बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।। 6।।
उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, और जिसके द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसका वह आप ही शत्रु के सदृश, शत्रुता में बर्तता है।
इंद्रियों और शरीर को जिसने जीता है, वह अपना मित्र हो पाता है। और जिसे अपनी इंद्रियों और अपने शरीर पर कोई भी वश, कोई भी काबू नहीं, वह अपना शत्रु सिद्ध होता है।
मित्रता और शत्रुता को दूसरे आयाम से समझें। इस सूत्र में दूसरे आयाम से, दूसरी दिशा से मित्रता और शत्रुता के सूत्र को समझाने की कोशिश है।
शरीर और इंद्रियां जिसके परतंत्र नहीं हैं;
जिसकी इंद्रियां कुछ कहती हैं, जिसका शरीर कुछ कहता है; जिसका मन कुछ कहता है; और स्वयं की जिसकी कोई आवाज नहीं है। कभी इंद्रियों की मान लेता है, कभी शरीर की मान लेता है, कभी मन की मान लेता है, लेकिन खुद की अपनी कोई भी समझ नहीं है। वह ठीक स्वभावतः वैसी ही स्थिति में हो जाएगा, जैसे कोई रथ चलता हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। सब घोड़े अपनी-अपनी दिशाओं में जाते हों, जिसे जहां जाना हो! घोड़ों को बांधने का, निकट लेने का, एक-सूत्र रखने का, एक दिशा पर चलाने की कोई व्यवस्था न हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। घोड़े अपनी-अपनी जगह जाते हों। कोई बाएं चलता हो, कोई दाएं चलता हो। कोई चलता ही न हो। कोई दौड़ता हो, कोई बैठा हो। तो जैसी स्थिति उस रथ की हो जाए, और जैसी स्थिति उस रथ में बैठे हुए मालिक की हो जाए, वैसी स्थिति हमारी हो जाती है।
कभी आपने खयाल न किया होगा कि आपकी इंद्रियां एक-दूसरे के विपरीत मांग करती हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। आपका शरीर और मन विपरीत मांग करते हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। शरीर कहता है, रुक जाओ, अब खाना मत डालो, क्योंकि पेट में तकलीफ शुरू हो गई। और मन कहता है, स्वाद बहुत अच्छा आ रहा है; थोड़ा डाले चले जाओ। आप दोनों की माने चले जाते हैं। आप देखते नहीं कि आप क्या कर रहे हैं! एक कदम बाएं चलते हैं, साथ ही एक कदम दाएं भी चल लेते हैं। एक कदम आगे जाते हैं, एक कदम पीछे भी आ जाते हैं!
एक ही साथ विपरीत काम किए चले जाते हैं, क्योंकि विपरीत इंद्रियों और विपरीत वासनाओं की साथ ही स्वीकृति दे देते हैं। एक हाथ बढ़ाते हैं किसी से दोस्ती का, दूसरे हाथ में छुरा दिखा देते हैं--एक साथ! किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं, और भीतर से उसको गाली दिए चले जाते हैं कि इस दुष्ट की शकल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! और हाथ जोड़कर उससे ऊपर कह रहे हैं कि बड़े शुभ दर्शन हुए। आज का दिन बड़ा शुभ है। और भीतर कहते हैं कि मरे; आज पता नहीं धंधे में नुकसान लगेगा, कि पत्नी से कलह होगी, कि क्या होगा! यह सुबह-सुबह कहां से यह शकल दिखाई पड़ गई है! और इसके साथ हाथ भी जोड़ रहे हैं, नमस्कार भी कर रहे हैं; मन में यह भी चलता जाता है।
मन खंड-खंड है। एक-एक इंद्रिय अपने-अपने खंड को पकड़े हुए है। सभी इंद्रियों के खंड भीतर अखंड होकर एक नहीं हैं। कोई भीतर मालिक नहीं है।
हम उस मकान की तरह हैं, जिसका मालिक बाहर गया है। और जिसमें बहुत बड़ा महल है और बहुत नौकर-चाकर हैं। और जब भी रास्ते से कोई गुजरता है और बड़े महल को देखता है, सीढ़ियों पर कोई मिल जाता है घर का नौकर, तो उससे पूछता है, किसका है मकान? तो वह कहता है, मेरा। मकान का मालिक बाहर गया है। कभी वह राहगीर वहां से गुजरता है, दूसरा नौकर सीढ़ियों पर मिल जाता है, वह पूछता है, किसका है यह मकान? वह कहता है, मेरा।
हर नौकर मालिक है। मालिक घर में मौजूद नहीं है। बड़ी कलह होती है उस मकान में। मकान जीर्ण-जर्जर हुआ जाता है। क्योंकि मालिक कोई भी नहीं है, इसलिए मकान को कोई सुधारने की फिक्र नहीं करता है, न कोई रंग-रोगन करता है, न कोई साफ करता है। सब नौकर हैं; सब एक-दूसरे से चाहते हैं कि तुम नौकर का व्यवहार करो, मैं मालिक का व्यवहार करूं! लेकिन सब जानते हैं कि तुम भी नौकर हो, तुम कोई मालिक नहीं हो; तुम मुझ पर हुक्म नहीं चला सकते। वह घर गिरता जाता है, उसकी दीवालें गिरती जाती हैं, उसकी ईंटें गिरती जाती हैं। कोई जोड़ने वाला नहीं। कोई कचरा साफ करता नहीं। सब कचरा इकट्ठा करते हैं। सब मालिक होने के दावेदार हैं।
भीतर करीब-करीब हमारी आत्मा ऐसी ही सोई रहती है, जैसे मौजूद ही न हो। आपने कभी अपनी आत्मा की आवाज भी सुनी है?
आपने कभी आत्मा की आवाज सुनी है? इंद्रियों की आवाजें ही हम सुनते हैं। कभी एक इंद्रिय कहती है, यह चाहिए; कभी दूसरी इंद्रिय कहती है, यह चाहिए। कभी तीसरी इंद्रिय कहती है, यह नहीं मिला, तो जीवन व्यर्थ है। कभी चौथी इंद्रिय कहती है, लगा दो सब दांव पर; यही है सब कुछ। लेकिन कभी उसकी भी आवाज सुनी है, जो भीतर छिपा जीवन है? उसकी कोई आवाज नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसी दशा अपनी ही शत्रुता की दशा है।
जो नहीं करना चाहतीं इंद्रियां, वह भी करा लेती हैं। कई बार आपको अनुभव हुआ होगा। कई बार आप लोगों से कहते हैं कि मेरे बावजूद, यह मैंने कर दिया! मैं नहीं करना चाहता था, फिर कर दिया। जब आप नहीं करना चाहते थे, तो कैसे कर दिया? आप कहते हैं, मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी कि चांटा मार दूं आपको; लेकिन क्या करूं! सोचा भी नहीं था, मारने का इरादा भी नहीं था, भाव भी नहीं था ऐसा। लेकिन मारा है, यह तो पक्का है। फिर यह किसने मारा? अब यह जो पीछे कह रहा है कि नहीं कोई इच्छा थी, नहीं कोई भाव था, नहीं कोई खयाल था, बात क्या है?
नहीं, भीतर कोई मालिक तो है नहीं। एक नौकर दरवाजे पर था, तो उसने एक चांटा मार दिया। अब दूसरा नौकर क्षमा मांग रहा है। यह भी मालिक नहीं है। इसलिए आप यह मत सोचना कि अब यह आदमी कल चांटा नहीं मारेगा। कल फिर मार सकता है।
यह जो हमारी इंद्रियों की स्थिति है, खंड-खंड, डिसइंटिग्रेटेड। और एक-एक इंद्रिय इस तरह करवाए चली जाती है जिसका कोई हिसाब नहीं है। और कभी-कभी ऐसे काम करवा लेती है कि जिनका दांव भारी है। बहुत भारी दांव लगवा देती है। इतना बड़ा दांव लगवा देती है कि इतनी-सी, छोटी-सी चीज के लिए इतना बड़ा दांव आप लगाते न। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि दो पैसे की चीज के लिए लोग एक-दूसरे की जान ले लेते हैं। दो पैसे की भी नहीं होती कई बार तो चीज। कई बार कुछ होता ही नहीं बीच में, सिर्फ एक शब्द होता है कोरा और जान चली जाती है। पीछे अगर कोई बैठकर सोचे...।
बड़ी से बड़ी लड़ाइयों के पीछे भी कारण तो सब छोटे ही छोटे होते हैं। बड़े छोटे-छोटे कारण होते हैं। चाहे वह राम और रावण की लड़ाई हो, तो कारण बड़ा छोटा-सा होता है; बड़ा छोटा-सा कारण! चाहे वह महाभारत का इतना बड़ा युद्ध हो, जिसमें इस गीता को फलित होने का मौका आया, कारण बड़ा छोटा-सा था। इस बड़े महाभारत के युद्ध में पता है आपको, कारण कितना छोटा था! बहुत छोटा-सा कारण, द्रौपदी की छोटी-सी हंसी इस पूरे युद्ध का कारण।
कौरव निमंत्रित हुए हैं पांडवों के घर। और पांडवों ने एक घर बनाया है आलीशान। और इस तरह की कलात्मक उसमें व्यवस्था की है कि घर कई जगह धोखा दे देता है। जहां पानी नहीं है, वहां मालूम पड़ता है पानी है, इस तरह के दर्पण लगाए हैं। जहां दरवाजा नहीं है, वहां मालूम पड़ता है दरवाजा है, इस तरह के दर्पण लगाए हैं। जहां दरवाजा है, वहां मालूम पड़ती है दीवाल है, इस तरह के कांच लगाए हैं।
एक मजाक थी। किसी ने सोचा भी न होगा कि इतना बड़ा युद्ध इसके पीछे फैलेगा! कौन सोचता है? बहुत छोटी-सी मजाक थी, जो कि देवर-भाभी में हो सकती है, इसमें कोई ऐसी झगड़े की बात नहीं थी बड़ी। और जब दुर्योधन टकराने लगा और दीवाल से निकलने की कोशिश करने लगा, जहां दरवाजा न था; और दरवाजे से निकलने लगा, और सिर टकरा गया दीवाल से। तो द्रौपदी खिलखिलाकर हंसी। निश्चित ही...। और उसने मजाक में पीछे से किसी से कहा कि अंधे के ही तो बेटे ठहरे! अंधे के बेटे हैं, कुछ भूल तो हो नहीं गई।
जब दुर्योधन को यह पता चला कि कहा गया है, अंधे के बेटे हैं! बस बीज बो गया। छोटी-सी मजाक, अंधे के बेटे, ऐसा छोटा-सा शब्द! इतना बड़ा युद्ध! सब निर्मित हुआ, फैला! फिर इसके बदले लिए जाने जरूरी हो गए। फिर द्रौपदी को नग्न करने का प्रयास किया जाना इस हंसी का, मजाक का उत्तर था।
बड़े से बड़े युद्ध के पीछे भी बड़े छोटे-छोटे कारण रहे हैं। लेकिन एक बार इंद्रियां पकड़ लें, तो फिर वे आपको अंत तक ले जाती हैं। उनका अपना लाजिकल कनक्लूजन है। वे फिर आपको छोड़ती नहीं बीच में कि आप कहें कि अब बस छोड़ो; अब तो मजाक बहुत हो गई; बात बहुत आगे बढ़ गई। फिर रुक नहीं सकते, फिर वे धक्का देती हैं। कहती हैं, जब यहां तक बात खींची, तो अब डटे रहो। फिर आपको आगे बढ़ाए चली जाती हैं।
इंद्रियां इस तरह आदमी को खींचती हैं जैसे कि जानवरों के गले में रस्सी बांधकर कोई उनको खींचता हो। इसलिए तंत्र के शास्त्र तो हमें पशु कहते हैं। पशु का मतलब, पाश में बंधे हुए। पशु का मतलब होता है, जिसके गले में रस्सी बंधी है। तंत्र के ग्रंथ कहते हैं, दो तरह के लोग हैं, पशु और पशुपति। पशु वे, जिनकी इंद्रियां उनको गले में बांधकर खींचती रहती हैं; और पशुपति वे, जो इंद्रियों के मालिक हो गए, पति हो गए।
कृष्ण भी वही कह रहे हैं! एक बड़े गहरे तांत्रिक सूत्र की व्याख्या है, इस शब्द में। कहते हैं, जो अपनी इंद्रियों और अपने शरीर का मालिक है, वही अपना मित्र है। वही भरोसा कर सकता है अपनी मित्रता का। लेकिन जिसे अपनी इंद्रियों पर कोई काबू नहीं है, और जिसकी इंद्रियां जिसे कहीं भी दौड़ा सकती हैं, और जिसका शरीर जिसे किन्हीं भी अंधे रास्तों पर ले जा सकता है, वह अपनी मित्रता का भरोसा न करे। अच्छा है कि वह जाने कि मैं अपना शत्रु हूं।
रथ में बंधे हुए घोड़े मित्र हो सकते हैं, अगर लगाम हो और सारथी होशियार हो। नहीं तो रथ में घोड़े न बंधे हों, तो ही रथ की कुशलता है। घोड़े ही न हों, तो भी रथ सुरक्षित है। लेकिन घोड़े बंधे हों और लगाम न हो और सारथी कुशल न हो या सोया हो, तो रथ के दुश्मन हैं घोड़े, मित्र नहीं। घोड़ों का कोई कसूर नहीं है लेकिन, ध्यान रखना, नहीं तो आप सोचें कि घोड़ों की गलती है।
अभी मैं पढ़ रहा था कहीं कि एक आदमी पर अमेरिका में मुकदमे चले बहुत-से। और आखिरी मुकदमा चल रहा था। और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा कि मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारे सब अपराधों का एक ही कारण है; शराब, शराब, शराब! उस आदमी ने कहा कि कोई फिक्र नहीं है। आप मुझे लंबी सजा दे रहे हैं, लेकिन मैं धन्यवाद देता हूं आपको। आप अकेले आदमी हैं जिसने मुझे जिम्मेवार नहीं ठहराया। नहीं तो हर कोई कहता है, तुम्हीं जिम्मेवार हो। जो देखो वही कहता है, तुम्हीं जिम्मेवार हो। आप एक समझदार आदमी जिंदगी में मिले, जो कहता है, शराब जिम्मेवार है मेरे सब अपराधों के लिए, मैं जिम्मेवार नहीं हूं।
बड़े मजे की बात है। आप भी किसी दिन पकड़े जाएंगे, तो यह मत सोचना कि कह देंगे कि इंद्रियों ने करवा दिया, मैं क्या करूं! उस दिन आपकी हालत इसी आदमी जैसी हो जाएगी। इंद्रियां आपसे कुछ नहीं करवा सकतीं। करवा सकती हैं, क्योंकि आपने कभी मालकियत घोषित नहीं की। आपने कभी घोषणा नहीं की कि मैं मालिक हूं।
और ध्यान रहे, मालकियत की घोषणा करनी पड़ती है। और ध्यान रहे, मालकियत मुफ्त में नहीं मिलती, मालकियत के लिए श्रम करना पड़ता है। और ध्यान रहे, बिना श्रम के जो मालकियत मिल जाए, वह इंपोटेंट होती है, उसमें कोई बल नहीं होता। जो श्रम से मिलती है, उसकी शान ही और होती है।
ध्यान रहे, रथ में सबसे शानदार घोड़ा वही है, जिस पर लगाम न हो, तो जो रथ को खतरे में डाल दे। सबसे शानदार घोड़ा वही है। जिस पर लगाम ही न हो, तो आप कोई टट्टू या खच्चर बांधें, और खतरे में भी न डाले, आपका रथ भी चला जा रहा है! जो घोड़ा लगाम के न होने पर गङ्ढे में गिरा दे, वही शानदार घोड़ा है; लगाम होने पर वही चलाएगा भी। ध्यान रखना, वही चलाएगा। यह खच्चर नहीं चलाएगा, जो कि खतरे में भी नहीं डालता। लगाम नहीं है, तो विश्राम करता है। वह लगाम होने पर भी बहुत मुश्किल है कि आप उसको थोड़ा-बहुत सरका लें।
जो इंद्रियां आपको गङ्ढों में डालती हैं, वे आपकी सबल शक्तियां हैं। लेकिन मालकियत आपकी होनी चाहिए, तो शुभ हो जाएगा फलित। अगर मालकियत नहीं है, तो अशुभ हो जाएगा फलित।
सबसे ज्यादा कौन-सी इंद्रियां हमें गङ्ढे में डाल देती हैं?
जननेंद्रिय, सेक्स सबसे ज्यादा गङ्ढे में डालती है। सबसे शक्तिशाली है इसलिए। और सबसे ज्यादा पोटेंशियल है, ऊर्जावान है। और ध्यान रहे, जिस व्यक्ति ने अपनी काम-ऊर्जा पर मालकियत पा ली, उसके पास इतना अदभुत, उसके पास इतना बलशाली घोड़ा होता है कि वही घोड़ा उसे स्वर्ग के द्वार तक पहुंचा देता है। काम की ऊर्जा ही, जब आप गुलाम होते हैं उसके, तो वेश्यालयों में पटक देती है आपको--डबरों में, गङ्ढों में, कीड़े-मकोड़ों में। और जब काम की ऊर्जा पर आपका वश होता है, तो वही काम-ऊर्जा ब्रह्मचर्य बन जाती है और ईश्वर के द्वार तक ले जाने में सहयोगी हो जाती है।
सभी इंद्रियां--उदाहरण के लिए काम मैंने कहा, वह सबसे सबल है इसलिए--सभी इंद्रियां, अगर उनकी मालकियत हो, तो मित्र बन जाती हैं; और मालकियत न हो, तो शत्रु बन जाती हैं।
मालकियत की आप कभी घोषणा ही नहीं करते। और अगर कभी करते भी हैं, तो उसी तरह की करते हैं, जैसा मैंने सुना है कि एक आदमी था दब्बू, जैसे कि अधिक आदमी होते हैं। सड़क पर तो बहुत अकड़ में रहता था, लेकिन घर में पत्नी से बहुत डरता था, जैसा कि सभी डरते हैं! कभी-कभी कोई अपवाद होता है, उसको छोड़ा जा सकता है। उसके कुछ कारण हैं। दिनभर लड़ा हुआ, थका-मांदा आदमी घर में और लड़ाई नहीं करना चाहता; किसी तरह निपटारा कर लेना चाहता है। पत्नी दिनभर लड़ाइ करी नहीं, तैयार रहती है, पूरी शक्तियां हाथ में रहती हैं। वह आदमी थका-मांदा लौट रहा है, अब लड़ने की हिम्मत भी नहीं। युद्ध के स्थल से वापस आ रहे हैं, कुरुक्षेत्र से! अब वे और दूसरा कुरुक्षेत्र खड़ा करना नहीं चाहते।
पत्नी पहले दिन से ही आकर कब्जा कर ली थी उस आदमी पर; बड़ी मुश्किल में डाल दिया था। और पत्नी इसकी चर्चा भी करती थी। और एक दिन तो और स्त्रियों ने कहा कि हम मान नहीं सकते। हां, यह तो हम सब जानते हैं कि पति डरते हैं। लेकिन इतना हम नहीं मान सकते, जितना तू बताती है कि डरते हैं। तो उसने कहा कि आज तुम दोपहर को घर आ जाओ। आज छुट्टी का दिन है और पति घर पर होंगे। आज तुम आ जाओ। आज मैं तुम्हें दिखा दूं।
पंद्रह-बीस स्त्रियां मुहल्ले की इकट्ठी हो गईं। जब सब स्त्रियां इकट्ठी हो गईं, तो उस स्त्री ने अपने पति से कहा कि उठ और बिस्तर के नीचे सरक! वह बेचारा जल्दी से उठा और बिस्तर के नीचे सरक गया। फिर उसने और रौब दिखाने के लिए कहा कि अब दूसरी तरफ से बाहर निकल! उस आदमी ने कहा कि अब मैं बाहर नहीं निकल सकता। मैं दिखाना चाहता हूं, इस घर में असली मालिक कौन है! उसने कहा कि अब मैं बाहर नहीं निकल सकता। अब मैं दिखाना चाहता हूं, इस घर का असली मालिक कौन है!
बिस्तर के नीचे तो घुस गया, क्योंकि बाहर रहता तो मार-पीट, झंझट-झगड़ा हो सकता था। उसने कहा कि अब अच्छा मौका है। अब बिस्तर के नीचे से ही उसने कहा कि अब तू समझ ले। अब मैं बाहर नहीं निकलता; आज्ञा नहीं मानता। अब मैं बताना चाहता हूं कि हू इज़ दि रियल ओनर।
हम भी कभी अगर इंद्रियों पर कोई मालकियत करते हैं, तो वह ऐसे ही, बिस्तर के नीचे घुसकर! और कोई मालकियत हमने कभी इंद्रियों पर नहीं की है। कभी बहुत कमजोर हालत में, ऐसा मौका पाकर कभी हम घोषणा करते हैं। मगर ठीक सामने इंद्रिय के, उसकी शक्तिशाली इंद्रिय के सामने हम कभी घोषणा नहीं करते। जैसे कि आदमी बूढ़ा हो गया, तो वह कहता है, मैंने अब तो काम-इंद्रिय पर विजय पा ली। वह पागलपन की बातें कर रहा है। ये बिस्तर के नीचे घुसकर बातें हो रही हैं। तो जब जवान है व्यक्ति और जब इंद्रिय सबल है, तभी मौका है घोषणा का।
अब आपका पेट खराब हो गया है, लीवर के मरीज हो गए हैं, खाया नहीं जाता। आपने कहा, अब तो हमने भोजन पर बिलकुल विजय पा ली। दांत न रहे, दांत गिर गए, अब चबाते नहीं बनता। अब आप कहने लगे कि हम तो लिक्विड आहार लेते हैं; कुछ रस न रहा! ये बिस्तर के नीचे घुसकर आप घोषणाएं कर रहे हैं।
इससे नहीं होगा। इससे अपने को आप फिर धोखा दे रहे हैं। इंद्रियों का एनकाउंटर करना पड़ेगा, जब वे सबल हैं। और तब उनको जीता, तो उसका रहस्य और राज है, उसकी शक्ति है। और जब इंद्रियां निर्बल हो गईं और कोई शक्ति न रही, हारने का भी उपाय न रहा जब, तब जीतने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों का जो मालिक है!
और इंद्रियों का मालिक कब होता है कोई? इंद्रियों की मालकियत के दो सूत्र आपसे कहूं, तो यह सूत्र आपको पूरा स्पष्ट हो सके।
पहली बात, इंद्रियों का मालिक वही हो सकता है, जो इंद्रियों से अपने को पृथक जाने। अन्यथा मालिक होगा कैसे? हम उसके ही मालिक हो सकते हैं, जिससे हम भिन्न हैं। जिससे हम भिन्न नहीं हैं, उसके हम मालिक कैसे होंगे? पर हम अपने को इंद्रियों से अलग मानते ही नहीं। हम तो अपनी इंद्रियों से इतना तादात्म्य किए हैं कि लगता है, हम इंद्रियां ही हैं, और कुछ भी नहीं।
तो जिसे भी इंद्रियों की मालकियत की तरफ जाना हो, उसे अपनी इंद्रियों और अपने बीच में थोड़ा फासला, गैप खड़ा करना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि मैं आंख नहीं हूं; आंख के पीछे कोई हूं। आंख से देखता हूं जरूर, लेकिन आंख नहीं देखती, देखता है कोई और। आंख बिलकुल नहीं देख सकती। आंख में देखने की कोई क्षमता नहीं है। आंख तो सिर्फ झरोखा है। आंख तो सिर्फ पैसेज है, मार्ग है, जहां से देखने की सुविधा बनती है। जैसे आप खिड़की पर खड़े हों और धीरे-धीरे यह कहने लगें कि खिड़की आकाश देख रही है, वैसा ही पागलपन है। आंख सिर्फ खिड़की है आपके शरीर की, जहां से आप बाहर की दुनिया में झांकते हैं। मन जो भीतर है, चेतना जो और भीतर है, वही असली देखने वाला है; आंख भी नहीं देखती।
अगर अटेंशन हट गई हो इंद्रिय से, ध्यान हट गया हो, तो इंद्रिय बिलकुल बेकार हो जाती है। जिस इंद्रिय से ध्यान जुड़ा होता है, वही इंद्रिय सार्थक, सफल होती है, सक्रिय होती है, सशक्त होती है।
ध्यान किसका है? ध्यान मालिक का है। इंद्रिय तो सिर्फ गुलाम है, उपकरण है।
लेकिन इसे थोड़ा देखना पड़े। जब आप किसी को देखें, फिलहाल जैसे मुझे देख रहे हैं, तो थोड़ा खयाल करें, आंख देख रही है या आप देख रहे हैं? तब आंख सिर्फ बीच का द्वार रह जाएगी। उस पार आप हैं; और जिसको आप देख रहे हैं, वह भी मैं नहीं हूं; वे भी मेरे द्वार हैं, जिनको आप देख रहे हैं; इस पार मैं हूं। जब दो आदमी मिलते हैं, तो दो तरफ दो आत्माएं होती हैं और दोनों के बीच में उपकरणों के दो जाल होते हैं। जब मैं हाथ फैलाकर आपके हाथ को अपने हाथ में लेता हूं, तो हाथ के द्वारा मैं अपनी आत्मा से आपको स्पर्श करने की कोशिश कर रहा हूं। हाथ तो सिर्फ उपकरण है।
उपकरणों को हम अपनी आत्मा समझ लें, तो फिर यह मालकियत जो कृष्ण चाहते हैं, कभी भी पूरी नहीं होने वाली है।
उपकरणों को समझें उपकरण, अपने को देखें पृथक। चलते समय रास्ते पर खयाल रखें कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल रहे हैं। आप कभी चले ही नहीं; आप चल ही नहीं सकते। आप शरीर के भीतर ऐसे ही बैठे हैं, जैसे चलती हुई कार के भीतर कोई आदमी बैठा हो। कार चल रही है और आदमी बैठा हुआ है। यद्यपि आदमी की भी यात्रा हो जाएगी, लेकिन चलेगा नहीं। ऐसे ही आप अपने शरीर के भीतर बैठे ही रहे हैं, कभी चले नहीं। यात्रा आपकी बहुत हो जाती है, लेकिन चलता शरीर है, आप सदा बैठे हैं।
वह जो भीतर बैठा है, उसे जरा खयाल करें चलते वक्त; वह तो नहीं चल रहा है, वह कभी नहीं चलता। भोजन करते वक्त खयाल करें कि भोजन शरीर में ही जा रहा है, उसमें नहीं जा रहा है, जो आप हैं। इसे स्मरण रखें।
यह स्मरण, रिमेंबरेंस जितनी घनी हो जाएगी, उतना ही आप पाएंगे, आप अलग हैं। जिस दिन आप पाएंगे, आप अलग हैं, उसी दिन आपकी मालकियत की घोषणा संभव हो पाएगी। और कठिन नहीं है फिर यह घोषणा कर देना कि मैं मालिक हूं। लेकिन एक दफे पृथकता को अनुभव करना कठिन है; मालकियत की घोषणा आसान है।
और जो व्यक्ति इंद्रिय और शरीर का मालिक हो जाता है, वह अपना मित्र हो जाता है। मित्र इसलिए हो जाता है कि उसकी इंद्रियां वही करती हैं, जो उसके हित में है।
अन्यथा इंद्रियों के हाथ में चलाना बड़ा खतरनाक है। शरीर हमें चला रहा है, जिसके पास कोई भी होश नहीं, समझ नहीं, चेतना नहीं। इंद्रियां हमें दौड़ा रही हैं, लेकिन हमें खयाल में नहीं है कि दौड़ किस तरह की है।
रूस के एक मनोवैज्ञानिक पावलव ने मनुष्य की ग्रंथियों पर बहुत से काम किए हैं। उसमें एक काम आपको खयाल में ले लेने जैसा है। उसका यह कहना है कि अगर आदमी की कोई ग्रंथि, विशेष ग्रंथि काट दी जाए, कोई ग्लैंड अलग कर दी जाए, तो उसमें से कुछ चीजें तत्काल नदारद हो जाती हैं।
जैसे आप में क्रोध है। आप सोचते हैं, मैं क्रोध करता हूं, तो आप गलती में हैं। आपकी इंद्रियों में क्रोध की ग्रंथियां हैं और जहर इकट्ठा है। वह आपने जन्मों-जन्मों के संस्कारों से इकट्ठा किया है। वही आपसे क्रोध करवा लेता है--वह जहर।
पावलव ने सैकड़ों प्रयोग किए कि वह जहर की गांठ काटकर फेंक दी, अलग कर दी। फिर उस आदमी को आप कितनी ही गालियां दें, वह क्रोध नहीं कर सकता; क्योंकि क्रोध करने वाला उपकरण न रहा। ऐसे ही, जैसे मेरा हाथ आप काट दें। और फिर मुझसे कोई कितना ही कहे कि हाथ बढ़ाओ और मुझसे हाथ मिलाओ, मैं हाथ न मिला सकूं। कितना ही चाहूं, तो भी न मिला सकूं। क्योंकि हाथ तो नहीं है, चाह रह जाएगी नपुंसक पीछे। हाथ तो मिलेगा नहीं, उपकरण नहीं मिलेगा।
इंद्रियों के पास अपने-अपने संग्रह हैं हार्मोंस के, और प्रत्येक इंद्रिय आपसे कुछ काम करवाती रहती है और आप उसके धक्के में काम करते रहते हैं। जब आपकी कामेंद्रिय पर जाकर वीर्य इकट्ठा हो जाता है, केमिकल्स इकट्ठे हो जाते हैं, वे आपको धक्का देने लगते हैं कि अब कामातुर हो जाओ। चौदह साल के पहले कोई कामवासना उठती हुई मालूम नहीं पड़ती। चौदह साल हुए, ग्लैंड परिपक्व हो जाती है, सक्रिय हो जाती है। सक्रिय हुई ग्लैंड कि उसने आपको धक्के देने शुरू किए कि कामवासना में उतरो, भागो, दौड़ो। जाओ, नंगी तस्वीरें देखो, फिल्म देखो, कहानी पढ़ो; कुछ करो। कुछ न मिले, तो रास्ते पर किसी को धक्का दे दो, गाली दे दो, कुछ न कुछ करो।
अब यह आप कर रहे हैं, इस भ्रांति में मत पड़ना, क्योंकि आप तो चौदह साल पहले भी थे। लेकिन एक ग्लैंड सक्रिय नहीं थी; एक इंद्रिय सोई हुई थी। अब वह जग गई है। वह इंद्रिय ही आपसे करा रही है। अगर इतना होश पैदा कर सकें कि यह इंद्रिय मुझसे करा रही है; और मैं पृथक हूं; जिस दिन आपको पृथकता का अनुभव हो जाए, उसी दिन आप अपनी मालकियत की घोषणा कर सकते हैं।
और मजा ऐसा है कि आपने घोषणा की कि मैं मालिक हूं, कि सारी इंद्रियां सिर झुकाकर पैर पर पड़ जाती हैं। आपकी घोषणा की सामर्थ्य चाहिए बस।
मैंने आपसे कहानी कही है कि उस महल का मालिक घर के बाहर है, या सोया है, या बेहोश है, या मौजूद नहीं है। नौकर सब मालिक हो गए हैं। उस कहानी को हम थोड़ा और आगे बढ़ा ले सकते हैं कि मालिक वापस लौट आया। उसका रथ द्वार पर आकर रुका। जो नौकर दरवाजे पर था, उसने चिल्लाकर यह नहीं कहा कि मैं मालिक हूं। कैसे कहता! वह जल्दी से उठा और उसके पैर छुए। उसने कहा कि बहुत देर लगाई। हम बड़ी प्रतीक्षा कर रहे थे! वह मालिक घर के भीतर आया। सारे नौकरों में खबर पहुंच गई। वे सब प्रसन्न हैं; नाराज भी नहीं हैं; मालिक वापस लौट आया। अब घर में कोई घोषणा नहीं करता कि मैं मालिक हूं। मालिक की मौजूदगी ही घोषणा बन गई।
ठीक ऐसी ही घटना इंद्रियों के जगत में घटती है। एक दफे आप जान लें कि मैं पृथक हूं, और एक बार खड़े होकर कह दें कि मैं पृथक हूं, आप अचानक पाएंगे कि जो इंद्रियां कल तक आपको खींचती थीं, वे आपके पीछे छाया की तरह खड़ी हो गई हैं। वह आपकी आज्ञा मानना उन्होंने शुरू कर दिया है।
आप आज्ञा ही न दें, तो इंद्रियों का कसूर क्या है? आप मौजूद ही न हों, तो आज्ञा कौन दे? और इंद्रियों को गाली मत देना, जैसा कि अधिक लोग देते रहते हैं। कई लोग यही गालियां देते रहते हैं कि इंद्रियां बड़ी दुश्मन हैं।
इंद्रियां दुश्मन नहीं हैं। इंद्रियां दुश्मन हैं, अगर आप मालिक नहीं हैं। ध्यान रखना, यह फर्क है। इंद्रियां मित्र हो जाती हैं, अगर आप मालिक हैं। इसलिए भूलकर इंद्रियों को गाली मत देना। कई बैठे-बैठे यही गालियां देते रहते हैं कि इंद्रियां बड़ी शत्रु हैं, बड़े गङ्ढों में गिरा देती हैं! कोई इंद्रिय गङ्ढे में नहीं गिराती। आप गङ्ढे में गिरते हैं, तो इंद्रियां बेचारी साथ देती हैं। आप स्वर्ग की तरफ जाने लगें, इंद्रियां वहां भी साथ देती हैं; वे उपकरण हैं।
मगर आपने कभी मालकियत की घोषणा न की। आप अपने नौकरों के पीछे चल रहे हैं। कसूर किसका है? और नौकरों के पीछे चलकर फिर गालियां दे रहे हैं कि नौकर हमको भटका रहे हैं, वे हमको गलत जगह ले जा रहे हैं!
कम से कम कहीं तो ले जा रहे हैं! चला तो रहे हैं किसी तरह। आप तो मौजूद ही नहीं हैं। आप तो मरे की भांति हैं; जिंदा ही नहीं हैं। आप हैं या नहीं, इसका भी पता नहीं चलता।
कृष्ण इसलिए बहुत ठीक डिस्टिंक्शन करते हैं। वे इंद्रियों को नहीं कहते कि इंद्रियां शत्रु हैं। और जो आदमी आपसे कहे, इंद्रियां शत्रु हैं, समझना कि उसे कुछ भी पता नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मालिक न होना शत्रुता बन जाती है अपनी। मालिक हो गए कि मित्र हो गए।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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