बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 38

 योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। 47।।


और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।


अंतिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे सर्वाधिक मान्य है।

दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग में लगे हुए। पूछेंगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों लगेगा?

बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ यह है कि जीवन के दुखों से जो पिडित हो गया; जीवन के दुखों से जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के भी योग में संलग्न हो सकता है।



क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें।

इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों?

एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं।

तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी के प्रति कोई भाव नहीं है।

तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है।

क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं मानेगा। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूंगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा।

जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। वह कहता है, मैं काफी हूं।

 कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे  खिड़की रहित कोई मकान हो; सब द्वार-दरवाजे बंद, अंदर बैठे हैं।

श्रद्धावान व्यक्ति वह है, जिसके द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज को भीतर आने की आज्ञा है। हवाओं को भीतर प्रवेश की सुविधा है। ताजगी को निमंत्रण है कि आओ। श्रद्धा का और कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे भी विराट शक्ति मेरे चारों तरफ मौजूद है, मैं उसके सहारे के लिए निरंतर निवेदन कर रहा हूं। बस, और कुछ अर्थ नहीं होता।

मैं अकेला काफी नहीं हूं। क्योंकि मैं जन्मा नहीं था, तब भी वह विराट शक्ति मौजूद थी। और आज भी मेरे हृदय की धड़कन मेरे द्वारा नहीं चलती, उसके ही द्वारा चलती है। और आज भी मेरा खून मैं नहीं बहाता, वही बहाता है। और आज भी मेरी श्वास मैं नहीं लेता, वही लेता है। और कल जब मौत आएगी, तो मैं कुछ न कर सकूंगा। शायद वही मुझे अपने में वापस बुला लेगा। तो जो मुझे जन्म देता, जो मुझे जीवन देता, जो मुझे मृत्यु में ले जाता, जिसके हाथ में सारा खेल है, मैं अकड़कर यह कहूं कि मैं ही चल लूंगा, मैं ही सत्य तक पहुंच जाऊंगा, तो थोड़ी-सी भूल होगी। द्वार बंद हो जाएंगे व्यर्थ ही। विराट शक्ति मिल सकती थी सहयोग के लिए, वह न मिल पाएगी।

इसलिए अंतिम सूत्र कृष्ण कहते हैं, योग की इतनी लंबी चर्चा के बाद श्रद्धा की बात!

योग का तो अर्थ है, मैं करूंगा कुछ; श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे अकेले से न होगा। योग और श्रद्धा विपरीत मालूम पड़ेंगे। योग का अर्थ है, मैं करूंगा--विधि, साधन, प्रयोग, साधना। और श्रद्धा का अर्थ है, करूंगा जरूर; लेकिन मैं काफी नहीं हूं, तेरी भी जरूरत पड़ती रहेगी। और जहां मैं कमजोर पड़ जाऊं, तेरी शक्ति मुझे मिले। और जहां मेरे पैर डगमगाएं, तेरा बल मुझे सम्हाले। और जहां मैं भटकने लगूं, तू मुझे पुकारना। और जहां मैं गलत होने लगूं, तू मुझे इशारा करना।

और मजे की बात यह है कि जो इस भाव से चलता है, उसे इशारे मिलते हैं, सहारे मिलते हैं; उसे बल भी मिलता है, उसे शक्ति भी मिलती है। और जो इस भरोसे नहीं चलता, उसे भी मिलता है इशारा, लेकिन उसके द्वार बंद हैं, इसलिए वह नहीं देख पाता। उसे भी मिलती है शक्ति, लेकिन शक्ति दरवाजे से ही वापस लौट जाती है। उसे भी मिलता है सहारा, लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ाता, और बढ़ा हुआ परमात्मा का हाथ वैसा का वैसा रह जाता है।

ऐसा मत समझना आप कि श्रद्धा का यह अर्थ हुआ कि जो परमात्मा में श्रद्धा करते हैं, उनको ही परमात्मा सहायता देता है। नहीं, परमात्मा तो सहायता सभी को देता है। लेकिन जो श्रद्धा करते हैं, वे उस सहायता को ले पाते हैं। और जो श्रद्धा नहीं करते, वे नहीं ले पाते हैं।

श्रद्धा का अर्थ है, ट्रस्ट। मैं एक बूंद से ज्यादा नहीं हूं इस विराट जीवन के सागर में। इस अस्तित्व में एक छोटा-सा कण हूं। इस विराट अस्तित्व में मेरी क्या हस्ती है?

योग तो कहता है कि तू अपनी हस्ती को इकट्ठा कर और श्रम कर। और श्रद्धा कहती है, अपनी हस्ती को पूरा मत मान लेना। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन हवाएं तो उसकी ही ले जाएंगी तेरी नाव को। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन नदी की धार तो उसी की है, वही ले जाएगी। नाव को खोलना जरूर, लेकिन तेरे हृदय की धड़कन भी उसी की है, वही पतवार चलाएगी। यह सदा स्मरण रखना कि कर रहा हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही करता है। चलता हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही चलता है।

ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा दीया भी सूरज की शक्ति का मालिक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा अणु भी परम ब्रह्मांड की शक्ति के साथ एक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो फिर हम अकेले नहीं हैं, फिर परमात्मा सदा साथ है।


इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद कृष्ण ने जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि श्रद्धायुक्त जो मुझमें है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 37

 श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है 



तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।


योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।


तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।

तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना।

अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है--सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है--भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।

हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।

योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।

त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।

पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?

लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।

रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।

योग अंतर-रूपांतरण है।

भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।

लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे--योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।

तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।

तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।

योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है?

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं!





लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना योग है।

तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको खयाल में ले लें।

जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती, इतना फर्क होता है।

दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी सुख और दुख में सम होता है।

तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है।

ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन करते हैं।

योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।

ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है--किसी भी चीज का आयोजन करके। दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।

वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।

आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?

क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने! मैं दुख झेल सकता हूं।

यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है।

क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।


आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे। वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी।

क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है?


इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है।

क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी। हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा।

कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ है शास्त्र को जानने वाले से।

क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है।


शास्त्र-ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र-ज्ञान का मतलब है, कागज में जो लिखा है, उसे जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं।

शास्त्र-ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र-ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना।

और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है।

हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं।


शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं निकलता; निकल सकता नहीं।

शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है।

गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही अनुभव से आते हैं।

और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग।

और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से--किसी आशा से की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ--उससे योग श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग में प्रवेश है।

तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है।

वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें! शास्त्र पढ़ लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद करने लगे...।

जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूं! छोड़ दूं राज्य, भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे।

अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो अपने को सताना शुरू कर देगा।

इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मण तो सदा दुख में जीए, दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं।

उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया है।

इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों की महत्ता थी।

लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा योग? यह तो भोग चल रहा है!

और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग चल रहा था।

पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा।

क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे।

ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर तो बहुत नाजुक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे।

क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी।

इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर दिया।

लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। अर्जुन, तू योगी बन!

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 36

 

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।। 45।।


अनेक जन्मों से अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से अभ्यास करने वाला योगी, संपूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परम गति को प्राप्त होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त होता है।



इस सूत्र में दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। जैसे-जैसे अर्जुन, उन्हें प्रतीत होता है कि समझ पाएगा, समझ पाएगा, वैसे-वैसे वे कुछ और जोड़ देते हैं। दो बातें कहते हैं। वे कहते हैं, शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है।

शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? कठिन सवाल है। जटिल बात है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? और साधन की भी जरूरत पड़ेगी? इतना ही उचित न होता कहना कि शुद्ध हुआ जिसका अंतःकरण, वह परम गति को उपलब्ध होता है?

लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनंत जन्मों में भी शुद्ध हुआ अंतःकरण वाला व्यक्ति साधन की सहायता से परम गति को उपलब्ध होता है। मेथड, विधि की सहायता से। साधारणतः हमें लगेगा, जो शुद्ध हो गया पूरा, अब और क्या जरूरत रही साधन की? क्या परमात्मा उसे बिना किसी साधन के न मिल जाएगा?

एक छोटी-सी बात समझ लें, तो खयाल में आ जाएगी। जो शुद्ध हो जाए सब भांति और साधन का प्रयोग न किया हो, तो एक ही खतरा है, जो अंतिम बाधा बन जाता है। पायस ईगोइज्म, एक पवित्र अहंकार भीतर निर्मित होता है।

अपवित्र अहंकार तो होते ही हैं। एक आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। कि मैं छाती में छुरा भोंक दूं, तो हाथ नहीं धोता और खाना खा लेता हूं। अब इसके भी दावे करने वाले लोग हैं! यह असात्विक अहंकार की घोषणा है।

ध्यान रखना कि आमतौर से हम समझते हैं कि सभी अहंकार असात्विक होते हैं, तो गलत समझते हैं। सात्विक अहंकार भी होते हैं। और सात्विक अहंकार सटल, सूक्ष्म हो जाता है।

एक आदमी कहता है, मुझसे दुष्ट कोई भी नहीं; एक आदमी कहता है, मैं तो आपके चरणों की धूल हूं। अब जो आदमी कहता है, मैं आपके चरणों की धूल हूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं। इसका भी अहंकार है; बहुत सूक्ष्म। इसका भी दावा है। बहुत दावा शून्य मालूम पड़ता है, लेकिन दावा है। कोई दावा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि यह भी कोई दावा हुआ कि मैं आपके चरणों की धूल हूं!

लेकिन उस आदमी की आंखों में झांकें। अगर आप उससे कहें कि तुम तो कुछ भी नहीं हो, तुमसे भी ज्यादा चरणों की धूल मैंने देखी है एक आदमी में। एक आदमी मैंने देखा, तुमसे भी ज्यादा। तुम कुछ भी नहीं हो उसके सामने। तो आप देखना कि उसके भीतर अहंकार तड़पकर रह जाएगा; बिजली कौंध जाएगी। उसकी आंखों में झलक आ जाएगी। वही झलक, जो आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। मैं छाती में छुरा भोंक देता हूं, और बिना हाथ धोए पानी पीता हूं। वही झलक!

अहंकार बहुत चालाक है। बहुत चालाक तत्व है हमारे भीतर। वह हर चीज से अपने को जोड़ लेता है, हर चीज से! वह कहता है, धन है तुम्हारे पास, तो अकड़कर खड़े हो जाओ, और कहो कि जानते हो, मैं कौन हूं! मेरे पास धन है। अब तुमने अगर सोचा कि धन की वजह से अहंकार है। छोड़ दो धन। तो वह अहंकार कहेगा, तेरे से बड़ा त्यागी कोई भी नहीं। घोषणा कर दे कि मैं त्यागी हूं, महान!

आपको पता नहीं कि वही अहंकार, जो धन के पीछे छिपा था, अब त्याग के पीछे छिप गया है; त्याग को ओढ़ लिया है। और ध्यान रहे, धन वाला अहंकार तो बहुत स्थूल होता है, सबको दिखाई पड़ता है। त्याग वाला अहंकार सूक्ष्म हो जाता है और दिखाई नहीं पड़ता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, सब भांति शुद्ध हुआ व्यक्ति भी, साधन की सहायता से प्रभु को उपलब्ध होता है।

अब ये साधन की इसलिए जरूरत पड़ी। शुद्धि हो जाए, सत्व आ जाए, सब अंतःकरण बिलकुल पवित्र मालूम होने लगे, लेकिन यह प्रतीति एक चीज को बचा रखेगी, वह है मैं। उस मैं को बिना साधन के काटना असंभव है। उस मैं को साधन से काटना पड़ेगा।

और योग की जो परम विधियां हैं, वे इस मैं को काटने की विधियां हैं, जिनसे यह मैं कटेगा। बहुत तरह की विधियां योग उपयोग करता है, जिनसे कि यह मैं काटा जाए। अलग-अलग तरह के व्यक्ति के लिए अलग-अलग विधि उपयोगी होती है, जिससे यह मैं कट जाए। एक-दो घटनाएं मैं आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।






अगर कोई सिर्फ शुद्ध होने की कोशिश करे, सिर्फ नैतिक होने की, तो उसको साधन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अगर कोई योग के साथ शुद्ध होने की कोशिश करे, तो फिर साधन की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि योग का साधन साथ ही साथ विकसित होता चला जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 35

 पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।। 44।।


और वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही, निःसंदेह भगवत की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समत्वबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है।






दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। वे कहते हैं कि पिछले जन्मों में जिसने थोड़ी-सी भी यात्रा प्रभु की दिशा में की हो, वह उसकी संपदा बन गई है। अगले जन्मों में विषय और वासना में लिप्त हुआ भी प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता है।

अगले जन्म में विषय-वासना में लिप्त हुआ भी--वैसा व्यक्ति जिसके पिछले जन्मों की यात्रा में योग का थोड़ा-सा भी संचय है, जिसने थोड़ा भी धर्म का संचय किया, जिसका थोड़ा भी पुण्य अर्जन है--वह विषय-वासनाओं में डूबा हुआ भी, प्रभु की कृपा का पात्र बना रहता है। वह उतना-सा जो उसका किया हुआ है, वह दरवाजा खुला रहता है। बाकी उसके सब दरवाजे बंद होते हैं। सब तरफ अंधकार होता है, लेकिन एक छोटे-से छिद्र से प्रभु का प्रकाश उसके भीतर उतरता है।

और ध्यान रहे, गहन अंधकार में अगर छप्पर के छेद से भी रोशनी की एक किरण आती हो, तो भी भरोसा रहता है कि सूरज बाहर है और मैं बाहर जा सकता हूं! अंधकार आत्यंतिक नहीं है, अल्टिमेट नहीं है। अंधकार के विपरीत भी कुछ है।

एक छोटी-सी किरण उतरती हो छिद्र से घने अंधकार में, तो वह छोटी-सी किरण भी उस घने अंधकार से महान हो जाती है। वह घना अंधकार उस छोटी-सी किरण को भी मिटा नहीं पाता; वह छोटी-सी किरण अंधकार को चीरकर गुजर जाती है।

कितना ही विषय-वासनाओं में डूबा हो वैसा आदमी अगले जन्मों में, लेकिन अगर छोटे-से छिद्र से भी, जो उसने निर्मित किया है, प्रभु की कृपा उसको उपलब्ध होती रहे, तो उसके रूपांतरण की संभावना सदा ही बनी रहती है। वह सदा ही प्रभु-कृपा को पाता रहता है। जगह-जगह, स्थान-स्थान, स्थितियों-स्थितियों से प्रभु की कृपा उस पर बरसती रहती है। न मालूम कितने रूपों में, न मालूम कितने आकारों में, न मालूम कितने अनजान मार्गों और द्वारों से, और न मालूम कितनी अनजान यात्राएं प्रभु की कृपा से उसकी तरफ होती रहती हैं। बाहर वह कितना ही उलझा रहे, भीतर कोई कोना प्रभु का मंदिर बना रहता है। और वह बहुत बड़ा आश्वासन है।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह छोटा-सा छिद्र भी अगर निर्मित हो जाए, तो तेरे लिए बड़ा सहारा होगा।

और एक दूसरी बात, और भी क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी बात कहते हैं। कहते हैं, योग का जिज्ञासु भी, जस्ट एन इंक्वायरर; योग का जिज्ञासु भी--मुमुक्षु भी नहीं, साधक भी नहीं, सिद्ध भी नहीं--मात्र जिज्ञासु; जिसने सिर्फ योग के प्रति जिज्ञासा भी की हो, वह भी वेद में बताए गए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है, उनसे पार निकल जाता है।

वेद में कहा है कि यज्ञ करो, तो ये फल होंगे। ऐसा दान करो, तो ऐसा स्वर्ग होगा। इस देवता को ऐसा नैवेद्य चढ़ाओ, तो स्वर्ग में यह फल मिलेगा। ऐसा करो, ऐसा करो, तो ऐसा-ऐसा फल होता है सुख की तरफ। वेद में बहुत-सी विधियां बताई हैं, जो मनुष्य को सुख की दिशा में ले जा सकती हैं। कारण है बताने का।

वेद अर्जुन जैसे स्पष्ट जिज्ञासु के लिए दिए गए वचन नहीं हैं। वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। समस्त लोगों के लिए, जितने तरह के लोग पृथ्वी पर हो सकते हैं, सब के लिए सूत्र वेद में उपलब्ध हैं। गीता तो स्पेसिफिक टीचिंग है, एक विशेष शिक्षा है। एक विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई; विशेष व्यक्ति को दी गई। वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा दी गई शिक्षा नहीं है; अनेक व्यक्तियों के द्वारा दी गई शिक्षा है। एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा नहीं, अनेक व्यक्तियों को दी गई शिक्षा है।

और वेद विश्वकोश है। क्षुद्रतम व्यक्ति से श्रेष्ठतम व्यक्ति के लिए वेद में वचन हैं। क्षुद्रतम व्यक्ति से! उस आदमी के लिए भी वेद में वचन हैं, जो कहता है कि हे प्रभु, हे देव, हे इंद्र! बगल का आदमी मेरा दुश्मन हो गया है; तू कृपा कर और इसकी गाय के दूध को नदारद कर दे। उसके लिए भी प्रार्थना है! कुछ ऐसा कर कि इस पड़ोसी की गाय दूध देना बंद कर दे।

सोच भी न पाएंगे। दुनिया का कोई धर्मग्रंथ इतनी हिम्मत न कर पाएगा कि इसको अपने में सम्मिलित कर ले। लेकिन वेद उतने ही इनक्लूसिव हैं, जितना इनक्लूसिव परमात्मा है।

जब परमात्मा इस आदमी को अपने में जगह दिए हुए है, तो वेद कहते हैं, हम भी जगह देंगे। जब परमात्मा इनकार नहीं करता कि इस आदमी को हटाओ, नष्ट करो; यह आदमी क्या बातें कर रहा है! यह कह रहा है कि हे इंद्र, मैं तेरी पूजा करता हूं, तेरी प्रार्थना, तेरी अर्चना, तेरे नैवेद्य चढ़ाता हूं, तेरे लिए यज्ञ करता हूं, तो कुछ ऐसा कर कि पड़ोसी के खेत में इस बार फसल न आए। दुश्मन के खेत जल जाएं, हमारे ही खेत में फसलें पैदा हों। दुश्मनों का नाश कर दे। जैसे बिजली गिरे किसी पर और वज्राघात होकर वह नष्ट हो जाए, ऐसा उस दुश्मन को नष्ट कर दे।

धर्मग्रंथ, और ऐसी बात को अपने भीतर जगह देता है! शोभन नहीं मालूम पड़ता। कृष्ण को भी शोभन नहीं मालूम पड़ा होगा। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि वेदों में जिन सकाम कर्मों की--सकाम कर्म का अर्थ है, किसी वासना से किया गया पूजा-पाठ, हवन, विधि; किसी वासना से, किसी कामना से, कुछ पाने के लिए किया गया--जो भी वेदों में दी गई व्यवस्था है, जो कर्मकांड है, उसको कर-करके भी आदमी जहां पहुंचता है, योग की जिज्ञासा मात्र करने वाला, उसके पार निकल जाता है। सिर्फ जिज्ञासा मात्र करने वाला! इसका ऐसा अर्थ हुआ, अकाम भाव से जिज्ञासा मात्र करने वाला, सकाम भाव से साधना करने वाले से आगे निकल जाता है।

अकाम का इतना अदभुत रहस्य, निष्काम भाव की इतनी गहराई और निष्काम भाव का इतना शक्तिशाली होना, उसे बताने के लिए कृष्ण ने यह कहा है।

कृष्ण भी वेद से चिंतित हुए, क्योंकि वेद इस तरह की बातें बता देता है। वेद से बुद्ध भी चिंतित हुए। सच तो यह है कि हिंदुस्तान में वेद की व्यवस्थाओं के कारण ही जैन और बौद्ध धर्मों का भेद पैदा हुआ, अन्यथा शायद कभी न पैदा होता। क्योंकि तीर्थंकरों को, जैनों के तीर्थंकरों को भी लगा कि ये वेद किस तरह की बातें करते हैं!

महावीर कहते हैं कि दूसरे के लिए भी वैसा ही सोचो, जैसा अपने लिए सोचते हो; और वेद ऐसी प्रार्थना को भी जगह देता है कि दुश्मन को नष्ट कर दो! बुद्ध कहते हैं, करुणा करो उस पर भी, जो तुम्हारा हत्यारा हो। और वेद कहते हैं, पड़ोसी के जीवन को नष्ट कर दे हे देव! और इसको जगह देते हैं। बुद्ध या कृष्ण या महावीर, सभी वेद की इन व्यवस्थाओं से चिंतित हुए हैं।

लेकिन मैं आपसे कहूं, वेद का अपना ही रहस्य है। और वह रहस्य यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। विश्वकोश का अर्थ होता है, जो भी धर्म की दिशा में संभव है, वह सभी संगृहीत है। माना कि यह आदमी दुश्मन को नष्ट करने के लिए प्रार्थना कर रहा है, लेकिन प्रार्थना कर रहा है। और प्रार्थना संकलित होनी चाहिए। यह भी आदमी है; माना बुरा है, पर है। तथ्य है, तथ्य संगृहीत होना चाहिए। और जब परमात्मा इसे स्वीकार करता है, सहता है, इसके जीवन का अंत नहीं करता; श्वास चलाता है, जीवन देता है, प्रतीक्षा करता है इसके बदलने की, तो वेद कहते हैं कि हम भी इतनी जल्दी क्यों करें! हम भी इसे स्वीकार कर लें।

वेद जैसी किताब नहीं है पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव। सब किताबें चोजेन हैं। दुनिया की सारी किताबें चुनी हुई हैं। उनमें कुछ छोड़ा गया है, कुछ चुना गया है। बुरे को हटाया गया है, अच्छे को रखा गया है। धर्मग्रंथ का मतलब ही यही होता है। धर्मग्रंथ का मतलब ही होता है कि धर्म को चुनो, अधर्म को हटाओ। वेद सिर्फ धर्मग्रंथ नहीं है; मात्र धर्मग्रंथ नहीं है। वेद पूरे मनुष्य की समस्त क्षमताओं का संग्रह है। समस्त क्षमताएं!

जान्सन ने, डाक्टर जान्सन ने अंग्रेजी का एक विश्वकोश निर्मित किया। विश्वकोश जब कोई निर्मित करता है, तो उसे गंदी गालियां भी उसमें लिखनी पड़ती हैं। लिखनी चाहिए, क्योंकि वे भी शब्द तो हैं ही और लोग उनका उपयोग तो करते ही हैं। उसमें गंदी, अभद्र, मां-बहन की गालियां, सब इकट्ठी की थीं।

बड़ा कोश था। लाखों शब्द थे। उसमें गालियां तो दस-पच्चीस ही थीं, क्योंकि ज्यादा गालियों की जरूरत नहीं होती, एक ही गाली को जिंदगीभर रिपीट करने से काम चल जाता है। गालियों में कोई ज्यादा इनवेंशन भी नहीं होते। गालियां करीब-करीब प्राचीन, सनातन चलती हैं। गाली, मैं नहीं देखता, कोई नई गाली ईजाद होती हो। कभी-कभी कोई छोटी-मोटी ईजाद होती है; वह टिकती नहीं। पुरानी गाली टिकती है, स्थिर रहती है।

एक महिला भद्रवर्गीय पहुंच गई जान्सन के पास। खोला शब्दकोश उसका और कहा कि आप जैसा भला आदमी और इस तरह की गालियां लिखता है! अंडरलाइन करके लाई थी! जान्सन ने कहा, इतने बड़े शब्दकोश में तुझे इतनी गालियां ही देखने को मिलीं! तू खोज कैसे पाई? मैं तो सोचता था, कोई खोज नहीं पाएगा। तू खोज कैसे पाई? जान्सन ने कहा, मुझे गाली और पूजा और प्रार्थना से प्रयोजन नहीं है। आदमी जो-जो शब्दों का उपयोग करता है, वे संगृहीत किए हैं।

वेद आल इनक्लूसिव है। इसलिए वेद में वह क्षुद्रतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास न मालूम कौन-सी क्षुद्र आकांक्षा लेकर गया है। वह श्रेष्ठतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास कोई आकांक्षा लेकर नहीं गया है। वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास जाने की हर कोशिश करता है और नहीं पहुंच पाता। और वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा की तरफ जाता नहीं, परमात्मा खुद उसके पास आता है। सब मिल जाएंगे।

इसलिए वेद की निंदा भी करनी बहुत आसान है। कहीं भी पन्ना खोलिए वेद का, आपको उपद्रव की चीजें मिल जाएंगी। कहीं भी। क्यों? क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो उपद्रव है। और वेद इसलिए बहुत रिप्रेजेंटेटिव है, बहुत प्रतिनिधि है। ऐसी प्रतिनिधि कोई किताब पृथ्वी पर नहीं है। सब किताबें क्लास रिप्रेजेंट करती हैं, किसी वर्ग का। किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं सब किताबें। वेद प्रतिनिधि है मनुष्य का, किसी वर्ग का नहीं, सबका। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अनुकूल वक्तव्य वेद में न मिल जाए।

इसीलिए उसे वेद नाम दिया गया है। वेद का अर्थ है, नालेज। वेद का अर्थ और कुछ नहीं होता। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान, जस्ट नालेज। आदमी को जो-जो ज्ञान है, वह सब संगृहीत है। चुनाव नहीं है। कौन आदमी को रखें, किसको छोड़ दें, वह नहीं है।

कृष्ण, बुद्ध, महावीर सबको इसमें अड़चन रही है। अड़चन के भी अपने-अपने रूप हैं। कृष्ण ने वेद को बिलकुल इनकार नहीं किया, लेकिन तरकीब से वेद के पार जाने वाली बात कही। कृष्ण ने कहा कि ठीक है वेद भी; सकाम आदमी के लिए है। लेकिन निष्काम की जिज्ञासा करने वाला भी, इन हवन और यज्ञ करने वाले लोगों से पार चला जाता है। महावीर और बुद्ध ने तो बिलकुल इनकार किया, और उन्होंने कहा कि वेद की बात ही मत चलाना। वेद की बात चलाई, कि नर्क में पड़ोगे। इसलिए वेद के विरोध में अवैदिक धर्म भारत में पैदा हुए, बुद्ध और महावीर के।

वेद को ठीक से कभी भी नहीं समझा गया, क्योंकि इतनी आल इनक्लूसिव किताब को ठीक से समझा जाना कठिन है। क्योंकि आपके टाइप के विपरीत बातें भी उसमें होंगी, क्योंकि आपका विपरीत टाइप भी दुनिया में है। इसलिए वेद को पूरी तरह प्रेम करने वाला आदमी बहुत मुश्किल है। वह वही आदमी हो सकता है, जो परमात्मा जैसा आल इनक्लूसिव हो, नहीं तो बहुत मुश्किल है। उसको कोई न कोई खटकने वाली बात मिल जाएगी कि यह बात गड़बड़ है। वह आपके पक्ष की नहीं होगी, तो गड़बड़ हो जाएगी।

वेद में कुरान भी मिल जाएगा। वेद में बाइबिल भी मिल जाएगी। वेद में धम्मपद भी मिल जाएगा। वेद में महावीर के वचन भी मिल जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया है। वेद को प्रयोजन नहीं है।

इसलिए महावीर को कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर के विपरीत टाइप का भी सब संग्रह वहां है। और वह विपरीत टाइप को भी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर वाला संग्रह भी वहां है। और अड़चन सभी को होगी।

इसलिए वेद के साथ कोई भी बिना अड़चन में नहीं रह पाता। और अड़चन मिटाने के जो उपाय हुए हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जैसे दयानंद ने एक उपाय किया अड़चन मिटाने का। वह अड़चन मिटाने का उपाय यह है कि वेद के सब शब्दों के अर्थ ही बदल डालो। और इस तरह के अर्थ निकालो उसमें से कि वेद विश्वकोश न रह जाए, धर्मशास्त्र हो जाए; एक संगति आ जाए, बस।

यह ज्यादती है लेकिन। वेद में संगति नहीं लाई जा सकती। वेद असंगत है। वेद जानकर असंगत है, क्योंकि वेद सबको स्वीकार करता है, असंगत होगा ही।

शब्दकोश संगत नहीं हो सकता। विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया संगत नहीं हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया को अपने से विरोधी वक्तव्यों को भी जगह देनी ही पड़ेगी।

लेकिन कभी ऐसा आदमी जरूर पैदा होगा एक दिन पृथ्वी पर, जो समस्त को इतनी सहनशीलता से समझ सकेगा, सहनशीलता से, उस दिन वेद का पुनर्आविर्भाव हो सकता है। उस दिन वेद में दिखाई पड़ेगा, सब है। कंकड़-पत्थर से लेकर हीरे-जवाहरातों तक, बुझे हुए दीयों से लेकर जलते हुए महासूर्यों तक, सब है।

तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं--वह उनका अर्थ है कहने का और कारण है--वे कहते हैं कि वेदों की समस्त साधना भी तू कर डाल, सब यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना न पाएगा, जितना सिर्फ योग की जिज्ञासा से पा सकता है। और योग को साधे, तब तो बात ही अलग है। तब तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्जुन को भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण की चेष्टा सतत है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 34

 आंतरिक संपदा 



तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। 43।।


और वह पुरुष वहां उस पहले शरीर में साधन किए हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात समत्वबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और हे कुरुनंदन, उसके प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न करता है।


जीवन में कोई भी प्रयास खोता नहीं है। जीवन समस्त प्रयासों का जोड़ है, जो हमने कभी भी किए हैं। समय के अंतराल से अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक किया हुआ कर्म, प्रत्येक किया हुआ विचार, हमारे प्राणों का हिस्सा बन जाता है। हम जब कुछ सोचते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं; जब कुछ करते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं। वह रूपांतरण हमारे साथ चलता है।

हम जो भी हैं आज, हमारे विचारों, भावों और कर्मों का जोड़ हैं। हम जो भी हैं आज, वह हमारे अतीत की पूरी शृंखला है। एक क्षण पहले तक, अनंत-अनंत जीवन में जो भी किया है, वह सब मेरे भीतर मौजूद है।

कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में जिसने साधा हो योग, लेकिन सिद्ध न हो पाए अर्जुन, तो अगले जीवन में अनायास ही, जो उसने साधा था, उसे उपलब्ध हो जाता है। अनायास ही! उसे पता भी नहीं चलता। उसे यह भी पता नहीं चलता कि यह मुझे क्यों उपलब्ध हो रहा है। इसलिए कई बार बड़ी भ्रांति होती है। और इस जगत में सत्य अनायास मिल सकता है, इस तरह के जो सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं, उनके पीछे यही भ्रांति काम करती है।

कोई व्यक्ति अगर पिछले जन्म में उस जगह पहुंच गया है, जहां पानी निन्यानबे डिग्री पर उबलने लगे, और एक डिग्री कम रह गया है, वह अचानक कोई छोटी-मोटी घटना से इस जीवन में परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। आखिरी तिनका रह गया था ऊंट पर पड़ने को और ऊंट बैठ जाता है। पर एक छोटा-सा तिनका, अगर आप कभी वजन तौलते हैं तराजू पर रखकर, तो आपको पता है, एक छोटा-सा तिनका कम हो, तो तराजू का पलड़ा ऊपर रहता है। एक तिनका बढ़ा, तो तराजू का पलड़ा नीचे बैठ जाता है; दूसरा ऊपर उठ जाता है। एक तिनके की भी प्रतिष्ठा होती है। एक तिनके का क्या मूल्य है! इसे ऐसा समझने की कोशिश करें।

कृष्ण कहते हैं, पिछले जन्मों की यात्रा, अगर थोड़ी-बहुत अधूरी रह गई हो, कहीं हम चूक गए हों, तो किसी दिन अनायास, किसी जन्म में अनायास बीज फूट जाता है; दीया जल जाता है; द्वार खुल जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि इंचभर से ही हम चूक जाते हैं। और इंचभर से चूकने के लिए कभी-कभी जन्मों की यात्रा करनी पड़ती है।


तो कृष्ण कहते हैं, भय न करना अर्जुन! कितना ही चूक जाओ, जो तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह अगले जन्म में पुनः वहीं से यात्रा शुरू होगी। समय का व्यवधान जरूर पड़ जाएगा। शायद तू समझ भी न पाए, जब अनायास घटना घटे। शायद तुझे प्रतीति भी न हो सके कि यह क्या हो रहा है। लेकिन जो तेरे साथ है, जो तेरा किया हुआ है, वह तेरे साथ होगा।

योग की दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न कभी खोता नहीं। प्रभु की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। उतनी यात्रा हो जाती है। हम दूसरे हो जाते हैं। प्रभु की दिशा में सोचा गया विचार भी व्यर्थ नहीं जाता है, हम उतने तो आगे बढ़ ही जाते हैं।

आश्वासन दे रहे हैं अर्जुन को कि तू इन बातों में मत पड़। तू इस भांति मत सोच कि कहीं पूरा न हो सका, तो क्या होगा! जितना भी होगा, उसकी भी अपनी अर्थवत्ता है। जितना भी तू कर लेगा, उतना भी काफी है।

एक मित्र मेरे पास आए। वे कहते हैं कि उनका नब्बे प्रतिशत मन संन्यास लेने का है, दस प्रतिशत मन संन्यास लेने का नहीं है। तो मैंने कहा, फिर क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि तो अभी नहीं लेता हूं। तो मैंने कहा कि थोड़ा सोच रहे हैं, कि न लेना भी एक निर्णय है। और दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय ले रहे हैं, और नब्बे प्रतिशत के पक्ष में निर्णय नहीं ले रहे हैं।

वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत संन्यास लेने का मन है, दस प्रतिशत संदेह मन को पकड़ता है, तो अभी नहीं लेता हूं। पर उनको पता नहीं है कि यह भी निर्णय है। न लेना भी निश्चित निर्णय है। यह निर्णय दस प्रतिशत मन के पक्ष में लिया जा रहा है। और नब्बे प्रतिशत मन के पक्ष में जो निर्णय है, वह नहीं लिया जा रहा है। यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम होता है, उनका नहीं है; दस प्रतिशत मन उनका है।

मेरा मतलब समझे! यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम पड़ता है, उनका नहीं है, कम से कम इस जन्म का नहीं है। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि आदमी नब्बे प्रतिशत को छोड़े और दस प्रतिशत को पकड़े! दस प्रतिशत उनका है, इस जन्म का है। नब्बे प्रतिशत उनके पिछले जन्मों की यात्रा का है। उससे उन्हें कोई कांशस संबंध नहीं मालूम पड़ता कि वह मेरा है। वह ऐसा लगता है कि कोई मेरे भीतर नब्बे प्रतिशत कह रहा है कि ले लो। लेकिन मैं रुक रहा हूं। मैं दस प्रतिशत के पक्ष में हूं। वे ज्यादा देर न रुक पाएंगे, क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत धक्के मारता ही रहेगा। और दस प्रतिशत कितनी देर जीत सकता है? कैसे जीतेगा?

लेकिन समय का व्यवधान पड़ जाएगा। जन्म भी खो सकते हैं। और वह नब्बे प्रतिशत प्रतीक्षा करेगा; और हर जन्म में धक्का देगा। हर दिन, हर रात, हर क्षण वह धक्के मारेगा। क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत आपका बड़ा हिस्सा है, जिसे आप नहीं पहचान पा रहे हैं कि आपका है। और यह दस प्रतिशत, जिसको आप कह रहे हैं मेरा, यह सिर्फ इस जन्म का संग्रह है।

ध्यान रहे, पिछले जन्मों और इस जन्म के बीच में जो संघर्ष है, उसी के कारण मनुष्य के कांशस और अनकांशस में फासला पड़ता है। अचेतन हिस्सा नौ गुना बड़ा है चेतन से। तो एक हिस्सा नौ गुने को दबा सकेगा? इसमें बड़ी भूल मालूम पड़ती है। फ्रायड कहता है कि अचेतन नौ गुना बड़ा है। अनकांशस नौ गुना बड़ा है कांशस से। जैसे कि बर्फ का टुकड़ा पानी में तैरता हो, तो जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन है, नौ गुना ज्यादा। जरा-सा ऊपर निकला रहता है, उतना चेतन है। अगर नौ गुना अचेतन वही हिस्सा है जो आदमी ने दबा दिया है, तो बड़े आश्चर्य की बात है कि चेतन छोटी-सी ताकत बड़ी ताकत को दबा पाती है?

  अचेतन असल में वह हिस्सा है मन का, जो हमारे अतीत जन्मों से निर्मित होता है; और चेतन वह हिस्सा है हमारे मन का, जो हमारे इस जन्म से निर्मित होता है।

इस जन्म के बाद हमने जो अपना मन बनाया है, शिक्षा पाई है, संस्कार पाए हैं, धर्म, मित्र, प्रियजन, अनुभव, उनका जो जोड़ है, वह हमारा मन है, कांशस माइंड है। और उसके पीछे छिपी हुई जो अंतर्धारा है हमारे अचेतन की, अनकांशस माइंड की, वह हमारा अतीत है। वह हमारे अतीत जन्मों का समस्त संग्रह है।

निश्चित ही, वह ज्यादा ताकतवर है, लेकिन ज्यादा सक्रिय नहीं है। इन दोनों बातों में फर्क है। ज्यादा ताकत से जरूरी नहीं है कि सक्रियता ज्यादा हो। कम ताकत भी ज्यादा सक्रिय हो सकती है। असल में जो हमने इस जन्म में बनाया है, वह ऊपर है; वह हमारे मन का ऊपरी हिस्सा है, जो हमने अभी बनाया है। और जो हमारे अतीत का है, वह उतना ही गहरा है। जो हमने जितने गहरे जन्मों में बनाया है, उतना ही गहरा दबा है।

जैसे कोई आदमी के घर में धूल की पर्त जमती चली जाए वर्षों तक, तो आज सुबह जो धूल उसके घर में आएगी, वह ऊपर होगी, दिखाई पड़ेगी। और अगर हवा का झोंका आएगा, तो वर्षों की नीचे जो जमी धूल है, उसको पता भी नहीं चलेगा। ऊपर की हवा ही सक्रिय होती दिखाई पड़ेगी, ऊपर की ही धूल उड़ने लगेगी। नीचे की धूल तो निश्चिंत विश्राम करेगी। वह बहुत गहरी बैठ गई है; बहुत गहरी; अब वहां कोई झोंका नहीं पहुंचता है। कभी-कभी कोई झोंका वहां तक पहुंच जाता है। जब हम कहते हैं कि कोई विचार हमारे जीवन में प्रवेश करता है, कोई प्रेरणा, कोई इंसपेरेशन, कोई घटना, कोई व्यक्ति, कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई चोट जब हमारे जीवन में गहरी प्रवेश करती है और हमारी पर्तों को फाड़कर भीतर चली जाती है, तब उस भीतर की आवाज आती है।

उन मित्र को नब्बे प्रतिशत की जो आवाज आ रही है, वह किसी गहरी चोट के कारण से आ रही है। लेकिन वे चोट को झुठलाने में लगे हैं। वे बड़े दुख में पड़ गए हैं। दुख भारी है। और मन में विचार आता है कि आत्महत्या कर लें।

ध्यान रहे, जब किसी आदमी के जीवन में आत्महत्या का विचार आता है, वही क्षण संन्यास में रूपांतरित किया जा सकता है। तत्काल! क्योंकि संन्यास का अर्थ है, आत्मरूपांतरण।

जब आदमी आत्महत्या करना चाहता है, तो उसका मतलब यह है कि इस आत्मा से ऊब गया है, इससे ऊब गया है, इसको खतम कर दूं। इसके दो ढंग हैं। या तो शरीर को काट दो; इससे आत्मा खतम नहीं होती, सिर्फ धोखा पैदा होता है। वही आत्मा नए शरीर में प्रवेश करके यात्रा शुरू कर देगी। दूसरा जो सही रास्ता है, वह यह है कि इस आत्मा को ट्रांसफार्म करो, रूपांतरित करो, नया कर लो। शरीर को मारने से कुछ न होगा, आत्मा को ही बदल डालो, वह योग है।





इसलिए एक बहुत मजे की बात आपको कहूं, जिस देश में ज्यादा संन्यासी होते हैं, उस देश में आत्महत्याएं कम होती हैं। और जिस देश में संन्यासी कम होते हैं, उसमें उतनी ही मात्रा में आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं।

आप जानकर यह हैरान होंगे कि अगर अमेरिका और भारत की आत्महत्या और संन्यासियों का आंकड़ा बिठाया जाए, तो बराबर अनुपात होगा, बराबर, एक्जेक्ट! जितने लोग यहां ज्यादा मात्रा में संन्यास लेते हैं, उतने ज्यादा लोग वहां आत्महत्या करते हैं। क्योंकि आत्महत्या का क्षण दो तरफ जा सकता है। वह एक क्राइसिस है, एक संकट है। या तो शरीर को मिटाओ, या स्वयं को मिटाओ। और ये दो दिशाएं हैं।

शरीर को मिटाने से कुछ भी नहीं होता। सिर्फ तीस-पैंतीस साल के बाद आप वहीं फिर खड़े हो जाएंगे। एक व्यर्थ की लंबी यात्रा होगी। गर्भाधारण होगा। फिर बच्चे बनेंगे। फिर शिक्षा होगी। फिर उपद्रव सब चलेगा। और फिर एक दिन आप पाएंगे कि ठीक यही क्षण आ गया, आत्महत्या का। हां, तीस-चालीस साल बाद आएगा। यह इतना समय व्यर्थ जाएगा।

संन्यास का अर्थ है, आ गई वह घड़ी, जहां हम जैसे हैं, उससे हम तृप्त न रहें। जैसे हम हैं, अब उसी को आगे खींचने में कोई प्रयोजन न रहा। उसमें बदलाहट जरूरी है। तो स्वयं को बदल डालो।

लेकिन नब्बे प्रतिशत मन कहता है, बदल डालो। पर वह पर्त गहरी है, नीचे की है, उसको आप अपनी नहीं मान पाते। वह जो ऊपर की पर्त है, उससे आपकी पहचान है। अभी ताजी है। वह आपको अपनी लगती है। मन का ऐसा नियम है।

मन का ऐसा नियम है, जो ऊपर है, वह अपना मालूम पड़ता है। क्योंकि मन ऊपर-ऊपर जीता है, सतह पर, लहरों पर। जो गहरा है, वह अपना नहीं मालूम पड़ता है।

इसलिए बहुत दफे भ्रांति होती है। जब बहुत गहरे से आवाज आती है--वह स्वयं के ही भीतर से आती है--जब बहुत गहरे से आवाज आती है, तो साधक को लगता है, कोई ऊपर से बोल रहा है। परमात्मा बोल रहा है।

परमात्मा कभी नहीं बोलता। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, वह कभी नहीं बोलता, वह सदा मौन है। लेकिन स्वयं के ही इतने भीतर से आवाज आती है कि वह लगती है, किसी और की आवाज है, इतने दूर से आती मालूम पड़ती है। हम ही अपने से इतने दूर चले गए हैं। अपने घर से हम इतने दूर चले गए हैं कि अपने ही घर के भीतर से आई हुई आवाज कहीं दूर, किसी और की आवाज मालूम पड़ती है। वह अपनी ही आवाज है, अपनी ही गहरे की आवाज है, अपनी ही गहराइयों की आवाज है। पर हमारी आइडेंटिटी, हमारा तादात्म्य होता है ऊपर की पर्त से, उसको हम कहते हैं, मैं।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू भयभीत न हो। जो तू कर सकता है इस जीवन में, कर। अगले जीवन में वह तुझे अनायास मिल जाएगा।

इसलिए भी कहते हैं, यह भी मैं आपको याद दिला दूं, कि अगर कृष्ण जैसा आदमी यह बात कह दे, तो यह बहुत गहरे प्रवेश कर जाती है। और संभावना यह है--और इसका एक नियम और एक सूत्र और एक व्यवस्था और एक तकनीक है। कृष्ण क्यों कहते हैं यह बात? महावीर क्यों कहते हैं? बुद्ध क्यों कहते हैं? क्यों दोहराते हैं ये सारे लोग कि तुम जितना करोगे, वह अगले जन्म में अनायास तुम्हें मिल जाएगा?

वे इसलिए कहते हैं कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण जैसे व्यक्ति के संपर्क में आपके मन की जो ऊपरी पर्त है, वह खुल जाती है और भीतर तक आप सुन पाते हैं। उनकी मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है। उनकी मौजूदगी में, आपके भीतर जो दरवाजे आप नहीं खोल पाते, खुल जाते हैं। उनकी मौजूदगी आपको बल दे जाती है, शक्ति दे जाती है, साहस दे जाती है, भरोसा दे जाती है।

तो कृष्ण जब यह कह रहे हैं कि इस जन्म का जो है अगले जन्म में अनायास मिल जाएगा, यह बात अगर अर्जुन के मन में बैठ जाए, तो अगले जन्म में जब अनायास मिलेगा, तो उसे याद भी आ जाएगी। इसलिए भी यह बात कही जाती है। तब अगले जन्म में वह याद कर सकेगा कि निश्चित ही, आज अनायास यह घट रहा है, यह कृष्ण ने कहा था। वह पहचान पाएगा; ये शब्द उसके भीतर बैठ जाएंगे।

शब्दों की भी गहराइयां हैं। व्यक्तियों की गहराइयों के साथ शब्दों की गहराइयां बढ़ती हैं। जब कोई आदमी कंठ से बोलता है, तो आपके कान से गहरा कभी नहीं जाता है। जब कोई आदमी हृदय से बोलता है, तो आपके हृदय तक जाता है। जब कोई आदमी प्राण से बोलता है, तो आपके प्राण तक जाता है। जब कोई आदमी आत्मा से बोलता है, तो आपकी आत्मा तक जाता है। और जब कोई व्यक्ति अपने परमात्मा से बोलता है, तो आपके परमात्मा तक जाता है।

गहराई उतनी ही होती है आपके भीतर, जितनी कि बोलने वाले की गहराई होती है। बोलने वाले की गहराई से ज्यादा आपके भीतर नहीं जा सकता। हां, बोलने वाले की गहराई तक भी न जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि कोई आत्मा से बोले, लेकिन आपके कानों तक जाए, क्योंकि आपके कानों के आगे मार्ग ही बंद है।

तो ध्यान रखना, बोलने वाले की गहराई से ज्यादा गहरा आपके भीतर नहीं जा सकता, लेकिन बोलने वाले की गहराई से कम गहरा आपके भीतर जा सकता है।


कृष्ण को लगा है कि यह क्षण अर्जुन का गहरा है। क्यों? क्योंकि अर्जुन पहली दफा उत्सुक हो रहा है कुछ करने को। भय उसका उत्सुकता की वजह से ही है। अगर उत्सुक न होता, तो वह यह भी न पूछता कि कहीं मैं बिखर तो न जाऊंगा! कहीं ऐसा तो न होगा कि मेरी नाव रास्ते में ही डूब जाए! इसका पक्का अर्थ यह है कि दूसरी तरफ जाने की पुकार उसके मन में आ गई। दूसरे किनारे की खोज का आह्वान मिल गया। चुनौती कहीं स्वीकार कर ली गई है। इसीलिए तो भय उठा रहा है। इसीलिए भय उठा रहा है। नहीं तो भय भी नहीं उठाता। वह कहता कि ठीक है, आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है।

अक्सर जो लोग एकदम से कह देते हैं कि बिलकुल ठीक है, वे वे ही लोग होते हैं, जिन्हें कोई मतलब नहीं होता। मतलब हो, तो एकदम से नहीं कह सकते कि ठीक है। क्योंकि तब प्राणों का सवाल है, कमिटमेंट है। फिर तो एक गहरा कमिटमेंट है। आदमी कहता है, बिलकुल ठीक है। घर चला जाता है। अक्सर जो लोग कहते हैं, बिलकुल ठीक है बिना सोचे-समझे, बिना भयभीत हुए--और यह मामला ऐसा है कि भयभीत होगा ही कोई। यह पूरी जिंदगी के बदलने का सवाल है। यह जिंदगी और मौत का दांव है, और भारी दांव है।

अर्जुन जब चिंतित हो गया, यह चिंतित होना शुभ लक्षण है। यह चिंता शुभ लक्षण है। इसलिए कृष्ण ने समझा कि अभी वह द्वार खुला है, अब वे उससे कह दें। कह दें उससे कि घबड़ा मत। भरोसा रख। जो तू करेगा, वह अगले जन्म में तुझे मिल जाएगा, अगर यात्रा पूरी भी न हुई तो। कुछ खोता नहीं। अगले जन्म में सुगति मिल जाती है। वैसा वातावरण मिल जाता है, जहां वह फूल अनायास खिल जाए। वैसे लोग मिल जाते हैं।


क्योंकि जीवन के बहुत अंतर्नियम हैं, जिनका हमें खयाल भी नहीं होता, जिनका हमें पता भी नहीं होता। वे नियम काम करते रहते हैं। आपकी जितनी योग्यता होती है, उस योग्यता की व्यवस्था के लिए परमात्मा सदा ही साधन जुटा देता है।

हां, आप ही उनका उपयोग न करें, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि आप कहें कि नहीं, अभी नहीं। आपका ही वह जो ऊपर का मन है, बाधा डाल दे। आपके भीतर के मन को देखकर तो अस्तित्व ने व्यवस्था जुटा दी, लेकिन आपका ऊपर का मन बाधा डाल सकता है। 

जो लोग भी स्वयं को जान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु अपने ही हाथ का खेल है। वे मृत्यु में ऐसे ही प्रवेश करते हैं, जैसे आप किसी पुराने मकान को छोड़कर नए मकान में प्रवेश करते हैं। आप नहीं करते ऐसा। आपको तो एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में घसीटकर ले जाना पड़ता है, बड़ी मुश्किल से। क्योंकि आप पुराने मकान को ऐसा जोर से पकड़ते हैं कि छोड़ते ही नहीं। हालांकि वह मकान बेकार हो चुका है; सड़ चुका है; अब उसमें जीवन संभव नहीं है। मृत्यु आती ही तभी है, जब जीवन एक मकान में असंभव हो जाता है।


जो आदमी जान लेता है, वह अपने को सहज, सहज, मकान पूरा हुआ तो वह मौत को खुद कहता है, अब ले चल। यह मकान बेकार हो गया।


कृष्ण एक शुभ क्षण देखकर अर्जुन को कहते हैं कि उसके भीतर चली जाए यह बात। नहीं; कुछ नष्ट नहीं होगा अर्जुन! तू जो भी कमाएगा, वह तेरी संपत्ति बन जाएगी।

और ध्यान रहे, और सब तरह की संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं, सिर्फ योग में कमाई गई संपत्ति अगले जन्म में यात्रा करती है। और सब संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं। कमाया हुआ धन छूट जाएगा। बनाए हुए मकान छूट जाएंगे। इज्जत, यश छूट जाएगा। लेकिन जो बहुत गहरे तल पर किए गए कर्म हैं, शुभ या अशुभ; योग के पक्ष में या योग के विपक्ष में--पक्ष में, तो संपत्ति बन जाएगी; विपक्ष में, तो विपत्ति बन जाएगी। अगर योग के विपक्ष में जीए हैं, तो दिवालिया निकलेंगे और अगले जन्म में अनायास पाएंगे कि दिवालिया हैं। और योग के पक्ष में कुछ किया है, तो एक महासंपत्ति के मालिक होकर गुजरेंगे और अगले जन्म में पाएंगे कि सम्राट हैं।

भिखारी के घर में भी योग की संपत्ति वाला आदमी पैदा हो, तो सम्राट मालूम होता है। और सम्राट के घर में भी योग की संपत्ति से हीन आदमी पैदा हो, तो भिखारी मालूम होता है। एक आंतरिक संपदा, उसकी ही बात कृष्ण ने कही है और अर्जुन को भरोसा दिलाया है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6भाग 33

 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।। 41।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।। 42।।


किंतु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है संसार में, निःसंदेह अति दुर्लभ है।



योग-भ्रष्ट पुरुष! अर्जुन जो पूछ रहा है, वह योग-भ्रष्ट के लिए ही पूछ रहा है। वह कह रहा है कि संसार को मैं छोड़ दूं, भोग को मैं छोड़ दूं और योग सध न पाए। या सधे भी, तो बिखर जाए; थोड़ा बने भी, तो हाथ छूट जाए। थोड़ा पकड़ भी पाऊं और खो जाए सहारा हाथ से, भ्रष्ट हो जाऊं बीच में। तो फिर मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा? नष्ट तो न हो जाऊंगा?

कृष्ण कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट हुए पुरुष की आगे की गति के संबंध में दोत्तीन बातें कहते हैं। वे कीमती हैं। और एक बहुत गहरे विज्ञान से संबंधित हैं। थोड़ा-सा समझें।

एक, कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति, वैसी चेतना, जो थोड़ा साधती है योग की दिशा में, लेकिन पूर्णता को नहीं उपलब्ध होती...। पूर्णता को उपलब्ध हो जाए, तो मुक्त हो जाती है। पूर्णता को उपलब्ध न हो पाए, तो अपरिसीम सुखों को उपलब्ध होती है। इस अपरिसीम सुखों की जो संभावनाओं का जगत है, उसका नाम स्वर्ग है। बहुत सुखों को उपलब्ध होती है।

लेकिन ध्यान रहे, सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख समाप्त हो जाने वाले हैं। और कितने ही बड़े सुख हों, और कितने ही लंबे मालूम पड़ते हों, जब वे चुक जाते हैं, तो क्षण में बीत गए, ऐसे ही मालूम पड़ते हैं।

तो वैसी चेतना बहुत सुखों को उपलब्ध होती है अर्जुन! लेकिन फिर वापस संसार में लौट आती है, जब सुख चुक जाते हैं।

एक विकल्प यह है कि बहुत-से सुखों को पाए वैसी चेतना, और वापस लौट आए उस जगत में, जहां से गई थी। दूसरी संभावना यह है कि वैसी चेतना उन घरों में जन्म ले ले, जहां ज्ञान का वातावरण है। उन घरों में जन्म ले ले, जहां योग की हवा है, मिल्यू, योग का विचारावरण है। जहां तरंगें योग की हैं, और जहां साधना के सोपान पर चढ़ने की आकांक्षाएं प्रबल हैं। और जहां चारों ओर संकल्प की आग है, और जहां ऊर्ध्वगमन के लिए निरंतर सचेष्ट लोग हैं, उन परिवारों में, उन कुलों में जन्म ले ले। तो जहां से छूटा पिछले जन्म में योग, अगले जन्म में उसका सेतु फिर जुड़ जाए।

दो विकल्प कृष्ण ने कहे। एक तो, स्वर्ग में पैदा हो जाए। स्वर्ग का अर्थ है, उन लोकों में, जहां सुख ही सुख है, दुख नहीं है। इन दोनों बातों में कई रहस्य की बातें हैं। एक तो यह कि जहां सुख ही सुख होता है, वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए देवताओं से ज्यादा ऊबे हुए लोग कहीं भी नहीं हैं। जहां सुख ही सुख है, वहां ऊब पैदा हो जाती है।

इसलिए कथाएं हैं कि देवता भी जमीन पर आकर जमीन के दुखों को चखना चाहते हैं, जमीन के सुखों को भोगना चाहते हैं, क्योंकि यहां दुख मिश्रित सुख हैं। अगर मीठा ही मीठा खाएं, तो थोड़ी-सी नमक की डिगली मुंह पर रखने का मन हो आता है। बस, ऐसा ही। सुख ही सुख हों, तो थोड़ा-सा दुख करीब-करीब चटनी जैसा स्वाद दे जाता है। स्वर्ग एकदम मिठास से भरे हैं, सुख ही सुख हैं। जल्दी ऊब जाता है। लौटकर संसार में वापस आ जाना पड़ता है। दुर्गति तो नहीं होती, लेकिन समय व्यर्थ व्यतीत हो जाता है।

सुखों में गया समय, व्यर्थ गया समय है। उपयोग नहीं हुआ उसका, सिर्फ गंवाया गया समय है। हालांकि हम सब यही समझते हैं कि सुख में बीता समय, बड़ा अच्छा बीता। दुख में बीता समय, बड़ा बुरा गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि दुख में बीता समय क्रिएटिव भी हो सकता है, सृजनात्मक भी हो सकता है; उससे जीवन में कोई क्रांति भी घटित हो सकती है। लेकिन सुख में बीता समय, सिर्फ नींद में बीता हुआ समय है, उससे कभी कोई क्रांति घटित नहीं होती। सुख में बीते समय से कभी कोई क्रिएटिव एक्ट, कोई सृजनात्मक कृत्य पैदा नहीं होता।

दुख तो मांज भी देता है, और दुख निखार भी देता है, और दुख भीतर साफ भी करता है, शुद्ध भी करता है; सुख तो सिर्फ जंग लगा जाता है। इसलिए सुखी लोगों पर एकदम जंग बैठ जाती है। इसलिए सुखी आदमी, अगर ठीक से देखें, तो न तो बड़े कलाकार पैदा करता, न बड़े चित्रकार पैदा करता, न बड़े मूर्तिकार पैदा करता। सुखी आदमी सिर्फ बिस्तरों पर सोने वाले लोग पैदा करता। कुछ नहीं, नींद! वक्त काट देने वाले लोग पैदा करता है। शराब पीने वाले, संगीत सुनकर सो जाने वाले, नाच देखकर सो जाने वाले--इस तरह के लोग पैदा करता है।

अगर हम दुनिया के सौ बड़े विचारक उठाएं, तो दोत्तीन प्रतिशत से ज्यादा सुखी परिवारों से नहीं आते। क्या बात है? क्या सुख जंग लगा देता है चित्त पर?

लगा देता है। उबा देता है। और सुख ही सुख, तो कहीं गति नहीं रह जाती; ठहराव हो जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।

स्वर्ग एक स्टेगनेंट स्थिति है।


कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग चला जाता है वैसा व्यक्ति, जो योग से भ्रष्ट होता है अर्जुन। सुखों की दुनिया में चला जाता है। शुभ करना चाहा था, नहीं कर पाया, तो भी इतना तो उसे मिल जाता है कि सुख मिल जाते हैं। लेकिन वापस लौट आना पड़ता है, वहीं चौराहे पर।

संसार चौराहा है। अगर वहां से मोक्ष की यात्रा शुरू न हुई, तो वापस-वापस लौटकर आ जाना पड़ता है। वह क्रास रोड्स पर हैं हम। जैसे कि मैं एक रास्ते के चौराहे पर खड़ा होऊं। अगर बाएं चला जाऊं, तो फिर दाएं जाना हो, तो फिर चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। संसार चौराहा है। अगर स्वर्ग चला जाऊं, फिर मोक्ष की यात्रा करनी हो, तो चौराहे पर वापस आ जाना पड़े।

तो वे लोग, जिन्होंने योग की साधना भी सुख पाने के लिए ही की हो, स्वर्ग चले जाते हैं। लेकिन जिन्होंने योग की साधना मुक्त होने के लिए की हो, लेकिन असफल हो गए हों, भ्रष्ट हो गए हों, वे उन घरों में जन्म ले लेते हैं, जहां इस जीवन में छूटा हुआ क्रम अगले जीवन में पुनः संलग्न हो जाए। वे उन योग के वातावरणों में पुनः पैदा हो जाते हैं, जहां से पिछली यात्रा फिर से शुरू हो सके।

इसलिए अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, तू आश्वासन रख। तू भयभीत न हो। यदि मोक्ष न भी मिला, तो स्वर्ग मिल सकेगा। अगर स्वर्ग भी न मिला, तो कम से कम उस कुल में जन्म मिल सकेगा, जहां से तूने छोड़ी थी पिछली यात्रा, तू पुनः शुरू कर सके। भयभीत न हो। घबड़ा मत। इस किनारे को छोड़ने की हिम्मत कर। अगर वह किनारा न भी मिला, तो भी इस किनारे से बुरा नहीं होगा। और कुछ भी हो जाए, यह किनारा वापस मिल जाएगा, इसलिए घबड़ा मत। इसको छोड़ने में भय मत कर।


कृष्ण को भी उसके अहंकार को बीच-बीच में तृप्ति देनी पड़ती है। कहते हैं, हे महाबाहो, हे विशाल बाहुओं वाले अर्जुन! तो अर्जुन बड़ा फूलता है। ठीक है। कृष्ण से भी सुनने को राजी हो गया इसीलिए कि कृष्ण सारथी हैं उसके, मित्र हैं, सखा हैं; कंधे पर हाथ रख सकता है; चाहे तो कह सकता है कि सब व्यर्थ की बातें कर रहे हो! इसलिए सुनने को राजी हो गया।


इसलिए कृष्ण अर्जुन को जो कह रहे हैं, पूरे वक्त अर्जुन को देखकर कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बहुत सुख मिलेंगे अर्जुन, अगर तू अच्छे काम करते हुए मर जाता है असफल, तो स्वर्गों में पैदा हो जाएगा।


कृष्ण एक-एक कदम अर्जुन को...इसको कहते हैं, परसुएशन। अगर गीता में हम कहें कि इस जगत में परसुएशन की, फुसलाने की, एक व्यक्ति को इंच-इंच ऊपर उठाने की जैसी मेहनत कृष्ण ने की है, वैसी किसी शिक्षक ने कभी नहीं की है। सभी शिक्षक सीधे अटल होते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, यह बात है। खरीदना है? नहीं खरीदना, बाहर हो जाओ।

शिक्षक सख्त होते हैं। शिक्षक को मित्र की तरह पाना बड़ा मुश्किल है। अर्जुन को शिक्षक मित्र की तरह मिला है, सखा की तरह मिला है। उसके कंधे पर हाथ रखकर बात चल रही है। इसलिए कई दफा वह भूल में भी पड़ जाता है और व्यर्थ के सवाल भी उठाता है।


लेकिन कृष्ण उसकी बकवास को सुनते हैं, और प्रेम से उसे फुसलाते हैं, और एक-एक इंच उसे सरकाते हैं। वे कहते हैं, कोई फिक्र न कर, अगर नहीं भी मिला वह किनारा, तो बीच में टापू हैं स्वर्ग नाम के, उन पर तू पहुंच जाएगा। वहां बड़ा सुख है। खूब सुख भोगकर, नाव में बैठकर वापस लौट आना। अगर तुझे सुख न चाहिए हो, तो बीच में गुरुजनों के टापू हैं, जिन पर गुरुजन निवास करते हैं; उनके गुरुकुल हैं; तू उनमें प्रवेश कर जाना। वहां तू अपनी साधना को आगे बढ़ा लेना।

लेकिन एक आकांक्षा कृष्ण की है कि तू यह किनारा तो छोड़, फिर आगे देख लेंगे। नहीं कोई टापू हैं, नहीं कोई बात है। तू किनारा तो छोड़। एक दफे तू किनारा छोड़ दे, किसी भी कारण को मानकर अभी जरा साहस जुट जाए, तू भरोसा कर पाए और यात्रा पर निकल जाए--तो आगे की यात्रा तो प्रभु सम्हाल लेता है।



प्रभु तो प्रत्येक को मोक्ष तक ले जाने को तत्पर है। लेकिन हम किनारा इतने जोर से पकड़ते हैं! लोग कहते हैं कि प्रभु जो है,सर्वशक्तिशाली है। मुझे नहीं जंचता। हम जैसे छोटी-छोटी ताकत के लोग भी किनारे को पकड़कर पड़े रहते हैं, हमको खींच नहीं पाता। हमारी पोटेंसी ज्यादा ही मालूम पड़ती है।

नहीं, लेकिन उसका कारण दूसरा है। असल में जो सर्वशक्तिशाली है, वह शक्ति का उपयोग कभी नहीं करता। शक्ति का उपयोग सिर्फ कमजोर ही करते हैं। सिर्फ कमजोर ही शक्ति का उपयोग करते हैं। जो पूर्ण शक्तिशाली है, वह उपयोग नहीं करता। वह प्रतीक्षा करता है कि हर्ज क्या है! आज नहीं कल; इस युग में नहीं अगले युग में; इस जन्म में नहीं अगले जन्म में; कभी तो तुम नाव खोलोगे, कभी तो तुम पाल खोलोगे, तब हमारी हवाएं तुम्हें उस पार ले चलेंगी। जल्दी क्या है? जल्दी भी तो कमजोरी का लक्षण है। इतनी जल्दी क्या है? समय कोई चुका तो नहीं जाता!

लेकिन परमात्मा का समय भला न चुके, आपका चुकता है। वह अगर जल्दी न करे, चलेगा। उसके लिए कोई भी जल्दी नहीं है, क्योंकि कोई टाइम की लिमिट नहीं है, कोई सीमा नहीं है। लेकिन हमारा तो समय सीमित है और बंधा है। हम तो चुकेंगे। वह प्रतीक्षा कर सकता है अनंत तक, लेकिन हमारी तो सीमाएं हैं, हम अनंत तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं।

लेकिन बड़ा अदभुत है। हम भी अनंत तक प्रतीक्षा करते हुए मालूम पड़ते हैं। हम भी कहते हैं कि बैठे रहेंगे। ठीक है। जब तू ही खोल देगा नाव, जब तू ही पाल को उड़ा देगा, जब तू ही झटका देगा और खींचेगा...।

और कई दफे तो ऐसा होता है कि झटका भी आ जाए, तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं, और चीख-पुकार मचाते हैं कि सब भाई-बंधु आ जाओ, सम्हालो मुझे। कोई ले जा रहा है! कोई खींचे लिए जा रहा है!

कृष्ण अर्जुन को देखकर ये उत्तर दिए हैं, यह ध्यान में रखना। धीरे-धीरे वे ये उत्तर भी पिघला देंगे, गला देंगे। वह राजी हो जाए छलांग के लिए, बस इतना ही।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 32

 यह किनारा छोड़ें 


श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।। 40।।


हे पार्थ, उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात भगवत-अर्थ कर्म करने वाला, दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।


अर्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं।

एक तो उन्होंने यह कहा कि शुभ हैं कर्म जिसके, वह कभी भी दुर्गति को उपलब्ध नहीं होता है। और चैतन्य है जो, प्रभु की ओर उन्मुख चैतन्य है जो, इस लोक में या परलोक में, उसका कोई भी नाश नहीं है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें।

पहली बात, चेतना का इस लोक में या उस लोक में, कोई नाश नहीं है। क्यों?

चेतना विनष्ट होती ही नहीं। चेतना के विनाश का कोई उपाय नहीं है। विनाश केवल उन्हीं चीजों का होता है, जो संयोग होती हैं, कंपाउंड होती हैं। सिर्फ संयोग का विनाश होता है, तत्व का विनाश नहीं होता।

इसे ऐसा समझें कि जो चीज किन्हीं चीजों से जुड़कर बनती है, वह विनष्ट हो सकती है। लेकिन जो चीज बिना किसी के जुड़े है, वह विनष्ट नहीं होती। हम सिर्फ जोड़ तोड़ सकते हैं और जोड़ बना सकते हैं।

इसे ऐसा भी समझ लें कि तत्व का कोई निर्माण नहीं होता; निर्माण केवल संयोगों का होता है। एक बैलगाड़ी हम बनाते हैं या एक मशीन बनाते हैं, एक कार बनाते हैं, एक साइकिल बनाते हैं। साइकिल बनती है, साइकिल नष्ट हो जाएगी। जो भी बनेगा, वह नष्ट हो जाएगा। जिसका प्रारंभ है, उसका अंत भी निश्चित है। प्रारंभ में ही अंत निश्चित हो जाता है। और जन्म में ही मृत्यु की मुहर लग जाती है।

लेकिन हम पदार्थ को नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि पदार्थ को हम बना भी नहीं सकते हैं। हम केवल संयोग बना सकते हैं। हम पानी को बना सकते हैं। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो पानी बन जाएगा। फिर हाइड्रोजन आक्सीजन को अलग कर दें, तो पानी विनष्ट हो जाएगा। लेकिन आक्सीजन? आक्सीजन को हम न बना सकेंगे। या हो सकता है, किसी दिन हम बना सकें। किसी दिन यह हो सकता है--जिसकी संभावना बढ़ती जाती है--कि हम आक्सीजन को भी बना सकें। जिस दिन हम बना सकेंगे, उस दिन आक्सीजन एलिमेंट नहीं रहेगी, कंपाउंड हो जाएगी। उस दिन आक्सीजन तत्व नहीं कही जा सकेगी, संयोग हो जाएगी। किसी दिन हम आक्सीजन को बना लेंगे इलेक्ट्रान्स से, न्यूट्रान्स से, और भी जो अंतिम विघटन हो सकता है पदार्थ का, उससे। लेकिन इलेक्ट्रान को फिर हम न बना सकेंगे।

तत्व वह है, जिसे हम न बना सकेंगे। इस देश ने तत्व की परिभाषा की है, वह जिसे हम पैदा न कर सकेंगे और जिसे हम नष्ट न कर सकेंगे। अगर किसी तत्व को हम नष्ट कर लेते हैं, तो सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि हमने गलती से उसे तत्व समझा था; वह तत्व था नहीं। अगर किसी तत्व को हम बना लेते हैं, तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि हम गलती से उसे तत्व कह रहे हैं; वह तत्व है नहीं।

दो तत्व हैं जगत में। एक, जो हमें चारों तरफ फैला हुआ जड़ का विस्तार दिखाई पड़ता है, मैटर का। वह एक तत्व है। और एक जीवन चैतन्य, जो इस जगत में फैले विस्तार को देखता और जानता और अनुभव करता है। वह एक तत्व है, चैतन्य, चेतना। इन दो तत्वों का न कोई निर्माण है और न कोई विनाश है। न तो चेतना नष्ट हो सकती है और न पदार्थ नष्ट हो सकता है।

हां, संयोग नष्ट हो सकते हैं। मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मैं सिर्फ एक संयोग हूं; आत्मा और शरीर का एक जोड़ हूं मैं। मेरे नाम से जो जाना जाता है, वह संयोग है। एक दिन पैदा हुआ और एक दिन विसर्जित हो जाएगा। कोई छाती में छुरा भोंक दे, तो मैं मर जाऊंगा। आत्मा नहीं मरेगी, जो मेरे मैं के पीछे खड़ी है; और शरीर भी नहीं मरेगा, जो मेरे मैं के बाहर खड़ा है। शरीर पदार्थ की तरह मौजूद रहेगा, आत्मा चेतना की तरह मौजूद रहेगी, लेकिन दोनों के बीच का संबंध टूट जाएगा। वह संबंध मैं हूं। वह संबंध मेरा नाम-रूप है। वह संबंध विघटित हो जाएगा। वह संबंध निर्मित हुआ, विनष्ट हो जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, चेतना का कोई विनाश नहीं है, इसलिए तू निर्भय हो। पापी चेतना का भी कोई विनाश नहीं है, इसलिए पुण्यात्मा चेतना के विनाश का तो कोई सवाल नहीं है। चेतना का ही विनाश नहीं है।

अर्जुन ने पूछा है, कहीं ऐसा तो न होगा कि हवाओं के झोंके में जैसे कोई छोटी-सी बदली बिखर जाए और खो जाए अनंत आकाश में, कहीं ऐसा तो न होगा कि इस कूल से छूटूं और वह किनारा न मिले, और मैं एक बदली की तरह बिखरकर खो जाऊं!

तो कृष्ण कह रहे हैं, इस भांति होना असंभव है, क्योंकि चेतना अविनश्वर है, तत्व है, वह नष्ट नहीं होती। तो पापी की चेतना भी नष्ट नहीं होती। नष्ट होने का उपाय नहीं है। विनाश की कोई संभावना नहीं है। तो पहली बात तो वे यह कहते हैं कि चेतना ही नष्ट नहीं होती, न इस लोक में, न परलोक में, कहीं भी। चेतना का कोई विनाश नहीं है।

लेकिन हमें शक पैदा होगा। हम एक आदमी को एनेस्थेसिया का इंजेक्शन दे देते हैं, वह बेहोश हो जाता है। एक आदमी के सिर पर चोट लग जाती है, वह बेहोश होकर गिर जाता है। लोग कहते हैं, उसकी चेतना चली गई। चेतना नहीं जाती। लोग कहते हैं, अचेतन हो गया। अचेतन भी कोई नहीं होता है। जब बेहोश होता है कोई, तब फिर, न तो आत्मा बेहोश होती है और न शरीर बेहोश होता है। क्योंकि शरीर तो बेहोश हो नहीं सकता, उसके पास कोई होश नहीं है। आत्मा बेहोश नहीं हो सकती, क्योंकि वह पूर्ण होश है। फिर होता क्या है? जब एक आदमी के सिर पर चोट लगती है और वह बेहोश पड़ जाता है, तब होता क्या है? तब फिर वही बीच का संबंध शिथिल होता है। शरीर तक आत्मा से जो चेतना आती थी, उसका प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।

समझ लें कि मैंने बटन दबा दी है और बिजली का बल्ब बुझ गया। तो क्या आप कहेंगे, बिजली बुझ गई? इतना ही कहिए कि बिजली के बल्ब तक वह जो बिजली की धारा आती थी, अब नहीं आती है। बिजली नहीं बुझ गई, बल्ब बुझ गया। बटन फिर आप आन कर देते हैं, बल्ब फिर जल उठता है। अगर बिजली बुझ गई होती, तो फिर बल्ब नहीं जल सकता था। और अगर आपका मेन स्विच भी बस्ती का आफ हो गया हो, तब भी बल्ब ही बुझते हैं, बिजली नहीं बुझती। और अगर आपका पूरा का पूरा बिजलीघर भी ठप्प होकर बंद हो गया हो, तब भी बिजलीघर ही बंद होता है, बिजली नहीं बुझती। बिजली तो ऊर्जा है। ऊर्जा नष्ट नहीं होती।

भीतर ऊर्जा है जीवन की, चेतना की। शरीर तक आने के रास्ते हैं। मन उसका रास्ता है, जिससे शरीर तक आती है। जब सिर पर कोई डंडा मारता है, तो आपका मन बुझ जाता है; बीच का सेतु टूट जाता है; खबर आनी बंद हो जाती है। भीतर आप उतने ही चेतन होते हैं, जितने थे; और शरीर उतना ही अचेतन होता है, जितना सदा था। सिर्फ आत्मा से जो चेतना शरीर में प्रतिबिंबित होती थी, वह प्रतिबिंबित नहीं होती है।

चेतना के बुझने का, नष्ट होने का कोई सवाल नहीं है। पापी की चेतना का भी सवाल नहीं है। पापी भी कितना ही पाप करे और कितना ही बुरा कर्म करे और कितना ही संसार को पकड़े रहे, कुछ भी करे, चेतना नहीं मिटेगी। हां, चेतना विकृत, दुखद, संतापों से घिर जाएगी; नर्कों में जीएगी; पीड़ा में, कष्ट में, गहन से गहन संताप में गिरती चली जाएगी--नष्ट नहीं होगी। नष्ट होने का कोई उपाय नहीं है। ठीक ऐसे ही, जैसे आप एक रेत के टुकड़े को नष्ट नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है।

वैज्ञानिक कितना काम कर पा रहे हैं! एटामिक एनर्जी खोज ली है, चांद पर पहुंच सकते हैं, पांच मील गहरे प्रशांत महासागर में डुबकी ले सकते हैं, सब कर सकते हैं, लेकिन एक रेत का छोटा-सा कण नहीं बना सकते। नहीं बना सकते, इसलिए नहीं कि वैज्ञानिक कमजोर हैं। नहीं बना सकते हैं इसलिए कि पदार्थ न तो निर्माण होता है, न विनष्ट होता है। वैज्ञानिक किसी दिन मनुष्य की आत्मा भी नहीं बना सकेंगे। यद्यपि इस तरफ काफी काम चलता है। और रोज खबरें आती हैं कि कुछ और खोज लिया गया, जिससे संभावना बनती है कि इस सदी के पूरे होते-होते आदमी की आत्मा को वैज्ञानिक पैदा कर लेगा।

अभी जो आदमी का जेनेटिक, जो उसका प्रजनन का मूल कोष्ठ है, उसको भी तोड़ लिया गया। जैसे अणु तोड़ लिया गया और परमाणु की शक्ति उपलब्ध हुई, वैसे ही अब मनुष्य के जीवकोष्ठ को भी तोड़ लिया गया है, और उस जीवकोष्ठ का भी मूल रासायनिक रहस्य समझ में आ गया है। और अब इस बात की पूरी संभावना है कि हम आज नहीं कल प्रयोगशाला में मनुष्य के शरीर को जन्म दे सकेंगे।

 तब जो साधारण बुद्धि के आत्मवादी हैं, बड़ी मुश्किल में--अभी पड़ गए हैं वे मुश्किल में--बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर किसी दिन प्रयोगशाला में आदमी का शरीर पैदा हो गया, तो फिर आत्मा का क्या होगा? और अगर वह आदमी हमारे ही जैसा आदमी हुआ, और वैज्ञानिक कहते हैं, हम से बेहतर होगा, क्योंकि वह ठीक से कल्टिवेटेड होगा। हमारी पैदाइश तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक है। उसमें कोई नियम और गणित और कोई व्यवस्था तो नहीं है। उसमें सारी व्यवस्था होगी।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वह जो शरीर हम निर्मित करेंगे, हम जानेंगे कि इसे कितने वर्ष की जिंदगी देनी है। सौ वर्ष की? तो वह ठीक सौ वर्ष की गारंटी का सर्टिफिकेट लेकर पैदा होगा। क्योंकि हम उतना रासायनिक तत्व उसमें डालेंगे, जो सौ वर्ष तक स्वस्थ रह सके। अगर हम चाहते हैं कि वह आइंस्टीन जैसा बुद्धिमान हो, तो बुद्धि के तत्व की उतनी ही मात्रा उसमें होगी। अगर हम चाहते हैं कि वह मजदूर का काम करे, तो उस तरह की मसल्स उसमें होंगी। अगर हम चाहते हैं कि वह संगीतज्ञ का काम करे, तो उसके गले और उसकी आवाज का सारा रासायनिक क्रम वैसा होगा।

और फिर वे यह भी कहते हैं कि हम हर बच्चे को बनाते वक्त उसकी एक डुप्लीकेट कापी भी बना लेंगे। क्योंकि कभी भी जिंदगी में किसी की किडनी खराब हो गई, तो उसको बदलने की दिक्कत पड़ती है। तो उस डुप्लीकेट कापी से उसकी किडनी निकालकर बदल देंगे। किसी की आंख खराब हो गई! तो एक डुप्लीकेट कापी उस शरीर की जिंदा, प्रयोगशाला में रखी रहेगी। डीप फ्रीज, काफी गहरी ठंडक में रखी रहेगी, कि सड़ न जाए। और जब भी आपमें कोई गड़बड़ होगी, तो पार्ट्स बदले जा सकेंगे।

उनका कहना है कि जब एक दफे हमें सूत्र मिल गया, तो हम एक जैसे हजार शरीर भी पैदा कर सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। फिर क्या होगा! आत्मवादियों का क्या होगा?

जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, ऐसे बहुत-से आत्मवादी हैं। सच तो यह है कि आत्मवादियों में बहुत-से ऐसे हैं, जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं। वे ऐसी बातें सुनकर बड़े बेचैन हो जाते हैं। उनका एक ही उत्तर होता कि यह कभी हो नहीं सकता। मैं उनसे कहता हूं, वे समझ लें, यह होगा। और आपके कहने से कि यह कभी हो नहीं सकता, सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आपको कुछ पता नहीं है। यह होगा। पर बड़ी घबड़ाहट होती है कि अगर यह हो जाएगा, तो फिर आत्मा का क्या हुआ?

मैं आपसे कहता हूं, इससे आत्मा पर कोई आंच नहीं आती है। इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि मां-बाप के शरीर जो काम करते थे गर्भ में शरीर के निर्माण करने का, वह वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वैज्ञानिक कर देंगे। आत्मा जैसे मां-बाप के गर्भ में प्रवेश करती थी, वैसे ही वैज्ञानिक प्रयोगशाला के शरीर में प्रवेश करेगी। इससे आत्मा का कोई संबंध नहीं है। इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता।

आज से हजार साल पहले हम बिजली नहीं जला सकते थे; हमारे पास पंखे नहीं थे, बल्ब नहीं थे। लेकिन आकाश में तो बिजली चमकती थी। आकाश में बिजली चमकती थी। बिजली सदा से थी। आज हमने बल्ब जला लिए, तो क्या हम सोचते हैं, जो बिजली हमारे बल्बों में चमक रही है, वह कोई दूसरी है? वह वही है, जो आकाश में चमकती थी। हमने अभी भी बिजली नहीं बनाई है! अभी भी हमने बिजली को प्रकट करने के उपाय ही बनाए हैं। बिजली हम कभी न बना सकेंगे। सिर्फ जहां-जहां बिजली अप्रकट है, वहां से हम प्रकट होने के उपाय खोज लेते हैं।

अगर किसी दिन हमने आदमी का शरीर बना लिया, जो कि बना ही लिया जाएगा, तो उस दिन भी हम आदमी को नहीं बना रहे हैं, सिर्फ शरीर को बना रहे हैं। और जिस तरह आत्माएं गर्भ के शरीर में प्रवेश करती रही हैं, वे आत्माएं मनुष्य द्वारा निर्मित शरीर में भी प्रवेश कर पाएंगी। इसमें कोई अड़चन नहीं है, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। शरीर विज्ञान से निर्मित हुआ कि प्रकृति से निर्मित हुआ, कोई भेद नहीं पड़ता। आत्मा अप्रकट चेतना है। प्रकट होने का माध्यम मिल जाए, आत्मा प्रकट हो जाती है।

लेकिन न तो चेतना का कोई निर्माण हो सकता है और न कोई विनाश हो सकता है। जब आप किसी की छाती में छुरा भोंकते हैं, तब भी आत्मा नहीं मरती। और जिस दिन प्रयोगशाला की लेबोरेटरी में हम परखनली में आदमी का शरीर बना लेंगे, उस दिन भी आत्मा नहीं बनती।

कृष्ण को पता नहीं था, तो उन्होंने इतना ही कहा, नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। उन्होंने कहा कि शस्त्र छेद देने से आत्मा नहीं मरती है। अब अगर गीता फिर से लिखनी पड़े, तो उसमें यह भी जोड़ देना चाहिए कि परखनली में शरीर बनाने से आत्मा नहीं बनती है। दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। एक ही तर्क के दो छोर हैं। न तो मारने से मरती है आत्मा, और न शरीर को बनाने से बनती है आत्मा।

यह जो अनिर्मित, अजन्मी, अजात, अमृत आत्मा है, कृष्ण कहते हैं, इसका कभी कोई विनाश नहीं है अर्जुन। यह तो वे एक सामान्य सत्य कहते हैं। पापी की आत्मा का भी कोई विनाश नहीं है।

दूसरी बात वे कहते हैं, लेकिन जिसने शुभ कर्म किए!

ध्यान रहे, अर्जुन ने पूछा है कि मैं कोशिश भी करूं और सफल न हो पाऊं, श्रद्धायुक्त कोशिश करूं और असफल हो जाऊं, क्योंकि मैं मेरे मन को जानता हूं; कितनी ही श्रद्धा से करूं, मन की चंचलता नहीं जाती है। श्रद्धा से भरा हुआ असफल हो जाए मेरा कर्म, तो मैं बिखर तो न जाऊंगा बादलों की भांति! मेरी नाव डूब तो न जाएगी किनारे को खोकर, दूसरे किनारे को बिना पाए!

कृष्ण कहते हैं, शुभ कर्म जिसने किया!

जरूरी नहीं कि शुभ कर्म सफल हुआ हो। किए की बात कर रहे हैं, इसको ठीक से समझ लेना आप। शुभ कर्म जिसने किया--जरूरी नहीं कि सफल हो--ऐसे व्यक्ति की कोई दुर्गति नहीं है। सफलता की बात नहीं है।

एक आदमी ने शुभ कर्म करना चाहा, एक आदमी ने शुभ कर्म करने की कोशिश की, एक आदमी ने शुभ की कामना की, एक आदमी के मन में शुभ का बीज अंकुरित हुआ, कोई हर्जा नहीं कि अंकुर न बना, कोई हर्जा नहीं कि वृक्ष न बना, कोई हर्जा नहीं कि फल कभी न आए, फूल कभी भी न लगे। लेकिन जिस आदमी ने शुभ का बीज भी बोया, अनअंकुरित, अंकुर भी न उठा हो, उस आदमी के भी जीवन में कभी दुर्गति नहीं होती है।

कृष्ण बहुत अदभुत बात कह रहे हैं। शुभ कर्म सफल हो, तब तो दुर्गति होती ही नहीं अर्जुन, लेकिन तू जैसा कहता है, अगर ऐसा भी हो जाए, कि तू शुभ की यात्रा पर निकले और तेरा मन साथ न दे; तेरी श्रद्धा तो हो, लेकिन तेरी शक्ति साथ न दे; तेरा भाव तो हो, लेकिन तेरे संस्कार साथ न दें; तू चाहता तो हो कि दूसरे किनारे पर पहुंच जाऊं, लेकिन तेरी पतवार कमजोर हो; तेरी आकांक्षा तो दृढ़ हो कि निकल जाऊं उस पार, लेकिन तेरी नाव ही छिद्र वाली हो और तू बीच में डूब भी जाए; तो भी मैं तुझसे कहता हूं कि शुभ कर्म जिसने किया, उसकी दुर्गति कभी नहीं होती है।

शुभ कर्म जिसका सफल हो जाए, उसकी तो दुर्गति का सवाल ही नहीं है। लेकिन शुभ कर्म जिसका सफल भी न हो पाए, उसकी भी दुर्गति नहीं होती। इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं, तो जल्दी खयाल में आ जाएगा।

अशुभ कर्म जिसने किया, सफल न भी हो पाए, तो भी दुर्गति हो जाती है। मैंने आपकी हत्या करनी चाही, और नहीं कर पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपकी गर्दन दबाई और न दब पाई। नहीं, आपकी गर्दन तक भी नहीं पहुंच पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपसे कहा कि हत्या कर दूंगा, और नहीं की। नहीं, मैं आपसे कह भी नहीं पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। भीतर उठा विचार भी अशुभ का दुर्गति की यात्रा पर पहुंचा देता है। बीज बो दिया गया।

गलत विचार भी काफी है दुर्गति के लिए। सही विचार भी काफी है दुर्गति से बचने के लिए। क्यों? क्योंकि अंततः हमारा विचार ही हमारे जीवन का फल बन जाता है। फल कहीं बाहर से नहीं आते। हमारे ही भीतर उनकी ग्रोथ, उनका विकास होता है।

बुद्ध ने धम्मपद में कहा है कि तुम जो हो, वह तुम्हारे विचारों का फल हो। अगर दुखी हो, तो अपने विचारों में तलाशना, तुम्हें वे बीज मिल जाएंगे, जिन्होंने दुख के फल लाए। अगर पीड़ित हो, तो खोजना; तुम्हीं अपने हाथों को पाओगे, जिन्होंने पीड़ा के बीज बोए। अगर अंधकार ही अंधकार है तुम्हारे जीवन में, तो तलाश करना; तुम पाओगे कि तुम्हीं ने इस अंधकार का बड़ी मेहनत से निर्माण किया। हम अपने नर्कों का निर्माण बड़ी मेहनत से करते हैं! दोनों ही बातें सोच लेना।

बुरा कर्म असफल भी हो जाए, तो भी बुरा फल मिलता है। कहेंगे आप, फिर उसको असफल क्यों कहते हैं?

बुरा कर्म असफल भी हो जाए, पूरा न हो पाए, घटित न हो पाए, वस्तु के जगत में न आ पाए, घटना के जगत में उसकी कोई प्रतिध्वनि न हो पाए, सिर्फ आपमें ही खो जाए, सिर्फ स्वप्न बनकर ही शून्य हो जाए, तो भी, तो भी फल हाथ आता है--दुखों का, पीड़ाओं का, कष्टों का। दुर्गति हो जाती है। अच्छे कर्म का खयाल सफल न भी हो पाए...।

बुद्ध एक कथा कहा करते थे। एक व्यक्ति आया। राजकुमार था। बुद्ध से उसने दीक्षा ली।

और बुद्ध के समय दीक्षा ने जो शान देखी दुनिया में, वह फिर पृथ्वी पर दुबारा नहीं हो सकी। बुद्ध और महावीर के वक्त बिहार ने जो स्वर्णयुग देखा संन्यास का, वह पृथ्वी पर फिर कभी नहीं हुआ। उसके पहले भी कभी नहीं हुआ था।

अदभुत दिन रहे होंगे। बुद्ध चलते थे, तो पचास हजार संन्यासी बुद्ध के साथ चलते थे। जिस गांव में बुद्ध ठहर जाते थे, उस गांव की हवाओं का रुख बदल जाता था! पचास हजार संन्यासी जिस गांव में ठहर जाएं, उस गांव में बुरे कर्म होने बंद हो जाते थे, कठिन हो जाते थे, मुश्किल हो जाते थे। इतने शुभ धारणाओं से भरे हुए लोग!

कथाएं कहती हैं कि बुद्ध जहां से निकल जाएं, वहां चोरियां बंद हो जातीं, वहां हत्याएं कम हो जातीं। आज तो कथा लगती है बात, लेकिन मैं कहता हूं कि ऐसा हो जाता है। क्योंकि हत्याएं करता कौन है? आदमी करता है। आदमी है क्या सिवाय विचारों के जोड़ के! और बुद्ध जैसी कौंध बिजली की पास से गुजर जाए, तो आप वही के वही रह सकते हैं जो थे? आप नहीं रह सकते हैं वही के वही। इतनी बिजली कौंध जाए अंधेरे में, तो फिर आप वही नहीं रह जाते, जो आप थे।

थोड़ी भी झलक मिल जाती है रास्ते की, तो आदमी सम्हलकर चलता है। अंधेरी रात है अमावस की, और बिजली चमक गई एक क्षण को, फिर घुप्प अंधेरा हो गया, तो भी फिर आप उतनी ही भूल-चूक से नहीं चलते, जितना पहले चल रहे थे। अंधेरा फिर उतना ही है, लेकिन एक झलक मिल गई मार्ग की।

बुद्ध जैसा आदमी पास से गुजरे, तो बिजली कौंध जाती है। और जिस गांव में पचास हजार भिक्षु और संन्यासी...। महावीर के साथ भी पचास हजार भिक्षु और संन्यासी चलते। और दोनों करीब-करीब समसामयिक थे। पूरा बिहार संन्यास से भर गया। उसको नाम ही बिहार इसलिए मिल गया। बिहार का मतलब है, भिक्षुओं का विहार-पथ। जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसी जगह। जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसे रास्ते। जहां संन्यासी विचरते हैं, ऐसा स्थान। इसलिए तो उसका नाम बिहार हो गया।

बुद्ध एक गांव में ठहरे हैं। उस गांव के सम्राट के बेटे ने आकर दीक्षा ली। उस सम्राट के लड़के से कभी किसी ने न सोचा था कि वह दीक्षा लेगा। लंपट था, निरा लंपट था। बुद्ध के भिक्षु भी चकित हुए। बुद्ध के भिक्षुओं ने कहा, इस निरा लंपट ने दीक्षा ले ली? इस आदमी से कोई आशा नहीं करता था। यह हत्या कर सकता है, मान सकते हैं। यह डाका डाल सकता है, मान सकते हैं। यह किसी की स्त्री को उठाकर ले जा सकता है, मान सकते हैं। यह संन्यास लेगा, यह कोई सपना नहीं देख सकता था! इसने ऐसा क्यों किया? बुद्ध से लोग पूछने लगे।

बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें इसके पुराने जन्म की कथा कहूं। एक छोटी-सी घटना ने आज के इसके संन्यास को निर्मित किया है--छोटी-सी घटना ने। उन्होंने पूछा, कौन-सी है वह कथा? तो बुद्ध ने कहा...।

और बुद्ध और महावीर ने उस साइंस का विकास किया पृथ्वी पर, जिससे लोगों के दूसरे जन्मों में झांका जा सकता है; किताब की तरह पढ़ा जा सकता है।

तो बुद्ध ने कहा कि यह व्यक्ति पिछले जन्म में हाथी था, आदमी नहीं था। और तब पहली दफा लोगों को खयाल आया कि इसकी चाल-ढाल देखकर कई दफा हमें ऐसा लगता था कि जैसे हाथी की चाल चलता है। अभी भी, इस जन्म में भी उसकी चाल-ढाल, उसका ढंग एक शानदार हाथी का, मदमस्त हाथी का ढंग था।

बुद्ध ने कहा, यह हाथी था पिछले जन्म में। और जिस जंगल में रहता था, हाथियों का राजा था। तो जंगल में आग लगी। गर्मी के दिन थे, भयंकर आग लगी आधी रात को। सारे जंगल के पशु-पक्षी भागने लगे, यह भी भागा। यह एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को एक क्षण को रुका। भागने के लिए एक पैर ऊपर उठाया, तभी एक छोटा-सा खरगोश वृक्ष के पीछे से निकला और इसके पैर के नीचे की जमीन पर आकर बैठ गया। एक ही पैर ऊपर उठा, हाथी ने नीचे देखा, और उसे लगा कि अगर मैं पैर नीचे रखूं, तो यह खरगोश मर जाएगा। यह हाथी खड़ा-खड़ा आग में जलकर मर गया। बस, उस जीवन में इसने इतना-सा ही एक महत्वपूर्ण काम किया था, उसका फल आज इसका संन्यास है।

रात वह राजकुमार सोया। जहां पचास हजार भिक्षु सोए हों, वहां अड़चन और कठिनाई स्वाभाविक है। फिर वह बहुत पीछे से दीक्षा लिया था, उससे बुजुर्ग संन्यासी थे। जो बहुत बुजुर्ग थे, वे भवन के भीतर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे भवन के बाहर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे रास्ते पर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे और मैदान में सोए। उसको तो बिलकुल आखिर में, जो गली राजपथ से जोड़ती थी बुद्ध के विहार तक, उसमें सोने को मिला। रात भर! कोई भिक्षु गुजरा, उसकी नींद टूट गई। कोई कुत्ता भौंका, उसकी नींद टूट गई। कोई मच्छर काटा, उसकी नींद टूट गई। रातभर वह परेशान रहा। उसने सोचा कि सुबह मैं इस दीक्षा का त्याग करूं। यह कोई अपने काम की बात नहीं।

सुबह वह बुद्ध के पास जाकर, हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। बुद्ध ने कहा, मालूम है मुझे कि तुम किसलिए आए हो। उसने कहा कि आपको नहीं मालूम होगा कि मैं किसलिए आया हूं। मैं कोई साधना की पद्धति पूछने नहीं आया। क्योंकि कल मैंने दीक्षा ली, आज मुझे साधना की पद्धति पूछनी थी; उसके लिए मैं नहीं आया। बुद्ध ने कहा, वह मैं तुझसे कुछ नहीं पूछता। मुझे मालूम है, तू किसलिए आया। सिर्फ मैं तुझे इतनी याद दिलाना चाहता हूं कि हाथी होकर भी तूने जितना धैर्य दिखाया, क्या आदमी होकर उतना धैर्य न दिखा सकेगा?

उस आदमी की आंखें बंद हो गईं। उसको कुछ समझ में न आया कि हाथी होकर इतना धैर्य दिखाया! यह बुद्ध क्या कहते हैं, पागल जैसी बात! उसकी आंख बंद हो गई।

लेकिन बुद्ध का यह कहना, जैसे उसके भीतर स्मृति का एक द्वार खुल गया। आंख उसकी बंद हो गई। उसने देखा कि वह एक हाथी है। एक घने जंगल में आग लगी है। एक वृक्ष के नीचे वह खड़ा है। एक खरगोश उसके पैर के नीचे आकर बैठ गया। इस डर से वह भागा नहीं कि मेरा पैर नीचे पड़े, तो खरगोश मर जाए। और जब मैं भागकर बचना चाहता हूं, तो जैसा मैं बचना चाहता हूं, वैसा ही खरगोश भी बचना चाहता है। और खरगोश यह सोचकर मेरे पैर के नीचे बैठा है कि शरण मिल गई। तो इस भोले से खरगोश को धोखा देकर भागना उचित नहीं। तो मैं जल गया।

उसने आंख खोली, उसने कहा कि माफ कर देना, भूल हो गई। रात और भी कोई कठिन जगह हो सोने की, तो मुझे दे देना। अब मैं याद रख सकूंगा। उतना छोटा-सा, उतना छोटा-सा काम, क्या मेरे जीवन में इतनी बड़ी घटना बन सकता है?

सब छोटे बीज बड़े वृक्ष हो जाते हैं। चाहे वे बुरे बीज हों, चाहे वे भले बीज हों, सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं--सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं।

हमें चूंकि कोई पता नहीं होता कि जीवन किस प्रक्रिया से चलता है, इसलिए कठिनाई होती है। हमें कोई पता नहीं होता कि किस प्रक्रिया से चलता है।

 बीज पिछले जन्मों का है। यह कहीं पड़ा रहता है, चुपचाप प्रतीक्षा करता है। जैसे बीज गिर जाता है, फिर वर्षा की प्रतीक्षा करता है। महीनों बीत जाते हैं धूल में, धंवास में उड़ते, हवाओं की ठोकरें खाते, फिर वर्षा की प्रतीक्षा चलती है। फिर कभी वर्षा आती है। शायद इन आठ महीनों में बीज भी भूल गया होगा कि मैं कौन हूं। बीज को पता भी कैसे होगा कि मेरे भीतर क्या पैदा हो सकता है। फिर वर्षा आती है, बीज जमीन में दब जाता है और टूटकर अंकुर हो जाता है, तभी बीज को पता चलता है। बीज भी चौंकता होगा; चौंककर कहता होगा कि मैं सूखा-साखा सा, मुझमें इतनी हरियाली छिपी थी! मैं सूखा-साखा सा, कंकड़-पत्थर मालूम पड़ता था देखने पर, मुझमें ऐसे-ऐसे फूल छिपे थे! बीज को भी भरोसा न आता होगा।

हम भी सब बीज हैं और लंबी यात्राओं के बीज हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, शुभ का इरादा भी, शुभ कर्म की श्रद्धा भी, दुर्गति में नहीं ले जाती है, कभी नहीं ले जाती है। सिर्फ श्रद्धा भी! जरूरी नहीं कि एक आदमी ने अच्छा काम किया हो; इतना भी काफी है कि सोचा हो; इतना भी काफी है कि कोई सोचता हो, तो उसे सहयोग दिया हो। इतना भी काफी है कि कोई कर रहा हो, तो प्रशंसा से उसकी तरफ देखा हो, तो भी वह आदमी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है।

महावीर जब किसी को दीक्षा देते थे, तो कुछ बातें कहलवाते थे। वे कहते थे कि तुम आश्वासन दो कि बुरा कर्म नहीं करोगे। वे कहते थे, तुम आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, तो तुम उसे प्रोत्साहन नहीं दोगे। आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, तो तुम उसकी तरफ प्रशंसा से देखोगे भी नहीं।

वह आदमी पूछता, मैं बुरा कर्म नहीं करूंगा। लेकिन ये दूसरी बातें क्या हैं, कि मैं प्रोत्साहन भी न दूंगा! कि मैं प्रशंसा से देखूंगा भी नहीं!

एक आदमी रास्ते पर किसी को पीट रहा है। आप नहीं पीट रहे; आपका कोई संबंध नहीं। आप सिर्फ रास्ते से गुजरते हैं। लेकिन आपकी आंख की एक झलक उस पीटने वाले को कह जाती है कि मेरी पीठ थपथपाई गई। बस, पाप हो गया, बीज बो दिया गया।

ठीक महावीर ऐसे ही कहते थे, अच्छा कर्म करना। कोई अच्छा कर्म करता हो, तो प्रोत्साहन देना। कोई अच्छा कर्म करता हो, कुछ न बन सके, तो अपनी आंख से, अपने इशारे से सहारा देना।


कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, कभी बुरी गति नहीं होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 31

 अर्जुन उवाच


अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।। 38।।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।। 39।।


इस पर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, योग से चलायमान हो गया है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्न वाला श्रद्धायुक्त पुरुष, योग-सिद्धि को अर्थात भगवत-साक्षात्कार को न प्राप्त होकर, किस गति को प्राप्त होता है।

और हे महाबाहो, क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से अर्थात भगवतप्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है।

हे कृष्ण, मेरे इस संशय को संपूर्णता से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवाय दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।



सुना अर्जुन ने कृष्ण की बात को; जो उठना चाहिए था संशय, वही उसके मन में उठा। अर्जुन बहुत प्रेडिक्टेबल है। अर्जुन के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है कि उसके मन में क्या उठेगा। जो मनुष्य के मन में उठता है सहज, वह उठा उसके मन में।

उठा यह सवाल कि योग से चलायमान हो जाए जिसका चित्त, प्रभु-मिलन से जो विचलित हो गया है, खो चुका है जो उस निधि को--यद्यपि श्रद्धायुक्त है, चाहता भी है कि पा ले, कोशिश भी करता है कि पा ले, फिर भी मन थिर नहीं होता--तो ऐसे व्यक्ति की गति क्या होगी?

यह डर स्वाभाविक है। तत्काल पीछे पूछता है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि जैसे कभी आकाश में वायु के झोंकों में बादल छितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि दोनों ही छोरों को खो गया आदमी! यहां संसार को छोड़ने की चेष्टा करे कि परमात्मा को पाना है, और वहां मन थिर न हो पाए और परमात्मा मिले नहीं! तो कहीं ऐसा तो न होगा कि राम और काम दोनों खो जाएं और वह आदमी एक बादल की तरह हवाओं के दोनों तरफ के झोंकों में छितर-बितर होकर नष्ट हो जाए। कहीं ऐसा तो न होगा?

संसार को छोड़ते समय मन में यह सवाल उठता ही है कि कहीं ऐसा तो न हो कि मैं संसार की तरफ वैराग्य निर्मित कर लूं, तो संसार भी छूट जाए, और परमात्मा को पा न सकूं, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। तो संसार भी छूट जाए और परमात्मा भी न मिले; तो मैं घर का न घाट का; धोबी के गधे जैसा न हो जाऊं!

अभी कहीं तो हूं, संसार में सही। अभी कुछ तो मेरे पास है। माना कि भ्रामक है, माना कि सपने जैसा है, फिर भी है तो। सपना ही सही, झूठा ही सही, फिर भी भरोसा तो है कि मेरे पास कुछ है। कोई मेरा है। पत्नी है, पति है, बेटा है, बेटी है, मित्र हैं, मकान है। माना कि झूठा है। कल मौत आएगी, सब छीन लेगी। लेकिन मौत जब तक नहीं आई है, तब तक तो है। और माना कि कल सब राख में गिर जाएगा। लेकिन जब तक नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक तो सांत्वना है।

कहीं ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो, कि इसे भी छोड़ दे आदमी, और जिसकी तुम बात करते हो, उस राम को पाने की वासना से मोहित हो जाए, तुम्हारा आकर्षण पकड़ ले। और तुम जैसे आदमी खतरनाक भी हैं। उनकी बातें आकर्षण में डाल देती हैं। मोह पैदा हो जाता है कि पा लें इस ब्रह्म को, पा लें इस आनंद को, मिले यह समाधि, हो जाए निर्वाण हमारा भी, हम भी पहुंचें उस जगह, जहां सब शून्य है और सब मौन है, और जहां परम सत्य का साक्षात्कार है। तुम्हारे मोह में पड़ा, तुम्हारी बात के आकर्षण में पड़ा आदमी संसार को छोड़ दे, खूंटी तोड़ ले यहां से, और नई खूंटी न गाड़ पाए। यह तट भी छूट जाए संसार का, उस तट की कोई खबर नहीं। नाव कमजोर है, हवा के झोंके तेज हैं, कंपती है बहुत। पतवार कमजोर, हाथ चलते नहीं, और दूसरे किनारे भी न पहुंच पाएं, तो कहीं दोनों किनारों से भटक गई नौका की तरह, हवा के तूफानी थपेड़ों में नाव डूब तो न जाए! कहीं ऐसा तो न हो कि यह भी छूटे और वह भी न मिले!

धर्म की यात्रा पर निकले हुए आदमी को यह सवाल उठता ही है। उठेगा ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी हम कुछ छोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि यह छूटता है, दूसरा मिलेगा या नहीं? एक सीढ़ी से पैर उठाते हैं, तो भरोसा पक्का कर लेते हैं कि दूसरी सीढ़ी पर पैर पड़ेगा या नहीं? दूसरी सीढ़ी पक्की हो जाए, तो हम उस पर पैर रख लें। कि जब भरोसा है पूरा, तब पहले से उठाते हैं।

इसलिए अर्जुन कहता है, हे कृष्ण, मेरे संशय को पूर्ण रूप से छेद डालें। मुझे पक्का करवा दें आश्वासन, कि मिल ही जाएगा दूसरा तट, ताकि मैं निःसंशय इस तट को छोड़ सकूं। छेद कर दें, छेद डालें मेरे इस संदेह को। जरा भी बाकी न रहे। यह अगर जरा भी बाकी रहा, तो तट छोड़ने में मुझे कठिनाई होगी। एकाध जंजीर को मैं तट से बांधे ही रहूंगा। एकाध लंगर नाव का मैं डाले ही रहूंगा। दूसरे तट पर जाने की मेरी हिम्मत कमजोर होगी। डर लगेगा कि पता नहीं, पता नहीं दूसरा किनारा है भी या नहीं! होगा भी, तो मिलेगा भी या नहीं! और जैसा मन मेरा है, उसे मैं भलीभांति जानता हूं। और जो शर्तें तुमने कहीं, वे भी मैंने ठीक से सुन लीं कि मन बिलकुल थिर हो जाए। और मैं भलीभांति जानता हूं कि क्षण को मन थिर होता नहीं। सब घोड़े वश में आ जाएं! और मैं भलीभांति जानता हूं कि एक भी घोड़ा वश में आता नहीं। सब इंद्रियों के मैं पार चला जाऊं! और भलीभांति जानता हूं कि इंद्रियों के अतिरिक्त मेरा कोई पार का अनुभव नहीं है।

तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी शर्तें! और कल तुम तो कह दोगे कि शर्तें तुमने पूरी नहीं कीं, तो तुम्हें किनारा नहीं मिला। लेकिन मेरा क्या होगा? यह तट भी छूट जाए, वह तट भी न मिले, तो कहीं बिखर तो न जाऊंगा! टूट ही तो न जाऊंगा! गति क्या होगी मेरी? इस संशय को पूरा ही छेद डालो कृष्ण! पूरा ही।

और कृष्ण से वह कहता है, तुम जैसा आदमी दूसरा मिलना मुश्किल है। संभव नहीं कि तुम जैसा आदमी मैं फिर पा सकूं, जो मेरे इस संशय को छेद डाले।

ऐसा अर्जुन ने क्यों कहा होगा?

संशय को वही छेद सकता है, जिसकी आंखों में स्वयं संशय न हो। जो असंदिग्धमना हो, जो निःसंशय हो, जो अपने ही भीतर इतने भरोसे से भरपूर हो कि उसका भरोसा ओवरफ्लो करता हो, बाहर बहता हो। जिसके रोएं-रोएं से पता चलता हो कि उस आदमी के मन में कोई संशय, कोई प्रश्न नहीं हैं।

कृष्ण जैसे आदमी प्रश्न नहीं पूछते कभी। कृष्ण जैसे आदमी कभी किसी के पास शंका निवारण के लिए नहीं जाते। अर्जुन भलीभांति जानता है कि कृष्ण कभी किसी के पास शंका निवारण को नहीं गए। भलीभांति जानता है, इनके मन में कभी प्रश्न नहीं उठा। भलीभांति जानता है कि ये बिलकुल निःसंशय में जीते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, कठिन है। सदियां बीत जाती हैं, तब कभी ऐसा आदमी उपलब्ध होता है।

जिसके मन में कोई संशय नहीं है, वही तो दूसरे के संशय को काट पाएगा। जिसके मन में स्वयं ही बहुत तरह के संशय हैं, वह दूसरे के संशय को काटने भला जाए, और जड़ों को पानी सींचकर लौट आएगा।

हम सब यही करते हैं। हम सब एक-दूसरे का संशय काटते हैं। बेटे का संशय बाप काट रहा है; और बाप खुद संदिग्ध है! उसे खुद पता नहीं कि मामला क्या है! बेटा पूछता है, यह पृथ्वी किसने बनाई? बाप कहता है, भगवान ने। और भीतर-भीतर डरता है कि बेटा अब आगे न पूछे कि भगवान किसने बनाए? और कहीं बेटा जोर से न पूछ ले कि भगवान कहां है? देखा है? क्योंकि बेटे आमतौर से नहीं पूछते, इसलिए बाप अपने झूठ कहे चले जाते हैं।

लेकिन थोड़े ही दिन में बेटा जवान होगा और जान लेगा कि बाप को भी पता नहीं है। लेकिन वह यह भी जान लेगा कि बेटों के सामने जानने का मजा लिया जा सकता है। अपने बेटों के सामने वह भी लेगा। और ऐसा चलता है। गुरु असंदिग्ध भाव से जवाब देता मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर संदेह खड़ा होता है।

कृष्ण जैसा आदमी अर्जुन को मिले, तो स्वाभाविक है उसका कहना कि हे महाबाहो, तुम जैसा आदमी फिर नहीं मिलेगा। तुम काट ही डालो। अगर तुम न काट पाए मेरे संदेह को, तो फिर मैं आशा नहीं करता कि कुछ हो सकता है। फिर मैं होपलेस हालत में हो जाऊंगा, बिलकुल आशारहित। फिर मेरी कोई आशा नहीं है। क्योंकि जैसा मैं अपने को जानता हूं, वैसा तो मैं इसी किनारे से बंधा रहूंगा। कम से कम कुछ तो मुट्ठी में है। और जो तुम कह रहे हो, वह बात जंचती है, लेकिन मेरे संशय को काट डालो।

यहां दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

एक तो बात यह खयाल में ले लेनी जरूरी है कि सांसारिक मन का यह लक्षण है कि वह किसी चीज को छोड़ सकता है किसी चीज के पाने के भरोसे। सहज नहीं छोड़ सकता। पाने का भरोसा हो, तो छोड़ सकता है किसी चीज को। त्याग करने में सांसारिक मन मुश्किल नहीं पाता, लेकिन त्याग इनवेस्टमेंट होना चाहिए। त्याग कुछ और पाने के लिए सिर्फ व्यवस्था बनाना चाहिए।

और जब त्याग किसी और को पाने के लिए होता है, तो त्याग नहीं होता, सिर्फ सौदा होता है। इसलिए सांसारिक मन त्याग को समझ ही नहीं पाता, सिर्फ बार्गेनिंग समझता है, सौदा समझता है। वह कहता है कि ठीक है; पक्का है कि मैं यहां कुछ दान करूं, तो स्वर्ग में उत्तर मिल जाएगा? पक्का है कि यहां एक मंदिर बना दूं, तो भगवान के मकान के पास ही ठहरने की जगह मिलेगी? पक्का है? तो मैं कुछ त्याग कर सकता हूं।

सांसारिक मन, पाने का पक्का हो जाए, तो छोड़ सकता है। पाने के लिए ही छोड़ सकता है। बड़ा अदभुत है यह। बड़ा कंट्राडिक्टरी है यह। यह हो नहीं सकता। अगर पाने के लिए ही छोड़ रहे हैं, तो छोड़ना नहीं हो सकता। और कठिनाई यह है कि जो छोड़ता है, वही पाता है।



यह जो कृष्ण से अर्जुन पूछ रहा है, उसका उत्तर, उसकी दुविधा असल में यही है। दुविधा त्याग की यही है कि त्याग बिना पाने की आशा के किया जाए, तो होता है। और जो बिना पाने की आशा के त्याग करता है, वह बहुत पाता है। जो पाने की आशा से त्याग करता है, वह पाने की आशा से करता है, इसलिए त्याग नहीं हो पाता। और चूंकि त्याग नहीं हो पाता, इसलिए वह कुछ भी नहीं पाता है।

जिसे पाना हो, उसे पाने की बात छोड़ देनी चाहिए। जिसे न पाना हो, उसे पाने की बात करते चले जाना चाहिए। सांसारिक मन नहीं समझ पाएगा यह, वह कहेगा कि पाने की बात छोड़ दूं! अच्छा छोड़े देते हैं। लेकिन पाना क्या सच में छोड़ने से हो जाएगा? उसका भीतरी, भीतरी जो सांसारिक मन की बनावट है, जो इनर स्ट्रक्चर है, जो मेकेनिज्म है, वह यह है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान बहुत करते हैं, शांति नहीं मिलती। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र छोड़ दो। तुम शांति चाहो ही मत। फिर तुम ध्यान करो। और शांति मिल जाएगी, बट दैट विल बी ए कांसिक्वेंस। वह परिणाम होगा सहज। तुम मत मांगो। डोंट मेक इट ए रिजल्ट, इट बिल बी ए कांसिक्वेंस। तुम फल मत बनाओ उसे, वह परिणाम होगा। वह हो ही जाएगा; उसकी तुम फिक्र न करो। वे कहते हैं, तो फिर हम शांति का खयाल छोड़ दें, फिर शांति मिल जाएगी?

वे शांति का खयाल भी छोड़ने को राजी हैं, एक ही शर्त पर, कि शांत मिल जाएगी?

अब शांति की तलाश अशांति है। इसलिए शांति का तलाशी कभी शांति नहीं पा सकता। तलाश अशांति है। और शांति की तलाश महा अशांति है।

ऐसा है। दिस इज़ दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य है, ऐसा अस्तित्व है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इस अस्तित्व की शर्तों को मानें तो ठीक, न मानें तो दुख भोगना पड़ता है। इस अस्तित्व की शर्त ही यह है। उस पार जाने की शर्त यह है कि यह किनारा छोड़ो। और यह भी शर्त है कि उस किनारे की बात मत करो।

अर्जुन कहता है, मुझे निःसंदिग्ध कर दें। हे महाबाहो, तुम्हारी बांहें बड़ी विशाल हैं। तुम दूर के तट छू लेते हो। तुम असीम को भी पा लेते हो। तुम मुझे कह दो, भरोसा दिला दो।

लेकिन सच ही क्या कृष्ण का भरोसा अर्जुन के लिए भरोसा बन सकता है? क्या कृष्ण यह कह दें कि हां, मिलेगा दूसरा किनारा, तो भी क्या संदेह करने वाला मन चुप हो जाएगा? क्या वह मन नया संदेह नहीं उठाएगा? कि अगर कृष्ण के कहने से नहीं मिला, तो? फिर कृष्ण जो कहते हैं, वह मान ही लिया जाए, जरूरी क्या है? फिर हम कृष्ण की मानकर चले भी गए और कल अगर खो गए, तो किससे शिकायत करेंगे? कहीं बादल की तरह बिखर गए, तो फिर किससे कहेंगे? और अगर गति बिगड़ गई, तो कौन होगा जिम्मेवार? कृष्ण होंगे जिम्मेवार?

अजीब है आदमी का मन। असल बात यह है कि संदेह करने वाला मन संदेह करता ही चला जाएगा। ऐसा नहीं है कि एक संदेह का निरसन हो जाए, तो निरसन हो जाएगा। एक संदेह का निरसन होते ही दूसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। दूसरे का निरसन होते ही तीसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। फिर कृष्ण क्यों संदेहों को तृप्त करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या इस आशा में कि संदेह तृप्त हो जाएंगे?

नहीं, सिर्फ इस आशा में कृष्ण अर्जुन के संदेह दूर करने की कोशिश करेंगे कि धीरे-धीरे हर संदेह के निरसन के बाद भी जब नया संदेह खड़ा होगा, तो अर्जुन जाग जाएगा, और समझ पाएगा कि संदेहों का कोई अंत नहीं है।

खयाल रखिए, संदेह के निरसन से संदेह का निरसन नहीं होता। लेकिन बार-बार संदेह के निरसन करने से आपको यह स्मृति आ सकती है कि कितने संदेह तो निरसन हो गए, मेरा संदेह तो वैसा का वैसा ही खड़ा हो जाता है! यह तो रावण का सिर है। काटते हैं, फिर लग जाता है। काटते हैं, फिर लग जाता है! काटते हैं, फिर लग जाता है! कृष्ण अथक काटते चले जाएंगे।

पूरी गीता संदेह के सिर काटने की व्यवस्था है। एक-एक संदेह काटेंगे, जानते हुए कि संदेह से संदेह होता है। संदेह किसी भी भरोसे, आश्वासन से कटता नहीं है। लेकिन अर्जुन थक जाए कट-कटकर, और हर बार खड़ा हो-होकर गिरे, और फिर खड़ा हो जाए। संदेह मिटे, और फिर बन जाए; जवाब आए, और फिर प्रश्न बन जाए। ऐसा करते-करते शायद अर्जुन को यह खयाल आ जाए कि नहीं, संदेह व्यर्थ है; और आश्वासन की तलाश भी बेकार है। किसी क्षण यह खयाल आ जाए, तो तट छूट सकता है।

मगर अर्जुन की प्यास बिलकुल मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत मानवीय है। इसलिए कृष्ण नाराज न हो जाएंगे। जानते हैं कि मनुष्य जैसा है, तट से बंधा, उसकी भी अपनी कठिनाइयां हैं।

किसी का सपना हम तोड़ दें। सुखद सपना कोई देखता हो; माना कि सपना था, पर सुखद था; तोड़ दें। तो वह आदमी पूछे कि सपना तो आपने मेरा तोड़ दिया, लेकिन अब? अब मुझे कहां! अब मैं क्या देखूं? अभी जो देख रहा था, सुखद था। आप कहते हैं, सपना था, इसलिए तुड़वा दिया। अब मैं क्या देखूं?

कुछ देखने की उसकी प्यास स्वाभाविक है। मगर उस प्यास में बुनियादी गलती है। आदमी के होने में ही बुनियादी गलती है। प्यास मानवीय है, लेकिन मानवीय होने में ही कुछ गलती है। वह गलती यह है कि सपना देखने वाला कहता है कि मैं सपना तभी तोडूंगा, जब मुझे कोई और सुंदर देखने की चीज विकल्प में मिल जाए।

और कृष्ण जैसे लोगों की चेष्टा यह है कि हम सपना भी तोड़ेंगे, विकल्प भी न देंगे, ताकि तुम उसको देख लो, जो सबको देखता है। देखने को बंद करो। दृश्य को छोड़ो। तुम एक दृश्य की जगह दूसरा दृश्य मांगते हो। अगर कृष्ण की भाषा में मैं आपसे कहूं, तो कृष्ण कहेंगे, दूसरा किनारा है ही नहीं। यह किनारा भी झूठ है; और झूठ के विकल्प में दूसरा किनारा नहीं होता। अगर यह किनारा सच होता, तो दूसरा किनारा सच हो सकता था। एक किनारा झूठ और एक सच नहीं हो सकता। दोनों ही किनारे सच होंगे, या दोनों ही झूठ होंगे।

आप समझते हैं! एक नदी का एक किनारा सच और एक झूठ हो सकता है? या तो दोनों ही झूठ होंगे, या दोनों ही सच होंगे। अगर दोनों झूठ होंगे, तो नदी भी झूठ होगी। अगर दोनों ही सच होंगे, तो नदी भी सच होगी। अब ऐसा समझ लें कि तीनों ही सच होंगे, या तीनों ही झूठ होंगे। तीसरा उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि नदी सच हो और किनारे झूठे हों। तो नदी बहेगी कैसे? और ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक किनारा सच और दूसरा झूठा हो। नहीं तो दूसरे झूठे किनारे का सहारा न मिलेगा। तीनों सच होंगे, या तीनों झूठ होंगे।

अब अर्जुन कहता है, यह किनारा तो झूठ है। कृष्ण, मैं समझ गया, तुम्हारी बातें कहती हैं। तुम पर मैं भरोसा करता हूं। और मेरी जिंदगी का अनुभव भी कहता है, यह किनारा झूठ है। दुख ही पाया है इस किनारे पर, कुछ और मिला नहीं। इस वासना में, इस मोह में, इस राग में पीड़ा ही पाई, नर्क ही निर्मित किए। मान लिया, समझ गया। लेकिन दूसरा किनारा सच है न!

कृष्ण क्या कहेंगे? अगर वे कह दें, दूसरा किनारा भी नहीं है, तो अर्जुन कहेगा, इसी को पकड़ लूं। कम से कम जो भी है, सांत्वना तो है, आशा तो है कि कल कुछ मिलेगा। तुम तो बिलकुल निराश किए देते हो।

बुद्ध जैसे व्यक्ति ने यही उत्तर दिया कि दूसरा किनारा भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है। बड़ी कठिन बात हो गई फिर। मोक्ष भी नहीं है! और संसार छोड़ने को कहते हो, और मोक्ष भी नहीं है! धन भी छोड़ने को कहते हो, और धर्म भी नहीं है! तो फिर कहते किसलिए हो?

इसलिए बुद्ध बिलकुल सही कहे, लेकिन काम नहीं पड़ा वह सत्य। दूसरा किनारा भी नहीं है, तो लोगों ने कहा, फिर हमें पकड़े रहने दो।

दूसरा किनारा नहीं है, जोर इस बात पर है कि मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई। मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई, वह पैराडाक्स हो गया। किनारा तो हम कहते हैं, जो मझधार में कभी नहीं होता। किनारा तो किनारे पर होता है।

लेकिन यह किनारा भी छोड़ दो, वह किनारा भी छोड़ दो, बीच में कौन रह जाएगा? दोनों किनारे जहां छूट गए--संसार भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है--फिर वासना की धारा को बहने का उपाय नहीं रह जाएगा। वासना की नदी फिर बह न सकेगी, और कामना की नावें फिर तैर न सकेंगी, और अहंकार के सेतु फिर निर्मित न हो सकेंगे। तब एक तरह की डूब, एक तरह का विसर्जन, एक तरह की मुक्ति, एक तरह का मोक्ष, एक तरह की स्वतंत्रता फलित होती है। और वही उपलब्धि है।

लेकिन अर्जुन कैसे समझे उसे? कृष्ण कोशिश करेंगे। वे अभी, दूसरा किनारा है, सही है, पहुंचेगा तू, आश्वासन देता हूं मैं--इस तरह की बातें करेंगे। यह किनारा तो छूटे कम से कम; फिर वह किनारा तो है ही नहीं। और जिसका यह छूट जाता है, उसका वह भी छूट जाता है।

कई बार एक झूठ छुड़ाने के लिए दूसरा झूठ निर्मित करना पड़ता है, इस आशा में कि झूठ छोड़ने का अभ्यास तो हो जाएगा कम से कम। फिर दूसरे को भी छुड़ा लेंगे।

और दो तरह के शिक्षक हैं पृथ्वी पर। एक, जो कहते हैं, जो तुम्हारे हाथ में है, वह झूठ है। और हम तुम्हारे हाथ में कुछ देने को राजी नहीं। क्योंकि कुछ भी हाथ में होगा, झूठ होगा। ऐसे शिक्षक सहयोगी नहीं हो पाते।

दूसरे शिक्षक ज्यादा करुणावान हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे हाथ में जो झूठ है, उसे छोड़ दो। हम तुम्हारे लिए सच्चा हीरा देते हैं। हालांकि कोई सच्चा हीरा नहीं है। हीरा मिलता है उस मुट्ठी को, जो खुल जाती है और कुछ भी नहीं पकड़ती, अनक्लिंगिंग। खुली मुट्ठी कुछ नहीं पकड़ती, उसको हीरा मिलता है। जो कुछ भी पकड़ती है, वह पत्थर ही पकड़ती है। पकड़ना ही--पत्थर आता है पकड़ में। हीरा तो खुले हाथ से पकड़ में आता है। 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...