बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 14

 योगाभ्यास--गलत को काटने के लिए 


नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 16।।


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। 17।।


परंतु हे अर्जुन, यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यंत जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

यह दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।


समत्व-योग की और एक दिशा का विवेचन कृष्ण करते हैं। कहते हैं वे, अति--चाहे निद्रा में, चाहे भोजन में, चाहे जागरण में--समता लाने में बाधा है। किसी भी बात की अति, व्यक्तित्व को असंतुलित कर जाती है, अनबैलेंस्ड कर जाती है।


प्रत्येक वस्तु का एक अनुपात है; उस अनुपात से कम या ज्यादा हो, तो व्यक्ति को नुकसान पहुंचने शुरू हो जाते हैं। दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक, आधारभूत। व्यक्ति एक बहुत जटिल व्यवस्था है, बहुत कांप्लेक्स युनिटी है। व्यक्ति का व्यक्तित्व कितना जटिल है, इसका हमें खयाल भी नहीं होता। इसीलिए प्रकृति खयाल भी नहीं देती, क्योंकि उतनी जटिलता को जानकर जीना कठिन हो जाएगा।

एक छोटा-सा व्यक्ति उतना ही जटिल है, जितना यह पूरा ब्रह्मांड। उसकी जटिलता में कोई कमी नहीं है। और एक लिहाज से ब्रह्मांड से भी ज्यादा जटिल हो जाता है, क्योंकि विस्तार बहुत कम है व्यक्ति का और जटिलता ब्रह्मांड जैसी है। एक साधारण से शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं, जितनी बड़ी कोई बस्ती पृथ्वी पर नहीं है। 

सात करोड़ जीवकोशों की एक बड़ी बस्ती हैं आप। इसीलिए सांख्य ने, योग ने आपको जो नाम दिया है, वह दिया है, पुरुष। पुरुष का अर्थ है, एक बहुत बड़ी पुरी के बीच रहते हैं आप, एक बहुत बड़े नगर के बीच। आप खुद एक बड़े नगर हैं, एक बड़ा पुर। उसके बीच आप जो हैं, उसको पुरुष कहा है। इसीलिए कहा है पुरुष कि आप छोटी-मोटी घटना नहीं हैं; एक महानगरी आपके भीतर जी रही है।

एक छोटे-से मस्तिष्क में कोई तीन अरब स्नायु तंतु हैं। एक छोटा-सा जीवकोश भी कोई सरल घटना नहीं है; अति जटिल घटना है। ये जो सात करोड़ जीवकोश शरीर में हैं, उनमें एक जीवकोश भी अति कठिन घटना है। अभी तक वैज्ञानिक--अभी तक--उसे समझने में समर्थ नहीं थे। अब जाकर उसकी मौलिक रचना को समझने में समर्थ हो पाए हैं। अब जाकर पता चला है कि उस छोटे से जीवकोश, जिसके सात करोड़ संबंधियों से आप निर्मित होते हैं, उसकी रासायनिक प्रक्रिया क्या है।

यह सारा का सारा जो इतना बड़ा व्यवस्था का जाल है आपका, इस व्यवस्था में एक संगीत, एक लयबद्धता, एकतानता, एक हार्मनी अगर न हो, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। अगर यह पूरा का पूरा आपका जो पुर है, आपकी जो महानगरी है शरीर की, मन की, अगर यह अव्यवस्थित,  अराजक है, अगर यह पूरी की पूरी नगरी विक्षिप्त है, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे।

आपके भीतर प्रवेश के लिए जरूरी है कि यह पूरा नगर संगीतबद्ध, लयबद्ध, शांत, मौन, प्रफुल्लित, आनंदित हो, तो आप इसमें भीतर आसानी से प्रवेश कर पाएंगे। अन्यथा बहुत छोटी-सी चीज आपको बाहर अटका देगी--बहुत छोटी-सी चीज। और अटका देती है इसलिए भी कि चेतना का स्वभाव ही यही है कि वह आपके शरीर में कहां कोई दुर्घटना हो रही है, उसकी खबर देती रहे।

तो अगर आपके शरीर में कहीं भी कोई दुर्घटना हो रही है, तो चेतना उस दुर्घटना में उलझी रहेगी। वह इमरजेंसी, तात्कालिक जरूरत है उसकी, आपातकालीन जरूरत है कि सारे शरीर को भूल जाएगी और जहां पीड़ा है, अराजकता है, लय टूट गई है, वहां ध्यान अटक जाएगा।

छोटा-सा कांटा पैर में गड़ गया, तो सारी चेतना कांटे की तरफ दौड़ने लगती है। छोटा-सा कांटा! बड़ी ताकत उसकी नहीं है, लेकिन उस छोटे-से कांटे की बहुत छोटी-सी नोक भी आपके भीतर सैकड़ों जीवकोशों को पीड़ा में डाल देती है और तब चेतना उस तरफ दौड़ने लगती है। शरीर का कोई भी हिस्सा अगर जरा-सा भी रुग्ण है, तो चेतना का अंतर्गमन कठिन हो जाएगा। चेतना उस रुग्ण हिस्से पर अटक जाएगी।

अगर ठीक से समझें, तो हम ऐसा कह सकते हैं कि स्वास्थ्य का अर्थ ही यही होता है कि आपकी चेतना को शरीर में कहीं भी अटकने की जरूरत न हो।


आपको सिर का तभी पता चलता है, जब सिर में भार हो, पीड़ा हो, दर्द हो। अन्यथा पता नहीं चलता। आप बिना सिर के जीते हैं, जब तक दर्द न हो। अगर ठीक से समझें, तो हेडेक ही हेड है। उसके बिना आपको पता नहीं चलता सिर का। सिरदर्द हो, तो ही पता चलता है। पेट में तकलीफ हो, तो पेट का पता चलता है। हाथ में पीड़ा हो, तो हाथ का पता चलता है।

अगर आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता; आप विदेह हो जाते हैं। आपको देह का स्मरण रखने की जरूरत नहीं रह जाती। जरूरत ही स्मरण रखने की तब पड़ती है, जब देह किसी आपातकालीन व्यवस्था से गुजर रही हो, तकलीफ में पड़ी हो, तो फिर ध्यान रखना पड़ता है। और उस समय सारे शरीर का ध्यान छोड़कर, आत्मा का ध्यान छोड़कर उस छोटे-से अंग पर सारी चेतना दौड़ने लगती है, जहां पीड़ा है!

कृष्ण का यह समत्व-योग शरीर के संबंध में यह सूचना आपको देता है। अर्जुन को कृष्ण कहते हैं कि यदि ज्यादा आहार लिया, तो भी योग में प्रवेश न हो सकेगा। क्योंकि ज्यादा आहार लेते ही सारी चेतना पेट की तरफ दौड़नी शुरू हो जाती है।

इसलिए आपको खयाल होगा, भोजन के बाद नींद मालूम होने लगती है। नींद का और कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। नींद का वैज्ञानिक कारण यही है कि जैसे ही आपने भोजन लिया, चेतना पेट की तरफ प्रवाहित हो जाती है। और मस्तिष्क चेतना से खाली होने लगता है। इसलिए मस्तिष्क धुंधला, निद्रित, तंद्रा से भरने लगता है। ज्यादा भोजन ले लिया, तो ज्यादा नींद मालूम होने लगेगी, क्योंकि पेट को इतनी चेतना की जरूरत है कि अब मस्तिष्क काम नहीं कर सकता। इसलिए भोजन के बाद मस्तिष्क का कोई काम करना कठिन है। और अगर आप जबर्दस्ती करें, तो पेट को पचने में तकलीफ पड़ जाएगी, क्योंकि उतनी चेतना जितनी पचाने के लिए जरूरी है, पेट को उपलब्ध नहीं होगी।

तो अगर अति भोजन किया, तो चेतना पेट की तरफ जाएगी; और अगर कम भोजन किया या भूखे रहे, तो भी चेतना पेट की तरफ जाएगी। दो स्थितियों में चेतना पेट की तरफ दौड़ेगी। जरूरत से कम भोजन किया, तो भी भूख की खबर पेट देता रहेगा कि और, और; और जरूरत है। और अगर ज्यादा ले लिया, तो पेट कहेगा, ज्यादा ले लिया; इतने की जरूरत न थी। और पेट पीड़ा का स्थल बन जाएगा। और तब आपकी चेतना पेट से अटक जाएगी। गहरे नहीं जा सकेगी।

कृष्ण कहते हैं, भोजन ऐसा कि न कम, न ज्यादा।

तो एक ऐसा बिंदु है भोजन का, जहां न कम है, न ज्यादा है। जिस दिन आप उस अनुपात में भोजन करना सीख जाएंगे, उस दिन पेट को चेतना मांगने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। उस दिन चेतना कहीं भी यात्रा कर सकती है।

अगर आप कम सोए, तो शरीर का रोआं-रोआं, अणु-अणु पुकार करता रहेगा कि विश्राम नहीं मिला, थकान हो गई है। शरीर का अणु-अणु आपसे पूरे दिन कहता रहेगा कि सो जाओ, सो जाओ; थकान मालूम होती हैं; जम्हाई आती रहेगी। चेतना आपकी शरीर के विश्राम के लिए आतुर रहेगी।

अगर आप ज्यादा सोने की आदत बना लिए हैं, तो शरीर जरूरत से ज्यादा अगर सो जाए या जरूरत से ज्यादा उसे सुला दिया जाए, तो सुस्त हो जाएगा; आलस्य से, प्रमाद से भर जाएगा। और चेतना दिनभर उसके प्रमाद से पीड़ित रहेगी। नींद का भी एक अनुपात है, गणित है। और उतनी ही नींद, जहां न तो शरीर कहे कि कम सोए, न शरीर कहे ज्यादा सोए, ध्यानी के लिए सहयोगी है।

इसलिए कृष्ण एक बहुत वैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहे हैं। सानुपात व्यक्तित्व चाहिए, अनुपातहीन नहीं। अनुपातहीन व्यक्तित्व अराजक  हो जाएगा। उसके भीतर की जो लयबद्धता है, वह विशृंखल हो जाएगी, टूट जाएगी। और टूटी हुई विशृंखल स्थिति में, ध्यान में प्रवेश आसान नहीं होगा। आपने अपने ही हाथ से उपद्रव पैदा कर लिए हैं और उन उपद्रवों के कारण आप भीतर न जा सकेंगे। और हम सब ऐसे उपद्रव पैदा करते हैं, अनेक कारणों से; वे कारण खयाल में ले लेने चाहिए।

पहला तो इसलिए उपद्रव पैदा हो जाता है कि हम इस सत्य को अब तक भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं कि अनुपात प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा। इसलिए हो सकता है कि पिता की नींद खुल जाती है चार बजे, तो घर के सारे बच्चों को उठा दे कि ब्रह्ममुहूर्त हो गया, उठो। नहीं उठते हो, तो आलसी हो।

लेकिन पिता को पता होना चाहिए, उम्र बढ़ते-बढ़ते नींद की जरूरत शरीर के लिए रोज कम होती चली जाती है। तो बाप जब बहुत ज्ञान दिखला रहा है बेटे को, तब उसे पता नहीं कि बेटे की और उसकी उम्र में कितना फासला है! बेटे को ज्यादा नींद की जरूरत है।

मां के पेट में बच्चा नौ महीने तक चौबीस घंटे सोता है; जरा भी नहीं जगता। क्योंकि शरीर निर्मित हो रहा होता है, बच्चे का जगना खतरनाक है। बच्चे को चौबीस घंटे निद्रा रहती है। इतना प्रकृति भीतर काम कर रही है कि बच्चे की चेतना उसमें बाधा बन जाएगी; उसे बिलकुल बेहोश रखती है। डाक्टरों ने तो बहुत बाद में आपरेशन करने के लिए बेहोशी, अनेस्थेसिया खोजा; प्रकृति सदा से अनेस्थेसिया का प्रयोग कर रही है। जब भी कोई बड़ा आपरेशन चल रहा है, कोई बड़ी घटना घट रही है, तब प्रकृति बेहोश रखती है।

चौबीस घंटे बच्चा सोया रहता है। मांस बन रहा है, मज्जा बन रही है, तंतु बन रहे हैं। उसका चेतन होना बाधा डाल सकता है। फिर बच्चा पैदा होने के बाद तेईस घंटे सोता है, बाईस घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है, अठारह घंटे सोता है। उम्र जैसे-जैसे बड़ी होती है, नींद कम होती चली जाती है।

इसलिए बूढ़े कभी भूलकर बच्चों को अपनी नींद से शिक्षा न दें। अन्यथा उनको नुकसान पहुंचाएंगे, उनके अनुपात को तोड़ेंगे। लेकिन बूढ़ों को शिक्षा देने का शौक होता है। बुढ़ापे का खास शौक शिक्षा देना है, बिना इस बात की समझ के।

इसलिए हम बच्चों के अनुपात को पहले से ही बिगाड़ना शुरू कर देते हैं। और अनुपात जब बिगड़ता है, तो खतरा क्या है?

अगर आपने बच्चे को कम सोने दिया, जबर्दस्ती उठा लिया, तो इसकी प्रतिक्रिया में वह किसी दिन ज्यादा सोने का बदला लेगा। और तब उसके सब अनुपात असंतुलित हो जाएंगे। अगर आप जीते, तो वह कम सोने वाला बन जाएगा। और अगर खुद जीत गया, तो ज्यादा सोने वाला बन जाएगा। लेकिन अनुपात खो जाएगा।

अगर मां-बाप बलशाली हुए, पुराने ढांचे और ढर्रे के हुए, तो उसकी नींद को कम करवा देंगे। और अगर बच्चा नए ढंग का, नई पीढ़ी का हुआ, उपद्रवी हुआ, बगावती हुआ, तो ज्यादा सोना शुरू कर देगा। लेकिन एक बात पक्की है कि दो में से कोई भी जीते, प्रकृति हार जाएगी; और वह जो बीच का अनुपात है, वह सदा के लिए अस्तव्यस्त हो जाएगा।

बूढ़े आदमी को जब मौत करीब आने लगती है, तो तीन-चार घंटे से ज्यादा की नींद की कोई जरूरत नहीं रहती। उसका कारण है कि शरीर में अब कोई निर्माण नहीं होता, शरीर अब निर्मित नहीं होता। अब शरीर विसर्जित होने की तैयारी कर रहा है। नींद की कोई जरूरत नहीं है। नींद निर्माणकारी तत्व है। उसकी जरूरत तभी तक है, जब तक शरीर में कुछ नया बनता है। जब शरीर में सब नया बनना बंद हो गया, तो बूढ़े आदमी को ठीक से कहें तो नींद नहीं आती; वह सिर्फ विश्राम करता है; वह थकान है। बच्चे ही सोते हैं ठीक से; बूढ़े तो सिर्फ थककर विश्राम करते हैं। क्योंकि अब मौत करीब आ रही है। अब शरीर को कोई नया निर्माण नहीं करना है।

लेकिन दुनिया के सभी शिक्षक--स्वभावतः, बूढ़े आदमी शिक्षक होते हैं--वे खबरें दे जाते हैं, चार बजे उठो, तीन बजे उठो। कठिनाई खड़ी होती है। बूढ़े शिक्षक होते हैं; बच्चों को मानकर चलना पड़ता है। अनुपात टूट जाते हैं।

भोजन के संबंध में भी वैसा ही होता है। बचपन से ही, बच्चों को कितना भोजन चाहिए, यह बच्चे की प्रकृति को हम तय नहीं करने देते। यह मां अपने आग्रह से निर्णय लेती है कि कितना भोजन। बच्चे अक्सर इनकार करते देखे जाते हैं घर-घर में कि नहीं खाना है। और मां-बाप मोहवश ज्यादा खिलाने की कोशिश में संलग्न हैं! और एक बार प्रकृति ने संतुलन छोड़ दिया, तो विपरीत अति पर जा सकती है, लेकिन संतुलन पर लौटना मुश्किल हो जाता है।

हम सब बच्चों की सोने की, खाने की सारी आदतें नष्ट करते हैं। और फिर जिंदगीभर परेशान रहते हैं। वह जिंदगीभर के लिए परेशानी हो जाती है।

इजरायल में एक चिकित्सक ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया है। प्रयोग यह है, हैरान करने वाला प्रयोग है। उसे यह खयाल पकड़ा बच्चों का इलाज करते-करते कि बच्चों की अधिकतम बीमारियां मां-बाप की भोजन खिलाने की आग्रहपूर्ण वृत्ति से पैदा होती हैं। बच्चों का चिकित्सक है, तो उसने कुछ बच्चों पर प्रयोग करना शुरू किया। और सिर्फ भोजन रख दिया टेबल पर सब तरह का और बच्चों को छोड़ दिया। उन्हें जो खाना है, वे खा लें। नहीं खाना है, न खाएं। जितना खाना है, खा लें। नहीं खाना है, बिलकुल न खाएं। फेंकना है, फेंक दें। खेलना है, खेल लें। जो करना है! और विदा हो जाएं।

वह इस प्रयोग से एक अजीब निष्कर्ष पर पहुंचा। वह निष्कर्ष यह था कि बच्चे को अगर कोई खास बीमारी है, तो उस बीमारी में जो भोजन नहीं किया जा सकता, वह बच्चा छोड़ देगा टेबल पर, चाहे कितना ही स्वादिष्ट उसे बनाया गया हो। उस बीमारी में उस बच्चे को जो भोजन नहीं करना चाहिए, वह नहीं ही करेगा। और एक बच्चे पर नहीं, ऐसा सैकड़ों बच्चों पर प्रयोग करके उसने नतीजे लिए हैं। और उस बच्चे को उस समय जिस भोजन की जरूरत है, वह उसको चुन लेगा, उस टेबल पर। इसको वह कहता है, यह इंस्टिंक्टिव है; यह बच्चे की प्रकृति का ही हिस्सा है।

यह प्रत्येक पशु की प्रकृति का हिस्सा है। सिर्फ आदमी ने अपनी प्रकृति को विकृत किया हुआ है। संस्कृति के नाम पर विकृति ही हाथ लगती है। प्रकृति भी खो जाती मालूम पड़ती है। कोई जानवर गलत भोजन करने को राजी नहीं होता, जब तक कि आदमी उसको मजबूर न कर दे। जो उसका भोजन है, वह वही भोजन करता है।

और बड़े मजे की बात है कि कोई भी जानवर अगर जरा ही बीमार हो जाए, तो भोजन बंद कर देता है। बल्कि अधिक जानवर जैसे ही बीमार हो जाएं, भोजन ही बंद नहीं करते, बल्कि सब जानवरों की अपनी व्यवस्था है, वॉमिट करने की। वह जो पेट में भोजन है, उसे भी बाहर फेंक देते हैं। अगर आपके कुत्ते को जरा पेट में तकलीफ मालूम हुई, वह जाकर घास चबा लेगा और उल्टी करके सारे पेट को खाली कर लेगा। और तब तक भोजन न लेगा, जब तक पेट वापस सुव्यवस्थित न हो जाए।

सिर्फ आदमी एक ऐसा जानवर है, जो प्रकृति की कोई आवाज नहीं सुनता। लेकिन हम बचपन से बिगाड़ना शुरू करते हैं। इसलिए इस चिकित्सक का कहना है कि सब बच्चे इंस्टिंक्टिवली जो ठीक है, वही करते हैं। लेकिन बड़े उन्हें बिगाड़ने में इस बुरी तरह से लगे रहते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है! जब उन्हें भूख नहीं है, तब उनको मां दूध पिलाए जा रही है! जब उनको भूख लगी है, तब मां श्रृंगार में लगी है; उनको दूध नहीं पिला सकती! सब अस्तव्यस्त हो जाता है।

इसलिए भी हमारा भोजन, हमारी निद्रा, हमारा जागरण, हमारे जीवन की सारी चर्या अतियों में डोल जाती है, समन्वय को खो देती है।

दूसरी बात, प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग है। उम्र की ही नहीं, एक ही उम्र के दस बच्चों की जरूरत भी अलग है। एक ही उम्र के दस वृद्धों की भी जरूरत अलग है। एक ही उम्र के दस युवाओं की भी जरूरत अलग है। जो भी नियम बनाए जाते हैं, वे एवरेज पर बनते हैं--जो भी नियम बनाए जाते हैं।

जैसे कि कहा जाता है कि हर आदमी को कम से कम सात घंटे की नींद जरूरी है। लेकिन किस आदमी को? यह किसी आदमी के लिए नहीं कहा गया है। यह सारी दुनिया के आदमियों की अगर हम संख्या गिन लें और सारे आदमियों के नींद के घंटे गिनकर उसमें भाग दे दें, तो सात आता है; यह एवरेज है। एवरेज से ज्यादा असत्य कोई चीज नहीं होती।

जैसे किसी शहर में एवरेज हाइट क्या है आदमियों की? ऊंचाई क्या है औसत? तो सब आदमियों की ऊंचाई नाप लें। उसमें छोटे बच्चे भी होंगे, जवान भी होंगे, बूढ़े भी होंगे, स्त्रियां भी होंगी, पुरुष भी होंगे। सबकी ऊंचाई नापकर, फिर सबकी संख्या का भाग दे दें। तो जो ऊंचाई आएगी, उस ऊंचाई का शायद ही एकाध आदमी शहर में खोजने से मिले--उस ऊंचाई का! वह औसत ऊंचाई है। उस ऊंचाई का आदमी खोजने आप मत जाना। वह नहीं मिलेगा।

सब नियम औसत से निर्मित होते हैं। औसत कामचलाऊ है, सत्य नहीं है। किसी को पांच घंटे सोना जरूरी है। किसी को छः घंटे, किसी को सात घंटे। कोई दूसरा आदमी तय नहीं कर सकता कि कितना जरूरी है। आपको ही अपना तय करना पड़ता है। प्रयोग से ही तय करना पड़ता है। और कठिन नहीं है।

अगर आप ईमानदारी से प्रयोग करें, तो आप तय कर लेंगे, आपको कितनी नींद जरूरी है। जितनी नींद के बाद आपको पुनः नींद का खयाल न आता हो, और जितनी नींद के बाद आलस्य न पकड़ता हो, ताजगी आ जाती हो, वह बिंदु आपकी नींद का बिंदु है।

समय भी तय नहीं किया जा सकता कि छः बजे शाम सो जाएं, कि आठ बजे, कि बारह बजे रात; कि सुबह छः बजे उठें, कि चार बजे, कि सात बजे! वह भी तय नहीं किया जा सकता। वह भी प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की आंतरिक जरूरत भिन्न है। और उस भिन्न जरूरत के अनुसार प्रत्येक को अपना तय करना चाहिए।

लेकिन हमारी व्यवस्था गड़बड़ है। हमारी व्यवस्था ऐसी है कि सबको एक वक्त पर भोजन करना है। सबको एक वक्त पर दफ्तर जाना है। सबको एक समय स्कूल पहुंचना है। सबको एक समय घर लौटना है। हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था व्यक्तियों को ध्यान में रखकर नहीं है। हमारी पूरी व्यवस्था नियमों को ध्यान में रखकर है। हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होता, भयंकर नुकसान होता है। और अगर हम फायदे और नुकसान का हिसाब लगाएं, तो नुकसान भारी होता है।

अभी अमेरिका के एक विचारक बक मिलर ने एक बहुत कीमती सुझाव दिया है जीवनभर के विचार और अनुसंधान के बाद। और वह यह है कि सभी स्कूल एक समय नहीं खुलने चाहिए। यह तो स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों पर निर्भर करना चाहिए कि वे कितने बजे उठते हैं; उस हिसाब से उनके स्कूल में भर्ती हो जाए। कई तरह के स्कूल गांव में होने चाहिए। सभी होटलों में एक ही समय, खाने के समय पर लोग पहुंच जाएं, यह उचित नहीं है। सब लोगों के खाने का समय उनकी आंतरिक जरूरत से तय होना चाहिए।

और इससे फायदे भी बहुत होंगे।

सभी दफ्तर एक समय खोलने की कोई भी तो जरूरत नहीं है। सभी दूकानें भी एक समय खोलने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बड़े फायदे तो ये होंगे कि अभी हम एक ही रास्ते पर ग्यारह बजे ट्रैफिक जाम कर देते हैं; वह जाम नहीं होगा। अभी जितनी बसों की जरूरत है, उससे तीन गुनी कम बसों की जरूरत होगी। अभी एक मकान में एक ही दफ्तर चलता है छः घंटे और बाकी वक्त पूरा मकान बेकार पड़ा रहता है। तब एक ही मकान में दिनभर में चार दफ्तर चल सकेंगे। दुनिया की चौगुनी आबादी इतनी ही व्यवस्था में नियोजित हो सकती है, चौगुनी आबादी! अभी जितनी आबादी है उससे। यही रास्ता शहर का इससे चार गुने लोगों को चला सकता है।

लेकिन गड़बड़ क्या है? ग्यारह बजे सभी दफ्तर जा रहे हैं! इसलिए रास्ते पर तकलीफ मालूम हो रही है। रास्ता भी परेशानी में है और आप भी परेशानी में हैं, क्योंकि ग्यारह बजे सबको दफ्तर जाना है, तो ग्यारह बजे सबको खाना भी ले लेना है। फिर सबको समय पर उठ भी आना है। ऐसा लगता है कि नियम के लिए आदमी है, आदमी के लिए नियम नहीं है।

हम एक बच्चे को कहते हैं कि उठो, स्कूल जाने का वक्त हो गया। स्कूल को कहना चाहिए कि बच्चा हमारा नहीं उठता, यह आने का वक्त नहीं है। स्कूल थोड़ी देर से खोलो! जिस दिन हम वैज्ञानिक चिंतन करेंगे, यही होगा। और उससे हानि नहीं होगी, अनंत गुने लाभ होंगे।

यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह आप अपने-अपने, एक-एक व्यक्ति अपने लिए खोज ले कि उसके लिए कितनी नींद आवश्यक है। और यह भी रोज बदलता रहेगा। आज का खोजा हुआ सदा काम नहीं पड़ेगा। पांच साल बाद बदल जाएगा, पांच साल बाद जरूरत बदल जाएगी।

सारी तकलीफें पैंतीस साल के बाद शुरू होती हैं आदमी के शरीर में--बीमारियां, तकलीफें, परेशानियां। अगर साधारण स्वस्थ आदमी है, तो पैंतीस साल के बाद उपद्रव शुरू होते हैं। और उपद्रव का कुल कारण इतना है--यह नहीं कि आप बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए उपद्रव शुरू होते हैं--उपद्रव का कुल कारण इतना है कि आपकी सब आदतें पैंतीस साल के पहले के आदमी की हैं और उन्हीं आदतों को आप पैंतीस साल के बाद भी जारी रखना चाहते हैं, जब कि सब जरूरतें बदल गई हैं।

आप उतना ही खाते हैं, जितना पैंतीस साल के पहले खाते थे। उतना कतई नहीं खाया जा सकता। शरीर को उतने भोजन की जरूरत नहीं है। उतना ही सोने की कोशिश करते हैं, जितना पैंतीस साल के पहले सोते थे। अगर नींद नहीं आती, तो परेशान होते हैं कि मेरी नींद खराब हो गई। अनिद्रा आ रही है। कोई गड़बड़ हो रही है। तो ट्रैंक्वेलाइजर चाहिए, कि कोई दवाई चाहिए, कि थोड़ी शराब पी लूं, कि क्या करूं! लेकिन यह भूल जाते हैं कि अब आपकी जरूरत बदल गई है। अब आप उतना नहीं सो सकेंगे।

रोज जरूरत बदलती है, इसलिए रोज सजग होकर आदमी को तय करना चाहिए, मेरे लिए सुखद क्या है।

और ध्यान रखें, दुख सूचना देता है कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। सिर्फ दुख सूचक है। और सुख सूचना देता है कि आप कुछ ठीक कर रहे हैं। समायोजित हैं, संतुलित हैं, तो भीतर एक सुख की भावना बनी रहती है। यह सुख बहुत और तरह का सुख है। यह वह सुख नहीं है, जो ज्यादा भोजन कर लेने से मिल जाता है। ज्यादा भोजन करने से सिर्फ दुख मिल सकता है। यह वह सुख नहीं है, जो रात देर तक जागकर सिनेमा देखने से मिल जाता है। ज्यादा जागकर सिर्फ दुख ही मिल सकता है। यह सुख संतुलन का है।

ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल भोजन; ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल निद्रा; ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल स्नान। ठीक चर्या, सम्यक चर्या से एक आंतरिक सुख की भाव-दशा बनती है।

वह बहुत अलग बात है। वह सुख है बहुत और अर्थों में। वह उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह सिर्फ भीतर की शांति की अवस्था है। उस शांति की अवस्था में व्यक्ति ध्यान में सरलता से प्रवेश कर सकता है। और योग के लिए अनिवार्य है वह।

तो अपनी चर्या की सब तरफ से जांच-परख कर लेनी चाहिए। किसी नियम के अनुसार नहीं, अपनी जरूरत के नियम के अनुसार। किसी शास्त्र के अनुसार नहीं, अपनी स्वयं की प्रकृति के अनुसार। और दुनिया में कोई कुछ भी कहे, उसकी फिक्र नहीं करना चाहिए। एक ही बात की फिक्र करनी चाहिए कि आपका शरीर सुख की खबर देता है, तो आप ठीक जी रहे हैं। और आपका शरीर दुख की खबर देता है, तो आप गलत जी रहे हैं। ये सुख और दुख मापदंड बना लेने चाहिए।

अति श्रम कोई कर ले, तो भी नुकसान होता है। श्रम बिलकुल न करे, तो भी नुकसान हो जाता है। फिर उम्र के साथ बदलाहट होती है। बच्चे को जितना श्रम जरूरी है, बूढ़े को उतना जरूरी नहीं है। बुद्धि से जो काम कर रहा है और शरीर से जो काम कर रहा है, उनकी जरूरतें बदल जाएंगी। बुद्धि से जो काम कर रहा है, उसे ज्यादा भोजन जरूरी नहीं है। शरीर से जो काम कर रहा है, उसे थोड़ा ज्यादा भोजन जरूरी होगा। वह ज्यादा, जो बुद्धि से काम कर रहा है, उसको मालूम पड़ेगा। उसके लिए वह ठीक है।

जो शरीर से काम कर रहा है, उसे और किसी श्रम की अब जरूरत नहीं है, कि वह शाम को जाकर टेनिस खेले। वह पागल है। लेकिन जो बुद्धि से काम कर रहा है, उसके लिए शरीर के किसी श्रम की जरूरत है। उसे किसी खेल का, तैरने का, दौड़ने का, कुछ न कुछ उपाय करना पड़ेगा।

प्रकृति संतुलन मांगती है।

हेनरी फोर्ड ने अपने संस्मरण में लिखवाया है कि मैं भी एक पागल हूं। क्योंकि जब एयरकंडीशनिंग आई, तो मैंने अपने सब भवन एयरकंडीशन कर दिए। कार भी एयरकंडीशन हो गई। अपने एयरकंडीशन भवन से निकलकर मैं अपनी पोर्च में अपनी एयरकंडीशन कार में बैठ जाता हूं। फिर तो बाद में उसने अपना पोर्च भी एयरकंडीशन करवा लिया। कार निकलेगी, तब आटोमेटिक दरवाजा खुल जाएगा। कार जाएगी, दरवाजा बंद हो जाएगा। फिर इसी तरह वह अपने एयरकंडीशंड पोर्च में दफ्तर के पहुंच जाएगा। फिर उतरकर एयरकंडीशंड दफ्तर में चला जाएगा।

फिर उसको तकलीफ शुरू हुई। तो डाक्टरों से उसने पूछा कि क्या करें? तो उन्होंने कहा कि आप रोज सुबह एक घंटा और रोज शाम एक घंटा काफी गरम पानी के टब में पड़े रहें।

गरम पानी के टब में पड़े रहने से हेनरी फोर्ड ने लिखा है कि मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया। क्योंकि एक घंटे सुबह मुझे पसीना-पसीना हो जाता, शाम को भी पसीना-पसीना हो जाता। लेकिन तब मुझे पता चला कि मैं यह कर क्या रहा हूं! दिनभर पसीना बचाता हूं, तो फिर दो घंटे में इंटेंसली पसीने को निकालना पड़ता है, तब संतुलन हो पाता है।

प्रकृति पूरे वक्त संतुलन मांगेगी। तो जो लोग बहुत विश्राम में हैं, उन्हें श्रम करना पड़ेगा। जो लोग बहुत श्रम में हैं, उन्हें विश्राम करना पड़ेगा। और जो व्यक्ति भी इस संतुलन से चूक जाएगा, ध्यान तो बहुत दूर की बात है, वह जीवन के साधारण सुख से भी चूक जाएगा। ध्यान का आनंद तो बहुत दूर है, वह जीवन के साधारण जो सुख मिल सकते हैं, उनसे भी वंचित रह जाएगा।

ध्यान और योग के प्रवेश के लिए एक संतुलित शरीर, अति संतुलित शरीर चाहिए। एक ही अति माफ की जा सकती है, संतुलन की अति, बस। और कोई एक्सट्रीम माफ नहीं की जा सकती। अति संतुलित! बस, यह एक शब्द माफ किया जा सकता है। बाकी और कोई अति, कोई एक्सट्रीम, कोई एक्सेस माफ नहीं की जा सकती। अति मध्य, एक्सट्रीम मिडिल, माफ किया जा सकता है, और कुछ माफ नहीं किया जा सकता।

ध्यान एक महान घटना है, एक बहुत बड़ी हैपनिंग है। उसकी पूर्वत्तैयारी चाहिए। उसकी पूर्वत्तैयारी के लिए यह सूत्र बहुत कीमती है। और इसीलिए कृष्ण कोई सीधे, डायरेक्ट सुझाव नहीं दे रहे हैं। सिर्फ नियम बता रहे हैं। न अति भोजन, न अति अल्प भोजन। न अति निद्रा, न अति जागरण। न अति श्रम, न अति विश्राम। कोई सीधा नहीं कह रहे हैं, कितना। वह कितना आप पर छोड़ दिया गया है। वह अर्जुन पर छोड़ दिया गया है। वह आपकी जरूरत और आपकी बुद्धि खोजे। और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का नियंता बन जाए। कोई किसी दूसरे से मर्यादा न ले, नहीं तो कठिनाई में पड़ेगा।

जैसे आमतौर से घरों में पति पहले उठ आते हैं। थोड़ा चाय-वाय बनाकर तैयार करते हैं। मगर बड़ा संकोच अनुभव करते हैं कि कोई देख न ले कि पत्नी अभी उठी नहीं है और वे चाय वगैरह बना रहे हैं! लेकिन यह बिलकुल उचित है, वैज्ञानिक है।

स्त्रियों के सोने की जितनी जांच-पड़ताल हुई है, वह पुरुषों से दो घंटा पीछे है--सारी जांच-पड़ताल से। आज अमेरिका में अनेकों स्लीप लेबोरेटरीज हैं, जो सिर्फ नींद पर काम करती हैं। वे कहती हैं कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच नींद का दो घंटे का फासला है। अगर पुरुष पांच बजे सुबह स्वस्थ उठ सकता है, तो स्त्री सात बजे के पहले स्वस्थ नहीं उठ सकती है। लेकिन अगर स्त्री ने शास्त्र पढ़े हैं, तो पति के पहले उठना चाहिए! पति अगर पांच बजे उठे, तो स्त्री को कम से कम साढ़े चार बजे तो उठ आना चाहिए। तब नुकसान होगा!

निद्रा का जो अध्ययन हुआ है वैज्ञानिक, उससे पता चला है कि रात में दो घंटे के लिए, चौबीस घंटे में, प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है। सुबह जो आपको ठंड लगती है, वह इसलिए नहीं लगती कि बाहर ठंडक है! उसका असली कारण आपके शरीर के तापमान का दो डिग्री नीचे गिर जाना है। बाहर की ठंडक असली कारण नहीं है।

हर व्यक्ति का चौबीस घंटे में दो घंटे के लिए तापमान दो डिग्री नीचे गिर जाता है। वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि वे ही दो घंटे उस व्यक्ति के लिए गहरी निद्रा के घंटे हैं। अगर उन दो घंटों में वह व्यक्ति ठीक से सो ले, तो वह दिनभर ताजा रहेगा। और अगर उन दो घंटों में वह ठीक से न सो पाए, तो वह चाहे आठ घंटे सो लिया हो, तो भी ताजगी न मिलेगी।

और वे दो घंटे प्रत्येक व्यक्ति के थोड़े-थोड़े अलग होते हैं। किसी व्यक्ति का रात दो बजे और चार बजे के बीच में तापमान गिर जाता है। तो वह व्यक्ति चार बजे उठ आएगा बिलकुल ताजा। उसे दिनभर कोई अड़चन न होगी। किसी व्यक्ति का सुबह पांच और सात के बीच में तापमान गिरता है। तब वह अगर सात बजे के पहले उठ आएगा, तो अड़चन में पड़ेगा।

पुरुषों और स्त्रियों के बीच अनेक प्रयोग के बाद दो घंटे का फासला खयाल में आया है। तो अधिक पुरुष पांच बजे उठ सकते हैं, लेकिन अधिक स्त्रियां पांच बजे नहीं उठ सकती हैं। वे शरीर के फर्क हैं, वे बायोलाजिकल फर्क हैं।

जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, लेकिन एक बात साफ होती जाती है कि शरीर की अपनी नियमावली है। और शरीर के नियम, सिर्फ आपके शरीर के नियम नहीं हैं, बल्कि बड़े कास्मास से जुड़े हुए हैं। देखा है हमने, चांद के साथ समुद्र में अंतर पड़ते हैं। कभी आपने खयाल किया कि स्त्रियों का मासिक-धर्म भी चांद के साथ संबंधित है और जुड़ा हुआ है! अट्ठाइस दिन इसीलिए हैं, चांद के चार सप्ताह। ठीक चांद के साथ जैसे समुद्र में अंतर पड़ता है, ऐसे स्त्री के शरीर में अंतर पड़ता है।

लेकिन अभी जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती है, स्त्रियों का मासिक-धर्म अस्तव्यस्त होता चला जाता है सभ्यता के साथ। क्या हो गया? कहीं कोई संतुलन टूट रहा है। वह जो विराट के साथ हमारे शरीर के तंतु जुड़े हैं, उनमें कहीं-कहीं विकृतियां हम अपने हाथ से पैदा कर रहे हैं। कहीं कोई गड़बड़ हो रही है।

आज जमीन पर, मैं मानता हूं, करीब-करीब पचास प्रतिशत से ज्यादा स्त्रियां मासिक-धर्म से अति परेशान हैं। अनेक तरह की परेशानियां उनके मैंसेस से पैदा होती हैं। और वह मैंसेस इसलिए परेशानी में पड़ा है कि स्त्री के व्यक्तित्व में जो प्रकृति के साथ अनुकूलता होनी चाहिए, जो संतुलन होना चाहिए, वह खो गया है। वह कोई संबंध नहीं रह गया है।

हमने अपने ढंग से जीना शुरू कर दिया है, बिना इसकी फिक्र किए कि हम बड़ी प्रकृति के एक हिस्से हैं। और हमें उस बड़ी प्रकृति को समझकर उसके सहयोग में ही जीने के अतिरिक्त शांत होने का कोई उपाय नहीं है।

लेकिन आदमी ने अपने को कुछ ज्यादा समझदार समझकर बहुत-सी नासमझियां कर ली हैं। ज्यादा समझदारी आदमी के खयाल में आ गई है और वह सारे संतुलन भीतर से तोड़ता चला जा रहा है।

जब तक हमारे पास रोशनी नहीं थी, तब तक पृथ्वी पर नींद की बीमारी किसी आदमी को भी न थी। अभी भी आदिवासियों को नींद की कोई बीमारी नहीं है। आदिवासी भरोसा ही नहीं कर सकता कि इन्सोमनिया क्या होता है! आदिवासी से कहिए कि ऐसे लोग भी हैं, जिनको नींद नहीं आती, तो वह बहुत हैरान हो जाता है कि कैसे? क्या हो गया? आदिवासी से पूछिए कि तुम कैसे सो जाते हो? वह कहता है, सोने के लिए कुछ करना पड़ता है! बस, हम सिर रखते हैं और सो जाते हैं।

जानकर आप हैरान होंगे कि जो आदिवासी सभ्यता के और भी कम संपर्क में आए हैं, उनको स्वप्न भी न के बराबर आते हैं--न के बराबर! इसलिए जिस आदिवासी को स्वप्न आ जाता है, वह विशेष हो जाता है--विशेष! वह साधारण आदमी नहीं समझा जाता, विजनरी, मिस्टिक, कुछ खास आदमी! बड़ी घटना घट रही है!

आज भी जमीन पर ऐसी आदिवासी कौमें हैं; जैसे एस्कीमो हैं, जो कि दूर ध्रुव पर रहते हैं। उनको अब भी भरोसा नहीं आता कि सब लोगों को सपने आते हैं। लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी ही नहीं है, जिसको सपना न आता हो! वे अमेरिका के आदमी के बाबत बिलकुल ठीक कह रहे हैं। उनके अनुभव में जितने आदमी आते हैं, सबको सपने आते हैं। वे तो कहते हैं, जो आदमी कहता है, मुझे सपना नहीं आता, उसकी सिर्फ मेमोरी कमजोर है। और कोई मामला नहीं है। उसको याद नहीं रहता। आता तो है ही।

और अब तो उन्होंने यंत्र बना लिए हैं, जो बता देते हैं कि सपना आ रहा है कि नहीं आ रहा है। इसलिए अब आप धोखा भी नहीं दे सकते। सुबह यह भी नहीं कह सकते कि मुझे याद ही नहीं, तो कैसे आया? अब तो यंत्र है, जो आपकी खोपड़ी पर लगा रहता है और रातभर ग्राफ बनाता रहता है, कब सपना चल रहा है, कब नहीं चल रहा है। और अब तो धीरे-धीरे ग्राफ इतना विकसित हुआ है कि आपके भीतर सेक्सुअल ड्रीम चल रहा है, तो भी ग्राफ खबर देगा। रंग बदल जाएगा स्याही का। क्योंकि आपके मस्तिष्क में जब तंतु कामोत्तेजना से भर जाते हैं, तो उनके कंपन, उनकी वेव्स बदल जाती हैं। वह ग्राफ पकड़ लेगा।

अब आपके तथाकथित ब्रह्मचारियों को बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि दिनभर ब्रह्मचर्य साधना बहुत आसान है, सवाल रात का है, नींद का है, सपने का है। वह भी पकड़ लिया जाएगा। वह पकड़ा जाएगा, उसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि स्वप्न की क्वालिटी अलग-अलग होती है। और प्रत्येक स्वप्न की जो कंपन विधि है, वह अलग-अलग होती है। जब आपके भीतर कोई कामोत्तेजक स्वप्न चलता है, तो स्वप्न बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है और ग्राफ बिलकुल पागल की तरह लकीरें खींचने लगता है। जब आपके भीतर गहरी नींद होती है, तो स्वप्न बिलकुल बंद हो जाता है; ग्राफ सीधी लकीर खींचने लगता है; उसमें कंपन खो जाते हैं।

लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि सभ्य आदमी, सुशिक्षित आदमी रातभर में मुश्किल से दस मिनट गहरी नींद में होता है, जब स्वप्न नहीं होता। सिर्फ दस मिनट! पूरी रात स्वप्न चलता रहता है।

लेकिन आदिवासी अभी भी हैं, जिनको सपना नहीं चलता; जिनकी नींद प्रगाढ़ है। स्वभावतः, सुबह उनकी आंखों में जो निर्दोष भाव दिखाई पड़ता है, वह उस आदमी की आंख में नहीं दिखाई पड़ सकता जिसको रातभर सपना चला है। सुबह आदिवासी की आंख वैसे ही होती है, जैसे गाय की। उतनी ही सरल, उतनी ही भोली, उतनी ही निष्कपट। रात वह इतनी गहराई में गया है कि हम कह सकते हैं कि बेहोशी में ठीक परमात्मा में उतर गया है।

सुषुप्ति समाधि ही है। सिर्फ बेहोश समाधि है, इतना ही फर्क है। उपनिषद तो कहते हैं, सुषुप्ति जैसी ही है समाधि। एक ही उदाहरण उपनिषद देते हैं। समाधि कैसी? सुषुप्ति जैसी। फर्क? फर्क इतना, कि समाधि में आपको होश रहता है और सुषुप्ति में आपको होश नहीं रहता।

आप परमात्मा की गोद में सुषुप्ति में भी पहुंच जाते हैं, लेकिन आपको पता नहीं रहता। समाधि में भी पहुंचते हैं, लेकिन जागते हुए पहुंचते हैं। लेकिन फायदा दोनों में बराबर मिल जाता है।

लेकिन सभ्य आदमी की नींद ही खो गई है, सुषुप्ति बहुत दूर की बात है। स्वप्न ही हमारा कुल जमा हाथ में रह गया है। जैसे कि लहरों में सागर के ऊपर ही ऊपर रहते हों, गहरे कभी न जा पाते हों, ऐसे ही नींद में भी गहरे नहीं जा पाते।

स्वयं के भीतर पहुंचने के लिए कम से कम गहरी नींद तो जरूरी ही है। लेकिन गहरी नींद उसे ही आएगी जिसका श्रम और विश्राम संतुलित है; जिसका भोजन और भूख संतुलित है; जिसकी वाणी और मौन संतुलित है; उसके लिए ही गहरी नींद उपलब्ध होगी। वह गहरी नींद का फल और पुरस्कार उसको मिलता है, जिसका जीवन संतुलित है।

नींद में ही जाना मुश्किल हो गया है, ध्यान में जाना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि ध्यान तो और आगे की बात हो गई, जागते हुए जाने की बात हो गई।

कृष्ण ठीक कहते हैं, अपने-अपने आहार को, विहार को संतुलित कर लेना जरूरी है; किसी नियम से नहीं, स्वयं की जरूरत से।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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