बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 27

 

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।। 32।।


और हे अर्जुन, जो योगी अपनी सादृश्यता से संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सब में सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।


समत्व योग है। समता का बोध श्रेष्ठतम योग है। सुख में, दुख में, अनुकूल में, प्रतिकूल में, सब स्थितियों में, सब परिस्थितियों में जो सम बना रहता है, समता को देखता है--एक। इस संबंध में काफी बात कृष्ण ने कही है। इसमें एक दूसरी छोटी-सी बात वे कह रहे हैं, जो कीमती है। वह है, जो अपने सादृश्य से सब में ही सम स्थिति देखता है। इसे थोड़ा समझना जरूरी है।

अपने सादृश्य से! कठिनतम बात है यह। इसका अर्थ यह है कि जब भी हम दूसरे के संबंध में कोई निर्णय लें, तब सदा अपने सादृश्य से लें। हम इससे उलटा ही करते हैं। जब भी हम दूसरे के संबंध में कोई निर्णय लेते हैं, तो कभी अपने सादृश्य से नहीं लेते।

अगर दूसरा बुराई करता है, बुरा काम करता है, तो हम कहते हैं, वह बुरा आदमी है। और अगर हम बुराई करते हैं, तो हम कहते हैं, वह मजबूरी है। अगर दूसरा आदमी चोरी करता है, तो वह चोर है। और अगर हम चोरी करते हैं, तो वह आपदधर्म है! लेकिन कभी अपने सादृश्य से नहीं सोचते। अगर हम क्रोध करते हैं, तो वह दूसरे के सुधार के लिए है। और अगर दूसरा क्रोध करता है, तो वह हिंसक है, हत्यारा है! अगर हम किसी को मारते भी हैं, तो जिलाने के लिए। और अगर दूसरा जिलाता भी है, तो मारने के लिए।

दूसरे को हम कभी भी उस भांति नहीं सोचते, जैसा हम स्वयं को सोचते हैं। स्वयं में जो श्रेष्ठतम है, उसे हम स्वभाव मानते हैं; और दूसरे में जो निकृष्टतम है, उसे उसका स्वभाव मानते हैं!

ध्यान रहे, स्वयं का जो शिखर है, वह हमारा स्वभाव है; और दूसरे की जो खाई है, वह उसका स्वभाव है! उसका भी शिखर है, और हमारी भी खाई है।

सादृश्य का अर्थ यह है कि जब मैं दूसरे की खाई के संबंध में सोचूं, तो पहले अपनी खाई को देख लूं। तो मैं पाऊंगा कि शायद मुझसे बड़ी खाई किसी दूसरे की नहीं है। जब मैं अपने शिखर के संबंध में सोचूं, तो मैं दूसरों के शिखर भी सोच लूं, तो शायद मैं पाऊंगा कि मुझसे छोटा शिखर किसी का भी नहीं है।

लेकिन हमारे सोचने की विधि, पद्धति यह है कि दूसरे का जो बुरा है, निकृष्टतम है, वही उसका सार तत्व है; और हमारा जो श्रेष्ठतम है, वह हमारा सार तत्व है। इसलिए हमसे निरंतर अन्याय हुआ चला जाता है। समता होगी कैसे?

ध्यान रहे, एक समता तो यह है कि मैं दो आदमियों को समान समझूं, अ और ब समान हैं। यह समता बहुत गहरी नहीं है। असली समता यह है कि मैं, मैं और तू को समान समझूं, जो बहुत गहरी है। दो आदमियों को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दो आदमियों को समान समझने में ही मैं ऊपर उठ जाता हूं। मैं पैट्रोनाइजिंग हो जाता हूं। मैं दो को समान समझने वाला। मैं ऊपर उठ जाता हूं। मैं करीब-करीब मजिस्ट्रेट की कुर्सी पर बैठ जाता हूं। दो को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है। दूसरे के साथ स्वयं को समान समझने में सबसे बड़ी कठिनाई है।


दूसरों को समान कर दिया जाए, यह बहुत कठिन मामला नहीं है। कृष्ण और गहरी समानता की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, स्वयं के सादृश्य से समता, स्वयं को दूसरे के समान समझना।

यह बड़ी जटिल बात है। क्योंकि अहंकार भयंकर बाधा डालता है। वह कहता है, कुछ भी कहो, सब कहो, इंचभर भी जरा मुझे ऊंची जगह दे दो, बस, फिर ठीक है। सबके साथ!

अभी भीतर मन में सोचेंगे, तब पता चलेगा कि सबके साथ मैं समान! यह नहीं हो सकता। सब समान हो सकते हैं, सबके बीच मुझे जरा बचाओ। भीतर गहरे में मन कहेगा, मुझे बचाओ। मैं सबको समान करने को राजी हूं। और सबको समान करने में ही मैं विशेष हो जाऊंगा, मैं अलग हो जाऊंगा, मैं ऊपर उठ जाऊंगा।

इसलिए समाजवादी नेता हैं सारी दुनिया में, साम्यवादी नेता हैं सारी दुनिया में, वे सबको समान करने के लिए बहुत पागल हैं, बहुत विक्षिप्त हैं। लेकिन आखिर में कुल फल इतना होता है कि सब समान हो जाते हैं, वे सबके ऊपर हो जाते हैं! कोई इस बात के लिए राजी नहीं है कि मुझसे कोई समान हो।

कृष्ण कहते हैं, स्वयं के सादृश्य से!

जब भी दूसरे के संबंध में सोचो, तो स्वयं के सादृश्य से सोचना। और तब एक अदभुत घटना घटेगी। तीन घटनाएं घटेंगी। एक तो घटना यह घटेगी, जो स्वयं के सादृश्य से सोचेगा, वह दूसरे का निर्णय लेना बंद कर देगा। नहीं; निर्णय नहीं लेगा। क्योंकि वह पाएगा, मैं कौन हूं निर्णय लेने वाला! मैं भी तो वहीं खड़ा हूं, जहां सारे लोग खड़े हैं।

इसलिए हमारे जो तथाकथित साधु-संत होते हैं, जो स्वयं को कुछ पवित्र, ऊपर, और शेष सबको नारकीय जीव मानकर देखते हैं, इन्हें कृष्ण के सूत्र का कोई पता नहीं।

तथाकथित साधु-संन्यासियों के पास जाओ, तो वे ऐसे देखते हैं कि कहां है, पासपोर्ट ले आए नर्क जाने का कि नहीं! नीचे से ऊपर तक जांच करके उनकी आंख का भाव यह होता है कि वे कहीं ऊपर, आप कहीं नीचे!

ठीक संत तो वह है, जो यह जान लेता है कि सभी सम हैं। क्योंकि वह जो भीतर बैठा है, वह जरा भी ऊपर-नीचे नहीं हो सकता। एक ही बैठा हुआ है, तो असमानता का सवाल कहां है!


तो कृष्ण कहते हैं, यह श्रेष्ठतम स्थिति है योग की। पर यह समता और है। यह अ और ब के बीच में नहीं; यह मेरे और तेरे के बीच, मैं और तू के बीच समता है।

मैं को तू के सम लाना महायोग है। क्योंकि मैं की सारी चेष्टा ही यही है कि तू को नीचे कर दे। हम जिंदगीभर यही करते हैं। तू को नीचे करने की कोशिश ही हमारी जिंदगी का रस है। और अगर वस्तुतः न कर पाएं, तो हम दूसरी तरकीबों से करते हैं।

अगर एक आदमी को धन मिल जाए, तो जिनके पास धन नहीं है, वह उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। एक को मिनिस्ट्री मिल जाए, तो जिनको नहीं मिली, वह उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। उसकी चाल बदल जाती है। उसका ढंग बदल जाता है। उसकी आंखें बदल जाती हैं। लेकिन जिसको नहीं मिली, वह क्या करे? जो हार गया, वह क्या करे?


बहुत मजे की बात है। अगर मैं आपसे आकर कहूं कि आपका पड़ोसी बहुत अच्छा आदमी है, तो आप एकदम से मान न लेंगे। आप कहेंगे, अच्छा! भरोसा तो नहीं आता। पड़ोसी और अच्छा आदमी! मेरे रहते और मेरा पड़ोसी अच्छा आदमी! क्या कह रहे हैं आप! भला आप ऊपर से कहें या न कहें, भीतर बेचैनी शुरू हो जाएगी। और आप कहेंगे, मान नहीं सकता। आपको पता नहीं है शायद। जरा पुलिस की किताब में जाकर देखें ब्लैक लिस्ट में नाम है उसका। इसको आप अच्छा आदमी कहते हैं! यह आदमी महा दुष्ट है। पत्नी को पीटते मैंने सुना है।

आप पच्चीस बातें निकालकर दलील देंगे कि यह आदमी अच्छा नहीं है। क्यों? क्योंकि अगर वह अच्छा है, तो आपके मैं का क्या होगा! आप पच्चीस दलीलें खोजकर, उसे नीचे करके, अपने सिंहासन पर पुनः विराजमान हो जाएंगे।

लेकिन अगर कोई आपसे आकर कहे कि सुना, पड़ोस का आदमी फलाने की स्त्री को लेकर भाग गया! आप कहेंगे, मैं पहले से ही जानता था कि वह भागेगा।

अब आप बिलकुल खोजबीन न करेंगे। बिलकुल खोजबीन ही न करेंगे। जरा संदेह-शंका न उठाएंगे। कोई प्रमाण न पूछेंगे। बिलकुल राजी हो जाएंगे कि दुरुस्त। यह तो हम पहले जानते थे कि यह होने वाला है। हम पहले ही कह चुके थे कि वह आदमी भाग जाएगा। वह आदमी ही ऐसा था।

बड़े मजे की बात है कि जब कोई आपसे किसी की निंदा करता है, तो आप प्रमाण नहीं पूछते। और जब कोई किसी की प्रशंसा करता है, तब बड़े प्रमाण पूछते हैं! बात क्या है? निंदा मान लेने में दिल को बड़ी राहत मिलती है, क्योंकि मैं ऊपर हो जाता हूं। प्रशंसा मानने में बड़ी पीड़ा होती है, बड़ी चोट लगती है।

सुना है मैंने, एक विद्यार्थी नंबर तीन पास हुआ। उसके बाप ने उसे डांटा कि हमारे कुल में कभी न चला ऐसा। ऐसा कभी नहीं हुआ हमारे कुल में कि कोई नंबर तीन आया हो। हालांकि न होने का ,कुल कारण इतना था कि कुल में कोई पढ़ा ही नहीं था! नंबर तीन आएगा कैसे? लड़के ने बड़ी मेहनत की। वह सालभर मेहनत करके नंबर दो आया। बाप ने कहा कि क्या रखा है! कौन-सी बड़ी उन्नति कर ली! एक ही लड़के को पीछे हटा पाए! लड़के ने और मेहनत की और तीसरे साल वह नंबर एक आ गया। तो बाप ने कहा कि इसमें कुछ नहीं है। इससे पता चलता है कि तुम्हारी क्लास में गधों के सिवाय कोई भी नहीं है!

बाप को भी अड़चन होती है कि बेटा कुछ है। हालांकि सब बाप कोशिश करते हैं कि मेरा बेटा कुछ हो, दूसरों के सामने। क्योंकि मेरा बेटा कुछ है, ऐसा दूसरों को बताकर वे भी कुछ होते हैं। लेकिन अगर बेटा सच में कुछ है, तो बाप अड़चन में पड़ जाता है बेटे के साथ। दूसरों के साथ चर्चा करता है, मेरा बेटा कुछ है। क्योंकि मेरा बेटा! लेकिन बेटा सामने पड़ता है, तो बेचैनी शुरू होती है। बाप के मन को तक बेटे के मन से बेचैनी शुरू होती है!

अगर लड़की सुंदर हो, तो मां तक चिंतित हो जाती है। और रास्ते पर जब गुजरती है, तो देखती रहती है कि लोग लड़की को देख रहे हैं कि उसको देख रहे हैं। अगर लड़की को देख रहे हैं, तो बहुत बेचैनी होती है। उसका बदला वह घर लौटकर लड़की से लेगी!

आदमी का मन इतने निकट संबंधों में भी मैं को ऊपर रखता है। मां और बेटी के संबंध में भी, बाप और बेटे के संबंध में भी, वह मैं को ऊपर रखता है। निकटतम के साथ भी हमारी दुश्मनी चलती है मैं और तू की।

महायोग है, कृष्ण कहते हैं कि स्वयं के सादृश्य से सब के साथ समता समझ लेना।

जरा भी फासला न रह जाए, कि दूसरा ठीक वैसा ही है, जैसा मैं हूं। बुराई में भी, भलाई में भी, पाप में भी, पुण्य में भी, दूसरे और मुझमें कोई फासला नहीं है। ऐसी प्रतीति की जो गहराई है, वह बहुत बड़ा विस्फोट लाती है।

पर इसको चाहने के लिए, इस दिशा में यात्रा करने के लिए, जब भी दूसरे के संबंध में सोचें, तो एक बार पुनः उसी बात को लेकर अपने संबंध में पहले सोचना। और अपने मन के धोखों में मत पड़ जाना, क्योंकि मन कहेगा, ये तो मजबूरियां थीं। ऐसा तो उसका मन भी कहता है, यह भी जानना। ऐसा मत कहना कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। उसका मन भी यही कहता है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। जैसा हमें लगता है, वैसा ही प्रत्येक को लगता है।

महावीर ने तो इसे अहिंसा कहा, इस सूत्र को। यह स्वयं के सादृश्य सब को मान लेने को महावीर ने अहिंसा कहा। महावीर ने कहा कि जैसा हमें लगता है, वैसा सब को लगता है, इसलिए तुम जो व्यवहार अपने साथ करो, वही दूसरे के साथ करो।

जीसस ने भी यही कहा। अगर जीसस के पूरे जीवन के उपदेश का सार-निचोड़ हम रखें, तो एक ही वाक्य है जीसस का, जो परम है, महावाक्य है, डू नाट डू अनटु अदर्स, दैट यू वुड नाट लाइक टु बी डन विद यू--मत करो दूसरों के साथ वह, जो तुम न चाहोगे कि दूसरे तुम्हारे साथ करें।

लेकिन हम वही कर रहे हैं। और तब अगर हम योग को उपलब्ध नहीं होते, तो आश्चर्य नहीं। और अगर हम श्रेष्ठ शांति को और आनंद को उपलब्ध नहीं होते, तो आश्चर्य नहीं। यह हमारे ही कर्मों का सुनिश्चित फल है। जो हम कर रहे हैं, उसकी यह नियति है। यही होगा।

लेकिन बहुत कठिन है दूसरे के साथ अपने को सम भाव में रखना। सबसे बड़ी कठिनाई उस ईगो और अहंकार की है, जो कहता है, मैं! मेरे जैसा कोई भी नहीं।


वह जो हमारा मैं है, वह सदा इसी तलाश में है कि कोई कह दे कि तुम महान, तुम यह, तुम वह--और हम फूलकर कुप्पा हो जाएं। फिर सादृश्य नहीं सधेगा।

 जिंदगी में सादृश्य बनाना जरा मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि किसी के पास बड़ा मकान है और किसी के पास छोटा मकान है। सादृश्य बनाओ कैसे! और किसी के पास नाक जरा लंबी है, और लोग कहते हैं, खूबसूरत है। और किसी के पास थोड़ी चपटी है, और लोग कहते हैं, बिलकुल न होती तो अच्छी। करो क्या? कोई है कि गणित के बड़े सवाल हल कर देता है, और कोई है कि सोलह आने गिनने में दस दफे भूल कर जाता है। करो क्या? यहां जीवन में सादृश्य को बनाने में जरा कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि बहुत-सा असादृश्य प्रकट है।


कृष्ण कहते हैं, यह सादृश्य-योग उच्चतम योग की स्थिति को पहुंचा देता है।

शुरू करें कहीं से। मौत से शुरू करें, आसान पड़ेगा। लेकिन हिम्मत न जुटेगी मरघट जाने की। डर लगता है मरघट जाने में। इसीलिए डर लगता है, क्योंकि मरघट कुछ बुनियादी खबरें देता है।




सादृश्य अहंकार की मृत्यु है। और सादृश्य करुणा का जन्म है। सादृश्य यह खबर देता है कि दूसरा भी उतना ही कमजोर है, जितना कमजोर मैं। सादृश्य कहता है, दूसरा भी उतनी ही सीमाओं में बंधा है, जितनी सीमाओं में मैं। मुझे भी किसी ने गाली दी है, तो क्रोध आ गया है। और अगर किसी दूसरे को भी गाली दी गई है, तो क्रोध आ गया है, तो मैं कठोर न हो जाऊं। करुणा अपेक्षित है, अगर सादृश्य का थोड़ा बोध है।

लेकिन सादृश्य का बोध हमें नहीं है। और इस बोध को समझने से नहीं समझा जा सकता; इस बोध को जन्माने से समझा जा सकता है। इसका प्रयोग करना शुरू करें।

जब आप एक छोटे-से बच्चे को डांट रहे हैं बूढ़े होकर, तब आपको कभी भी खयाल नहीं आता कि एक दिन आप भी छोटे-से बच्चे थे। इसी तरह डांटे गए थे। और आपको यह भी खयाल नहीं आता कि यह बच्चा कल इसी तरह बूढ़ा हो जाएगा। अगर बूढ़े को बच्चे में यह सादृश्य दिखाई पड़ जाए, तो इस दुनिया में बूढ़ों और बच्चों के बीच जो कलह है, वह विदा हो जाए। वह कलह विदा हो जाए। उस कलह की कोई जगह न रह जाए।

लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता है। हम इसके लिए बिलकुल अंधे हैं। इसलिए हमारे जीवन में महा दुख फलित होता है। लेकिन वह अति उत्तम योग और उससे उपलब्ध होने वाली शांति फलित नहीं होती।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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