बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 31

 अर्जुन उवाच


अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।। 38।।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।। 39।।


इस पर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, योग से चलायमान हो गया है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्न वाला श्रद्धायुक्त पुरुष, योग-सिद्धि को अर्थात भगवत-साक्षात्कार को न प्राप्त होकर, किस गति को प्राप्त होता है।

और हे महाबाहो, क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से अर्थात भगवतप्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है।

हे कृष्ण, मेरे इस संशय को संपूर्णता से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवाय दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।



सुना अर्जुन ने कृष्ण की बात को; जो उठना चाहिए था संशय, वही उसके मन में उठा। अर्जुन बहुत प्रेडिक्टेबल है। अर्जुन के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है कि उसके मन में क्या उठेगा। जो मनुष्य के मन में उठता है सहज, वह उठा उसके मन में।

उठा यह सवाल कि योग से चलायमान हो जाए जिसका चित्त, प्रभु-मिलन से जो विचलित हो गया है, खो चुका है जो उस निधि को--यद्यपि श्रद्धायुक्त है, चाहता भी है कि पा ले, कोशिश भी करता है कि पा ले, फिर भी मन थिर नहीं होता--तो ऐसे व्यक्ति की गति क्या होगी?

यह डर स्वाभाविक है। तत्काल पीछे पूछता है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि जैसे कभी आकाश में वायु के झोंकों में बादल छितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि दोनों ही छोरों को खो गया आदमी! यहां संसार को छोड़ने की चेष्टा करे कि परमात्मा को पाना है, और वहां मन थिर न हो पाए और परमात्मा मिले नहीं! तो कहीं ऐसा तो न होगा कि राम और काम दोनों खो जाएं और वह आदमी एक बादल की तरह हवाओं के दोनों तरफ के झोंकों में छितर-बितर होकर नष्ट हो जाए। कहीं ऐसा तो न होगा?

संसार को छोड़ते समय मन में यह सवाल उठता ही है कि कहीं ऐसा तो न हो कि मैं संसार की तरफ वैराग्य निर्मित कर लूं, तो संसार भी छूट जाए, और परमात्मा को पा न सकूं, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। तो संसार भी छूट जाए और परमात्मा भी न मिले; तो मैं घर का न घाट का; धोबी के गधे जैसा न हो जाऊं!

अभी कहीं तो हूं, संसार में सही। अभी कुछ तो मेरे पास है। माना कि भ्रामक है, माना कि सपने जैसा है, फिर भी है तो। सपना ही सही, झूठा ही सही, फिर भी भरोसा तो है कि मेरे पास कुछ है। कोई मेरा है। पत्नी है, पति है, बेटा है, बेटी है, मित्र हैं, मकान है। माना कि झूठा है। कल मौत आएगी, सब छीन लेगी। लेकिन मौत जब तक नहीं आई है, तब तक तो है। और माना कि कल सब राख में गिर जाएगा। लेकिन जब तक नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक तो सांत्वना है।

कहीं ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो, कि इसे भी छोड़ दे आदमी, और जिसकी तुम बात करते हो, उस राम को पाने की वासना से मोहित हो जाए, तुम्हारा आकर्षण पकड़ ले। और तुम जैसे आदमी खतरनाक भी हैं। उनकी बातें आकर्षण में डाल देती हैं। मोह पैदा हो जाता है कि पा लें इस ब्रह्म को, पा लें इस आनंद को, मिले यह समाधि, हो जाए निर्वाण हमारा भी, हम भी पहुंचें उस जगह, जहां सब शून्य है और सब मौन है, और जहां परम सत्य का साक्षात्कार है। तुम्हारे मोह में पड़ा, तुम्हारी बात के आकर्षण में पड़ा आदमी संसार को छोड़ दे, खूंटी तोड़ ले यहां से, और नई खूंटी न गाड़ पाए। यह तट भी छूट जाए संसार का, उस तट की कोई खबर नहीं। नाव कमजोर है, हवा के झोंके तेज हैं, कंपती है बहुत। पतवार कमजोर, हाथ चलते नहीं, और दूसरे किनारे भी न पहुंच पाएं, तो कहीं दोनों किनारों से भटक गई नौका की तरह, हवा के तूफानी थपेड़ों में नाव डूब तो न जाए! कहीं ऐसा तो न हो कि यह भी छूटे और वह भी न मिले!

धर्म की यात्रा पर निकले हुए आदमी को यह सवाल उठता ही है। उठेगा ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी हम कुछ छोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि यह छूटता है, दूसरा मिलेगा या नहीं? एक सीढ़ी से पैर उठाते हैं, तो भरोसा पक्का कर लेते हैं कि दूसरी सीढ़ी पर पैर पड़ेगा या नहीं? दूसरी सीढ़ी पक्की हो जाए, तो हम उस पर पैर रख लें। कि जब भरोसा है पूरा, तब पहले से उठाते हैं।

इसलिए अर्जुन कहता है, हे कृष्ण, मेरे संशय को पूर्ण रूप से छेद डालें। मुझे पक्का करवा दें आश्वासन, कि मिल ही जाएगा दूसरा तट, ताकि मैं निःसंशय इस तट को छोड़ सकूं। छेद कर दें, छेद डालें मेरे इस संदेह को। जरा भी बाकी न रहे। यह अगर जरा भी बाकी रहा, तो तट छोड़ने में मुझे कठिनाई होगी। एकाध जंजीर को मैं तट से बांधे ही रहूंगा। एकाध लंगर नाव का मैं डाले ही रहूंगा। दूसरे तट पर जाने की मेरी हिम्मत कमजोर होगी। डर लगेगा कि पता नहीं, पता नहीं दूसरा किनारा है भी या नहीं! होगा भी, तो मिलेगा भी या नहीं! और जैसा मन मेरा है, उसे मैं भलीभांति जानता हूं। और जो शर्तें तुमने कहीं, वे भी मैंने ठीक से सुन लीं कि मन बिलकुल थिर हो जाए। और मैं भलीभांति जानता हूं कि क्षण को मन थिर होता नहीं। सब घोड़े वश में आ जाएं! और मैं भलीभांति जानता हूं कि एक भी घोड़ा वश में आता नहीं। सब इंद्रियों के मैं पार चला जाऊं! और भलीभांति जानता हूं कि इंद्रियों के अतिरिक्त मेरा कोई पार का अनुभव नहीं है।

तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी शर्तें! और कल तुम तो कह दोगे कि शर्तें तुमने पूरी नहीं कीं, तो तुम्हें किनारा नहीं मिला। लेकिन मेरा क्या होगा? यह तट भी छूट जाए, वह तट भी न मिले, तो कहीं बिखर तो न जाऊंगा! टूट ही तो न जाऊंगा! गति क्या होगी मेरी? इस संशय को पूरा ही छेद डालो कृष्ण! पूरा ही।

और कृष्ण से वह कहता है, तुम जैसा आदमी दूसरा मिलना मुश्किल है। संभव नहीं कि तुम जैसा आदमी मैं फिर पा सकूं, जो मेरे इस संशय को छेद डाले।

ऐसा अर्जुन ने क्यों कहा होगा?

संशय को वही छेद सकता है, जिसकी आंखों में स्वयं संशय न हो। जो असंदिग्धमना हो, जो निःसंशय हो, जो अपने ही भीतर इतने भरोसे से भरपूर हो कि उसका भरोसा ओवरफ्लो करता हो, बाहर बहता हो। जिसके रोएं-रोएं से पता चलता हो कि उस आदमी के मन में कोई संशय, कोई प्रश्न नहीं हैं।

कृष्ण जैसे आदमी प्रश्न नहीं पूछते कभी। कृष्ण जैसे आदमी कभी किसी के पास शंका निवारण के लिए नहीं जाते। अर्जुन भलीभांति जानता है कि कृष्ण कभी किसी के पास शंका निवारण को नहीं गए। भलीभांति जानता है, इनके मन में कभी प्रश्न नहीं उठा। भलीभांति जानता है कि ये बिलकुल निःसंशय में जीते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, कठिन है। सदियां बीत जाती हैं, तब कभी ऐसा आदमी उपलब्ध होता है।

जिसके मन में कोई संशय नहीं है, वही तो दूसरे के संशय को काट पाएगा। जिसके मन में स्वयं ही बहुत तरह के संशय हैं, वह दूसरे के संशय को काटने भला जाए, और जड़ों को पानी सींचकर लौट आएगा।

हम सब यही करते हैं। हम सब एक-दूसरे का संशय काटते हैं। बेटे का संशय बाप काट रहा है; और बाप खुद संदिग्ध है! उसे खुद पता नहीं कि मामला क्या है! बेटा पूछता है, यह पृथ्वी किसने बनाई? बाप कहता है, भगवान ने। और भीतर-भीतर डरता है कि बेटा अब आगे न पूछे कि भगवान किसने बनाए? और कहीं बेटा जोर से न पूछ ले कि भगवान कहां है? देखा है? क्योंकि बेटे आमतौर से नहीं पूछते, इसलिए बाप अपने झूठ कहे चले जाते हैं।

लेकिन थोड़े ही दिन में बेटा जवान होगा और जान लेगा कि बाप को भी पता नहीं है। लेकिन वह यह भी जान लेगा कि बेटों के सामने जानने का मजा लिया जा सकता है। अपने बेटों के सामने वह भी लेगा। और ऐसा चलता है। गुरु असंदिग्ध भाव से जवाब देता मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर संदेह खड़ा होता है।

कृष्ण जैसा आदमी अर्जुन को मिले, तो स्वाभाविक है उसका कहना कि हे महाबाहो, तुम जैसा आदमी फिर नहीं मिलेगा। तुम काट ही डालो। अगर तुम न काट पाए मेरे संदेह को, तो फिर मैं आशा नहीं करता कि कुछ हो सकता है। फिर मैं होपलेस हालत में हो जाऊंगा, बिलकुल आशारहित। फिर मेरी कोई आशा नहीं है। क्योंकि जैसा मैं अपने को जानता हूं, वैसा तो मैं इसी किनारे से बंधा रहूंगा। कम से कम कुछ तो मुट्ठी में है। और जो तुम कह रहे हो, वह बात जंचती है, लेकिन मेरे संशय को काट डालो।

यहां दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

एक तो बात यह खयाल में ले लेनी जरूरी है कि सांसारिक मन का यह लक्षण है कि वह किसी चीज को छोड़ सकता है किसी चीज के पाने के भरोसे। सहज नहीं छोड़ सकता। पाने का भरोसा हो, तो छोड़ सकता है किसी चीज को। त्याग करने में सांसारिक मन मुश्किल नहीं पाता, लेकिन त्याग इनवेस्टमेंट होना चाहिए। त्याग कुछ और पाने के लिए सिर्फ व्यवस्था बनाना चाहिए।

और जब त्याग किसी और को पाने के लिए होता है, तो त्याग नहीं होता, सिर्फ सौदा होता है। इसलिए सांसारिक मन त्याग को समझ ही नहीं पाता, सिर्फ बार्गेनिंग समझता है, सौदा समझता है। वह कहता है कि ठीक है; पक्का है कि मैं यहां कुछ दान करूं, तो स्वर्ग में उत्तर मिल जाएगा? पक्का है कि यहां एक मंदिर बना दूं, तो भगवान के मकान के पास ही ठहरने की जगह मिलेगी? पक्का है? तो मैं कुछ त्याग कर सकता हूं।

सांसारिक मन, पाने का पक्का हो जाए, तो छोड़ सकता है। पाने के लिए ही छोड़ सकता है। बड़ा अदभुत है यह। बड़ा कंट्राडिक्टरी है यह। यह हो नहीं सकता। अगर पाने के लिए ही छोड़ रहे हैं, तो छोड़ना नहीं हो सकता। और कठिनाई यह है कि जो छोड़ता है, वही पाता है।



यह जो कृष्ण से अर्जुन पूछ रहा है, उसका उत्तर, उसकी दुविधा असल में यही है। दुविधा त्याग की यही है कि त्याग बिना पाने की आशा के किया जाए, तो होता है। और जो बिना पाने की आशा के त्याग करता है, वह बहुत पाता है। जो पाने की आशा से त्याग करता है, वह पाने की आशा से करता है, इसलिए त्याग नहीं हो पाता। और चूंकि त्याग नहीं हो पाता, इसलिए वह कुछ भी नहीं पाता है।

जिसे पाना हो, उसे पाने की बात छोड़ देनी चाहिए। जिसे न पाना हो, उसे पाने की बात करते चले जाना चाहिए। सांसारिक मन नहीं समझ पाएगा यह, वह कहेगा कि पाने की बात छोड़ दूं! अच्छा छोड़े देते हैं। लेकिन पाना क्या सच में छोड़ने से हो जाएगा? उसका भीतरी, भीतरी जो सांसारिक मन की बनावट है, जो इनर स्ट्रक्चर है, जो मेकेनिज्म है, वह यह है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान बहुत करते हैं, शांति नहीं मिलती। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र छोड़ दो। तुम शांति चाहो ही मत। फिर तुम ध्यान करो। और शांति मिल जाएगी, बट दैट विल बी ए कांसिक्वेंस। वह परिणाम होगा सहज। तुम मत मांगो। डोंट मेक इट ए रिजल्ट, इट बिल बी ए कांसिक्वेंस। तुम फल मत बनाओ उसे, वह परिणाम होगा। वह हो ही जाएगा; उसकी तुम फिक्र न करो। वे कहते हैं, तो फिर हम शांति का खयाल छोड़ दें, फिर शांति मिल जाएगी?

वे शांति का खयाल भी छोड़ने को राजी हैं, एक ही शर्त पर, कि शांत मिल जाएगी?

अब शांति की तलाश अशांति है। इसलिए शांति का तलाशी कभी शांति नहीं पा सकता। तलाश अशांति है। और शांति की तलाश महा अशांति है।

ऐसा है। दिस इज़ दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य है, ऐसा अस्तित्व है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इस अस्तित्व की शर्तों को मानें तो ठीक, न मानें तो दुख भोगना पड़ता है। इस अस्तित्व की शर्त ही यह है। उस पार जाने की शर्त यह है कि यह किनारा छोड़ो। और यह भी शर्त है कि उस किनारे की बात मत करो।

अर्जुन कहता है, मुझे निःसंदिग्ध कर दें। हे महाबाहो, तुम्हारी बांहें बड़ी विशाल हैं। तुम दूर के तट छू लेते हो। तुम असीम को भी पा लेते हो। तुम मुझे कह दो, भरोसा दिला दो।

लेकिन सच ही क्या कृष्ण का भरोसा अर्जुन के लिए भरोसा बन सकता है? क्या कृष्ण यह कह दें कि हां, मिलेगा दूसरा किनारा, तो भी क्या संदेह करने वाला मन चुप हो जाएगा? क्या वह मन नया संदेह नहीं उठाएगा? कि अगर कृष्ण के कहने से नहीं मिला, तो? फिर कृष्ण जो कहते हैं, वह मान ही लिया जाए, जरूरी क्या है? फिर हम कृष्ण की मानकर चले भी गए और कल अगर खो गए, तो किससे शिकायत करेंगे? कहीं बादल की तरह बिखर गए, तो फिर किससे कहेंगे? और अगर गति बिगड़ गई, तो कौन होगा जिम्मेवार? कृष्ण होंगे जिम्मेवार?

अजीब है आदमी का मन। असल बात यह है कि संदेह करने वाला मन संदेह करता ही चला जाएगा। ऐसा नहीं है कि एक संदेह का निरसन हो जाए, तो निरसन हो जाएगा। एक संदेह का निरसन होते ही दूसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। दूसरे का निरसन होते ही तीसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। फिर कृष्ण क्यों संदेहों को तृप्त करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या इस आशा में कि संदेह तृप्त हो जाएंगे?

नहीं, सिर्फ इस आशा में कृष्ण अर्जुन के संदेह दूर करने की कोशिश करेंगे कि धीरे-धीरे हर संदेह के निरसन के बाद भी जब नया संदेह खड़ा होगा, तो अर्जुन जाग जाएगा, और समझ पाएगा कि संदेहों का कोई अंत नहीं है।

खयाल रखिए, संदेह के निरसन से संदेह का निरसन नहीं होता। लेकिन बार-बार संदेह के निरसन करने से आपको यह स्मृति आ सकती है कि कितने संदेह तो निरसन हो गए, मेरा संदेह तो वैसा का वैसा ही खड़ा हो जाता है! यह तो रावण का सिर है। काटते हैं, फिर लग जाता है। काटते हैं, फिर लग जाता है! काटते हैं, फिर लग जाता है! कृष्ण अथक काटते चले जाएंगे।

पूरी गीता संदेह के सिर काटने की व्यवस्था है। एक-एक संदेह काटेंगे, जानते हुए कि संदेह से संदेह होता है। संदेह किसी भी भरोसे, आश्वासन से कटता नहीं है। लेकिन अर्जुन थक जाए कट-कटकर, और हर बार खड़ा हो-होकर गिरे, और फिर खड़ा हो जाए। संदेह मिटे, और फिर बन जाए; जवाब आए, और फिर प्रश्न बन जाए। ऐसा करते-करते शायद अर्जुन को यह खयाल आ जाए कि नहीं, संदेह व्यर्थ है; और आश्वासन की तलाश भी बेकार है। किसी क्षण यह खयाल आ जाए, तो तट छूट सकता है।

मगर अर्जुन की प्यास बिलकुल मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत मानवीय है। इसलिए कृष्ण नाराज न हो जाएंगे। जानते हैं कि मनुष्य जैसा है, तट से बंधा, उसकी भी अपनी कठिनाइयां हैं।

किसी का सपना हम तोड़ दें। सुखद सपना कोई देखता हो; माना कि सपना था, पर सुखद था; तोड़ दें। तो वह आदमी पूछे कि सपना तो आपने मेरा तोड़ दिया, लेकिन अब? अब मुझे कहां! अब मैं क्या देखूं? अभी जो देख रहा था, सुखद था। आप कहते हैं, सपना था, इसलिए तुड़वा दिया। अब मैं क्या देखूं?

कुछ देखने की उसकी प्यास स्वाभाविक है। मगर उस प्यास में बुनियादी गलती है। आदमी के होने में ही बुनियादी गलती है। प्यास मानवीय है, लेकिन मानवीय होने में ही कुछ गलती है। वह गलती यह है कि सपना देखने वाला कहता है कि मैं सपना तभी तोडूंगा, जब मुझे कोई और सुंदर देखने की चीज विकल्प में मिल जाए।

और कृष्ण जैसे लोगों की चेष्टा यह है कि हम सपना भी तोड़ेंगे, विकल्प भी न देंगे, ताकि तुम उसको देख लो, जो सबको देखता है। देखने को बंद करो। दृश्य को छोड़ो। तुम एक दृश्य की जगह दूसरा दृश्य मांगते हो। अगर कृष्ण की भाषा में मैं आपसे कहूं, तो कृष्ण कहेंगे, दूसरा किनारा है ही नहीं। यह किनारा भी झूठ है; और झूठ के विकल्प में दूसरा किनारा नहीं होता। अगर यह किनारा सच होता, तो दूसरा किनारा सच हो सकता था। एक किनारा झूठ और एक सच नहीं हो सकता। दोनों ही किनारे सच होंगे, या दोनों ही झूठ होंगे।

आप समझते हैं! एक नदी का एक किनारा सच और एक झूठ हो सकता है? या तो दोनों ही झूठ होंगे, या दोनों ही सच होंगे। अगर दोनों झूठ होंगे, तो नदी भी झूठ होगी। अगर दोनों ही सच होंगे, तो नदी भी सच होगी। अब ऐसा समझ लें कि तीनों ही सच होंगे, या तीनों ही झूठ होंगे। तीसरा उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि नदी सच हो और किनारे झूठे हों। तो नदी बहेगी कैसे? और ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक किनारा सच और दूसरा झूठा हो। नहीं तो दूसरे झूठे किनारे का सहारा न मिलेगा। तीनों सच होंगे, या तीनों झूठ होंगे।

अब अर्जुन कहता है, यह किनारा तो झूठ है। कृष्ण, मैं समझ गया, तुम्हारी बातें कहती हैं। तुम पर मैं भरोसा करता हूं। और मेरी जिंदगी का अनुभव भी कहता है, यह किनारा झूठ है। दुख ही पाया है इस किनारे पर, कुछ और मिला नहीं। इस वासना में, इस मोह में, इस राग में पीड़ा ही पाई, नर्क ही निर्मित किए। मान लिया, समझ गया। लेकिन दूसरा किनारा सच है न!

कृष्ण क्या कहेंगे? अगर वे कह दें, दूसरा किनारा भी नहीं है, तो अर्जुन कहेगा, इसी को पकड़ लूं। कम से कम जो भी है, सांत्वना तो है, आशा तो है कि कल कुछ मिलेगा। तुम तो बिलकुल निराश किए देते हो।

बुद्ध जैसे व्यक्ति ने यही उत्तर दिया कि दूसरा किनारा भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है। बड़ी कठिन बात हो गई फिर। मोक्ष भी नहीं है! और संसार छोड़ने को कहते हो, और मोक्ष भी नहीं है! धन भी छोड़ने को कहते हो, और धर्म भी नहीं है! तो फिर कहते किसलिए हो?

इसलिए बुद्ध बिलकुल सही कहे, लेकिन काम नहीं पड़ा वह सत्य। दूसरा किनारा भी नहीं है, तो लोगों ने कहा, फिर हमें पकड़े रहने दो।

दूसरा किनारा नहीं है, जोर इस बात पर है कि मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई। मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई, वह पैराडाक्स हो गया। किनारा तो हम कहते हैं, जो मझधार में कभी नहीं होता। किनारा तो किनारे पर होता है।

लेकिन यह किनारा भी छोड़ दो, वह किनारा भी छोड़ दो, बीच में कौन रह जाएगा? दोनों किनारे जहां छूट गए--संसार भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है--फिर वासना की धारा को बहने का उपाय नहीं रह जाएगा। वासना की नदी फिर बह न सकेगी, और कामना की नावें फिर तैर न सकेंगी, और अहंकार के सेतु फिर निर्मित न हो सकेंगे। तब एक तरह की डूब, एक तरह का विसर्जन, एक तरह की मुक्ति, एक तरह का मोक्ष, एक तरह की स्वतंत्रता फलित होती है। और वही उपलब्धि है।

लेकिन अर्जुन कैसे समझे उसे? कृष्ण कोशिश करेंगे। वे अभी, दूसरा किनारा है, सही है, पहुंचेगा तू, आश्वासन देता हूं मैं--इस तरह की बातें करेंगे। यह किनारा तो छूटे कम से कम; फिर वह किनारा तो है ही नहीं। और जिसका यह छूट जाता है, उसका वह भी छूट जाता है।

कई बार एक झूठ छुड़ाने के लिए दूसरा झूठ निर्मित करना पड़ता है, इस आशा में कि झूठ छोड़ने का अभ्यास तो हो जाएगा कम से कम। फिर दूसरे को भी छुड़ा लेंगे।

और दो तरह के शिक्षक हैं पृथ्वी पर। एक, जो कहते हैं, जो तुम्हारे हाथ में है, वह झूठ है। और हम तुम्हारे हाथ में कुछ देने को राजी नहीं। क्योंकि कुछ भी हाथ में होगा, झूठ होगा। ऐसे शिक्षक सहयोगी नहीं हो पाते।

दूसरे शिक्षक ज्यादा करुणावान हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे हाथ में जो झूठ है, उसे छोड़ दो। हम तुम्हारे लिए सच्चा हीरा देते हैं। हालांकि कोई सच्चा हीरा नहीं है। हीरा मिलता है उस मुट्ठी को, जो खुल जाती है और कुछ भी नहीं पकड़ती, अनक्लिंगिंग। खुली मुट्ठी कुछ नहीं पकड़ती, उसको हीरा मिलता है। जो कुछ भी पकड़ती है, वह पत्थर ही पकड़ती है। पकड़ना ही--पत्थर आता है पकड़ में। हीरा तो खुले हाथ से पकड़ में आता है। 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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