गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 4

  

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। 4।।


और हे अर्जुन! ऊपर कहे हुए संन्यास और निष्काम कर्मयोग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं, न कि पंडितजन। क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष, दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।



इस जगत के सारे भेद मूढ़जनों के भेद हैं। इस जगत के बाहर जाने वाले मार्गों के सारे विरोध नासमझों के विरोध हैं। चाहे हो कर्म-संन्यास, चाहे हो निष्काम कर्म, ज्ञानी जानता है कि दोनों से एक ही अंत की उपलब्धि होती है।

रास्ते हैं अनेक, मंजिल है एक। नावें हैं बहुत, पार होना है एक। कहीं से भी कोई चले, कैसे भी कोई चले, आकांक्षा हो सत्य की खोज की; कैसे भी कोई यात्रा करे, कैसे भी वाहन से और कैसे ही पथों और कैसी ही सीढ़ियों से, आकांक्षा हो एक, आनंद को पाने की, तो सब मार्गों से, सब द्वारों से वहीं पहुंच जाता है व्यक्ति; एक ही जगह पहुंच जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं इस वक्तव्य में...। कृष्ण जैसे व्यक्तियों को निरंतर ही सचेत होकर बोलना पड़ता है। पहले उन्होंने दो मार्गों की बात कही। कहा कि एक मार्ग है, कर्म का त्याग। दूसरा मार्ग है, कर्म में आकांक्षा का त्याग। ये दो मार्ग हैं। दोनों श्रेयस्कर हैं। लेकिन दूसरा सरल है। अर्जुन से कहा, दूसरा सरल है। फिर दूसरे मार्ग पर उन्होंने इतनी व्याख्या की और कहा कि दूसरे मार्ग का क्या अर्थ है। राग और द्वेष के द्वंद्व के बाहर हो जाना दूसरे मार्ग का अर्थ है। लेकिन तत्काल उन्हें इस सूत्र में कहना पड़ता है कि मूढ़जन ही दोनों को विपरीत मान लेंगे या भिन्न मान लेंगे, ज्ञानी तो दोनों को एक ही मानते हैं।

ऐसा क्या कहने की जरूरत पड़ती है? ऐसा कहने की इसलिए जरूरत पड़ती है कि जब भी एक मार्ग की बात कही जाती है, तो भला कहने वाला जानता हो कि बाकी मार्ग भी सही हैं, लेकिन जिससे वह कह रहा होता है, उससे तो वह एक ही मार्ग की बात कह रहा होता है। कहीं उसे यह भ्रांति न पैदा हो जाए कि यही मार्ग ठीक है।

ऐसी भ्रांति रोज पैदा हुई है। कृष्ण का सचेत होना संगतिपूर्ण है, अर्थपूर्ण है। ऐसी भूल रोज हुई है। महावीर ने एक बात कही लोगों को। जिनसे कही थी, उनके काम की जो बात थी, वह कह दी थी। लेकिन सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग सच है। बाकी सब मार्ग गलत हो गए। बुद्ध ने एक बात कही, जो सुनने वाले के लिए काम की थी। उस युग के लिए जो धर्म थी, उस मनुष्य की चेतना के लिए जो सहयोगी थी--कही। सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग है; बाकी सब गलत है। क्राइस्ट ने कही एक बात; मोहम्मद ने कही एक बात। वे सभी बातें सही, सभी सार्थक। लेकिन सभी को सुनने वाले मान लेते हैं कि यही ठीक है; बाकी गलत है।



और अज्ञानी को खुद को ठीक मानना तब तक आसान नहीं होता, जब तक वह दूसरों को गलत न मान ले। अपने को ठीक मानता ही इसीलिए है कि दूसरे गलत हैं। अगर दूसरे भी सही हों, तो फिर खुद के सही होने की संभावना क्षीण हो जाती है। उसका अपने पर भरोसा ही तब तक रहता है, जब तक दूसरे गलत हों। अगर दूसरे गलत न हों, तो उसका खुद का आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है। तो खुद के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए वह सबको गलत कहता रहता है। वह-वह गलत; मैं ठीक।

इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को निरंतर सचेत रहना पड़ता है कि कहीं एक मार्ग को समझाते वक्त यह खयाल पैदा न हो जाए कि दूसरा मार्ग बिलकुल गलत है, भिन्न, अलग है, उससे नहीं पहुंचा जा सकता है।

मगर जो कृष्ण की मजबूरी है, उससे उलटी मजबूरी अर्जुन की है। अगर कृष्ण स्पष्ट रूप से कह दें कि यही ठीक, और दूसरी बात न करें, तो अर्जुन निश्चिंत होकर मार्ग पर लग जाए। अभी उसको कुछ थोड़ी निश्चिंतता बंधी होगी। सुना उसने कि निष्काम कर्म ज्यादा हितकर है, तो उसने सोचा होगा कि ठीक है, संन्यास बेकार है। अब निष्काम कर्म में लग जाना चाहिए। तत्काल कृष्ण कहते हैं कि मूढ़जन ही ऐसा समझते हैं कि दोनों भिन्न हैं।

अब फिर मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो फिर चुनाव का सवाल खड़ा हो गया। एक गलत और एक ठीक है, तो चुनाव आसान हो जाए। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो फिर चुनाव! और दो ही नहीं, अनंत हैं मार्ग।

चुनने वालों की वजह से समझदारों को भी नासमझों की भाषा में बोलना पड़ा और कहना पड़ा कि यही ठीक है। और अगर किसी समझदार ने ऐसा कहा कि यह भी ठीक है, वह भी ठीक है; यह भी ठीक है, वह भी ठीक है, तो सुनने वाले उसे छोड़कर चले गए।

देखें महावीर! इतनी प्रतिभा के आदमी पृथ्वी पर दो-चार ही हुए हैं, लेकिन महावीर को कोई जगत में स्थान नहीं मिल सका। न मिलने का कुल एक कारण है; एक भूल हो गई उनसे, नासमझों की भाषा बोलने से चूक गए। महावीर ने कह दिया, यह भी ठीक, वह भी ठीक। महावीर का विचार कहलाता है, स्यातवाद। वे कहते हैं, सब ठीक! वे कहते हैं, ऐसा झूठ भी नहीं हो सकता, जिसमें कुछ ठीक न हो। यह भी ठीक है, इससे उलटा भी ठीक है; दोनों से उलटा भी ठीक है। सुनने वालों ने कहा कि फिर माफ करिए; तब हम जाते हैं! हम उस आदमी को खोजेंगे, जो कहता हो, यह ठीक। या तो आपको पता नहीं, और या फिर आपको कुछ ऐसा पता है, जो अपने काम का नहीं।

कृष्ण की भी वही कठिनाई है। वे अर्जुन को जब बताते हैं कोई बात ठीक, तो यह वक्तव्य जो उन्होंने दूसरा दिया, अर्जुन की आंख में देखकर दिया होगा। इसमें तो उल्लेख नहीं है, लेकिन निश्चित आंख को देखकर दिया होगा।

जब कृष्ण समझा रहे होंगे निष्काम कर्म, तब अर्जुन धीरे-धीरे अकड़कर बैठ गया होगा। उसने कहा होगा कि तब ठीक है। तो सब संन्यासी गलत। हम पहले ही जानते थे कि संन्यास वगैरह से कुछ होने वाला नहीं! छोड़ने से क्या मिलेगा!

जब उसकी आंख में यह झलक देखी होगी कृष्ण ने कि वह सोच रहा है कि सब संन्यासी गलत, ये बुद्ध और महावीर, ये सब छोड़कर चले गए लोग नासमझ, तब तत्काल वे चौंके होंगे। उसकी आंख की चमक उन्हें पकड़ में आई होगी। उन्होंने फौरन कहा कि मूढ़जन ही ऐसा समझते हैं अर्जुन, कि ये दोनों मार्ग अलग हैं। पंडितजन तो समझते हैं, दोनों एक हैं। तब उसको बेचारे को उसकी भभक थोड़ी-सी आई होगी। उस पर उन्होंने फिर पानी डाल दिया। वह अर्जुन फिर बेकार हुआ। वह फिर अपनी जगह शिथिल होकर बैठ गया होगा--शिथिल गात। फिर सोचने लगा होगा! अब क्या करना है, यह या वह?

कृष्ण उसकी अकड़ नहीं टिकने देते। ऐसा गीता में बहुत बाहर आएगा। जब भी वे देखेंगे कि अर्जुन अकड़ा, लगा कि समझदार हुआ जा रहा है, फौरन थोड़ा-सा पानी डालेंगे। उसकी अकड़, उसका कलफ फिर धुल जाएगा।

बीच में जरूर अर्जुन की आंख में कृष्ण ने देखा है। अन्यथा अभी मूर्खों को याद करने की कोई जरूरत न थी। अर्जुन में मूर्ख आ गया होगा। अन्यथा यह वक्तव्य बेमानी है। अर्जुन की आंख में मूर्ख दिखाई पड़ गया होगा।

और ऐसा नहीं है कि मूर्ख ही मूर्ख होते हैं। समझदार से समझदार आदमी के मूर्ख क्षण होते हैं। समझदार से समझदार आदमी की आंखों में से कभी मूर्ख झांकने लगता है। और कभी-कभी महा मंदबुद्धि आदमी की आंख से भी बुद्धिमान झांकता है। आदमी के भीतर की चेतना बड़ी तरल है।

तो जब वह कृष्ण अर्जुन को देखते होंगे, कुछ बुद्धिमान हो रहा है, तब वे कुछ और कहते हैं। जब वे देखते होंगे कि मूर्खता सघन हो रही है, तब वे कुछ और कहते हैं।

चूंकि यह वक्तव्य सीधा अर्जुन को दिया गया है, इसलिए अर्जुन का एक-एक हाव, एक-एक भाव, एक-एक आंख की भंगिमा, एक-एक इशारा, इसमें सब पकड़ा गया है। गीता सिर्फ कही नहीं गई है; लिखी नहीं गई है; संवाद है दो जीते व्यक्तियों के बीच। पूरे वक्त चेतना तालमेल कर रही है। पूरे वक्त एक डायलाग है।

गीता एक डायलाग है, एक संवाद है। वहां कृष्ण जरा-सी भी झलक अर्जुन की आंख और चेहरे पर पकड़ रहे हैं। जरा-सा मुद्रा का परिवर्तन, और उन्होंने कहा कि अर्जुन! मूर्खजन ऐसा समझ लेते हैं कि दोनों अलग हैं। अर्जुन को ठिकाने लगाया होगा उन्होंने। सिर्फ एक डंडा मारा, वह अर्जुन फिर अपनी जगह बैठ गए होंगे।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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