेम मिल जाए, तो आप सिर्फ इनवेस्टमेंट करते हैं, देते नहीं हैं। आप सिर्फ व्यवसाय में संलग्न होते हैं।

मैं अगर आपको प्रेम देता हूं सिर्फ इसलिए कि मैं प्रेम चाहता हूं और बिना प्रेम दिए प्रेम नहीं मिलेगा, तो मैं सिर्फ सौदा कर रहा हूं। मेरी चेष्टा तो प्रेम पाने की है। देता हूं इसलिए कि बिना दिए प्रेम नहीं मिलेगा।

अगर मुझे किसी से प्रेम लेना है और किसी के ऊपर प्रेम की मालकियत कायम करनी है, तो पहले घुटने टेककर प्रेम निवेदन करना पड़ता है। वह आटा है।

तो दूसरा सूत्र आप खयाल में ले लें, जब तक प्रेम की आकांक्षा है कि कोई मुझे प्रेम दे...।

और ध्यान रहे, जब तक यह आकांक्षा है, तब तक आप बच्चे हैं, जुवेनाइल हैं, आप विकसित नहीं हुए। विकसित मनुष्य वह है, प्रेम पाने का कोई सवाल जिसे नहीं रह गया। जो बिना प्रेम के जी सकता है। प्रौढ़ मनुष्य वह है, जो प्रेम नहीं मांगता।

और यह बड़े मजे की बात है, और इसी से तीसरा सूत्र निकलता है। जो आदमी प्रेम नहीं मांगता, वह आदमी प्रेम देने में समर्थ हो जाता है। और जो आदमी प्रेम मांगता चला जाता है, वह कभी प्रेम देने में समर्थ नहीं होता।

मगर बड़ा उलटा है। हम सबको लगता है, हम प्रेम देने में समर्थ हैं। बाप सोचता है, मैं बेटे को प्रेम दे रहा हूं। लेकिन मनोवैज्ञानिक से पूछें, मनसविद से पूछें। वह कहता है, बाप भी बेटे को थपथपाकर आशा करता है कि बेटा भी बाप को थपथपाए। हां, थपथपाने के ढंग अलग होते हैं। बेटा और ढंग से थपथपाएगा, बाप और ढंग से थपथपाएगा। बेटा कहेगा, डैडी, आप जैसा ताकतवर डैडी इस दुनिया में कोई भी नहीं है! डैडी, जिनकी छाती में हड्डियां भी नहीं हैं, उनकी छाती फूलकर आकाश जैसी हो जाएगी। बेटा भी थपथपा रहा है।

बेटा भी अगर बाप का प्रेम चुपचाप ले ले और उत्तर न दे, तो बाप दुखी और पीड़ित लौटता है। बेटा अगर मां का प्रेम वापस न लौटाए, तो मां भी चिंतित और परेशान और पीड़ित हो जाती है।

बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी प्रेम वापस मांग रहा है। आदमियों से नहीं मिलता, तो लोग कुत्ते पाल लेते हैं। दरवाजे पर आते हैं, कुत्ता पूंछ हिला देता है। क्योंकि अब पत्नियां पूंछ हिलाएं, जरूरी नहीं है। बच्चे पूंछ हिलाएं, जरूरी नहीं है। सब गड़बड़ हो गई है पुरानी व्यवस्था पूंछ हिलाने की।

जिन-जिन मुल्कों में आदमी पूंछ हिलाना बंद कर रहे हैं, वहां-वहां कुत्ते का फैशन बढ़ता जाता है। वह सब्स्टीटयूट है। दरवाजे पर खड़ा रहता है; आप आए, वह पूंछ हिला देता है। आप बड़े खुश हो जाते हैं। आश्चर्यजनक है! कुत्ते की हिलती पूंछ भी आपको तृप्ति देती है। कम से कम कुत्ता तो प्रेम दे रहा है! हालांकि कुत्ते का भी प्रयोजन वही है। वह भी पूंछ हिलाकर आटा डाल रहा है। उसके भी अपने कांटे हैं। वह भी जानता है कि बिना पूंछ हिलाए यह आदमी टिकने नहीं देगा। यह भोजन मिलता है, घर में विश्राम मिलता है, यह पूंछ हिलाकर वह आपसे खरीद रहा है। वह भी इनवेस्ट कर रहा है। सारी दुनिया इनवेस्टमेंट में है।

जो आदमी प्रेम मांग रहा है, वह मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध नहीं हो सकता। सिर्फ वही आदमी समबुद्धि को उपलब्ध हो सकता है, वह तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं, जो प्रेम मांगने के पार चला गया और जो प्रेम देने में समर्थ हो गया। जिसे प्रेम देना है और लेना नहीं है, वह मित्र को भी दे सकता है, शत्रु को भी दे सकता है। क्योंकि लेने का तो कोई सवाल नहीं है, इसलिए फर्क करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

तो तीसरा सूत्र खयाल रख लें कि जो प्रेम के मालिक हुए, वे ही केवल मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध हो सकते हैं।

मैंने कहा कि धन और निर्धनता के बीच समबुद्धि लानी बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि धन बड़ी बाहरी घटना है। और यश-अपयश के बीच भी समबुद्धि लानी बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि यश-अपयश भी लोगों की आंखों का खेल है। लेकिन मित्र और शत्रु के बीच समभाव लाना बहुत गहरी घटना है। क्योंकि आप और आपका प्रेम और आपका पूरा व्यक्तित्व समाहित है। आप पूरे रूपांतरित हों, तो ही मित्र और शत्रु को समभाव से देख पाएंगे।

ये तीन तो आधारभूत सूत्र आपको खयाल में रखने चाहिए। और जब भी, जब भी मन कहे कि यह आदमी मित्र है, तब पूछना चाहिए, क्यों? यह सवाल, जब भी मन कहे, फलां आदमी शत्रु है, तो पूछना चाहिए, क्यों? क्या इसलिए कि उससे मुझे प्रेम नहीं मिलेगा? क्या इसलिए कि वह मेरे किसी काम में बाधा डालेगा? किसलिए वह मेरा शत्रु है? और किसलिए कोई मेरा मित्र है? क्या इसलिए कि वह मुझे प्रेम देगा, मैं भरोसा कर सकता हूं? मेरे वक्त पर काम पड़ेगा? मेरे काम में सहयोगी होगा, बाधा नहीं बनेगा?

अगर यही सवाल आपको उठते हों, तो फिर एक बार सोचना कि आप जिंदगी में कोई काम करने के पागलपन से भरे हैं। अहंकार सदा कहता है कि कुछ करने को आप हैं।

जो भी करने को है, वह परमात्मा कर लेता है। आप नाहक के बोझ से न भरें। आप व्यर्थ विक्षिप्त न हों। उससे कुछ काम तो न होगा, उससे सिर्फ आप परेशान हो लेंगे। उससे कुछ भी न होगा।

इस दुनिया में कितने लोग आते हैं, जो सोचते हैं, कुछ करना है उनको। आप जरूर कुछ करते रहें, लेकिन इस खयाल से मत करें कि आपको कुछ करना है। इस खयाल से करते रहें कि परमात्मा की मर्जी; वह आपसे कुछ कराता है, आप करते हैं।

अगर ऐसा आपने देखा, तो शत्रु भी आपको परमात्मा का ही काम करता हुआ दिखाई पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई है नहीं। तब आप समझेंगे कि परमात्मा का कोई हिसाब होगा; वह शत्रु से भी काम ले रहा है, मुझसे भी काम ले रहा है। उसके अनंत हाथ हैं; वह हजार ढंग से काम ले रहा है। तब आपको शत्रु और मित्र बनाने की कोई जरूरत न रह जाएगी।

इसका यह मतलब नहीं है कि आपके शत्रु और मित्र नहीं बनेंगे। वे बनेंगे; वह उनकी मर्जी। आपको बनाने की कोई जरूरत न रह जाएगी। और आप दोनों के बीच समभाव रख सकेंगे।

यह समता आ जाए, तो भी मनुष्य योग में प्रतिष्ठित हो जाता है। समत्व कहीं से आए; वही सार है।

तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं शत्रु और मित्र के बीच ठहर जाने को। अर्जुन के लिए यह सूत्र काम का हो सकता है। उसकी सारी तकलीफ गीता में यही है। उसको कष्ट यही हो रहा है कि उस तरफ बहुत-से मित्र हैं, जिनको मारना पड़ेगा। शत्रु हैं, उनको मारना पड़े, उसमें तो उसे अड़चन नहीं है; अर्जुन को अड़चन नहीं है। अगर विभाजन साफ-साफ होता, तो बड़ी आसानी होती। मगर विभाजन बड़ा उलटा था। युद्ध बहुत अनूठा था। और इसीलिए गीता उस युद्ध के मंथन से निकल सकी; नहीं तो नहीं निकल पाती।

युद्ध इसलिए अनूठा था कि उस तरफ भी मित्र खड़े थे, सगे-साथी खड़े थे, प्रियजन खड़े थे, परिवार के लोग थे। कोई भाई था, कोई भाई का संबंधी था, कोई पत्नी का भाई था, कोई मित्र का मित्र था। सब गुंथे हुए थे। उस तरफ, इस तरफ एक ही परिवार खड़ा था। साफ नहीं था कि कौन है शत्रु, कौन है मित्र! सब धुंधला था। उसी से अर्जुन चिंतित हो आया। उसे लगा, अपने ही इन मित्रों को, प्रियजनों को मारकर अगर यह इतना बड़ा राज्य मिलता हो, तो हे कृष्ण, छोडूं इस राज्य को, भाग जाऊं जंगल। इससे तो मर जाना बेहतर। आत्महत्या कर लूं, वह अच्छा। इतने सब मित्रों की, इतने प्रियजनों की हत्या करके राज्य पाकर क्या करूंगा? वह क्षत्रिय बोला। वह क्षत्रिय का मन है। राज्य दो कौड़ी का है, लेकिन प्रियजनों को, मित्रों को मारने का क्या प्रयोजन है?

वह क्षत्रिय का ही मन बोल रहा है, जो मित्र और शत्रु की कीमत आंकता है। उस तरफ भी अपने ही लोग खड़े हैं। दुर्भाग्य, अभाग्य का क्षण कि बंटवारा ऐसा हुआ है। ऐसा ही होने वाला था। क्योंकि जो अर्जुन के मित्र थे, वे ही दुर्योधन के भी मित्र थे। खुद कृष्ण बड़ी मुश्किल में बंटकर खड़े थे। कृष्ण इस तरफ खड़े थे, कृष्ण की सारी फौजें कौरवों की तरफ खड़ी थीं। अजीब थी लड़ाई! अपनी ही फौजों के खिलाफ, अपने ही सेनापतियों के खिलाफ कृष्ण को लड़ना था। और उस तरफ से कृष्ण के ही सेनापति कृष्ण के खिलाफ लड़ने को तत्पर थे।

सारा बंटवारा प्रियजनों का था। मजबूरी में कोई इस तरफ खड़ा हो गया था, कोई उस तरफ। लेकिन सभी बेचैन थे। फिर भी अर्जुन सर्वाधिक बेचैन था। क्योंकि कहा जा सकता है कि अर्जुन उस युद्ध में सर्वाधिक शुद्ध क्षत्रिय था। वह सर्वाधिक बेचैन हो उठा था। भीम उतना बेचैन नहीं है। उसे मित्र दिखाई ही पड़ नहीं रहे हैं। शत्रु इतने साफ दिखाई पड़ रहे हैं कि पहले इनको मिटा डालना उचित है, फिर सोचा जाएगा। अर्जुन चिंता और संताप में पड़ा है।

कृष्ण का यह सूत्र अर्जुन के लिए विशेष है, मित्र और शत्रु के बीच समभाव। इसका मतलब है कि कोई फिक्र न करो, कौन मित्र है, कौन शत्रु है। दोनों के बीच तटस्थ हो जाओ। कौन अपना है, कौन पराया है, इस भाषा में मत सोचो। यह भाषा ही गलत है। योगी के लिए निश्चित ही गलत है।


और बड़े मजे की बात यही है कि अर्जुन तो केवल युद्ध से बचने का उपाय चाहता था। उसकी सारी जिज्ञासा नकारात्मक थी। किसी तरह युद्ध से बचने का उपाय मिल जाए! लेकिन कृष्ण जैसा शिक्षक ऐसा अवसर चूक नहीं सकता था।

कृष्ण की सारी शिक्षा पाजिटिव है। कृष्ण की सारी चेष्टा अर्जुन के भीतर योग को उत्पन्न कर देने की है। अर्जुन तो सिर्फ इतना ही चाहता था, किसी तरह से यह जो संताप पैदा हो गया है मेरे मन में, यह जो चिंता हो गई है, इससे मैं बच जाऊं। कृष्ण ने इसका पूरा उपयोग किया, अर्जुन के इस चिंता के क्षण का, इस अवसर का। कृष्ण इसके लिए उत्सुक नहीं हैं कि वह चिंता से कैसे बच जाए। कृष्ण इसके लिए उत्सुक हैं कि वह निश्चिंत कैसे हो जाए।

इस फर्क को आप समझ लेना। चिंता से बच जाना एक बात है। वह तो रात में ट्रैंक्वेलाइजर लेकर भी आप चिंता से बच जाते हैं। शराब पी लें, तो भी चिंता से बच जाते हैं। शराब कई तरह की हैं। अर्जुन को भी शराब पिलाई जा सकती थी। भूल-भाल जाता नशे में; टूट पड़ता युद्ध में।

शराब कई तरह की हैं--कुल की, यश की, धन की, राज्य की, प्रतिष्ठा की, अहंकार की। वह कुछ भी उसे पिलाई जा सकती थी। भूल जाता। दीवाना हो जाता। उसके घाव छुए जा सकते थे। कृष्ण उसके घाव छू सकते थे कि अर्जुन, तू जानता है कि तेरी द्रौपदी के साथ दुर्योधन ने क्या किया! नशा शुरू हो जाता।

उसके घाव छुए जा सकते थे। घाव बहुत गहरे थे और हरे थे। कृष्ण के लिए कठिनाई न पड़ती। इतनी लंबी गीता कहने की कोई भी जरूरत न थी। जरा से घाव उकसाने की जरूरत थी। जहर फैल जाता उसके भीतर। कहना था कि याद आता है वह दिन, जब द्रौपदी को नग्न करने का प्रयास किया था! भूल गया वह क्षण, जब द्रौपदी को नग्न करने की चेष्टा के बीच तू सिर झुकाए बैठा था और तेरे ही सामने दुर्योधन अपनी जांघ को उघाड़कर थपथपा रहा था और द्रौपदी से कह रहा था, आ मेरी जांघ पर बैठ जा! वह क्षण तुझे याद है? बस, इतना काफी होता। गीता कहने की कोई जरूरत न थी। अर्जुन कूद पड़ा होता।

लेकिन कृष्ण ने वह नहीं किया। उसको सिर्फ नशा देकर लड़ा देने की बात न थी; सिर्फ चिंता से बचा देने की बात न थी; निश्चिंत बनाने की, विधायक प्रक्रिया की बात थी।

तो कृष्ण पूरी मेहनत यह कर रहे हैं कि वह चिंता के बाहर हो जाए, इतना काफी नहीं; युद्ध में उतर जाए, इतना काफी नहीं; काफी यह है कि वह योगारूढ़ हो जाए। जरूरी यह है कि वह योगस्थ हो जाए, वह योगी हो जाए। और योगी होकर ही युद्ध में उतरे, तो युद्ध धर्मयुद्ध बन सकेगा, अन्यथा युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होगा।

दुनिया में जब भी दो लोग लड़ते हैं, तो कभी ऐसा हो सकता है, थोड़ी-बहुत मात्रा का भेद होता है। कोई थोड़ा ज्यादा अधार्मिक, कोई थोड़ा कम अधार्मिक। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है कि एक धार्मिक हो और दूसरा अधार्मिक। अधार्मिक होने में ही मात्रा-भेद होता है। कोई नब्बे प्रतिशत अधार्मिक होता है, कोई पंचानबे प्रतिशत अधार्मिक होता है। लेकिन युद्ध हमेशा अधर्म और अधर्म के बीच ही चलता है।

कृष्ण एक अनूठा प्रयोग करना चाह रहे हैं; शायद विश्व के इतिहास में पहला, और अभी तक उसके समानांतर कोई दूसरा प्रयोग हो नहीं सका। वह प्रयोग यह करना चाह रहे हैं, युद्ध को एक धर्मयुद्ध बनाने की कीमिया अर्जुन को देना चाह रहे हैं।

वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू योगी होकर लड़; तू समत्वबुद्धि को उपलब्ध होकर लड़; तू शत्रु और मित्र के बीच बिलकुल तटस्थ होकर लड़; अपने और पराए के बीच फासला छोड़ दे। क्या होगा फल, इसकी चिंता न कर। इसकी ही चिंता कर कि क्या है तेरा चित्त! कौन मरेगा, कौन बचेगा, इसकी फिक्र मत कर। इसकी ही फिक्र कर कि चाहे कोई मरे, चाहे कोई बचे, चाहे तू मरे या तू बचे, लेकिन मृत्यु और जन्म के बीच तुझे कोई फर्क न हो; तू समत्व को उपलब्ध हो जा। चाहे सफलता आए चाहे असफलता, चाहे विजय आए और चाहे पराजय, तू दोनों को समभाव से झेल सके। तेरे चित्त की लौ जरा भी कंपित न हो। तू निष्कंप हो जा।

युद्ध के क्षण में किसी को योगी बनाने की यह चेष्टा बड़ी इंपासिबल है, बड़ी असंभव है।

ये कृष्ण जैसे लोग सदा ही असंभव प्रयास में लगे रहते हैं। उनकी वजह से ही जिंदगी में थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से ही, ऐसे असंभव प्रयास में लगे हुए लोगों की वजह से ही, जिंदगी में कहीं-कहीं कांटों के बीच एकाध फूल खिलता है; और जिंदगी के उपद्रव के बीच कभी कोई गीत जन्मता है। असंभव प्रयास, दि इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक असंभव क्रांति की आकांक्षा है कि अर्जुन योगी होकर युद्ध में चला जाए।

दो बातें आसान हैं। अर्जुन को योगी मत बनाओ, बेहोश करो, और भी भोगी बना दो--युद्ध में चला जाएगा। दूसरी भी बात संभव है, अर्जुन को योगी बनाओ--युद्ध को छोड़कर जंगल चला जाएगा। ये दो बातें बिलकुल आसान और संभव हैं। ये बिलकुल पासिबल के भीतर हैं। दो में से कुछ भी करो। अर्जुन को और भोग की लालच दो--युद्ध में लगा दो। अर्जुन को योगी बनाओ--जंगल चला जाए।

कृष्ण एक असंभव चेष्टा में संलग्न हैं। और इसीलिए गीता एक बहुत ही असंभव प्रयास है। असंभव होने की वजह से ही अदभुत; असंभव होने की वजह से ही इतना ऊंचा, इतना ऊर्ध्वगामी है। वह असंभव प्रयास यह है कि अर्जुन, तू योगी भी बन और युद्ध में भी खड़ा रह। तू हो जा बुद्ध जैसा, फिर भी तेरे हाथ से धनुष-बाण न छूटे।

बुद्ध जैसा होकर बोधिवृक्ष के नीचे बैठ जाने में अड़चन नहीं है; कोई अड़चन नहीं है। लेकिन बुद्ध जैसा होकर युद्ध के क्षण में युद्ध के मैदान पर खड़े रहने में बड़ी अड़चन है। और इसलिए वे सब द्वार खटखटा रहे हैं। कहीं से भी अर्जुन को प्रकाश दिखाई पड़ जाए।

इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि, तो तू योग को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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