बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 37

 श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है 



तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।


योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।


तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।

तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना।

अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है--सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है--भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।

हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।

योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।

त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।

पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?

लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।

रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।

योग अंतर-रूपांतरण है।

भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।

लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे--योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।

तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।

तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।

योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है?

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं!





लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना योग है।

तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको खयाल में ले लें।

जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती, इतना फर्क होता है।

दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी सुख और दुख में सम होता है।

तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है।

ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन करते हैं।

योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।

ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है--किसी भी चीज का आयोजन करके। दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।

वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।

आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?

क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने! मैं दुख झेल सकता हूं।

यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है।

क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।


आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे। वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी।

क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है?


इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है।

क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी। हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा।

कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ है शास्त्र को जानने वाले से।

क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है।


शास्त्र-ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र-ज्ञान का मतलब है, कागज में जो लिखा है, उसे जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं।

शास्त्र-ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र-ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना।

और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है।

हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं।


शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं निकलता; निकल सकता नहीं।

शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है।

गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही अनुभव से आते हैं।

और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग।

और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से--किसी आशा से की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ--उससे योग श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग में प्रवेश है।

तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है।

वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें! शास्त्र पढ़ लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद करने लगे...।

जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूं! छोड़ दूं राज्य, भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे।

अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो अपने को सताना शुरू कर देगा।

इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मण तो सदा दुख में जीए, दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं।

उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया है।

इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों की महत्ता थी।

लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा योग? यह तो भोग चल रहा है!

और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग चल रहा था।

पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा।

क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे।

ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर तो बहुत नाजुक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे।

क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी।

इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर दिया।

लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। अर्जुन, तू योगी बन!

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...