बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6भाग 33

 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।। 41।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।। 42।।


किंतु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है संसार में, निःसंदेह अति दुर्लभ है।



योग-भ्रष्ट पुरुष! अर्जुन जो पूछ रहा है, वह योग-भ्रष्ट के लिए ही पूछ रहा है। वह कह रहा है कि संसार को मैं छोड़ दूं, भोग को मैं छोड़ दूं और योग सध न पाए। या सधे भी, तो बिखर जाए; थोड़ा बने भी, तो हाथ छूट जाए। थोड़ा पकड़ भी पाऊं और खो जाए सहारा हाथ से, भ्रष्ट हो जाऊं बीच में। तो फिर मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा? नष्ट तो न हो जाऊंगा?

कृष्ण कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट हुए पुरुष की आगे की गति के संबंध में दोत्तीन बातें कहते हैं। वे कीमती हैं। और एक बहुत गहरे विज्ञान से संबंधित हैं। थोड़ा-सा समझें।

एक, कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति, वैसी चेतना, जो थोड़ा साधती है योग की दिशा में, लेकिन पूर्णता को नहीं उपलब्ध होती...। पूर्णता को उपलब्ध हो जाए, तो मुक्त हो जाती है। पूर्णता को उपलब्ध न हो पाए, तो अपरिसीम सुखों को उपलब्ध होती है। इस अपरिसीम सुखों की जो संभावनाओं का जगत है, उसका नाम स्वर्ग है। बहुत सुखों को उपलब्ध होती है।

लेकिन ध्यान रहे, सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख समाप्त हो जाने वाले हैं। और कितने ही बड़े सुख हों, और कितने ही लंबे मालूम पड़ते हों, जब वे चुक जाते हैं, तो क्षण में बीत गए, ऐसे ही मालूम पड़ते हैं।

तो वैसी चेतना बहुत सुखों को उपलब्ध होती है अर्जुन! लेकिन फिर वापस संसार में लौट आती है, जब सुख चुक जाते हैं।

एक विकल्प यह है कि बहुत-से सुखों को पाए वैसी चेतना, और वापस लौट आए उस जगत में, जहां से गई थी। दूसरी संभावना यह है कि वैसी चेतना उन घरों में जन्म ले ले, जहां ज्ञान का वातावरण है। उन घरों में जन्म ले ले, जहां योग की हवा है, मिल्यू, योग का विचारावरण है। जहां तरंगें योग की हैं, और जहां साधना के सोपान पर चढ़ने की आकांक्षाएं प्रबल हैं। और जहां चारों ओर संकल्प की आग है, और जहां ऊर्ध्वगमन के लिए निरंतर सचेष्ट लोग हैं, उन परिवारों में, उन कुलों में जन्म ले ले। तो जहां से छूटा पिछले जन्म में योग, अगले जन्म में उसका सेतु फिर जुड़ जाए।

दो विकल्प कृष्ण ने कहे। एक तो, स्वर्ग में पैदा हो जाए। स्वर्ग का अर्थ है, उन लोकों में, जहां सुख ही सुख है, दुख नहीं है। इन दोनों बातों में कई रहस्य की बातें हैं। एक तो यह कि जहां सुख ही सुख होता है, वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए देवताओं से ज्यादा ऊबे हुए लोग कहीं भी नहीं हैं। जहां सुख ही सुख है, वहां ऊब पैदा हो जाती है।

इसलिए कथाएं हैं कि देवता भी जमीन पर आकर जमीन के दुखों को चखना चाहते हैं, जमीन के सुखों को भोगना चाहते हैं, क्योंकि यहां दुख मिश्रित सुख हैं। अगर मीठा ही मीठा खाएं, तो थोड़ी-सी नमक की डिगली मुंह पर रखने का मन हो आता है। बस, ऐसा ही। सुख ही सुख हों, तो थोड़ा-सा दुख करीब-करीब चटनी जैसा स्वाद दे जाता है। स्वर्ग एकदम मिठास से भरे हैं, सुख ही सुख हैं। जल्दी ऊब जाता है। लौटकर संसार में वापस आ जाना पड़ता है। दुर्गति तो नहीं होती, लेकिन समय व्यर्थ व्यतीत हो जाता है।

सुखों में गया समय, व्यर्थ गया समय है। उपयोग नहीं हुआ उसका, सिर्फ गंवाया गया समय है। हालांकि हम सब यही समझते हैं कि सुख में बीता समय, बड़ा अच्छा बीता। दुख में बीता समय, बड़ा बुरा गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि दुख में बीता समय क्रिएटिव भी हो सकता है, सृजनात्मक भी हो सकता है; उससे जीवन में कोई क्रांति भी घटित हो सकती है। लेकिन सुख में बीता समय, सिर्फ नींद में बीता हुआ समय है, उससे कभी कोई क्रांति घटित नहीं होती। सुख में बीते समय से कभी कोई क्रिएटिव एक्ट, कोई सृजनात्मक कृत्य पैदा नहीं होता।

दुख तो मांज भी देता है, और दुख निखार भी देता है, और दुख भीतर साफ भी करता है, शुद्ध भी करता है; सुख तो सिर्फ जंग लगा जाता है। इसलिए सुखी लोगों पर एकदम जंग बैठ जाती है। इसलिए सुखी आदमी, अगर ठीक से देखें, तो न तो बड़े कलाकार पैदा करता, न बड़े चित्रकार पैदा करता, न बड़े मूर्तिकार पैदा करता। सुखी आदमी सिर्फ बिस्तरों पर सोने वाले लोग पैदा करता। कुछ नहीं, नींद! वक्त काट देने वाले लोग पैदा करता है। शराब पीने वाले, संगीत सुनकर सो जाने वाले, नाच देखकर सो जाने वाले--इस तरह के लोग पैदा करता है।

अगर हम दुनिया के सौ बड़े विचारक उठाएं, तो दोत्तीन प्रतिशत से ज्यादा सुखी परिवारों से नहीं आते। क्या बात है? क्या सुख जंग लगा देता है चित्त पर?

लगा देता है। उबा देता है। और सुख ही सुख, तो कहीं गति नहीं रह जाती; ठहराव हो जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।

स्वर्ग एक स्टेगनेंट स्थिति है।


कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग चला जाता है वैसा व्यक्ति, जो योग से भ्रष्ट होता है अर्जुन। सुखों की दुनिया में चला जाता है। शुभ करना चाहा था, नहीं कर पाया, तो भी इतना तो उसे मिल जाता है कि सुख मिल जाते हैं। लेकिन वापस लौट आना पड़ता है, वहीं चौराहे पर।

संसार चौराहा है। अगर वहां से मोक्ष की यात्रा शुरू न हुई, तो वापस-वापस लौटकर आ जाना पड़ता है। वह क्रास रोड्स पर हैं हम। जैसे कि मैं एक रास्ते के चौराहे पर खड़ा होऊं। अगर बाएं चला जाऊं, तो फिर दाएं जाना हो, तो फिर चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। संसार चौराहा है। अगर स्वर्ग चला जाऊं, फिर मोक्ष की यात्रा करनी हो, तो चौराहे पर वापस आ जाना पड़े।

तो वे लोग, जिन्होंने योग की साधना भी सुख पाने के लिए ही की हो, स्वर्ग चले जाते हैं। लेकिन जिन्होंने योग की साधना मुक्त होने के लिए की हो, लेकिन असफल हो गए हों, भ्रष्ट हो गए हों, वे उन घरों में जन्म ले लेते हैं, जहां इस जीवन में छूटा हुआ क्रम अगले जीवन में पुनः संलग्न हो जाए। वे उन योग के वातावरणों में पुनः पैदा हो जाते हैं, जहां से पिछली यात्रा फिर से शुरू हो सके।

इसलिए अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, तू आश्वासन रख। तू भयभीत न हो। यदि मोक्ष न भी मिला, तो स्वर्ग मिल सकेगा। अगर स्वर्ग भी न मिला, तो कम से कम उस कुल में जन्म मिल सकेगा, जहां से तूने छोड़ी थी पिछली यात्रा, तू पुनः शुरू कर सके। भयभीत न हो। घबड़ा मत। इस किनारे को छोड़ने की हिम्मत कर। अगर वह किनारा न भी मिला, तो भी इस किनारे से बुरा नहीं होगा। और कुछ भी हो जाए, यह किनारा वापस मिल जाएगा, इसलिए घबड़ा मत। इसको छोड़ने में भय मत कर।


कृष्ण को भी उसके अहंकार को बीच-बीच में तृप्ति देनी पड़ती है। कहते हैं, हे महाबाहो, हे विशाल बाहुओं वाले अर्जुन! तो अर्जुन बड़ा फूलता है। ठीक है। कृष्ण से भी सुनने को राजी हो गया इसीलिए कि कृष्ण सारथी हैं उसके, मित्र हैं, सखा हैं; कंधे पर हाथ रख सकता है; चाहे तो कह सकता है कि सब व्यर्थ की बातें कर रहे हो! इसलिए सुनने को राजी हो गया।


इसलिए कृष्ण अर्जुन को जो कह रहे हैं, पूरे वक्त अर्जुन को देखकर कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बहुत सुख मिलेंगे अर्जुन, अगर तू अच्छे काम करते हुए मर जाता है असफल, तो स्वर्गों में पैदा हो जाएगा।


कृष्ण एक-एक कदम अर्जुन को...इसको कहते हैं, परसुएशन। अगर गीता में हम कहें कि इस जगत में परसुएशन की, फुसलाने की, एक व्यक्ति को इंच-इंच ऊपर उठाने की जैसी मेहनत कृष्ण ने की है, वैसी किसी शिक्षक ने कभी नहीं की है। सभी शिक्षक सीधे अटल होते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, यह बात है। खरीदना है? नहीं खरीदना, बाहर हो जाओ।

शिक्षक सख्त होते हैं। शिक्षक को मित्र की तरह पाना बड़ा मुश्किल है। अर्जुन को शिक्षक मित्र की तरह मिला है, सखा की तरह मिला है। उसके कंधे पर हाथ रखकर बात चल रही है। इसलिए कई दफा वह भूल में भी पड़ जाता है और व्यर्थ के सवाल भी उठाता है।


लेकिन कृष्ण उसकी बकवास को सुनते हैं, और प्रेम से उसे फुसलाते हैं, और एक-एक इंच उसे सरकाते हैं। वे कहते हैं, कोई फिक्र न कर, अगर नहीं भी मिला वह किनारा, तो बीच में टापू हैं स्वर्ग नाम के, उन पर तू पहुंच जाएगा। वहां बड़ा सुख है। खूब सुख भोगकर, नाव में बैठकर वापस लौट आना। अगर तुझे सुख न चाहिए हो, तो बीच में गुरुजनों के टापू हैं, जिन पर गुरुजन निवास करते हैं; उनके गुरुकुल हैं; तू उनमें प्रवेश कर जाना। वहां तू अपनी साधना को आगे बढ़ा लेना।

लेकिन एक आकांक्षा कृष्ण की है कि तू यह किनारा तो छोड़, फिर आगे देख लेंगे। नहीं कोई टापू हैं, नहीं कोई बात है। तू किनारा तो छोड़। एक दफे तू किनारा छोड़ दे, किसी भी कारण को मानकर अभी जरा साहस जुट जाए, तू भरोसा कर पाए और यात्रा पर निकल जाए--तो आगे की यात्रा तो प्रभु सम्हाल लेता है।



प्रभु तो प्रत्येक को मोक्ष तक ले जाने को तत्पर है। लेकिन हम किनारा इतने जोर से पकड़ते हैं! लोग कहते हैं कि प्रभु जो है,सर्वशक्तिशाली है। मुझे नहीं जंचता। हम जैसे छोटी-छोटी ताकत के लोग भी किनारे को पकड़कर पड़े रहते हैं, हमको खींच नहीं पाता। हमारी पोटेंसी ज्यादा ही मालूम पड़ती है।

नहीं, लेकिन उसका कारण दूसरा है। असल में जो सर्वशक्तिशाली है, वह शक्ति का उपयोग कभी नहीं करता। शक्ति का उपयोग सिर्फ कमजोर ही करते हैं। सिर्फ कमजोर ही शक्ति का उपयोग करते हैं। जो पूर्ण शक्तिशाली है, वह उपयोग नहीं करता। वह प्रतीक्षा करता है कि हर्ज क्या है! आज नहीं कल; इस युग में नहीं अगले युग में; इस जन्म में नहीं अगले जन्म में; कभी तो तुम नाव खोलोगे, कभी तो तुम पाल खोलोगे, तब हमारी हवाएं तुम्हें उस पार ले चलेंगी। जल्दी क्या है? जल्दी भी तो कमजोरी का लक्षण है। इतनी जल्दी क्या है? समय कोई चुका तो नहीं जाता!

लेकिन परमात्मा का समय भला न चुके, आपका चुकता है। वह अगर जल्दी न करे, चलेगा। उसके लिए कोई भी जल्दी नहीं है, क्योंकि कोई टाइम की लिमिट नहीं है, कोई सीमा नहीं है। लेकिन हमारा तो समय सीमित है और बंधा है। हम तो चुकेंगे। वह प्रतीक्षा कर सकता है अनंत तक, लेकिन हमारी तो सीमाएं हैं, हम अनंत तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं।

लेकिन बड़ा अदभुत है। हम भी अनंत तक प्रतीक्षा करते हुए मालूम पड़ते हैं। हम भी कहते हैं कि बैठे रहेंगे। ठीक है। जब तू ही खोल देगा नाव, जब तू ही पाल को उड़ा देगा, जब तू ही झटका देगा और खींचेगा...।

और कई दफे तो ऐसा होता है कि झटका भी आ जाए, तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं, और चीख-पुकार मचाते हैं कि सब भाई-बंधु आ जाओ, सम्हालो मुझे। कोई ले जा रहा है! कोई खींचे लिए जा रहा है!

कृष्ण अर्जुन को देखकर ये उत्तर दिए हैं, यह ध्यान में रखना। धीरे-धीरे वे ये उत्तर भी पिघला देंगे, गला देंगे। वह राजी हो जाए छलांग के लिए, बस इतना ही।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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