पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।। 44।।
और वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही, निःसंदेह भगवत की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समत्वबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है।
दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। वे कहते हैं कि पिछले जन्मों में जिसने थोड़ी-सी भी यात्रा प्रभु की दिशा में की हो, वह उसकी संपदा बन गई है। अगले जन्मों में विषय और वासना में लिप्त हुआ भी प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता है।
अगले जन्म में विषय-वासना में लिप्त हुआ भी--वैसा व्यक्ति जिसके पिछले जन्मों की यात्रा में योग का थोड़ा-सा भी संचय है, जिसने थोड़ा भी धर्म का संचय किया, जिसका थोड़ा भी पुण्य अर्जन है--वह विषय-वासनाओं में डूबा हुआ भी, प्रभु की कृपा का पात्र बना रहता है। वह उतना-सा जो उसका किया हुआ है, वह दरवाजा खुला रहता है। बाकी उसके सब दरवाजे बंद होते हैं। सब तरफ अंधकार होता है, लेकिन एक छोटे-से छिद्र से प्रभु का प्रकाश उसके भीतर उतरता है।
और ध्यान रहे, गहन अंधकार में अगर छप्पर के छेद से भी रोशनी की एक किरण आती हो, तो भी भरोसा रहता है कि सूरज बाहर है और मैं बाहर जा सकता हूं! अंधकार आत्यंतिक नहीं है, अल्टिमेट नहीं है। अंधकार के विपरीत भी कुछ है।
एक छोटी-सी किरण उतरती हो छिद्र से घने अंधकार में, तो वह छोटी-सी किरण भी उस घने अंधकार से महान हो जाती है। वह घना अंधकार उस छोटी-सी किरण को भी मिटा नहीं पाता; वह छोटी-सी किरण अंधकार को चीरकर गुजर जाती है।
कितना ही विषय-वासनाओं में डूबा हो वैसा आदमी अगले जन्मों में, लेकिन अगर छोटे-से छिद्र से भी, जो उसने निर्मित किया है, प्रभु की कृपा उसको उपलब्ध होती रहे, तो उसके रूपांतरण की संभावना सदा ही बनी रहती है। वह सदा ही प्रभु-कृपा को पाता रहता है। जगह-जगह, स्थान-स्थान, स्थितियों-स्थितियों से प्रभु की कृपा उस पर बरसती रहती है। न मालूम कितने रूपों में, न मालूम कितने आकारों में, न मालूम कितने अनजान मार्गों और द्वारों से, और न मालूम कितनी अनजान यात्राएं प्रभु की कृपा से उसकी तरफ होती रहती हैं। बाहर वह कितना ही उलझा रहे, भीतर कोई कोना प्रभु का मंदिर बना रहता है। और वह बहुत बड़ा आश्वासन है।
कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह छोटा-सा छिद्र भी अगर निर्मित हो जाए, तो तेरे लिए बड़ा सहारा होगा।
और एक दूसरी बात, और भी क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी बात कहते हैं। कहते हैं, योग का जिज्ञासु भी, जस्ट एन इंक्वायरर; योग का जिज्ञासु भी--मुमुक्षु भी नहीं, साधक भी नहीं, सिद्ध भी नहीं--मात्र जिज्ञासु; जिसने सिर्फ योग के प्रति जिज्ञासा भी की हो, वह भी वेद में बताए गए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है, उनसे पार निकल जाता है।
वेद में कहा है कि यज्ञ करो, तो ये फल होंगे। ऐसा दान करो, तो ऐसा स्वर्ग होगा। इस देवता को ऐसा नैवेद्य चढ़ाओ, तो स्वर्ग में यह फल मिलेगा। ऐसा करो, ऐसा करो, तो ऐसा-ऐसा फल होता है सुख की तरफ। वेद में बहुत-सी विधियां बताई हैं, जो मनुष्य को सुख की दिशा में ले जा सकती हैं। कारण है बताने का।
वेद अर्जुन जैसे स्पष्ट जिज्ञासु के लिए दिए गए वचन नहीं हैं। वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। समस्त लोगों के लिए, जितने तरह के लोग पृथ्वी पर हो सकते हैं, सब के लिए सूत्र वेद में उपलब्ध हैं। गीता तो स्पेसिफिक टीचिंग है, एक विशेष शिक्षा है। एक विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई; विशेष व्यक्ति को दी गई। वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा दी गई शिक्षा नहीं है; अनेक व्यक्तियों के द्वारा दी गई शिक्षा है। एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा नहीं, अनेक व्यक्तियों को दी गई शिक्षा है।
और वेद विश्वकोश है। क्षुद्रतम व्यक्ति से श्रेष्ठतम व्यक्ति के लिए वेद में वचन हैं। क्षुद्रतम व्यक्ति से! उस आदमी के लिए भी वेद में वचन हैं, जो कहता है कि हे प्रभु, हे देव, हे इंद्र! बगल का आदमी मेरा दुश्मन हो गया है; तू कृपा कर और इसकी गाय के दूध को नदारद कर दे। उसके लिए भी प्रार्थना है! कुछ ऐसा कर कि इस पड़ोसी की गाय दूध देना बंद कर दे।
सोच भी न पाएंगे। दुनिया का कोई धर्मग्रंथ इतनी हिम्मत न कर पाएगा कि इसको अपने में सम्मिलित कर ले। लेकिन वेद उतने ही इनक्लूसिव हैं, जितना इनक्लूसिव परमात्मा है।
जब परमात्मा इस आदमी को अपने में जगह दिए हुए है, तो वेद कहते हैं, हम भी जगह देंगे। जब परमात्मा इनकार नहीं करता कि इस आदमी को हटाओ, नष्ट करो; यह आदमी क्या बातें कर रहा है! यह कह रहा है कि हे इंद्र, मैं तेरी पूजा करता हूं, तेरी प्रार्थना, तेरी अर्चना, तेरे नैवेद्य चढ़ाता हूं, तेरे लिए यज्ञ करता हूं, तो कुछ ऐसा कर कि पड़ोसी के खेत में इस बार फसल न आए। दुश्मन के खेत जल जाएं, हमारे ही खेत में फसलें पैदा हों। दुश्मनों का नाश कर दे। जैसे बिजली गिरे किसी पर और वज्राघात होकर वह नष्ट हो जाए, ऐसा उस दुश्मन को नष्ट कर दे।
धर्मग्रंथ, और ऐसी बात को अपने भीतर जगह देता है! शोभन नहीं मालूम पड़ता। कृष्ण को भी शोभन नहीं मालूम पड़ा होगा। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि वेदों में जिन सकाम कर्मों की--सकाम कर्म का अर्थ है, किसी वासना से किया गया पूजा-पाठ, हवन, विधि; किसी वासना से, किसी कामना से, कुछ पाने के लिए किया गया--जो भी वेदों में दी गई व्यवस्था है, जो कर्मकांड है, उसको कर-करके भी आदमी जहां पहुंचता है, योग की जिज्ञासा मात्र करने वाला, उसके पार निकल जाता है। सिर्फ जिज्ञासा मात्र करने वाला! इसका ऐसा अर्थ हुआ, अकाम भाव से जिज्ञासा मात्र करने वाला, सकाम भाव से साधना करने वाले से आगे निकल जाता है।
अकाम का इतना अदभुत रहस्य, निष्काम भाव की इतनी गहराई और निष्काम भाव का इतना शक्तिशाली होना, उसे बताने के लिए कृष्ण ने यह कहा है।
कृष्ण भी वेद से चिंतित हुए, क्योंकि वेद इस तरह की बातें बता देता है। वेद से बुद्ध भी चिंतित हुए। सच तो यह है कि हिंदुस्तान में वेद की व्यवस्थाओं के कारण ही जैन और बौद्ध धर्मों का भेद पैदा हुआ, अन्यथा शायद कभी न पैदा होता। क्योंकि तीर्थंकरों को, जैनों के तीर्थंकरों को भी लगा कि ये वेद किस तरह की बातें करते हैं!
महावीर कहते हैं कि दूसरे के लिए भी वैसा ही सोचो, जैसा अपने लिए सोचते हो; और वेद ऐसी प्रार्थना को भी जगह देता है कि दुश्मन को नष्ट कर दो! बुद्ध कहते हैं, करुणा करो उस पर भी, जो तुम्हारा हत्यारा हो। और वेद कहते हैं, पड़ोसी के जीवन को नष्ट कर दे हे देव! और इसको जगह देते हैं। बुद्ध या कृष्ण या महावीर, सभी वेद की इन व्यवस्थाओं से चिंतित हुए हैं।
लेकिन मैं आपसे कहूं, वेद का अपना ही रहस्य है। और वह रहस्य यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। विश्वकोश का अर्थ होता है, जो भी धर्म की दिशा में संभव है, वह सभी संगृहीत है। माना कि यह आदमी दुश्मन को नष्ट करने के लिए प्रार्थना कर रहा है, लेकिन प्रार्थना कर रहा है। और प्रार्थना संकलित होनी चाहिए। यह भी आदमी है; माना बुरा है, पर है। तथ्य है, तथ्य संगृहीत होना चाहिए। और जब परमात्मा इसे स्वीकार करता है, सहता है, इसके जीवन का अंत नहीं करता; श्वास चलाता है, जीवन देता है, प्रतीक्षा करता है इसके बदलने की, तो वेद कहते हैं कि हम भी इतनी जल्दी क्यों करें! हम भी इसे स्वीकार कर लें।
वेद जैसी किताब नहीं है पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव। सब किताबें चोजेन हैं। दुनिया की सारी किताबें चुनी हुई हैं। उनमें कुछ छोड़ा गया है, कुछ चुना गया है। बुरे को हटाया गया है, अच्छे को रखा गया है। धर्मग्रंथ का मतलब ही यही होता है। धर्मग्रंथ का मतलब ही होता है कि धर्म को चुनो, अधर्म को हटाओ। वेद सिर्फ धर्मग्रंथ नहीं है; मात्र धर्मग्रंथ नहीं है। वेद पूरे मनुष्य की समस्त क्षमताओं का संग्रह है। समस्त क्षमताएं!
जान्सन ने, डाक्टर जान्सन ने अंग्रेजी का एक विश्वकोश निर्मित किया। विश्वकोश जब कोई निर्मित करता है, तो उसे गंदी गालियां भी उसमें लिखनी पड़ती हैं। लिखनी चाहिए, क्योंकि वे भी शब्द तो हैं ही और लोग उनका उपयोग तो करते ही हैं। उसमें गंदी, अभद्र, मां-बहन की गालियां, सब इकट्ठी की थीं।
बड़ा कोश था। लाखों शब्द थे। उसमें गालियां तो दस-पच्चीस ही थीं, क्योंकि ज्यादा गालियों की जरूरत नहीं होती, एक ही गाली को जिंदगीभर रिपीट करने से काम चल जाता है। गालियों में कोई ज्यादा इनवेंशन भी नहीं होते। गालियां करीब-करीब प्राचीन, सनातन चलती हैं। गाली, मैं नहीं देखता, कोई नई गाली ईजाद होती हो। कभी-कभी कोई छोटी-मोटी ईजाद होती है; वह टिकती नहीं। पुरानी गाली टिकती है, स्थिर रहती है।
एक महिला भद्रवर्गीय पहुंच गई जान्सन के पास। खोला शब्दकोश उसका और कहा कि आप जैसा भला आदमी और इस तरह की गालियां लिखता है! अंडरलाइन करके लाई थी! जान्सन ने कहा, इतने बड़े शब्दकोश में तुझे इतनी गालियां ही देखने को मिलीं! तू खोज कैसे पाई? मैं तो सोचता था, कोई खोज नहीं पाएगा। तू खोज कैसे पाई? जान्सन ने कहा, मुझे गाली और पूजा और प्रार्थना से प्रयोजन नहीं है। आदमी जो-जो शब्दों का उपयोग करता है, वे संगृहीत किए हैं।
वेद आल इनक्लूसिव है। इसलिए वेद में वह क्षुद्रतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास न मालूम कौन-सी क्षुद्र आकांक्षा लेकर गया है। वह श्रेष्ठतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास कोई आकांक्षा लेकर नहीं गया है। वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास जाने की हर कोशिश करता है और नहीं पहुंच पाता। और वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा की तरफ जाता नहीं, परमात्मा खुद उसके पास आता है। सब मिल जाएंगे।
इसलिए वेद की निंदा भी करनी बहुत आसान है। कहीं भी पन्ना खोलिए वेद का, आपको उपद्रव की चीजें मिल जाएंगी। कहीं भी। क्यों? क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो उपद्रव है। और वेद इसलिए बहुत रिप्रेजेंटेटिव है, बहुत प्रतिनिधि है। ऐसी प्रतिनिधि कोई किताब पृथ्वी पर नहीं है। सब किताबें क्लास रिप्रेजेंट करती हैं, किसी वर्ग का। किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं सब किताबें। वेद प्रतिनिधि है मनुष्य का, किसी वर्ग का नहीं, सबका। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अनुकूल वक्तव्य वेद में न मिल जाए।
इसीलिए उसे वेद नाम दिया गया है। वेद का अर्थ है, नालेज। वेद का अर्थ और कुछ नहीं होता। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान, जस्ट नालेज। आदमी को जो-जो ज्ञान है, वह सब संगृहीत है। चुनाव नहीं है। कौन आदमी को रखें, किसको छोड़ दें, वह नहीं है।
कृष्ण, बुद्ध, महावीर सबको इसमें अड़चन रही है। अड़चन के भी अपने-अपने रूप हैं। कृष्ण ने वेद को बिलकुल इनकार नहीं किया, लेकिन तरकीब से वेद के पार जाने वाली बात कही। कृष्ण ने कहा कि ठीक है वेद भी; सकाम आदमी के लिए है। लेकिन निष्काम की जिज्ञासा करने वाला भी, इन हवन और यज्ञ करने वाले लोगों से पार चला जाता है। महावीर और बुद्ध ने तो बिलकुल इनकार किया, और उन्होंने कहा कि वेद की बात ही मत चलाना। वेद की बात चलाई, कि नर्क में पड़ोगे। इसलिए वेद के विरोध में अवैदिक धर्म भारत में पैदा हुए, बुद्ध और महावीर के।
वेद को ठीक से कभी भी नहीं समझा गया, क्योंकि इतनी आल इनक्लूसिव किताब को ठीक से समझा जाना कठिन है। क्योंकि आपके टाइप के विपरीत बातें भी उसमें होंगी, क्योंकि आपका विपरीत टाइप भी दुनिया में है। इसलिए वेद को पूरी तरह प्रेम करने वाला आदमी बहुत मुश्किल है। वह वही आदमी हो सकता है, जो परमात्मा जैसा आल इनक्लूसिव हो, नहीं तो बहुत मुश्किल है। उसको कोई न कोई खटकने वाली बात मिल जाएगी कि यह बात गड़बड़ है। वह आपके पक्ष की नहीं होगी, तो गड़बड़ हो जाएगी।
वेद में कुरान भी मिल जाएगा। वेद में बाइबिल भी मिल जाएगी। वेद में धम्मपद भी मिल जाएगा। वेद में महावीर के वचन भी मिल जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया है। वेद को प्रयोजन नहीं है।
इसलिए महावीर को कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर के विपरीत टाइप का भी सब संग्रह वहां है। और वह विपरीत टाइप को भी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर वाला संग्रह भी वहां है। और अड़चन सभी को होगी।
इसलिए वेद के साथ कोई भी बिना अड़चन में नहीं रह पाता। और अड़चन मिटाने के जो उपाय हुए हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जैसे दयानंद ने एक उपाय किया अड़चन मिटाने का। वह अड़चन मिटाने का उपाय यह है कि वेद के सब शब्दों के अर्थ ही बदल डालो। और इस तरह के अर्थ निकालो उसमें से कि वेद विश्वकोश न रह जाए, धर्मशास्त्र हो जाए; एक संगति आ जाए, बस।
यह ज्यादती है लेकिन। वेद में संगति नहीं लाई जा सकती। वेद असंगत है। वेद जानकर असंगत है, क्योंकि वेद सबको स्वीकार करता है, असंगत होगा ही।
शब्दकोश संगत नहीं हो सकता। विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया संगत नहीं हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया को अपने से विरोधी वक्तव्यों को भी जगह देनी ही पड़ेगी।
लेकिन कभी ऐसा आदमी जरूर पैदा होगा एक दिन पृथ्वी पर, जो समस्त को इतनी सहनशीलता से समझ सकेगा, सहनशीलता से, उस दिन वेद का पुनर्आविर्भाव हो सकता है। उस दिन वेद में दिखाई पड़ेगा, सब है। कंकड़-पत्थर से लेकर हीरे-जवाहरातों तक, बुझे हुए दीयों से लेकर जलते हुए महासूर्यों तक, सब है।
तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं--वह उनका अर्थ है कहने का और कारण है--वे कहते हैं कि वेदों की समस्त साधना भी तू कर डाल, सब यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना न पाएगा, जितना सिर्फ योग की जिज्ञासा से पा सकता है। और योग को साधे, तब तो बात ही अलग है। तब तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्जुन को भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण की चेष्टा सतत है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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