प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।। 27।।
क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है और जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानंदघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अति उत्तम आनंद प्राप्त होता है।
पाप से रहित है जो, रजोगुण जिसका शांत हो गया--इन दो बातों को इस सूत्र में समझ लेना चाहिए।
पाप से मुक्त है जो! पाप क्या है? चोरी पाप है। हिंसा पाप है। असत्य पाप है। ऐसा हम मोटा हिसाब रखते हैं। लेकिन वस्तुतः ये पाप के रूप हैं, पाप नहीं। जब मैं कहता हूं, पाप के रूप हैं, पाप नहीं, तो मेरा मतलब ऐसा है कि जब हम कहते हैं, यह हार है गले का, यह हाथ की चूड़ी है, यह पैर की पांजेब है, तो ये रूप हैं सोने के, आभूषण हैं सोने के, आकार हैं सोने के।
सोने को हम समझ लें, तो सब रूपों को हम समझ लेंगे। और अगर रूपों को हमने समझा, तो हम धोखे में पड़ेंगे। धोखे में इसलिए पड़ेंगे कि अगर नए रूप का सोना सामने आ गया, तो हम न समझ पाएंगे कि यह सोना है। क्योंकि अनंत रूप हो सकते हैं सोने के। आपने अगर समझा कि चूड़ी सोना है, और आपने गले का हार देखा, तो आप न समझ पाएंगे कि यह सोना है।
अगर आपने एक चीज को पाप समझा और दूसरी चीज का आपको पता नहीं है, पहचान नहीं है, और वह जिंदगी में आई, तो आप न समझ पाएंगे कि पाप है। आकार से बांधकर पाप को समझा कि भूल होगी। निराकार से समझना जरूरी है। स्वर्ण से समझें, आभूषण से नहीं।
पाप तो एक ही है, पाप के रूप अनेक हो जाते हैं। सोना तो एक ही है, आभूषण अनेक हो जाते हैं। मूल को ठीक से समझ लें, तो सब जगह पहचान लेंगे कि पाप क्या है। और अगर आपने आकार को पकड़ा--आकार को पकड़ने की ही वजह से दुनिया में अलग-अलग समाज अलग-अलग चीजों को पाप कहता है। आकार को पकड़ने की वजह से अलग-अलग समाज अलग-अलग चीज को पाप कहते हैं।
जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पाप नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जो चीज एक समाज में पुण्य है, वह दूसरे में पाप है। और जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पुण्य है। और ऐसा भी हो जाता है कि जो एक युग में पाप है, वह दूसरे युग में पुण्य हो जाता मालूम पड़ता है। इसलिए बड़ा ही विभ्रम पैदा हुआ है। बड़ा विभ्रम पैदा हुआ है।
आकार को अगर पकड़ेंगे, तो विभ्रम पैदा होगा। क्योंकि आकार बदलते रहते हैं। पाप की भी फैशन बदलती है, आभूषण की ही नहीं। तो अगर आप पुराने पाप की परिभाषा पकड़े बैठे रहे, तो पाप जो नए रूप लेगा--वह भी फैशन बदलता है; पुराने पाप करते-करते भी मन ऊब जाता है, नए पाप खोजता है--तो नए पाप आपकी पुरानी व्याख्या में पकड़ में नहीं आते हैं, तो आप मजे से करते चले जाते हैं। मजे से करते चले जाते हैं। थोड़ा देखें कि कैसे यह हो जाता है!
और इसलिए हर युग दिक्कत में पड़ता है। परिभाषा होती है पुरानी और पाप होते हैं नए। पुरानी परिभाषा में कहीं उनके लिए सूचना नहीं होती। जब तक परिभाषा बनती है, तब तक पाप की फैशन बदल जाती है। परिभाषा बनने में तो समय लगता है, डेफिनीशन बनने में समय लगता है, वक्त लगता है।
तो पाप के हम अगर मूल को समझ लें, तो ही हम पाप से बच सकेंगे, अन्यथा पाप से बचना कठिन है।
अब जैसे, कोई भी व्यवस्था को हम ले लें। कोई भी व्यवस्था को हम ले लें; जो कल पाप थी, आज पाप नहीं मालूम पड़ती। कल पुण्य थी, आज पाप हो गई। वक्त था एक, दान पुण्य था; दानी पुण्यात्मा था। आज जो भी दान करता है, हर एक समझता है कि बिना पाप किए दान नहीं हो सकता। पहले पाप करो, तब धन इकट्ठा करो, तभी दान कर पाओगे। तो आज जो दान करता है, वह सिर्फ पापी होने की खबर देता है; या ज्यादा से ज्यादा पाप का प्रायश्चित्त करने की खबर देता है; और कोई खबर नहीं देता।
धनी के घर पैदा होना पुण्य था। धन पुण्य से मिलता था कभी। वह पुरानी परिभाषा थी। अब धनी के घर पैदा होना जैसे भीतर एक पश्चात्ताप लाता है कि कहीं कोई पाप, कहीं कोई अपराध, कहीं कोई गिल्ट हो रही है।
पुराने विचारक कहते थे, धन पुण्य से मिलता है। नया विचारक कहता है, सब धन चोरी है। तो चोरों के घर में पुण्य से कोई पैदा नहीं हो सकता, पाप से ही पैदा हो सकता है। स्वभावतः, चोरों के घर--अगर सब धन चोरी है--तो चोरों के घर कोई पुण्य से कैसे पैदा होगा! पाप से ही पैदा हो सकता है। अगर नये विचारक की बात सच है, तो गरीब के घर पैदा होना बड़ा पुण्य कर्म है।
युग बदलते हैं, परिभाषाएं बदल जाती हैं, लेकिन पाप नहीं बदलता। परिभाषाएं बदलती हैं। आभूषण बदलते हैं। सोना नया आभूषण बन जाता है। आकार बदल जाते हैं। बदलने से भूल होती है।
इसलिए कृष्ण ने उसमें दूसरी बात तत्काल जोड़ी है, वह मूल की है। पहले कहा कि पाप से जो मुक्त है और फिर पीछे कहा, रजोगुण के जो बाहर है। क्योंकि रजोगुण ही पाप का आधार है।
अगर आपके भीतर रजोगुण है, तो वह नए-नए पाप खोज लेगा; पुराने छोड़ेगा, नए खोज लेगा। लेकिन अगर भीतर रजोगुण खो गया, तो पाप को खोजने का उपाय खो गया। आपके भीतर पाप निर्मित हो सके, उसकी ऊर्जा खो गई। इसलिए बहुत गहरे में रजोगुण की क्षमता ही पाप है।
रजोगुण का मतलब है--रजोगुण का मतलब क्या है? तीन गुण इस देश के मनसविद ने खोजे हैं। गहरे हैं वे गुण। मन के तीन गुण इस देश की बड़ी गहरी खोज है। इस देश ने जो गहरे से गहरे अनुदान जगत को दिए हैं, उसमें त्रिगुण प्रकृति की खोज बड़ी गहरी है। बड़ी गहरी है। वे तीन गुण हैं--सत्व, रज, तम। चित्त भी इन तीन गुणों से काम करता है।
तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है। तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है, स्टैग्नेंसी पैदा करती है, चीजों को रोकती है। स्टैटिक फोर्स है। और अगर कोई स्टैटिक फोर्स न हो आपके भीतर, तो आप कहीं रुक न पाएंगे; कहीं भी न रुक पाएंगे। कहीं भी न रुक पाएंगे, परमात्मा में भी न रुक पाएंगे, अगर स्टैटिक फोर्स आपके भीतर न हो।
तम सिर्फ रोकने वाली शक्ति है। जैसे जमीन से आप एक पत्थर फेंकें ऊपर की तरफ, थोड़ी देर में जमीन पर गिर जाएगा, क्योंकि जमीन में एक कशिश है, जो रोकती है। नहीं तो फेंका गया पत्थर फिर कभी नहीं रुकेगा; अनंत काल तक चलता ही रहेगा, चलता ही रहेगा। फिर कहीं गिर नहीं सकता। कोई अवरोध शक्ति चाहिए। नहीं तो आप चल पड़े घर से, तो फिर घर दुबारा वापस न आ सकेंगे। हां, घर में कोई तमस भी बैठा है, जो वापस खींच लाएगा। पत्नी है, बच्चे हैं, वह स्टैग्नेंसी फोर्स है।
जो लोग सभ्यता का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, घर पुरुष ने नहीं बनाया, स्त्री ने बनाया। इसीलिए उसको घरवाली कहते हैं। आपको कोई घरवाला नहीं कहता। घर उसी का है। अगर स्त्री न हो, तो पुरुष जन्मजात खानाबदोश है। भटकता रहेगा; ठहर नहीं सकता। वह स्त्री की खूंटी बन जाती है, फिर उसके आस-पास वह रस्सी बांधकर घूमने लगता है कोल्हू के बैल की तरह।
पुरुष को अगर हम ठीक से समझें, तो वह रज है, गति है। स्त्री को ठीक से समझें, तो वह तम है, अगति है। इसलिए इस जगत में जितनी चीजों को ठहरना है, उन्हें स्त्री का सहारा लेना पड़ता है। और जिन चीजों को चलना है, उन्हें पुरुष का सहारा लेना पड़ता है।
बड़े मजे की बात है कि सब चीजों को चलाने वाले पुरुष होते हैं और ठहराने वाली स्त्रियां होती हैं। दुनिया में इतने धर्म पैदा हुए, एक भी स्त्री ने पैदा नहीं किया; सब पुरुषों ने पैदा किए। लेकिन दुनिया में जितने धर्म टिके हैं, स्त्रियों की वजह से; पुरुषों की वजह से कोई भी नहीं।
सब धर्म पुरुष पैदा करते हैं--चाहे जैन धर्म हो, चाहे हिंदू, चाहे बौद्ध, चाहे इस्लाम, चाहे ईसाई, चाहे जोरोस्ट्रियन, चाहे कोई भी--दुनिया के सब धर्म पुरुष पैदा करता है। मगर उसकी सुरक्षा स्त्री करती है। मंदिर में जाकर देखें। पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। हां, कोई पुरुष अपनी स्त्री के पीछे चला गया हो, बात अलग है! कोई दिखाई नहीं पड़ता। स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं।
एक बार किसी चीज को गति मिल जाए, तो उसको ठहराने के लिए जगह स्त्री में है, पुरुष के पास नहीं है। वह तो गति देकर दूसरी चीज को गति देने में लग जाएगा। वह रुकेगा नहीं।
रोकने की शक्ति, मन के पास भी ऐसी ही शक्ति है एक, जो रोकती है; और एक शक्ति है, जो दौड़ाती है। तमस अवरोध शक्ति है, रज गति शक्ति है।
ध्यान रहे, जैसा मैंने पहले सूत्र में समझाया, मन गति है। अगर आपमें रज की शक्ति बहुत ज्यादा है, तो मन को आप रोक न पाएंगे। मन गति करता ही रहेगा।
मैंने आपको कहा कि एक्सेलरेटर दबाना पड़े, तो गाड़ी चलती है। लेकिन गाड़ी में पेट्रोल होना चाहिए। बिना पेट्रोल के एक्सेलरेटर मत दबाते रहें, नहीं तो गाड़ी नहीं चलेगी। नहीं तो आप कहेंगे कि गलत बात कही। हम तो एक्सेलरेटर दबा रहे हैं, वह चलती नहीं! पेट्रोल भी चाहिए, वह ऊर्जा भी चाहिए, जो गति ले सके। उस ऊर्जा का नाम रज है। रज कहें, मूवमेंट है। तम ठहराव है, रेस्ट है। दोनों, आदमी को चलाने और ठहराने का कारण हैं।
सत्व स्थिति है। वह न गति है, न ठहराव है; स्वभाव है। अगर आपके भीतर रज बहुत है, तो आप सत्व में ठहर न सकेंगे। आप ठहर न सकेंगे सत्व में, रज दौड़ाता ही रहेगा। रज कम होना चाहिए। लेकिन अगर रज बिलकुल शून्य हो जाए, तो आप सत्व में ठहर तो जाएंगे, लेकिन बेहोश हो जाएंगे; होश में नहीं रहेंगे।
सुषुप्ति में ऐसा ही होता है। रज बिलकुल शून्य हो जाता है, बिलकुल नहीं रह जाता, गति बिलकुल नहीं रह जाती, और ठहराव की शक्ति पूरा आपको पकड़ लेती है। लेकिन तब आपमें इतनी भी गति नहीं रह जाती कि आप जान सकें कि मैं कहां हूं। क्योंकि यह जानना भी एक मूवमेंट है। नोइंग इज़ ए मूवमेंट, ज्ञान एक गति है। इसलिए सुषुप्ति में कुछ भी नहीं रह जाता, आप जड़वत हो जाते हैं।
समाधि का अर्थ है, रज और तम उस स्थिति में आ जाएं कि एक-दूसरे को संतुलित कर दें, एक-दूसरे को निगेट कर दें, काट दें। रज और तम ऐसे संतुलन में आ जाएं कि एक-दूसरे को काट दें। ऋण और धन बराबर शक्ति के हो जाएं, तो शून्य हो जाएंगे। उस शून्य में सत्व का उदभावन होता है। उस शून्य में सत्व का फूल खिलता है। उस शून्य में आप सत्व में ठहर भी जाते हैं और जान भी लेते हैं। इतना रज रहता है कि जान सकते हैं; इतना तम रहता है कि ठहर सकते हैं। खड़े हो सकते हैं, जान सकते हैं। और सत्व में स्थिति हो जाती है; स्वभाव हो जाता है।
सब पाप रज की अधिकता से होते हैं। सब पाप रज की अधिकता से होते हैं। रजाधिक्य पाप करवा देता है। और कभी-कभी अकारण पाप भी करवा देता है।
सार्त्र की एक कथा है, जिसमें एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चलता है। क्योंकि उसने समुद्र के तट पर, किसी व्यक्ति को, जो धूप ले रहा था सुबह की, उसकी पीठ पर जाकर छुरा भोंक दिया। मुकदमा इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि उस आदमी ने, छुरा भोंकने वाले ने, जिसकी पीठ में छुरा भोंका, उसका चेहरा कभी नहीं देखा था। झगड़े का तो कोई सवाल नहीं; दुश्मनी का कोई सवाल नहीं। पहचान ही नहीं थी। दुश्मनी के लिए कम से कम पहचान तो अनिवार्य शर्त है। दुश्मनी के लिए पहले तो मित्रता बनानी ही पड़ती है। बिना मित्रता बनाए, तो दुश्मनी नहीं बन सकती।
कोई मित्रता ही नहीं थी, कोई पहचान नहीं थी। कोई एक्वेनटेंस भी नहीं था, परिचय भी नहीं था। वह यह भी नहीं जानता था, इस आदमी का नाम क्या है। सिर्फ पीठ देखी थी! पीठ तो फेसलेस होती है। उसका तो कोई चेहरा नहीं होता। उसने छुरा भोंक दिया!
अदालत उससे पूछती है कि तूने छुरा क्यों भोंका इस आदमी की पीठ में? क्योंकि न तू इसे पहचानता है, न तू इसे जानता है। न तो तेरी कोई दुश्मनी है, न कोई तेरा संबंध है!
वह आदमी कहता है कि मैं सिर्फ कुछ करने को बेचैन था। कुछ करने को बेचैन! और कुछ दिन से ऐसा बेचैन था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था, क्या करूं! और कुछ ऐसा करना चाहता था, जिसको कहा जा सके ईवेंट, घटना! मन बड़ा बेचैन था। मैं प्रफुल्ल हूं, प्रसन्न हूं। अखबार में फोटो भी छप गई है; चर्चा भी हो रही है। आई हैव डन समथिंग, कुछ मैंने किया। और जब आदमी कुछ करता है, ही बिकम्स समबडी, वह कुछ हो जाता है। मैं प्रसन्न हूं, आप कारण वगैरह मत पूछें मुझसे।
वह मजिस्ट्रेट कहता है कि कैसा मामला है! कुछ तो कारण होना चाहिए?
वह आदमी कहता है, मुझे बताइए कि मेरे जन्म का कारण क्या है? और जब मैं मर जाऊंगा, तो कोई कारण होगा? कुछ कारण नहीं है। मेरे जवान होने का कारण क्या है? और मैं एक स्त्री के प्रेम में गिर गया था, तो अदालत बता सकती है कि कारण क्या है? कोई कारण जब किसी चीज के लिए नहीं है, तो इस नाहक छोटी-सी घटना को इतना तूल क्यों दे रहे हैं कि मैंने इसकी पीठ में छुरा भोंक दिया!
मजिस्ट्रेट निर्णय करने में बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ है कि क्या निर्णय करे, क्या सजा दे!
यह शुद्ध पाप है! शुद्ध पाप की सजा किसी कानून में नहीं लिखी है। आभूषणों की सजा लिखी हुई है! यह बिलकुल शुद्ध पाप है, जो सिर्फ शक्ति की गति की वजह से हो गया है।
लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है कि फांसी तो मुझे तुझे देनी ही होगी। वह आदमी कहता है, आप फांसी दे दें। कारण न बताएं। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। हम राजी हैं। मैं बिलकुल राजी हूं। आप फांसी दे दें। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है, जजमेंट मुझे लिखना पड़े, तो कारण तो चाहिए ही। वह कैदी कहता है, तो सारी जिरह आप इसीलिए कर रहे हैं, ताकि फांसी लगाने का कारण मिल जाए! और मैं कहता हूं, मैंने अकारण छुरा भोंका है। छुरा भोंकने के आनंद के लिए छुरा भोंका है। और जब उसकी पीठ में छुरा भुंका और खून का फव्वारा फैला, तो मैंने जिंदगी में पहली दफा, जिसको कहें, थ्रिल, पुलक अनुभव की। मैं प्रसन्न हूं।
आप सोचें, क्या सारे पाप ऐसी ही पुलक से पैदा नहीं होते? नहीं, आप सब कारण खोज लेते हैं। और कारण खोजकर आप रेशनलाइज कर लेते हैं। आप कहते हैं, मैंने इसलिए किया। लेकिन अगर गहरे में जाएंगे, तो पाप करने के लिए ही किया जाता है; कोई और कारण नहीं होता। आपके भीतर ऊर्जा होती है, रज होता है, जो कुछ करना चाहता है। कुछ धक्के देना चाहता है। कुछ करना चाहता है। उस करने से ही सारे पाप रूप लेते हैं।
कृष्ण कहते हैं, वह जो रजोगुण है, उस रजोगुण के पार जाना जरूरी है।
लेकिन पार जाने का अर्थ? रजोगुण और तमोगुण इस संतुलन में आ जाएं कि शून्य हो जाएं। अगर आप रजोगुण को बिलकुल काट डालें, जो कि संभव नहीं है। क्योंकि काटेगा कौन? काटने का काम रजोगुण ही करता है, गति। काटेगा कौन? अगर एक आदमी कहता है कि मैं करूंगा साधना और रजोगुण को काट दूंगा, तो साधना रजोगुण करता है, एफर्ट रजोगुण से आता है। काटेगा कौन? काटने वाला बच जाएगा पीछे। काटने में मत पड़ें, सिर्फ संतुलन काफी है। रज और तम बराबर अनुपात में आ जाएं जीवन में, तो आपकी प्रतिष्ठा सत्व में हो जाती है।
और वैसे सत्व को उपलब्ध हुआ व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, अति उच्च, अति श्रेष्ठ आनंद को उपलब्ध होता है। अति उत्तम आनंद को उपलब्ध होता है, वैसे सत्व में खिल गया व्यक्ति। सत्व में खिल जाना फूल की भांति। उस खिलने का राज तम और रज का संतुलित हो जाना है।
यह ट्राएंगल है जीवन की शक्तियों का, एक त्रिभुज। दो भुजाएं, दो कोणों को नीचे बनाती हैं। वे जो नीचे के दो कोण हैं, वे रज और तम हैं। अगर वे बिलकुल संतुलित हो जाएं, साठ-साठ डिग्री के हो जाएं, तो सत्व का संतुलित कोण ऊपर प्रकट हो जाता है।
वह जो तीसरा कोण प्रकट होता है सत्व का, वही कोण फ्लावरिंग है, वही फूल का खिलना है। यह जो सत्व के फूल का खिलना है, यह अति उच्च श्रेष्ठतम आनंद का शिखर छू लेता है। वह शिखर है।
इस शिखर को छूने के लिए क्या करें? गति को और अगति को संतुलन में लाएं। कैसे लाएंगे? क्या रास्ता है, क्या विधि है, क्या मार्ग है कि इनमें से एक चीज विक्षिप्त होकर ओवरफ्लो न करने लगे, बाहर न दौड़ने लगे?
एक ही रास्ता है। और वह रास्ता, जैसा मैंने पहले सूत्र में कहा, यदि आपका मन आपके काबू में आ जाए और आप जब चाहें तब मन को ठहरा सकें, और जब चाहें तब मन को चला सकें, तो चलना और ठहरना संतुलित हो जाएगा। क्योंकि आपके हाथ में हो जाएगा। जब तक आपके हाथ में नहीं है, तब तक संतुलन असंभव है। तब तक हम सभी असंतुलित रहते हैं। कोई एक चीज पर ठहर जाता है।
एक आदमी को हम कहते हैं, एकदम तामसी है, आलसी है, प्रमादी है। उठता ही नहीं, पड़ा ही रहता है; बिस्तर पर ही पड़ा हुआ है। वह एक तम भारी पड़ गया है उसके ऊपर; रज बिलकुल नहीं है। उठने का भी मन होता है, तो एक करवट ही ले पाता है, ज्यादा से ज्यादा। करवट लेकर फिर सो जाता है।
एक दूसरा आदमी है कि दौड़ता ही रहता है। रात सोने भी बिस्तर पर जाता है, तो सिवाय करवटें लेने के सो नहीं पाता। एक तामसी है, जो करवट लेकर फिर सो जाता है। और एक रजोगुण से भरा हुआ आदमी है, जिसका मन इतना दौड़ता है कि रात सोना भी चाहता है, तो सिर्फ करवट ही ले पाता है और कुछ नहीं कर पाता। करवटें बदलता रहता है! रात भी मन ठहरता नहीं, दौड़ता ही रहता है।
सारा मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा ही असंतुलित है। और इन दो के बीच असंतुलन है। और अगर यह संतुलन ठीक न हो पाए, तो जीवन की सारी जटिलताएं पैदा होती हैं--सारी जटिलताएं!
सारी जटिलताएं असंतुलन, इम्बैलेंस का फल हैं। सारे पाप इम्बैलेंस का फल हैं। और पाप दो तरह के हैं। एक ऐसा पाप, जो रजोगुण से पैदा होता है, पाजिटिव। रजोगुण से वह पाप पैदा होता है, जैसा इस आदमी ने पीठ में छुरा भोंक दिया। एक ऐसा पाप भी है, जो तमोगुण से पैदा होता है। उसको उदाहरण के लिए समझ लें कि आप भी इस पीठ में छुरा जब भोंका जा रहा था, तब आप भी बैठे हुए थे। लेकिन आप बैठे ही रहे। आपने उठकर यह भी न कहा कि क्या कर रहे हो? यह क्या हो रहा है? बल्कि आपने और आंख बंद कर ली और ध्यान करने लगे।
आप भी पाप में भागीदार हो रहे हैं, लेकिन निगेटिवली। यह तमोगुण का पाप है। आप भी जिम्मेवार हैं। यह घटना आपके भी नकारात्मक सहयोग से फलित हो रही है।
दुनिया में दो तरह के पापी हैं, पाजिटिव और निगेटिव, विधायक और नकारात्मक। विधायक वे, जो कुछ करते हैं; और नकारात्मक वे, जो खड़े होकर देखते रहते हैं।
यह निगेटिव पाप है। यह तमस के आधिक्य से पैदा हुआ पाप है। यह करता कुछ नहीं, लेकिन बहुत-सा करना इसके ही सहयोग से फलित होते हैं। यह करता कुछ नहीं; यह देखता रहता है। हम पाजिटिव पापी को तो पकड़ लेते हैं, जेल में डाल देते हैं। लेकिन निगेटिव पापी के लिए अभी तक कोई जेल नहीं है। लेकिन निगेटिव पापी भी छोटा-मोटा पापी नहीं है।
इसलिए मैंने कहा कि पाप के आभूषणों को मत पकड़ें। पाप की जड़ को पहचानने की कोशिश करें।
अगर आपका चित्त तमस की तरफ ज्यादा झुका, तो आप नकारात्मक पापों में लग जाएंगे। अगर आपका चित्त रज की तरफ ज्यादा झुका, तो आप विधायक पापों में लग जाएंगे। और पाप के बाहर होने का उपाय है कि रज और तम दोनों संतुलित हो जाएं, तो आपकी फ्लावरिंग सत्व में हो जाएगी। और सत्व ही पुण्य है।
लेकिन जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे पुण्य नहीं हैं। अगर हम ठीक से समझें, तो जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे भी दो तरह के ही होते हैं, जैसे दो तरह के पाप होते हैं। कुछ लोग इसलिए पुण्यात्मा मालूम पड़ते हैं कि तमस इतना ज्यादा है कि पाप नहीं कर पाते, नकारात्मक हैं।
एक आदमी कहता है कि मैंने कभी चोरी नहीं की। इसका यह मतलब नहीं कि वह चोर नहीं है। अचोर होना बहुत मुश्किल बात है। इतना ही हो सकता है कि इतना तामसी है कि चोरी करने भी नहीं जा सका। इतना तामसी है कि चोरी करने में भी कुछ तो करना पड़ेगा।
जनरल मौंटगोमरी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि दुनिया में चार तरह के लोग हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं, लेकिन निष्क्रिय हैं। उनके ज्ञान से जगत को कोई लाभ नहीं होता; उनको भी होता हो, संदिग्ध है। एक वे, जो अज्ञानी हैं, लेकिन बड़े सक्रिय हैं। वे सारे जगत को हजारों तरह के नुकसान पहुंचाते हैं। जगत को तो पहुंचाते ही हैं, खुद को भी पहुंचाते हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। लेकिन ऐसे लोग विलक्षण हैं; मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। एक वे, जो अज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। ये भी विलक्षण हैं; ये भी मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। ये दोनों छोर वाले लोग बहुत मुश्किल से पैदा होते हैं।
श्रेष्ठतम तो वह है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। नंबर दो पर वह है, जो अज्ञानी है और निष्क्रिय है; कम से कम किसी उपद्रव में विधायक रूप से नहीं जाएगा। नंबर तीन पर वे हैं, जो ज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। और नंबर चार पर वे हैं, जो अज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। और ये नंबर चार के लोग निन्यानबे प्रतिशत हैं पृथ्वी पर।
यह विभाजन भी अगर ठीक से देख लें, तो तम और रज का ही विभाजन है। वह जो सत्व वाला व्यक्ति है, वह वही है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। लेकिन ज्ञान और सक्रिय, क्रिएटिव नालेज, सर्जनात्मक ज्ञान तभी फलित होता है, जब तम और रज दोनों संतुलित हो जाते हैं, जैसे तराजू के पलड़े।
और ऐसी स्थिति में, कृष्ण कहते हैं, परम आनंद को उपलब्ध होता है योगी।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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