बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6भाग 29

 श्रीभगवानुवाच


असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। 35।।


हे महाबाहो, निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन, अभ्यास अर्थात स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है।


कृष्ण ने अर्जुन की मनोदशा को देखकर कहा, निश्चय ही अर्जुन, मन बड़ी मुश्किल से वश में होने वाला है।

यह जो कहा, निश्चय ही, यह मनुष्य के मन की स्थिति के लिए कहा है। निश्चय ही, जैसा मनुष्य है,  जैसे हम हैं; हमें देखकर, निश्चय ही मन बड़ी मुश्किल से वश में होने वाला है। जैसा आदमी है, अगर हम उसे वैसा ही स्वीकार करें, तो शायद मन वश में होने वाला ही नहीं है।

लेकिन--और उस लेकिन में गीता का सारा सार छिपा है-- लेकिन अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है

जैसा मनुष्य है, अगर हम उसे अनछुआ, वैसा ही रहने दें, और चाहें कि मन वश में हो जाए, तो मन वश में नहीं होता है। क्योंकि जैसा मनुष्य है, वह सिर्फ मन ही है। मन के पार उसमें कुछ भी नहीं है। मन के पार उसका कोई भी अनुभव नहीं है। मन को वश में करने की कोई भी कीमिया, कोई भी तरकीब उसके हाथ में नहीं है। लेकिन--और लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है; और ये दो शब्द, अभ्यास और वैराग्य गीता के प्राण हैं--लेकिन अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है। अभ्यास और वैराग्य का आधार आपको समझा दूं, फिर हम अभ्यास और वैराग्य को समझेंगे।

अभ्यास और वैराग्य का पहला आधार तो यह है कि मनुष्य जैसा है, उससे अन्यथा हो सकता है।

मन की बात ही नहीं कर रहे वे। वे कह रहे हैं, मन को छोड़ो। तुम जैसे हो, ऐसे में मन वश में नहीं होगा। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा बदल लें। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा बदल लें, फिर मन वश में हो जाएगा। अभ्यास और वैराग्य इस बात की घोषणा है कि मनुष्य जैसा है, उससे अन्यथा भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, उससे भिन्न भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, वैसा होना एकमात्र विकल्प नहीं है, और विकल्प भी हैं। हम जैसे हैं, यह हमारी एकमात्र स्थिति नहीं है, और स्थितियां भी हमारी हो सकती हैं।

अगर हम एक बच्चे को जंगल में छोड़ दें पैदा हो तब, तो क्या आप सोचते हैं, वह बच्चा कभी भी मनुष्य की कोई भी भाषा बोल पाएगा! कोई भाषा नहीं बोल पाएगा। ऐसा नहीं कि वह आपके घर में पैदा हुआ था, तो गुजराती बोलेगा जंगल में! कि हिंदुस्तान की जमीन पर पैदा हुआ था, तो हिंदी बोलेगा। कि अंग्रेज के घर में पैदा हुआ था, तो अंग्रेजी बोलेगा। नहीं, वह कोई भाषा नहीं बोलेगा। शायद आप सोचते होंगे, वह कोई नई भाषा बोलेगा। वह नई भाषा भी नहीं बोलेगा। वह भाषा ही नहीं बोलेगा।


आदमी एक अनंत संभावना है, इनफिनिट पासिबिलिटी। हम जो हो गए हैं, वह हमारी एक पासिबिलिटी है सिर्फ। वह हमारी एक संभावना है, जो हम हो गए हैं। अगर हम दुनिया की मनुष्य जातियों को भी देखें, तो हमको पता चलेगा कि अनंत संभावनाएं हैं।

ऐसे कबीले हैं आज भी, जो क्रोध करना नहीं जानते हैं। आप हैरान होंगे! आप कहेंगे, क्रोध! क्रोध तो हर मनुष्य करता है। आपको सब मनुष्यों का पता नहीं है।

ऐसे कबीले हैं आज भी आदिवासियों के, जो क्रोध करना नहीं जानते। क्योंकि क्रोध भी अभ्यास से आता है; अचानक नहीं आ जाता। बाप कर रहा है, मां कर रही है, घर भर क्रोध कर रहा है, और तख्ती भी लगी है कि क्रोध करना पाप है घर में। और सब चल रहा है। वह बच्चा सीख रहा है, वह कंडीशन हो रहा है। वह जवान होकर बच्चा कहेगा कि ऐसा हो ही कैसे सकता है कि आदमी क्रोध न करे! तो यह सिखावन है। बच्चा तो एक तरल चीज थी। आपने उसे एक दिशा में ढाल दिया। कठिनाई हो गई। वह अड़चन हो गई।

ऐसे कबीले हैं, जिनमें संपत्ति का कोई मोह नहीं है; कोई मोह नहीं है। संपत्ति का मोह ही नहीं है। अभी एक छोटे-से कबीले की खोज हुई, तो बड़े चकित हो गए लोग, उस कबीले में संपत्ति की मालकियत का खयाल ही नहीं है। किसी आदमी को यह खयाल नहीं है कि यह मेरी जमीन है। किसी को खयाल नहीं है कि यह मेरा मकान है।

लेकिन कबीले का पूरा ढंग और है कंडीशनिंग का। कोई अपना मकान नहीं बनाता, सारा गांव मिलकर उसका मकान बनाता है। जब भी गांव में एक नए मकान की जरूरत पड़ती है, पूरा गांव मिलकर एक मकान बनाता है। गांव में कोई नया आदमी रहने आ जाता है, तो पूरा गांव एक मकान बना देता है। वह आदमी उसमें रहने लगता है। पूरा गांव घर-घर से चीजें देकर उसके घर को जमा देता है पूरा। वह घर का उपयोग करने लगता है।

उस कबीले में खयाल ही नहीं है प्राइवेट ओनरशिप का, कि व्यक्तिगत संपत्ति भी कोई चीज होती है।  उस कबीले में किसी को खयाल ही नहीं है कि वस्तु और व्यक्ति में कोई संबंध मालकियत का होता है।

और हम मरे जाते हैं अपरिग्रह का सिद्धांत दोहरा-दोहराकर। वह कुछ हल होता नहीं। अपरिग्रही से अपरिग्रही भी...अब दिगंबर जैन मुनि नग्न रहते हैं।



अब यहां हम सोचते हैं। जिस ढंग से हम सोचते हैं, वह एक विकल्प है। यह मैंने इसलिए उदाहरण के लिए आपको कहा कि अन्य विकल्प सदा हैं।

अभ्यास का मूल आधार यह है कि आप जैसे हैं, उससे अन्यथा हो सकते हैं। अभ्यास का अर्थ है, ऐसी विधि, जो आपको अन्यथा कर देगी। अब जैसे एक आदमी है, वह कहता है कि मेरे हाथ में बहुत तकलीफ है, आपरेशन करवाना है। आपरेशन आप करिएगा, तो मैं न करवा पाऊंगा, मैं हाथ को खींच लूंगा। इतनी तकलीफ होगी। हम कहते हैं, कोई फिक्र नहीं। हम तुम्हें अनस्थेसिया दे देंगे, पहले बेहोशी की दवा दे देंगे, फिर आपरेशन कर लेंगे। फिर तुम्हें तकलीफ न होगी।

अर्जुन कहता है, मन बड़ा चंचल है। कृष्ण कहते हैं, बिलकुल ठीक कहते हो। हम पहले अभ्यास करवा देंगे। फिर मन चंचल न रहेगा। हम पहले तुम्हें बदल देंगे। हम सारी स्थिति बदल देंगे।

अभ्यास का अर्थ है, सारी बाह्य और आंतरिक स्थिति की बदलाहट। अभ्यास का अर्थ है, वे जो संस्कार हैं, कंडीशनिंग है, वह जो हमारे भीतर पुराना जमा हुआ प्रवाह है, उसको जगह-जगह से तोड़कर नई दिशा दे देना।


अभ्यास का अर्थ है, आप जैसे हैं, उससे अन्यथा करने की विधियां। और आप जैसे हैं, वह भी किन्हीं विधियों के कारण हैं, अपने कारण नहीं। अगर आप गुजराती बोलते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि गुजराती का अभ्यास करवा दिया गया है। और कोई कारण नहीं है। आप अंग्रेजी बोल सकेंगे, अगर अंग्रेजी का अभ्यास करवा दिया जा सके। कोई अड़चन नहीं है।

जो भी आप हैं, वह अभ्यास का फल है। लेकिन अभी जो अभ्यास करवाया है, वह समाज ने करवाया है। और समाज बीमारों का समूह है। अभी जो अभ्यास करवाया है, वह भीड़ ने करवाया है। और भीड़ मनुष्य की निम्नतम अवस्था है। इसलिए आप उस भीड़ के एक हिस्से हैं। अभी आप हैं नहीं। अभी आप जो भी हैं, वह भीड़ का ही हिस्सा हैं। और भीड़ ने जो करवा दिया है, वह आप हैं।

अभ्यास का अर्थ है, व्यक्तिगत चेष्टा उस दिशा में, जहां आप नए हो सकें, जहां आप भिन्न हो सकें।

यह मन की धारा, जो बहुत चंचल दिखाई पड़ती है, वह चंचल इसीलिए है कि पूरी व्यवस्था उसे चंचल कर रही है।


हम भी एक-एक आदमी के मन को बचपन से दौड़ा रहे हैं। सब मिलकर दौड़ा रहे हैं। सब मिलकर दौड़ा रहे हैं। बाप दौड़ा रहा है कि नंबर एक आओ। मां दौड़ा रही है कि क्या कर रहे हो, बगल के पड़ोसी का लड़का देख रहे हो? स्पोर्ट्स में नंबर एक आ गया। मां-बाप किसी तरह पीछा छोड़ेंगे, तो एक पत्नी उपलब्ध होगी। वह कहेगी, दौड़ो। देखते हो, बगल का मकान बड़ा हो गया। बगल की पत्नी के पास हीरों की चूड़ियां आ गईं। तुम देखते रहोगे ऐसे ही बैठे! दौड़ो। किसी तरह दौड़-दाड़कर और थोड़ी उम्र गुजारता है, तो बच्चे पैदा हो जाते हैं। वे कहते हैं कि क्या बाप मिले तुम भी! न घर में कार है, न टेलीविजन सेट है। कुछ भी नहीं है। बड़ी दीनता मालूम होती है। इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स पैदा हो रहा है हममें, स्कूल जाते हैं तो। दौड़ो।

पूरी शिक्षा, पूरा समाज, पूरी व्यवस्था दौड़ने के एक ढांचे में ढली हुई है। दौड़ो, चाहे जान चली जाए, कोई फिक्र नहीं। दौड़ते रहो। ठहरना भर मत।

अगर इतने सारे अभ्यास में आदमी का मन ठहरने का स्थान नहीं पाता, किसी विश्रामगृह में नहीं रुक पाता, भागता ही चला जाता है; तो अगर अर्जुन एक दिन कह रहा है कृष्ण से कि यह मन बड़ा भागने वाला है, यह रुकता नहीं क्षणभर को, तो ठीक ही कह रहा है। हम सब का मन ऐसा है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह मन का ढंग सिर्फ एक संस्कारित व्यवस्था है। अभ्यास से इसे तोड़ा जा सकता है। अभ्यास से नई व्यवस्था दी जा सकती है। और वैराग्य से! क्यों? वैराग्य को क्यों जोड़ दिया? क्या अभ्यास काफी न था? अभ्यास की विधि बता देते कि इससे बदल जाओ।

वैराग्य इसलिए जोड़ दिया कि अगर वैराग्य न हो, तो आप विधियों का उपयोग न करेंगे। क्योंकि राग दौड़ाने की व्यवस्था है। राग के बिना कोई दौड़ता नहीं है। राग, कुछ उपलब्धि की आकांक्षा, कुछ पाने का खयाल दौड़ाता है। कोई लक्ष्य, कोई राग दौड़ाता है।

तो राग चंचल होने का आधार है, तो वैराग्य विश्राम का आधार बनेगा। अभी हम सब राग में जीते हैं। हमारा पूरा समाज राग से भरा है। हमारी पूरी शिक्षा, समाज की व्यवस्था, परिवार, संबंध--सब राग पर खड़े हैं। इसलिए हम सब दौड़ते हैं। राग बिना दौड़े नहीं फलित हो सकता। राग यानी दौड़।

चंचलता का बुनियादी आधार राग है। इसलिए ठहराव का बुनियादी आधार वैराग्य होगा।

तो वैराग्य की शर्त जरूरी है, नहीं तो आप ठहरने को राजी नहीं होंगे। आप कहेंगे, ठहरकर मर जाएंगे। पड़ोसी तो ठहरेगा नहीं, वह तो दौड़ता रहेगा। आप मुझसे ही क्यों कहते हैं कि ठहर जाओ? अगर मैं ठहर गया, तो दूसरा तो ठहरेगा नहीं; वह पहुंच जाएगा!

जब तक आपको कहीं पहुंचने का राग है, जब तक कुछ पाने का राग है, तब तक मन अचंचल नहीं हो सकता, चंचल रहेगा। इसमें मन का क्या कसूर है! आप राग कर रहे हैं, मन दौड़ रहा है। मन आपकी आज्ञा मान रहा है।

इसलिए वैराग्य की शर्त पीछे जोड़ दी कि वैराग्य की भावना हो, तो फिर ऐसी विधियां हैं, जिनके अभ्यास से आदमी मन को विश्राम को पहुंचा सकता है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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