बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6भाग 26

 सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण



सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। 31।।


इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में बर्तता है।


कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन को सब भूतों में प्रभु को भजने के संबंध में कुछ कह रहे हैं। भजन का एक अर्थ तो हम जानते हैं, एकांत में बैठकर प्रभु के चरणों में समर्पित गीत; एकांत में बैठकर प्रभु के नाम का स्मरण; या मंदिर में प्रतिमा के समक्ष भावपूर्ण निवेदन। लेकिन कृष्ण एक और ही रूप का, और ज्यादा गहरे रूप का, और ज्यादा व्यापक आयाम का सूचन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति समस्त भूतों में मुझ सच्चिदानंद को भजता है! क्या होगा इसका अर्थ?


इसका अर्थ होगा, जब भी कुछ आपको दिखाई पड़े, तब स्मरण करें कि वह परमात्मा है। राह पर पड़ा हुआ पत्थर हो, कि आकाश से गुजरता हुआ बादल हो, कि सुबह उगता हुआ सूरज हो, कि आपके बच्चे की आंखें हों, कि आपका मित्र हो, कि आपका शत्रु हो, जो भी आपको मिले, उसके मिलन के साथ ही जो पहला स्मरण आपके प्राणों में प्रवेश करे, वह यह हो, यह भी प्रभु है। तब सच्चिदानंद रूप को हम समस्त भूतों में भज रहे हैं, ऐसा कहा जा सकेगा।

रास्ते पर वृक्ष मिल जाए, कि गाय मिल जाए, कि नदी बहती हो--जो भी--जो भी आकार मिले कहीं जीवन में, उन समस्त आकारों में उस निराकार का स्मरण। इसके पहले कि हमें पता चले कि पत्थर है, पता चल जाए कि परमात्मा है। तो भजन हुआ, कृष्ण के अर्थों में।

इसके पहले कि मैं आपको देखूं और समझूं कि आप आदमी हैं, उसके पहले मुझे पता चल जाए कि आप परमात्मा हैं। आदमी का होना पीछे प्रकट हो। निराकार की स्मृति पहले आ जाए, आकार पीछे निर्मित हो। मैं पीछे पहचानूं कि आप कौन हैं; पहले तो यही पहचानूं कि परमात्मा है। तो समस्त भूतों में प्रभु को भजा गया, ऐसा कहा जा सके।

एकांत में भजन बहुत आसान है, क्योंकि आप अकेले हैं। प्रतिमा के सामने भी भजन बहुत आसान है, क्योंकि बहुत ठीक से समझें, तो फिर भी आप अकेले हैं। लेकिन जीवन के सतत प्रवाह में, जहां न मालूम कितने रूपों में लोग मिलेंगे; जहां कोई छुरा लिए हुए छाती पर खड़ा हो सकता है, वहां भी पहले स्मरण आ जाए कि प्रभु छुरा लिए हुए खड़ा है, तो फिर प्रभु का भजन हुआ।

जीवन में जहां घना संघर्ष है, जहां तनाव है, अशांति है, जहां शत्रुता भी फलित होती है, वहां पहला स्मरण यही आए कि प्रभु है। पीछे पहचानें रूप को, पहले अरूप की पहचान हो जाए। ऐसे अरूप को प्रतिपल देखने की जो साधना है, उसका नाम कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, प्रभु को भजना।

जीवंत साधना तो ऐसी ही होगी। जीवंत साधना कोनों में बंद होकर नहीं होती, जीवन के विराट घनेपन में होती है। जीवंत साधना द्वार बंद करके नहीं होती, जीवंत साधना तो मुक्त आकाश के नीचे होती है। द्वार तो हम इसीलिए बंद करते हैं कि बाहर जो है, वह परमात्मा नहीं है; वह कहीं भीतर न आ जाए! मंदिर में तो हम इसीलिए जाते हैं कि मकान में परमात्मा को देखना कठिन पड़ेगा। लेकिन वह साधना संकुचित है, बहुत सीमित है; उसके भी प्रयोजन और अर्थ हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में जिस विराट साधना की खबर दे रहे हैं, वह बहुत और है।

लेकिन हमें जब भी कोई दिखाई पड़ता है, तो हमें प्रभु का स्मरण नहीं आता, हमें संसार का ही स्मरण आता है। और संसार में भी जो बहुत क्षुद्र है, अंधकारपूर्ण है, अशुभ है, उसका ही स्मरण आता है।

प्रभु का इस अर्थ में भजन गहरी बात है,  कठिन, तपश्चर्यापूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि जहां भी रूप प्रकट हो, वहां तत्काल स्मरण करना कि प्रभु है। और अगर ऐसा स्मरण बैठता चला जाए, तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि सच में सभी जगह प्रभु है। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि प्रभु के अतिरिक्त और कोई दिखाई पड़ना असंभव हो गया है।

कृष्ण बहुत-सी विधियों की बात कर रहे हैं। यह भी एक विधि है। यह भी एक विधि है।

 जब तक दूसरा दिखाई पड़ता है, तब तक उसमें परमात्मा को खोजने की कोशिश जारी रखनी ही पड़ेगी। एक घड़ी ऐसी आती है जरूर, जब दूसरा ही दिखाई नहीं पड़ता। तब फिर भजन की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जब परमात्मा ही दिखाई पड़ने लगता है, तब फिर परमात्मा को भजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन जब तक वह नहीं दिखाई पड़ता, तब तक उसका आविष्कार करना है, पर्तें तोड़नी हैं, उघाड़ना है।

और आदमी के ऊपर रूप की पर्त-पर्त जमी हैं, जैसे प्याज पर जमी होती हैं--पर्त, और पर्त, और पर्त। एक पर्त उघाड़ो, दूसरी पर्त आ जाती है। दूसरी उघाड़ो, तीसरी आ जाती है। लेकिन अगर हम प्याज को उघाड़ते ही चले जाएं, तो एक घड़ी ऐसी आती है, जब शून्य रह जाता है, कोई पर्त नहीं रहती। प्याज बचती ही नहीं, शून्य रह जाता है। ठीक ऐसे ही एक-एक पर्त आदमी की उघाड़ेंगे, उघाड़ेंगे, और जब आदमी के भीतर सिर्फ शून्य रह जाएगा, तब भागवत चैतन्य का, तब भगवान का अनुभव होगा।

लेकिन लंबी यात्रा है। जैसे कि कोई कुआं खोदता है। कुआं खोदता है, तो पानी एकदम से हाथ नहीं लग जाता। पहले तो कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं। लेकिन वह पानी का ध्यान रखकर कुआं खोदता चला जाता है। मिट्टी हाथ लगती है, पत्थरों की चट्टानें हाथ लगती हैं। अभी पानी बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन पानी का स्मरण रखकर खोदता चला जाता है। भरोसा ही है कि पानी होगा।

और भरोसा सच है। क्योंकि कितनी ही गहरी जमीन क्यों न हो, पानी होगा ही। दूरी कितनी ही हो सकती है, पानी होगा ही। भरोसा झूठा भी नहीं है। हां, आपकी ताकत कम पड़ जाए और जमीन ज्यादा हो, तो बात अलग है। वह भी आपकी ताकत की कमी है। और थोड़ा खोदते, और थोड़ा खोदते, तो एक जगह आ जाती, जहां पानी है ही। लेकिन पहले पानी हाथ नहीं लगता। पहले तो कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं। अब कंकड़-पत्थर से कोई भरोसा नहीं मिलता है कि आगे पानी होगा। कंकड़-पत्थर से क्या संबंध है पानी का?

लेकिन आदमी खोदता है। फिर थोड़ी-सी जमीन तर मिलती है; थोड़ी-सी पानी की झलक दिखाई पड़नी शुरू होती है। लगता है कि अब जमीन गीली होने लगी। आशा बढ़ जाती है, सामर्थ्य बढ़ जाती है, हिम्मत बढ़ जाती है, और हुंकार करके आदमी खोदने में लग जाता है। फिर धीरे-धीरे गंदा पानी झलकने लगता है। आशा और घनी होने लगती है। और एक दिन आदमी उस जल-स्रोत पर पहुंच जाता है, जो शुद्ध है।

ठीक ऐसे ही रूप में अरूप को खोदना पड़ता है। और जब हम खोदने चलते हैं, तब रूप ही हाथ में मिलता है; अरूप तो सिर्फ स्मरण रखना पड़ता है। जब रास्ते पर कोई आदमी मिलता है, तो सिर्फ स्मरण ही हम रख सकते हैं कि प्रभु होगा गहरे में भीतर; अभी कुछ पता तो नहीं। जब छुएंगे, तो आदमी की हड्डी-पसली हाथ में आएगी। जब मिलेंगे, तो दोस्ती-दुश्मनी हाथ में आएगी; घृणा, क्रोध, प्रेम हाथ में आएगा। ये सब कंकड़-पत्थर हैं। इन पर रुक नहीं जाना है, और इनको अंतिम नहीं मान लेना है। जो इनको अंतिम मान लेता है, वह प्रभु की खोज में रुक जाता है।

आप मुझे मिले और आपने मुझे एक गाली दे दी। बस, मैंने समझ लिया कि अंतिम बात हो गई। यह आदमी बुरा है। यह अल्टिमेट हो गया मेरे लिए। यह गाली मेरे लिए चरम हो गई। मैंने पहली पर्त को, कंकड़-पत्थर को कुएं की आखिरी स्थिति मान ली।

जिससे गाली मिली है, उसके भीतर भी परमात्मा है। थोड़ा खोदना पड़ेगा। हो सकता है, थोड़ा ज्यादा खोदना पड़े। जिससे प्रेम मिला है, उसके भीतर थोड़े जल्दी परमात्मा मिल जाए। जिससे घृणा मिली है, दो पर्त और ज्यादा आगे मिले। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर्त कितनी ही हो, भीतर परमात्मा सदा मौजूद है।

परमात्मा यानी अस्तित्व, वह जो है। इसलिए वह सब जगह मौजूद है। हम कहीं भी खोजेंगे, वह मिल जाएगा। कहीं भी खोजेंगे, वह मिल जाएगा। और अगर हमने खोज न की, तो वह कहीं भी न मिलेगा।

यह बड़े मजे की बात है कि परमात्मा, जो सदा और सर्वदा मौजूद है, हमारी बिना खोज के नहीं मिलेगा। प्रत्येक चीज के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत कुछ भी नहीं मिलता, न मिलना चाहिए। क्योंकि बिना कीमत कुछ मिल जाए, तो खतरा यही है कि आप पहचान भी न पाएं कि आपको क्या मिला है।

परमात्मा भी हमसे बड़ी संभावनाओं और अपेक्षाओं में है--बड़ी संभावनाओं में। इसलिए जल्दी प्रकट नहीं हो जाता। तपश्चर्या है, मूल्य चुकाना पड़ता है। और हम पर उसकी आस्था इतनी है, जितनी हममें से किसी की भी उस पर आस्था नहीं है। इसलिए तो हजार दफे भूल करते हैं, फिर भी माफ हुए चले जाते हैं। हजार जन्म लेते हैं, व्यर्थ गंवा देते हैं, फिर जन्म मिल जाता है। लेकिन खोजे बिना नहीं मिलेगा। और खोज जब भी शुरू होती है, तो जिसे हम खोजने जाते हैं, उससे उलटी चीजें पहले हाथ आती हैं।

अगर मैं आपके पास परमात्मा खोजने गया, तो पहले आप मिलेंगे, जो कि परमात्मा नहीं हैं। पहले आपका शरीर मिलेगा, जो कि निराकार नहीं है। फिर आपका मन मिलेगा, जो कि हजार गंदगियों से भरा है। और अगर मैं इनको पार करने की सामर्थ्य नहीं रखता हूं, तो मैं आपके बाहर से ही लौट आऊंगा और आपके उस मंदिर के अंतर्कक्ष से वंचित ही रह जाऊंगा, जहां प्रभु विराजमान है। मैं कांटों से ही लौट आया, फूलों तक पहुंच ही न पाया, यद्यपि सभी फूलों की सुरक्षा के लिए कांटे होते हैं।

प्रभु को भजना समस्त भूतों में, इसका अर्थ है, चाहे कितना ही विपरीत कुछ क्यों न हो, चाहे बिलकुल शैतान क्यों न खड़ा हो; जहां शैतान खड़ा हो, समझना कि साधना का और भी शुभ अवसर उपलब्ध हुआ है; वहां भी प्रभु को भजना, वहां स्मरण करना कि प्रभु है।


कृष्ण के इस सूत्र में व्याख्या है। ईश्वर को भजने का यह अवसर छोड़ना उचित न था। जो आदमी फांसी पर लटकवाने ले जा रहा है, उस आदमी में भी परमात्मा को देखने की आखिरी कोशिश जीसस ने की।

प्रभु को इस अर्थ में जो भजना शुरू कर दे, उसे फिर किसी और भजन की कोई भी जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में देखना शुरू कर दे, उसे फिर किसी मंदिर और तीर्थ की जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में सोचना, समझना और जीना शुरू कर दे, उसके लिए पूरी पृथ्वी मंदिर हो गई, उसके लिए सब रूप प्रतिमाएं हो गए प्रभु के, उसके लिए सब आकार निराकार का निवास हो गए।

कृष्ण से अर्जुन को मिला यह सूत्र बहुत कीमती है कि जो सब भूतों में मुझ वासुदेव को, मुझ परमात्मा को, परमात्मा को, प्रभु को देखना शुरू कर देता है, भजना शुरू कर देता है, वह योगी परम सिद्धि को उपलब्ध होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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