गुरुवार, 14 सितंबर 2023


सूत्र :

दुःसंगः सर्वथैव त्याज्य

कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात्

तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति

कस्तरति कस्तरति मायाम? यः संगास्त्यजति यो

महानुभावं सेवते निर्ममो भवति

यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति,

निस्त्रैगुण्यौ भवति, योगक्षेमं त्यजति

यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति

वेदानपि संन्यस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते

स तरति स तरति स लोकांस्तारयति


जो नहीं है, उसे निर्बल मत जानना। जो नहीं है, उसमें भी बड़ा बल है। अन्यथा, मरु-मरीचिकाएं मनुष्य को आकर्षित न करतीं और स्वप्नों पर भरोसा न आता, क्षितिज आमंत्रण न देता, स्वप्न सत्य मालूम न होते।

जो नहीं है, वह भी बड़ा प्रबल है, और मन के लिए "जो है' उससे भी ज्यादा प्रबल है। मन उसे देख ही नहीं पाता, "जो है'। मन सदा उसका ही चिंतन करता है जो नहीं है, जिसका अभाव है। जो हाथ में नहीं है, मन उसका विचार करता है। जो हाथ में है, उसे तो मन भूल ही जाता है।

मन के इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे। क्योंकि मन के विपरीत जो गया, वही भक्ति को उपलब्ध हुआ। मन के साथ जो चला, वह कभी भगवान तक न पहुंच सकेगा।

भगवान यानी "जो है', भक्ति यानी "जो है', उसे देखने की कला।

लेकिन "जो है', वह हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता? "जो है' वह तो हमें सहज ही दिखाई पड़ना चाहिए। "जो है' उसे खोजने की जरूरत ही क्यों हो? "जो है' उसे हम भूले ही क्यों, उसे हम भूले ही क्यों, उसे हम भूले ही कैसे? "जो है' उसे हमने खोया कैसे? "जो है' उसे खोया कैसे जा सकता है?

इसलिए पहली बात समझ लेनी जरूरी है: मन का नियम। मन उसी को जानता है जो नहीं है। तुम्हारे पास अगर दस हजार रुपये हैं तो उन उस हजार रुपयों को मन भूल जाता है। मन उन दस लाख रुपयों का चिंतन करता है जो होने चाहिए, पर हैं नहीं। मन अभाव का चिंतन करता है। जो पत्नी तुम्हें उपलब्ध  है मन उसे भूल जाता है। जो पत्नी उपलब्ध नहीं है, जो स्त्री उपलब्ध नहीं है, मन उसकी कल्पनाएं करता है, योजनाएं बनाता है। तुम्हें जो मिला है, मन उसे देखता ही नहीं; मन उसी पर नजर रखता है, जो मिला नहीं है। हाथ की असलियत मत को नहीं भाती, स्वप्न के आभास भाते हैं। मन स्वप्न के भोजन पर जीता है। मन जीता ही स्वप्न के सहारे है।

जब भी तुम आंख बंद करोगे, भीतर सपनों का जाल पाओगे, चलते ही रहते हैं, रुकते ही नहीं। तुम आंख खोले काम में भी लगे हो, तब भी भीतर उनका सिलसिला जारी रहता है; तब भी पर्त दर पर्त सपने भीतर घने होने रहते हैं। तुम देखो या न देखो, लेकिन मन सपने बुनता रहता है। मन का सपनों का ताना-बाना क्षणभर को रुकता नहीं। उसी सपने के जाल का नाम माया है। उसी सपने के जाल में उलझे तुम परेशान और पीड़ित हो।

जो नहीं है उसने तुम्हें अटकाया है। जो नहीं है उसने तुम्हें भरमाया है। जो नहीं है उसने तुम्हारी आंखें बंद कर दी हैं; और जो है उसे देखना मुश्किल हो गया है।

रात तुम स्वप्न देखते हो, कितनी बार देखे हैं; हर बार सुबह जागकर पाया, झूठे थे! लेकिन फिर जब रात आज देखोगे स्वप्न तो देखते समय सच मानोगे। झूठ को सच मानने की तुम्हारी कितनी प्रगाढ़ धारणा है! कितनी बार जागकर भी, कितनी बार देखकर भी कि सपने सुबह झूठ सिद्ध हो जाते हैं, फिर भी जब तुम रात स्वप्न देखोगे आज, तो सच मालूम होगा, शक भी न आएगा।

मेरे पास लोग आते हैं, कहते हैं, "हमारे मन में श्रद्धा नहीं है। हम बड़े संदेहशील हैं। हमारा निस्तार कैसे होगा?' मैं उनसे कहता हूं, "मैंने अभी तक संदेहशील व्यक्ति देखा नहीं। तुम सपनों तक पर श्रद्धा करते हो, सत्य की तो बात ही छोड़ो। तुम सपनों तक पर भरोसा करते हो, उन पर तक तुम्हें अभी संदेह नहीं आया, तो तुम और किस पर संदेह करोगे? जो नहीं है, उस पर भी संदेह नहीं हो पाता, तो "जो है' उस पर तुम कैसे संदेह करोगे'?

संदेहशील व्यक्त्ति मैंने अभी देखा नहीं क्योंकि जो संदेहशील हो वह पहले तो सपनों को तोड़ेगा। जिसने सपने तोड़े उसके भीतर श्रद्धा का जन्म हुआ। जिसने सपने तोड़े, उसने तब सत्य को जानने का मार्ग साफ कर लिया। आज फिर रात जब तुम सपना देखोगे तब फिर खो जाओगे सपने में। ऐसा कितनी बार हुआ है, कितने जन्मों-जन्मों हुआ है! रात की छोड़ो, क्योंकि रात तुम कहोगे कि हम बेहोश हैं, चलो दिन का ही विचार करें। दिन में भी कितनी बार क्रोध किया है, और कितनी बार तय किया है और कितनी बार पछताये हो कि अब नहीं, अब नहीं, बहुत हो गया। फिर जब क्रोध पकड़ लेता है और क्रोध का धुआं जब तुम्हें घेर लेता है, तब तुम फिर बेसुध हो जाते हो; सारे पछतावे, सारे पश्चात्ताप, सारे निर्णय, संकल्प व्यर्थ हो जाते हैं। क्रोध का जरा सा धुंआ और तुम्हारे पैर उखड़ जाते हैं, जड़े टूट जाती हैं, तुम फिर बेहोश हो जाते हो, तुम फिर बेसुध हो जाते हो। कितनी बार नहीं देखा कि कामवासना व्यर्थ ही भरमाती है; भटकाती है, पहुंचाती कहीं नहीं; दूर से दिखाती है मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल ही पाये जाते हैं। कितनी बार नहीं जाना है इसे! लेकिन फिर तुम भटकोगे, फिर तुम खोओगे। फिर कामवासना पकड़ेगी और तब फिर तुम सपने सजाने लगोगे--और मन कहेगा, "हो सकता है, इतनी बार झूठ सिद्ध हुई हो, अब की बार न हो! अपवाद हो सकते हैं। जो अब तक नहीं हुआ, शायद अब हो जाए'।

मन "शायद' पर जीता है। मन आशा पर जीता है।

उमरखैयाम की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि मैंने ज्ञानियों से पूछा कि आदमी अब तक थका नहीं, किस सहारे जीता है? आदमी अब तक विषाद को उपलब्ध नहीं हुआ, किस सहारे जीता है? ज्ञानि उत्तर न पाए। फकीरों से पूछा। फकीर भी उलझे हुए मालूम पड़े।

तब कोई राह न देखकर, उमरखैयाम कहता है कि एक रात मैंने आकाश से पूछा कि तूने तो सभी को चलते देखा, सदियों-सदियों, युगों-युगों से, कितने लोग उठे, आशाओं और सपनों से भरे कितने लोग धूल में गिरे, तूने तो सबको देखा, सब के अरमान मिट्टी में मिलते देखे, तुझे तो पता चल गया होगा अब तक, आदमी किसके सहारे चलता है! अब तक थकता नहीं,रुकता नहीं!

तो आकाश ने कहा, "आशा के सहारे'।

तुम्हारा असली आकाश आशा है--जो नहीं हुआ शायद, हो जाए! जो किसी को नहीं हुआ शायद तुम्हें हो जाए! जो कभी किसी को नहीं हुआ, शायद...।

भविष्य को किसने जाना है? सिकंदर हार जाते हैं, लेकिन तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो। दिन में भी तुम सपने देखते हो, रात में ही नहीं। राह पर चलते हो तब भी सपने देखते हो। दुकान पर बैठते हो, बाजार में उठते हो, बैठते हो तब भी सपने देखते हो। सपने तुम्हारे भीतर एक सतत क्रम है। और इन्ही सपनों के कारण वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। सपनों की धूल तुम्हारी आंख को दबाए है।

सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ असत्य से मुक्त हो जाना है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ जो नहीं है, उसे देख लेना है कि नहीं है। द्वार साफ है। परदा उठा हुआ है। परदा कभी था ही नहीं।

क्षण में ऐसा क्या आकर्षण हो सकता है जो शाश्वत भूल जाए? असार में ऐसा क्या बल हो सकता है जो सार विस्मृत हो जाए। दूसरे में ऐसी क्या पुकार हो सकती है जो अपना स्वभाव भूल जाए। पर है।

इसलिए पहली बात तुमसे कहता हूं: व्यर्थ के, असार के, जो नहीं है उसके बल को मत भूलना; उसके बल को स्वीकार करना। जो नहीं है उसमें भी शक्ति है। क्योंकि मन का स्वभाव यही है कि वही जी ही सकता है, जो नहीं है उसी के सहारे। जो तुम्हारे पास है अगर तुम उसी को देखो तो मन की जरूरत क्या? जो वर्तमान में है अगर तुम उसी में जीयो तो मन को फैलने का उपाय कहां, अवकाश कहां?

अभी तुम यहां बैठे हो। अगर तुम यहीं हो सिर्फ--मैं हूं, तुम हो और यह क्षण है, तो मन मिट गया, तो मन यहां उठ न सकेगा। हां, तुम सोचने लगो कि दुकान जाना है, दस बजे आफिस पहुंच जाना है--मन प्रविष्ट हुआ। मन के लिए भविष्य चाहिए। तुम अगर एक क्षण बाद की सोचने लगो तो मन जीवंत हुआ। तुम एक क्षण पहले की सोचने लगो, तो मन जीवंत हुआ। तुम अगर अभी हो, यहीं हो, तो मन नहीं हो गया।

वर्तमान मन की मृत्यु है। भविष्य और अतीत मन का जीवन है। न तो अतीत है--जा चुका; न भविष्य है--अभी आया भी नहीं। मन जीता ही, "नहीं' में है। मन का स्वभाव नकार है--अनस्तित्व, अभाव। मन नास्तिक है। इसलिए मन से कोई कभी आस्तिक नहीं हो पाता। मन के आस्तिक तुम्हें बहुत दिखाई पड़ेंगे--मंदिरों-मस्जिदों में बैठे हैं, पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन पूजा-पाठ वे कर नहीं रहे हैं; उनका मन कहीं और भी आगे गया है। कोई स्वर्ग को मांगता होगा; कोई पुण्य के फल मांगता होगा। कोई परलोक के सुख मांगता होगा, कोई इसी लोक के सुख मांगता होगा; लेकिन मन कहीं और जा चुका है।

मन न हो, तो पूजा। मौन पूजा होगी। मन न हो, तो पूजा होगी, तो प्रार्थना होगी, तो ध्यान होगा। जहां मन नहीं वहीं मंदिर शुरू होता है--मन की मौत पर।

इसे थोड़ा खयाल से समझ लो।

तुम अगर यहीं हो जाओ, इसी क्षण में, फिर कुछ पाने को नहीं है--पाया ही हुआ है। परमात्मा मिला ही हुआ है। तुमने उसे खोया कभी नहीं। खोने की भी भ्रांति है। एक सपने में तुम लीन हो गए हो। एक सपना तुम्हें अपने से दूर ले गया है। विचारों के ऊहापोह में तुम उलझ गए हो। जो तुम्हारे पैर के नीचे है, वही मंजिल दिखाई पड़नी बंद हो गई है। जो तुम्हारे हृदय के भीतर है, इस क्षण भी गुनगुना रहा है, उसी का गीत सुनाई पड़ना बंद हो गया है। तुम अपने से दूर हो गए हो।

भक्ति सूत्र में तुम्हें समझ में आ सकेंगे, अगर तुम मन की इस अवस्था को ठीक से समझ लो और इसके बाहर होने शुरू हो जाओ। स्वप्न से जागो। परमात्मा को पाने की कोई भी जरूरत नहीं है--उसे कभी खोया नहीं है। स्वप्न से जागते ही तुम हंसोगे। जैसे आज रात तुम यहां सो जाओ और सपने देखो कि कलकत्ते में हो या लंदन में हो या दिल्ली में हो--और सुबह आंख खुले और तुम पाओ कि पूना में हो; न कलकत्ता थे, ने लंदन थे, न दिल्ली थे--सब सपना था। लेकिन सपने में जब तुम दिल्ली में थे तब तुम सोच भी न सकते थे कि तुम हो पूना में। ठीक ऐसा ही हुआ है। तुम हो तो परमात्मा में, लेकिन तुम्हारा सपना तुम्हें कहीं और बतलाता है।

 सूत्र: "दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए'।

दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः।

क्या है दुःसंग?

पहला तो मन का संग, दुःसंग है।

तुमने भक्ति-सूत्र की व्याख्याएं पढ़ी होंगी, तो उनमें दुःसंग कहा है उन लोगों को जो बुरे हैं। उनसे क्या लेना-देना? बुरा आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा, अपना ही बिगाड़ रहा है। इसलिए जिन्होंने भक्ति-सूत्र की व्याख्या में लिखा है, "बुरे लोगों को साथ छोड़ दो, वे समझे नहीं।

दुःसंग का अर्थ हैः मन का साथ छोड़ दो। यही एकमात्र दुःसंग है। तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ दो और मन साथ बनाए रखो तो कोई दुःसंग छूटनेवाला नहीं। तुम जहां रहोगे, तुम जैसे रहोगे, वहीं मन दुःसंग खड़ा कर लेगा। मन बड़ा उत्पादक है, बड़ा सृजनात्मक है। परमात्मा के बाद अगर कहीं कोई स्रष्टा है तो मन है। कितना सृजन करता है--ना कुछ से। शून्य से आकृतियां बना लेता है। शून्य में रंग भर देता है। शून्य में इन्द्रधनुष उग आते हैं, फूल खिल जाते हैं। और अपने की बनाए ही खेल में कुछ अनुरक्त हो जाता है। अपने ही हाथ से बनाई छायाओं के पीछे दौड़ने लगता है।

इसलिए मेरी व्याख्या है: मन का साथ छोड़ दो।

"दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए'।

मैं तुमसे नहीं कहता, चोर का साथ छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोधी का साथ छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, मन का साथ छोड़ो; क्योंकि मन ही चोर है, मन ही क्रोधी है। यह सवाल दूसरे का नहीं है, अन्यथा धार्मिक लोग बड़े कुशल हो गए हैं...जो लोगों के साथ नहीं उठता-बैठता।

लेकिन साधु तो वही है जिसे दूसरों में बुरा दिखाई न पड़े। साधु तो वही है जिसे सभी जगह  साधु का दर्शन होने लगे। साधु तो वही है जिसकी आंखें जहां पड़ें वहीं साधुता का आविर्भाव हो। तो यह साधु की व्याख्या तो नहीं हो सकती कि चोर का साथ छोड़ दो। कहीं कुछ भूल हो गई। हां, यह यह बात सच है कि अगर तुमने अपने मन के चोर का साथ छोड़ा तो चोरों से तुम्हारा साथ अपने-आप छूट जाएगा।

आखिर चोर से तुम्हारा साथ क्या है?...क्योंकि तुम भी चोर हो! और क्या साथ हो सकता है? दुष्ट से तुम्हारी संगति क्या है?...क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दुष्टता है, उसी से सेतु बनता है। बुरे आदमी से तुम्हारा साथ क्यों हो गया है?...तुमने किया है। तुमने निमंत्रण दिया है। बुरा ऐसे ही नहीं आ गया है; तुमने बुलाया है। चाहे तुम खुद भूल भी गए होओगे कि कब बुलावा भेजा था, कब निमंत्रण पत्र लिखा था, लेकिन आया तुम्हारे ही बुलावे पर है।

इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है, व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है, क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न पाएगी, तालमेल न बैठेगा--छोड़ना ही पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।

तो मेरी व्याख्या को ठीक से समझ लेना: अगर मन का साथ छूट जाए, तो और व्याख्याकारों ने जो कहा है, वह तो अपने से घटित हो जाता है, उसकी चिंता ही नहीं करनी पड़ती। इधर भीतर मन गया--क्रोध गया, लोभ गया, मोह गया, काम गया। वे सब मन के ही फैलाव हैं, वे सब मन की ही सेनाएं हैं। मन का सम्राट उन्हीं सेनाओं के सहारे जीता है--इधर मन मरा कि सेनाएं बिखरीं। इधर सम्राट गया कि सम्राज्य गया। तब तुम अचानक पाओगे: बुरे से संबंध नहीं बनाना। तुम बनाना भी चाहो तो भी नहीं बनता। वस्तुतः तुम अगर बुरे के पीछे भी जाओगे तो बुरा तुमसे बचेगा, बुरा तुमसे डरने लगेगा। क्योंकि शुभ इतनी बड़ी शक्ति है, प्रकाश इतनी बड़ी शक्ति है कि अंधेरा छिप जाता है। जहां प्रकाश आया, अंधेरा भागा। अंधेरा ढूंढ़ने लगता है कोई स्थान, छुप जाए, बचा ले।

साधु अगर असाधु की दोस्ती करे, तो असाधु या तो भागेगा या मिटेगा। यही स्वाभाविक भी मालूम होता है। लेकिन यह दुनिया बड़ी उलटी है। यहां साधु असाधु से डर रहा है। जरूर साधु झूठा है, असाधु मजबूत है। साधु असाधु से डर रहा है। यह दुनिया तो ऐसी हुई कि दवाएं बीमारियों से डर रही हैं। प्रकाश अंधेरे से भागा हुआ है, डरा हुआ है कि छिप जाऊं, कहीं अंधेरा आकरा मुझे मिटा न दे। तब तो फिर "सत्यमेव जयते' कभी भी न हो सकेगा, सत्य की विजय फिर कभी न होगी। सत्य तो असत्य से डरा हुआ है।

नहीं, व्याख्या की भूल है। तुम जिसे साधु कहते हो, अगर वह साधु से डरा है तो सिर्फ इसका सबूत देता है कि साधु नहीं है; भीतर असाधु है और डरता है कि असाधु के संग-साथ रहा तो भीतर का असाधु प्रगट होने लगेगा, बाहर आ जाएगा। यही भय है। असाधु नहीं डरता साधु से साथ होने से, कोई भय नहीं है। लेकिन जब सच्चा साधु होगा तो असाधु डरेगा, या तो बचेगा, या भागेगा।

मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढ़ा हो गया था। उसने अपने बेटे शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आसपास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है।

निश्चित ही इस डाकू से भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको डर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। चूंकि बाप ने मना किया था, इसलिए मन में आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।

तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आयी, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्न, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।

फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बाप मर गया, बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; जब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाएं इससे सारी बातें?

तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिलाकर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थी, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं कि परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवनभर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा; जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा।

तब जरा डाकू चौंका: "सब पाप बता दे!' तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है...। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताईं जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा, "पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं'।

सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा, "तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी-चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं। साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है--बीज पड़ गया। साधु क्या डरेगा असाधु से? डरे तो असाधु डरे।

मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो--भीतर के अपने मन को--और तत्क्षण तुम पाओगे: संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्चित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं--छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा--असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।

यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है:

"दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए'। ...पर दुःसंग है--मन का संग!

"क्योंकि वह (दुःसंग) काम, क्रोध, मोह,स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है'।

इतना साफ है सूत्र, पर व्याख्याकारों से ज्यादा अंधे लोग खोजना मुश्किल है।

"क्योंकि वह काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश  का कारण है'।

कौन तुम्हारा सर्वनाश कर सकेगा?...तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है और तुमसे बड़ा न तुम्हारा कोई मित्र है। मन से साथ बना रहे तो तुम अपना ही आत्मघात करते रहोगे। मन से साथ छूट जाए तो तुम्हारे जीवन में नवजीवन का संचार हो जाएगा, पुनर्जन्म को जाएगा।

काम,क्रोध, मोह, समृतिभ्रंश, बुद्धिनाश, सर्वनाश--इन शब्दों को समझो।

काम का अर्थ है: सदा इस आशा से जगत को देखना कि उससे कुछ सुख पाना है। काम का अर्थ है: सुख पाने की आकांक्षा से ही चीजों को, व्यक्तियों को, घटनाओं को देखना; आकांक्षा से भरे होकर देखना। जब तुम आकांक्षा से भरकर किसी चीज को देखते हो, तब तुम्हें चीज का सत्स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा परदा डाल देती है। तुम जिस चीज को भी वासना से भरकर देखते हो, तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम देखना चाहते हो।

मैं एक मित्र के साथ गंगा के तट पर बैठा था। वे थोड़े बेचैन हो आए। फिर मुझसे कहने लगे, "क्षमा करें। आपसे झूठ न कहूंगा, लेकिन मुझे थोड़े समय के लिए छुट्टी दें, मैं उस तट तक जाना चाहता हूं'। वे गए। मैंने देखा कि वे क्यों जाना चाहते हैं। सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई है, वह स्नान कर रही है। वे गए बड़ी आतुरता से, फिर लौटे बड़े उदास। मैंने पूछा, "क्या हुआ?' उन्होंने कहा, "बड़ी भ्रांति हुई। वह स्त्री नहीं है, कोई साधु है। लम्बे बाल...। पीठ की तरफ से दिखाई पड़ा था। जब पास से जाकर देखा तो साधु है, स्त्री नहीं है'।

मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा गौर करो, स्त्री तुम्हें दिखाई पड़ी इसमें तुम इतना ही मत सोचो कि साधु के बालों ने धोखा दे दिया। तुम स्त्री देखना चाहते थे। तुमने आरोपण किया। तुम मुझसे पूछे होते। उतनी दूर जाने की जरूरत न थी।

हम वही देख लेते हैं तो कामना करते हैं। तुम अपने चारों तरफ अपनी ही कामना का संसार रच लेते हो।

दो साधु एक रास्ते से गुजरते थे। एक साधु दूसरे से कुछ बोल रहा था। उसे दूसरे ने कहा कि यहां सुनाई भी नहीं पड़ेगा मुझे कुछ। यह बाजार इतना शोरगुल है! यह ज्ञान की बात यहां मत करो--एकांत में चलकर करेंगे।

वह साधु वहीं खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और आहिस्ता से रास्ते पर गिरा दिया। खननखन की आवाज हुई, भीड़ इकट्ठी हो गई। पहले साधु ने पूछा कि मैं समझा नहीं, यह तुमने क्या किया। उसने रुपया उठाया, जेब में रखा और चल पड़ा। उसने कहा, "इतना भरा बाजार है, इतना शोरगुल मच रहा है; लेकिन रुपये की जरा सी खनन की आवाज--इतने लोग आ गए। ये रुपये के प्रेमी है। नरक में भी भयंकर उत्पात मचा हो और अगर रुपया गिर जाए तो ये सुन लेंगे'।

हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। उस साधु ने कहा, "अगर तुम परमात्मा के प्रेमी हो तो यहां भी, बाजार में भी परमात्मा के संबंध में मैं कुछ कहूंगा तो तुम सुन लोगे'।

कोई दूसरा बाधा नहीं डाल रहा है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हमें उसी से मिलन हो जाता है जिससे हम मिलना चाहते हैं। इस जीवन में व्यवस्था को ठीक से जो समझ लेता है वह फिर दूसरे को दोष नहीं देता।

ध्यान रखना: कामना तुम्हें कभी सत्य को न देखने देगी। सत्य को देखना हो तो कामना-शून्य चित्त चाहिए।

एक बगीचे में कोई चित्रकार आए तो कुछ और देखेगा। कोई लकड़हारा आ जाए तो कुछ और देखेगा। कोई फूलों को बेचनेवाला माली आ जाए तो कुछ और देखेगा। तीनों एक ही जगह आएंगे, लेकन तीनों के दर्शन अलग-अलग होंगे।

कहते हैं, जब संगीत की परम ऊंचाई उपलब्ध होती है तो वीणा शांत भी रखी हो तो संगीतज्ञ को वे स्वर सुनाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो उस वीणा से प्रगट हो सकते हैं, जो अभी छुपे हैं, अभी जन्मे भी नहीं। लेकिन कान की उत्कंठा उन्हें भी सुन लेती है जो अभी प्रगट नहीं हुए। अनभिव्यक्त भी अभिव्यक्त हो जाता है। आंख हो देखनेवाली तो बीज में फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।

कहते हैं, मोची रास्तों पर लोगों को देखते हैं तो जूतों को ही देखकर आदमी का सब कुछ समझ जाते हैं। जूते की हालत बहुत कुछ बताती है: तुम्हारी आर्थिक दशा; ठीक चल रही है जिंदगी कि ऐसे ही जा रही है; सफलता पा रहे हो कि असफल हो रहे हो; घर से क्रोध में चले आए हो, झगड़कर चले आए हो कि शांति में विदा पाई है--सब तुम्हारे जूते की हालत बता देती है। जूते की शिकन-शिकन में तुम्हारी कथा लिखी है, आत्मकथा है। चमार जूतों को देखता है और सब समझ जाता है। चमार तुम्हारे चेहरे की तरफ देखता ही नहीं। जूतों को देखते-देखते पारंगत हो जाता है। वही उसकी समझ है। वहीं से जानता है।

हजारों लोग तुम रास्तों पर चलते हुए देखोगे, लेकिन सभी लोग एक ही रास्ते पर नहीं चल रहे हैं--एक ही रास्ते पर चल रहे हैं यूं तो, लेकिन सबकी नजर अलग-अलग चीजों पर लगी है। भूखा रेस्तरां, होटल को देखता हुआ चलेगा। जिसने उपवास किया है वही जानता है। फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता संसार में सिवाय भोजन के। कहते हैं, उपवासे आदमी को चांद भी तैरती हुई रोटी की तरह मालूम होता है।

संसार तुम्हारा चुनाव है। तुम्हारी वासना चुनती है। जिस चीज में तुम उत्सुक नहीं हो वह दिखाई नहीं पड़ती। मेरे पास बहुत से संन्यासियों ने आकर यह कहा है कि संन्यास लेने के पहले कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ती थीं, अब, नहीं दिखाई पड़तीं। अब दिखाई पड़ने का सार भी नहीं। एक ही कपड़ा बचा--गेरुआ। अब कपड़े की दुकानें हैं भी कि मिट गईं--संन्यासी को क्या लेना-देना। बात ही खत्म हो गई!

जिस बात से हमारा संबंध टूट जाता है, वह विदा हो जाती है संसार से। जिससे हमारा संबंध बना रहता है, उसी को हम देखते चलते हैं। ध्यान रखना, तुम्हारा निर्णय तुम्हीं का नहीं बदलता, सारे संसार को बदल देता है--तुम्हारे संसार को बदज देता है। क्योंकि तुम्हारा संसार तुम्हारा निर्णय है।

काम सत्य को न जानने देगा। क्रोध सत्य को न जानने देगा। क्योंकि क्रोध में तो तुम वैसी अवस्था में पहुंच जाते हो जैसे कोई शराबी। कहीं पड़ते हैं पैर, कहीं तुम रखना चाहते थे। कुछ कह जाते हो, कुछ तुम कहना चाहते थे। पीछे पछताओगे, पहले भी पछताए थे। क्रोध तुमसे ऐसे कृत्य करवा लेता है जो तुम की ही नहीं सकते थे; जो अपने होश में तुमने कभी न किए होते।

क्रोध यानी बेहोशी।

मोह: किसी को तुम अपना मानते हो, तो देखने के ढंग बदल जाते हैं। जिसे तुम अपना नहीं मानते, देखने के ढंग बदल जाते हैं। वही कृत्य अगर अपना करे तो तुम्हारा निर्णय कुछ और होता है; वही कृत्य कोई दूसरा करे तो निर्णय और हो जाता है। तुम्हारा न्याय तुम्हारे मोह से मर जाता है; सत्य को देखने की क्षमता धूमिल हो जाती है। दूसरा कुछ करे तो पाप; अपना कुछ करे तो ज्यादा से ज्यादा भूल। तुम अगर वही काम करो तो मजबूरी; और दूसरा करे तो अपराध!

तुमने कभी खयाल किया?...तुम अगर रिश्वत ले लेते हो, तो मजबूरी, क्या करें, तनख्वाह से काम नहीं चलता। लेना तुम चाहते नहीं, लेकिन मजबूरी है, बाल-बच्चे हैं, घर-द्वार है, चलाना है। जानते हो, गलत है--मगर इतना भी तुम जानते हो कि अपराध तुमने नहीं किया; तुम क्या करो, समाज ने मजबूर कर दिया है। दूसरा जब रिश्वत लेता है तब अपराध है। तब तुम बस शोरगुल मचाते हो। वस्तुतः तुम्हारा शोरगुल उतना ही बड़ा होता है जितनी तुमने भी रिश्वत ली होती। अपनी भूल को छोटा करने के लिए तुम दूसरे की भूल को बड़ा-बड़ा करके दिखाते हो। तुम संसार में सबकी निंदा करते रहते हो। वही तुम भी करते हो; अन्यथा तुम भी नहीं कर रहे हो।

दूसरे का बेटा असफल हो जाता है, तुम समझते हो, बुद्धिहीन; तुम्हारा बेटा असफल हो जाता है तो शिक्षक की शरारत!

मेरे पास मां-बाप आ जाते हैं, वे कहते हैं, हमारा बेटा फेल कर दिया, जरूर कोई साजिश है। जो भी फेल होता है, वह कहता है साजिश है; लेकिन दूसरे जो फेल हुए हैं, उनकी बुद्धि ही नहीं तो क्या करेंगे!

तुम कभी गौर करना, मोह तुम्हारी आंख से न्याय को छीन लेता है।

काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश...। समृतिभ्रंश बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। बुद्ध ने जिसे सम्यक स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्था है--स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको गुरजिएफ ने सैल्फ-रिमेम्बरिंग कहा है, आत्म-स्मरण, स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है, स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्था है।

सुरति स्मृति का ही रूप है। सुरतियोग का अर्थ है: स्मृतियोग--ऐसे जीये कि होश रहे; प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो; उठो तो जानते हुए; बैठो तो जानते हुए।

एक छोटा सा प्रयोग करो। आज जब तुम्हें फुर्सत मिले घंटेभर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोरकर होश को जगाने की कोशिश करना--बस एक क्षण को--तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो बैठे हो, आसपास आवाज चल रही है; सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है; सांस ली जा रही है--तुम सिर्फ होश मात्र हो--एक क्षण के लिए। सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना; फिर उसे भूल जाना; फिर अपने काम में लग जाना। फिर घंटेभर बाद दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना--तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोशी में बिताया; तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोश हो। पहले एक क्षण को होश को जगाकर देखना, झकझोर देना अपने को; जैसे तूफान आए और झाड़-झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना। एक क्षण को अपनी सारी शक्ति को उठाकर देखना--क्या है, कौन है, कहां है! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा। बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना--दुकान है, बाजार है, घर है--भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटेभर जी लेना। फिर घंटेभर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोरकर अपने को देखना। तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था! तब तुम तुलना कर पाओगे। मेरे कहने से तुम न समझोगे; क्योंकि होश को मैं समझा सकता हूं शब्दों में, लेकिन होश तो एक स्वाद है। मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया। मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा; उसका तुम्हें पता ही नहीं है। तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है। होश को जगाना क्षणभर को, फिर घंटेभर बेहोश; फिर क्षणभर को होश को जगाकर देखना--तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी; तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे। वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया--जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति; जैसे तुम नशे में थे--और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोश मालूम पड़ेगी।

मन बेहोशी है, स्मृतिभ्रंश है। और स्वभावतः इन सबका जोड़ सर्वनाश है।

"दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि वह दुःसंग काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश है'।

"ये काम-क्रोधादि पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आते हैं, फिर विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं'।

आता है सब बड़े छोटे से आकार में, तरंग की भांति। अगर तुमने तरंग को ही न पहचाना और पकड़ा, तो चूक गए। पहले कदम में ही जागना। जब क्रोध की पहली लहर आती है, इतनी सूक्ष्म होती है कि पता भी नहीं चलता, चुपचाप प्रविष्ट हो जाती है; इतनी हवा के हलके झकोर की तरह आती है कि पत्ता भी नहीं हिलता, आवाज भी नहीं होती। पर तभी होश रखा, तो ही; नहीं बीज प्रविष्ट हो गया।

क्रोध की अवस्थाओं को समझो। पहला: क्रोध आ रहा है, अभी आया नहीं; लहर उठी है, लेकिन अभी प्रवेश नहीं हुआ। फिर लहर प्रविष्ट हो गई, बीज भीतर पड़ गया; देर-अबेर सागर बनेगा। फिर यह सागर जोर से झंझावात करता है। उठती हैं लहरें और तटों से टकराती हैं। फिर उतर गया सागर। फिर लहर भी चली गई। किनारा शांत रह गया। ये तीन अवस्थाएं हुईं--क्रोध के पहले, फिर क्रोध की, और क्रोध के बाद।

क्रोध के पहले ही जो लहर को देख लेगा, जो जाग जाएगा, वही बच सकता है। लोग अक्सर जब क्रोध जा चुका होता है तब देखते हैं; लेकिन तब तो क्या करोगे? मेहमान जा चुका! जो होना था हो चुका! अब चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत क्या!

लेकिन हम पछताते तभी हैं जब चिड़िया खेत चुग जाती है। तुम सभी पछताए हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो क्रोध करके न पछताया हो। लेकिन तुम्हारा पश्चात्ताप व्यर्थ है। यह तो तब आता है जब सागर उतर चुका। फिर तो तुम करोगे भी क्या? फिर तुम पछता सकते हो और भविष्य के लिए निर्णय ले सकते हो कि अब क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन यह निर्णय भी काम आएंगे? क्योंकि तुमने एक छोटी सी बात भी न सीखी, जिंदगीभर हो गई क्रोध करते, कि जब क्रोध आता है तब तुम्हारा होश नहीं रह जाता, तो निर्णय काम कैसे आएगा? जब क्रोध आता है तब होश नहीं रह जाता, तो निर्णय का भी होश नहीं रह जाता। जब क्रोध चला जाता है, तुम बड़े बुद्धिमान हो जाते हो। क्रोध चले जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता। कामवासना का ज्वर उतर जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता! बुढ़ापे में सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। लेकिन उस बुद्धिमता का कोई मूल्य नहीं है।

क्रोध की लहर जब आए...यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है: "ये काम, क्रोधादि--पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आकार भी समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं'।

बीज से ही सुलझ देना। बो दिया, फिर तो फसल काटनी ही पड़ेगी। फिर पछताना तो एक तरकीब है। वह तरकीब भी बड़ी चालाक है। अकसर लोग क्रोध करके पछताते हैं और सोचते हैं कि बड़े भले लोग हैं, कम से कम पछताते तो हैं। लेकिन मेरे जाने, हजारों लोगों के निर्णयों को देखकर, एक बात तुमसे कहना चाहूंगा: क्रोध करके पछताना पुन: क्रोध करने की तैयारी है। तुम्हारी एक प्रतिमा है तुम्हारे मन में कि तुम बड़े साधु पुरुष, साधुचित्त हो। क्रोध करके तुम्हारी प्रतिमा खंडित हो जाती है, गिर जाती है, सिंहासन से नीचे पड़ जाती है। पछताकर तुम उसे वापस सिंहासन पर रखने की कोशिश करते हो कि "भला क्रोध नहीं होता!' और फिर तुम समझाते हो कि "क्रोध जरूरी भी था, न करते तो हानि होती; ऐसे अगर क्रोध न करोगे तो हर कोई छाती पर चढ़ बैठेगा। आखिर लोगों को डराना तो पड़ेगा ही। मारो मत, कम से कम फुफकारो तो। कोई मारा तो नहीं, किसी की हत्या तो की नहीं--सिर्फ फुफकारे'!

तुम इस तरह के तर्क अपने लिए खोज लोगे। या तुम कहोगे कि बच्चा था, अगर उसको न डांटते न डपटते, बिगड़ जाता। उसके भविष्य के सुधार के लिए...। तुम हजार बहाने खोज लोगे यह समझाने के लिए कि क्रोध जरूरी था। हालांकि तुम जानते हो कि कोई भी क्रोध जरूरी नहीं है। अगर तुम यह जानते न होते तो तुम यह भी निर्णय करने की चेष्टा क्यों करते कि जरूरी था? यह तर्क भी तुम इसलिए खोजते हो कि भीतर चोट खलती है, भीतर तुम जानते हो कि भूल हुई है। अब भूल को लीपा-पोती करते हो। अब भूल को सजाते हो। सिंहासन पर फिर प्रतिमा को बिठा लेते हो। फिर तुम उसी जगह आ जाते हो जहां क्रोध करने के पहले थे। इसका अर्थ हुआ: अब तुम फिर पुनः क्रोध करने के लिए उतने ही तत्पर हो जितने पहले थे।

पश्चात्ताप क्रोध की तरकीब है। पश्चात्ताप से धर्म का कोई संबंध नहीं। धार्मिक व्यक्ति पछताता नहीं। और धार्मिक व्यक्ति व्यर्थ के निर्णय नहीं लेता, व्रत, कसमें नहीं खाता। धार्मिक व्यक्ति तो जब कोई चीज को समझ लेता है तो उसकी समझ ही उसकी कसम है; सकी समझ ही उसका पश्चात्ताप है; उसकी समझ ही उसकी क्रांति है। तब फिर वह यह नहीं कहता कि मैं क्रोध न करूंगा--वह इतना ही कहता है कि अब जब क्रोध आएगा तो मैं जागूंगा।

इस फर्क को समझ लो।

क्रोध न करूंगा, यह तो बेहोश आदमी का ही निर्णय है। यह तो तुम बहुत बार कर चुके और बहुत बार झुठला चुके। समझदार आदमी यह कहता है कि एक बात तो मैं समझ गया कि क्रोध जब आता है, मैं बेहोश हो जाता हूं, इसलिए अब होश रखने की कोशिश करूंगा। क्रोध करूंगा कि नहीं करूंगा, यह मेरे बस में कहां; बस में ही होता तो पहले ही कभी बंद कर दिया होता। मैं अवश हूं, असहाय हूं। इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि क्रोध न करूंगा--इतना ही कर सकता हूं कि इस बार जब क्रोध आएगा तो होश से करूंगा।

इस फर्क को बहुत गौर से ले लेना: "क्रोध तो करूंगा, लेकिन होश से करूंगा'। और क्रोध अगर होश से किया जाए तो होता ही नहीं। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए पत्थर को कोई रोटी समझकर भोजन करे। क्रोध होश से करना जो ऐसा ही है जैसे जानते हुए कोई दिवाल से निकलने की कोशिश करे, सिर टकराए, लहूलुहान हो जाए। जानते हुए क्रोध करना ऐसे ही है जैसे जानते हुए कोई आग में हाथ डाले। इसलिए जानते हुए करूंगा, होशपूर्वक करूंगा...।

"होशपूर्वक' का अर्थ है कि लहर आएगी तब जानूंगा। तूफान जब जा चुका होगा तब पछताने को कोई अर्थ नहीं है। "पकडूंगा प्रारंभ में, बीज में'। जिसने पहले पकड़ लिया, वह मुक्त हो जाता है। फिर बीज को, लहर को सागर बनने की सुविधा नहीं होती। आते सब छोटी-छोटी तरंगों की तरह हैं, इसलिए तो धोखा दे जाते हैं।

जब क्रोध आता है, तुम सोचते हो: "किसको पता है? इतना छोटा है, अपने को ही पता नहीं चल रहा'।

जरा देखना, क्रोध बड़ा नाजुक है; बड़ी हलकी सी लहर आती है। जाते थे तुम रास्ते से, कोई हंसने लगा; उसने कुछ कहा भी नहीं है; तुम्हारे लिए ही हंसा हो, ऐसा भी जरूर नहीं है; तुम ही अकेले नहीं हो, दुनिया बड़ी है। और क्या मतलब तुम्हारे लिए हंसे? लेकिन एक लहर तुम्हारे भीतर सरक जाएगी; तुम तन गए। कुछ खटक गया। कुछ अटक गया। तुम्हारा प्रवाह वैसा ही न रहा जो क्षण भर पहले था। उसकी हंसी पत्थर की तरह भीतर चली गई। तुम और हो गए। अपने चेहरे पर गौर करना, चेहरा तन गया, माथे पर सलवटें आ गईं, ओंठ भिंच गए, दांत कस गए, हाथों में तनाव आ गया।

इस सारी छोटी सी लहर को गौर से देखना। सूक्ष्म निरीक्षण करना, और तुम हैरान होओगे: जैसे-जैसे तुम निरीक्षण करोगे वैसे-वैसे तुम पाओगे कि और भी सूक्ष्म तरंगों का पता चलता है। आदमी हंसा भी नहीं, जिस ढंग से उसने तुम्हारी तरफ देखा और लहर आ गई। या यह भी हो सकता है कि उसने तुम्हारी तरफ देखा नहीं, और  लहर आ गई, कि वह राह से तुम्हें बिना देखे गुजर गया कि क्रोध आ गया। तुम्हें और बिना देखे गुजर जाए! तो जानकर तुम्हें अनदेखा किया, उपेक्षा की! अपमान हो गया!

अहंकार घाव की तरह है। जरा-जरा सी चीज से ठोकरें खाता है। जरा-जरा चीजों से विक्षुब्ध हो जाता है। इस सबको जांचना, देखना। कुछ करने की उतनी बात नहीं है जितनी जागकर देखने की बात है। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम अभी हो कहां? तुम अभी हो ही नहीं। होश ही होगा तब तुम पाओगे। बेहोशी में कोई है?

"कौन तरता है? माया से कौन तरता है?...जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है'।

"कौन तरता है? माया से कौन तरता है? कौन पार निकल पाता है इस तिलिस्म से, झूठ के तिलिस्म से, इस झूठ के जादू से, मन के इस फैलाव से। कहो उसे माया।

कौन तर पाता है?...जो सब संगों का परित्याग करता है।

तुम जल्दी ही संग हो जाते हो किसी भी चीज के। क्रोध उठा तुम संग हुए, तुम साथ हुए, तुम ने हाथ में हाथ डाल लिया, तुम हमजोली बने। वासना उठी, तुम साथ हुए। संग होना तुम्हारे लिए इतनी तत्परता से होता है कि इधर भाव उठा नहीं कि उधर तुमने गले में फांसी डाली नहीं। तुम साथ होने को इतने तत्पर हो हर चीज के! यह संग की प्रवृत्ति ही तुम्हें डुबा रही है। जरा दूर-दूर चलो। जरा सहयोग सोच समझकर करो। संग की इतनी जल्दी मत करो। क्रोध आए, आने दो, तुम जैसे साथ मत दो; तुम जरा दूर-दूर खड़े रहो अलगाए, अलग-अलग, पृथक-पृथक! क्रोध को ऐसे देखो जैसे कोई और हो। क्रोध को ऐसे देखो जैसे " पर' है, "पर' है ही। "स्व' तो वही है जो देखनेवाला है, जो द्रष्टा है; शेष सब तो "पर' है।

इस सूत्र का अर्थ है: जो सब संगों का परित्याग करता है, इस सूत्र का अर्थ है: जो द्रष्टा बनाता है, साक्षी बनता है। फिर व्याख्याकारों ने बड़ी भूलें की हैं। वे कहते हैं: "कसम खाओ कि क्रोध नहीं करोगे; व्रत लो ब्रह्मचर्य का; धन का त्याग करो; घर द्वार छोड़ो, इसको वे संग-परित्याग कहते हैं, मैं नहीं कहता। क्योंकि मैंने उन लोगों को देखा है, जिन्होंने धन छोड़ दिया और फिर भी धन उनसे नहीं छूटा। और मैंने उन लोगों का देखा है, जिन्होंने घर छोड़ दिए, और कुछ भी नहीं छूटा; क्योंकि घर भीतर है, बाहर नहीं।

गृहस्थ होना एक दृष्किोण है। संन्यस्त होना भी एक दृष्टिकोण है। तुम घर में एक रहकर संन्यस्त हो सकते हो। तुम संन्यासी होकर गृहस्थ रह सकते हो। यह बात जरा सूक्ष्म है। यह इतनी स्थूल नहीं है जितनी लागों ने पकड़ रखी है। लोग तो बिलकुल पदार्थवादी हैं जिनको तुम संन्यासी कहते हो, वे भी। जिनको तुम मुनि कहते हो, वे भी पदार्थवादी हैं; क्योंकि उनका त्याग भी पदार्थ का त्याग है, दृष्टि का नहीं। कोई घर को छोड़ देता है, तो उसको तुम त्यागी कहते हो; कोई घर को पकड़ता है तो उसको तुम भोगी कहते हो लेकिन दोनों की नजर घर पर है। दोनों पदार्थवादी हैं, मेटीरियलिस्ट। अभी अध्यात्म का दोनों में से किसी को भी अनुभव नहीं हुआ।

अध्यात्म का अर्थ है: अब तुम पदार्थ को न पकड़ते हो, न छोड़ते हो, तुम दृष्टियों में रूपांतरण करते हो; तुम दर्शन बदलते हो; तुम अपने देखने का ढंग बदलते हो।

तो मैं तुमसे कहूंगा, जो सब संगों का परित्याग करता है, उसका अर्थ हुआ: क्रोध उठता है तो हाथ में हाथ डालकर चल नहीं पड़ता--क्रोध से कहता है, "ठीक है मर्जी, तुम उठे; हम भी सोचेगें, निर्णय करेंगे। साथ देने योग्य लगेगा, देंगे; नहीं देने योग्य लगेगा, नहीं देंगे। साथ की अनिवार्यता नहीं है। तुम उठे, इसलिए हम साथ देंगे ही--इस भूल में मत पड़ो। साथ हमारा निर्णय होगा--होशपूर्वक'। और तब तुम एक क्रांति होते देखोगे तुम्हारे भीतर।

इस होश की आग में, जो व्यर्थ है जल जाता है। कुंदन बचता है, कचरा जल जाता है।

"जो सब संगों का परित्याग करता है,जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममता-रहित है'।

"महानुभाव' बड़ा प्यारा शब्द है। महानुभाव का अर्थ है: जिसके भीतर परम भाव का अवतरण हुआ है; सदगुरु; कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर परमात्मा अवतरित हुआ है। महानुभाव: जिसके भीतर आत्यंतिक भाव पैदा हुआ है; जो उस भाव दशा में है जिसको हम भगवान कहें। ऐसे व्यक्ति के पास होना। कोई बुद्ध मिल जाए, कोई महावीर, कोइ कबीर, कोई नानक, कोई जीसस, कोई मुहम्मद, तो महानुभाव की सेवा करना।

सेवा का कुल इतना अर्थ है कि सत्संग करना। ऐसे व्यक्ति की छाया में बैठना। जैसे थका-हारा पथिक, धूप से बचने के लिए वृक्ष की छाया के तले बैठ जाता है और शीतल विश्राम पाता है--ऐसे ही किसी महानुभाव की छाया में बैठना। संसार से थका हुआ, हारा हुआ, विचलित व्यक्तित्व, किसी महानुभाव की छाया में औषधि को उपलब्ध हो जाता है जो स्वयं एक हो गया है, उसकी निकटता में तुम भी एक होने लगते हो। जो स्वयं एक हो गया है, उसके पास बैठकर, उसका सत्य संक्रामक होने लगता है।

ध्यान रखना, बीमारी ही नहीं लगती, स्वास्थ्य भी लगता है। ध्यान रखना, बुराई ही नहीं तैरती एक से दूसरे में, सत्य भी संक्रमित होता है। सत्य से ज्यादा संक्रामक कुछ भी नहीं है। अगर तुम सत्य के पास रहे तो तुम उसके रंग में रंग ही जाओगे। अगर तुम बगीचे से गुजरे तो तुम्हारे वस्त्र फूलों की थोड़ी न बहुत गंध ले ही लेंगे।

..."जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममता रहित है'।

दो तरह के संबंध हो सकते हैं। एक तो ममता का संबंध है: मेरा बेटा, मेरी मां, मेरी पत्नी...! यहां संबंध "मेरे' का है। तुम गुरु के साथ "मेरे' का संबंध मत बनाना। अगर तुमने वहां भी "मेरे' का संबंध बनाया, तो तुम चूकोगे। तुम गुरु के हो जाना। तुम भला कहना कि मैं गुरु का; लेकिन "मेरा गुरु' ऐसा मत कहना।

तुम धर्म के साथ ममता का संबंध मत बनाना। यह मत कहना कि "मेरा धर्म'--तुम धर्म के हो जाना। लेकिन तुमने "मेरा धर्म' कहा तो तुमने धर्म को भी इस जमीन पर खींच लिया, बहुत नीचे उतार लिया। तुम कीचड़ में घसीट लाए कमल को ।

"मेरे' का जहां भी तुमने आधार बनाया, वहीं तुम्हारा मोह, मन, सब वापस लौट आता है। गुरु के साथ तो "मेरे' का संबंध मत बनाना। गुरु के साथ तो आत्मा का संबंध बनाना, मन का नहीं; ममता का नहीं, प्रेम का। और ये बड़ी फर्क की बातें हैं।

प्रेम जानता ही नहीं "मैं' और "तू'। ममता "मैं' और "तू' के बीच चलती है। ममता बड़ी संकीर्ण है। प्रेम विस्तार है--विस्तीर्णता है। अगर तुम ममता से मुक्त हुए और सौभाग्य से तुमने किसी महानुभाव की छाया पा ली, तो तुम्हारी जिंदगी कुछ की कुछ हो जाएगी।

..."जो निर्जन स्थान में निवास करता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है, जो तीनों गुणों से परे हो जाता है, और जो योगक्षेम का परित्याग कर देता है'।

..."जो निर्जन स्थान में निवास करता है'। व्याख्याएं कहती हैं कि जंगल में निवास करता है, मैं नहीं कहता। क्योंकि निर्जन स्थान एक आत्यंतिक दशा का नाम है--ऐसा भीतर कि वहां कोई भी न हो, बस एकाकी तुम्हारा चैतन्य रह जाए, केवल चैतन्य रह जाए। यह कोई भौगोलिक बात नहीं है कि तुम हिमालय चले जाओ कि जंगल में चले जाओ। क्योंकि तुम जंगल भी चले जाओगे तो तुम्हारे मन की भीड़ तो तुम्हारे साथ ही होगी। तुम करोगे क्या जंगल में बैठकर? तुम कल्पना के जाल रचोगे, सपने देखोगे। तुम जंगल में बैठकर भी बाजार में ही रहोगे। तुमने बहुत बार मंदिर जाकर देखा है, करते क्या हो मंदिर में? बैठते हो प्रतिमा के सामने--होते वहां नहीं। बैठते हो मंदिर में, होते कहीं और हो।

धर्म के जगत में स्थितियां स्थान की तरह समझ ली गई हैं और बड़ी भूल हो गई है। "निर्जन' स्थिति है, स्थान नहीं; तुम्हारे भीतर की एक अन्तर्दशा है, जहां तुम अकेले हो, शुद्ध कुंआरे, जहां तुम किसी से बंधे नहीं, जहां तुम आंख बंद करते हो तो सारा जगत समाप्त हो जाता है--बस तुम ही रह जाते हो; "मैं' का भाव भी नहीं रह जाता, क्योंकि वह भी द्वैत होगा। बस "होना' हो तो है--निराकार, निर्विकार।

..."जो निर्जन स्थिति में निवास करता है', स्वभावतः उसके लौकिक बंधन टूट जाते हैं; उसके जीवन में अलौकिक संबंधों का आविर्भाव होता है; वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मोक्ष के संबंध निर्मित होते हैं। और ध्यान रखना: संसार के संबंध बांधते हैं, मोक्ष के संबंध मुक्त करते हैं; काम बांधता है, प्रेम मुक्त करता है। अगर तुम्हारे प्रेम ने तुम्हें बांधा हो तो समझना कि काम होगा, प्रेम नहीं। प्रेम तो वही जो तुम्हें मुक्त करे। प्रार्थना तो वही जो तुम्हें मुक्त करे।

अगर तुम हिंदू हो गए हो तो बंध गए। यह धार्मिक होने का ढंग नहीं। यह धार्मिक होने की बात ही नहीं। चूक गए। अगर तुम मुसलमान हो गए, बंध गए। तुम धार्मिक हो जाओ, बस काफी है। धार्मिक व्यक्ति न तो हिंदू होता, न मुसलमान होता। धार्मिक व्यक्ति तो उस परम प्रेम में बंधा होता है जो सभी बंधनों को काट जाता है।

लेकिन बात कुछ और ही निकली। जहां मैंने समझा था वीरानियां होंगी, मरुस्थल होंगे, कुछ भी न बचेगा--वहीं मैंने पाया कि सब कुछ पा लिया।

तुम्हारे एकांत में ही "सर्व' का साक्षात्कार होता है। तुम्हारे प्रेम की आत्यंतिक घड़ी में ही, तुम पाते हो सब पा लिया; यद्यपि पहले ऐसा ही लगता है कि सब छोड़ रहे हैं, सत्य त्याग रहे हैं।

मैं तुमसे कहता हूं: त्याग परम भोग का मार्ग है। उपनिषद कहते हैं: "तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा जिन्होंने त्यागा। या उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा'। यह वचन अदभुत है। इसके दोनों अर्थ हो सकते हैं, और दोनों सही हैं। क्योंकि भोग तुम्हारे लिए है ही नहीं; तुम सिर्फ भोग की सोचते हो, करते कहां हां! भोग सिर्फ उनके लिए है जो वर्तमान में जीते हैं। जिन्होंने मन को छोड़ा, वासना को छोड़ा, जो अपने भीतर लौटे, जिन्होंने अपने से संबंध जोड़ा उनके जीवन में परम भोग के स्वर उठते हैं।

..."जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है, कर्मों का त्याग करता, और सब कुछ त्यागकर निर्द्वंद्व हो जाता है। यह भक्त की परिभाषा हो रही है। एक एक चीज को खयाल में लें।

...तीनों गुणों से परे हो जाता है: तमस, रजस सत्त्व। परम भक्त न तो तामसी होता--हो ही नहीं सकता, क्योंकि तामस तो तुम जितने मन से दबे हाते हो उतना ही होता है। तामस तो मन का अंधकार है, विचारों की भीड़ है, वासनाओं का ऊहापोह है।

भक्ति को उपलब्ध व्यक्ति राजस भी नहीं होता। उसके भीतर करने की कोई उद्दाम वासना नहीं होती। वह किसी त्वरा, ज्वर, दौड़ में नहीं होता। उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है। उसे कुछ अहंकार के शिखर उपलब्ध नहीं करने हैं। उसे राजधानियां जीतनी नहीं है। उसे सिकंदर नहीं होना है। वह तो जो "होना है,  है ही, इसलिए जाना कहां, दौड़ना क्यों? पहुंचने को उसके लिए मंजिल नहीं है। वह अपनी मंजिल पर है ।

यह तो हम समझ लेते हैं कि भक्त तामसी नहीं होता, राजसी नहीं होता; लेकिन नारद का यह अदभुत सूत्र कहता है कि भक्त सात्त्वि होता है। क्योंकि साधुता भी, असाधुता के विपरीत है। कहना परमात्मा को कि वह साधु है, ठीक न होगा; क्योंकि वह साधु असाधु दोनों से परे होना चाहिए। यह कहना कि परमात्मा को साधु ही पा सकेंगे, गलत होगा; क्योंकि फिर असाधुओं का क्या होगा? यह कहना कि साधुओं में ही परमात्मा है, नितांत गलत है; क्योंकि असाधुओं में भी तो वही है। परमात्मा का अर्थ हुआ तब: सर्वातीत, ट्रांसेंडेंटल, जो सभी के पार है।

भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान की ओर अग्रसर है। भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपांतरित हो रहा है। भक्त भगवान में बदल रहा है। उसकी हर प्रार्थना उसे भगवान बना रही है। उसकी हर पूजा उसे भगवान बना रही है। भक्त और परमात्मा के बीच का फासला कम होता जा रहा है प्रतिपल; जल्दी ही छलांग लग जाएगी; जल्दी ही भगवान में भक्त होगा, भक्त में भगवान होंगे; द्वैत गिर जाएगा।

इसलिए सूत्र कहता है: "तीनों गुणों से परे हो जाता है जो, योगक्षेम का परित्याग कर देता है'। न उसे अब कुछ लाभ है, न कुछ हानि है।

..."जो कर्मफल का त्याग करता है...' क्योंकि जो जब अनुभव करता है कि फल तो भविष्य में होता हैं, और भविष्य मन के बिना नहीं हो सकता है; फल तो कल होगा, और कल बिना मन के नहीं हो सकता। और जिसने मन से ही संग साथ छोड़ दिया, वह कर्मफल की क्या चिंता करे? लाभ तो कल होगा, हानि भी कल होगी। अभी तो न लाभ है, न हानि है। अभी तो बस वही है, जो है।

जो कर्मफल का त्याग करता, स्वभावतः कर्मों का भी त्याग हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कर्म नहीं करता। नहीं, वह "करनेवाला' नहीं रह जाता--परमाात्मा करता है अब! अब वह बांसुरी की तरह हो जाता है। गीत गाए परमात्मा तो गीत पैदा होता है, न गाए तो बांस की पोंगरी। गाए तो बांसुरी, न गाए तो बांस की पोंगरी।

बांस की पोंगरी खुद नहीं गाती, सिर्फ माध्यम है। भक्त जानता है कि मैं सिर्फ माध्यम हूं, उपकरण हूं! उसका साधन मात्र!

"और तब सब कुछ त्यागकर निर्द्वंद्व हो जाता है'। और तब कोई द्वंद्व नहीं रह जाता। जब कुछ पाने को न रहा, तो कुछ खोने को भी न रहा। जब कहीं जाने को न रहा, तो कुछ करने को भी न रहा। सब छोड़कर...यही समर्पण है भक्त का। वह उस परम गहराई को उपलब्ध हो जाता है जहां कोई द्वंद्व नहीं।

..."जो वेदों का भी भलीभांति परित्याग कर देता है'।

चौंकोगे तुम: "वेदों का'! कोई आर्यसमाजी मौजूद होगा तो बहुत नाराज हो जाएगा: "वेदों का'! लेकिन भक्त का लक्षण यही है।

जो वेदों का भी "भलीभांति'--ऐसा वैसा नहीं--"भलीभांति', बिलकुल, सर्वथा, त्याग कर देता है, और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है।

वेद भी खिलौने हैं बुद्धि के। शास्त्र भी समझा लेना है; सांत्वना है; सत्य नहीं। और भक्त तो ज्ञान की तलाश नहीं कर रहा है। भक्त तो प्रेम की तलाश कर रहा है। वेदों से मिल जाए ज्ञान, सूचनाएं; प्रेम कहां मिलेगा? शास्त्रों में कहीं प्रेम है? जल के संबंध में तुम कितना ही समझ लो, उससे कुछ प्यास तो न बुझेगी। सरोवर चाहिए।

भक्त जल के संबंध में शास्त्रों से तृप्त नहीं होता; वह कहता है, "प्यासा हूं, सरोवर चाहिए'। पटक

वेद या कुरान या बाइबिल, कोई भी शास्त्र-वेद यानी सारे शास्त्र शब्दजाल है। उनसे तृप्त मत हो जाना। उनसे जो तृप्त हुआ, वह मूढ़ है। वह कितना ही ज्ञानी हो जाए, उसकी मूढ़ता नहीं मिटती; उसकी मूढ़ता भीतर रहती है, पांडित्य को बाहर से आवरण हो जाता है।

"वेदों का जो भलिभांति त्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम प्राप्त कर लेता है।

जोर है प्रेम पर, ज्ञान पर नहीं। जानने से क्या होगा? जानने में तो दूरी बनी रहती है। भक्त कहता है, भगवान को जानना नहीं, भगवान होना है। जानने से क्या होगा? भगवान को पीना है। भगवान को उतारना है अपने में। भगवान में उतर जाना है। दूरी मिटानी है। शास्त्र तो बीच में दीवालें बन जाते हैं। जितना ज्यादा तुम जानने लगते हो उतना ही अहंकार प्रगाढ़ होता है। और अहंकार तो बाधा है प्रेम में; उसे तो छोड़ना होगा। धन का अहंकार ही नहीं, ज्ञान का अहंकार भी छोड़ना होगा। जाननेवाले को मिटा ही देना है। कोई भीतर "मैं' भाव ही न रह जाए। तुम एक शून्य हो जाओ। उसी शून्य में प्रेम के कमल खिलते हैं--शून्य की झील में प्रेम के कमल! और कोई झील नहीं है जहां प्रेम के कमल खिलते हों। तुम मिट जाओ किचड़ में, तो ही कमल खिलते हैं। तुम्हारी कीचड़ से ही कमल उठते हैं।

..."जो वेदों को भलीभांति परित्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है, वह तरता है, वह तरता है; यही नहीं, वह लोगों को भी तार लेता है'। वह एक नाव बन जाता है। खुद तो तरता ही है, लेकिन इतना ही नहीं कि खुद तरता है, औरों को भी तार देता है, तारणतरण हो जाता है; तारता भी, तरता भी! उसके सहारे न मालूम कितने लोग तर जाते हैं।

जिसके जीवन में प्रेम का फूल खिला, वह न मालूम कितने भौरों को आकर्षित कर लेता है।

जिसके जीवन में प्रेम का गीत उठा, न मालूम कितने कंठों में गुनगुनाहट शुरू हो जाती है।

और अगर बढ़े तो सारे लोग भी छोटे पड़ जाते हैं, समा न सके। दोनों लोक भी छोटे पड़ जाते हैं। आदमी छोटे से छोटा भी हो सकता है। मन उसे संकीर्ण से संकीर्ण भी कर देता है। आदमी विराट से विराट भी हो सकता है--मन की दीवाल भर टूट जाए, मान का कारागृह न हो।

मन कारागृह है; ध्यान मुक्ति है। काम कारागृह है; प्रेम मुक्ति है। वेद, शास्त्र कारागृह हैं; भक्ति मुक्ति है।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 





बुधवार, 13 सितंबर 2023

सूत्र :

तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्यः

तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च

अव्यावृतभजनात्

लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्

मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा

महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च

लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्

तदेव साध्यतां तदेव साध्याताम्


पहला सूत्र: "तस्या साधनानि गायन्त्याचार्याः'।

जितने भी हिंदी में अनुवाद हैं, वे सभी कहते हैं: "आचार्यगण उस भक्ति के साधन बतलाते हैं। मूल सूत्र कहता है: आचार्यगण उस भक्ति के साधन गाते हैं। और भेद थोड़ा नहीं है। बतलाना बतलाना ही है--गाना बात और! गाने में कुछ खूबी छिपी है।

भक्ति बोलती नहीं--गाती है।

भक्ति बोलती नहीं--नाचती है।

नृत्य में और गीत में ही उसकी अभिव्यक्ति है।

वेदांत बोलता है, भक्ति गाती है।

गाने का अर्थ हुआ: भक्ति का संबंध तर्क से नहीं, विचार से नहीं--हृदय और प्रेम से है। भक्ति का संबंध कुछ कहने से कम, कहने के ढंग से ज्यादा है।

भक्ति कोई गणित की व्यवस्था नहीं है--हृदय का आंदोलन है। गीत में प्रगट हो सकती है। भाषा तो वैसे ही कमजोर है। फिर भाषा में ही चुनना हो तो भक्ति गद्य को नहीं चुनती, पद्य को चुनती है। ऐसे तो पद्य से भी कहां कहा जा सकेगा, लेकिन शब्दों के बीच में लय को समाया जा सकता है। शब्द से न कहा जा सके, लेकिन शब्दों के बीच समाहित धुन से शायद कहा जा सके।

तो भक्त के जब शब्द सुनो तो शब्दों पर बहुत ध्यान मत देना। भक्त के शब्दों में उतना अर्थ नहीं है जितना शब्दों की धुन में है, शब्दों के संगीत में है। शब्द अपने-आप में तो अर्थहीन हैं। जिस रंग में और जिस रस में लपेटकर शब्दों के भक्त ने पेश किया है, उस रंग और रस का स्वाद लेना। 

लेकिन अकसर अनुवाद में मूल खो जाता है, और कभी-कभी तो इतनी सरलता से खो जाता है कि खयाल में भी नहीं आता। क्योंकि हम सोचते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि आचार्यों ने गाया कि आचार्यों ने कहा, बात तो एक ही है।

बात जरा भी एक ही नहीं है--बात बड़ी भिन्न है। आचार्यों ने गाया, भक्ति के आचार्यों ने गाया--कहा नहीं। और जोर धुन पर है, संगीत पर है। जोर शब्द पर नहीं, शब्द के अर्थ पर नहीं, शब्द की तर्कनिष्ठा पर नहीं।

पक्षियों के गीत जैसे हैं भक्तों के शब्द। तुम उन्हें सुनकर आनंदित होते हो। कोई अर्थ पूछे तो न बता सकोगे। लेकिन अर्थ की चिंता ही कौन करता है, जिसे आनंद मिलता हो! आनंद अर्थ है!

परमात्मा अर्थातीत है। इसलिए भक्तों ने कहा नहीं--गाया। क्योंकि कहने में अर्थ जरा जरूरत से ज्यादा हो जाता है। गाने में अर्थ गौण हो जाता है, रस प्रमुख हो जाता है।

भक्ति है रस। भक्ति कोई ज्ञान नहीं; कहने-सुनने की बात नहीं--डूबने, मिटने की बात है।

इसलिए मैं अनुवाद करूंगा: "आचार्यगण उस भक्ति के साधन गाते हैं'। गाने में ही साधन को बतलाते हैं। अगर तुमने गाने को समझ लिया, अगर उनके गीत के रस को पकड़ लिया, तो उन्होंने सब बता दिया। क्योंकि फिर वे जो साधन बतलाते हैं, वे साधन भी क्या है? वे साधन हैं: भजन, कीर्तन, उसकी कथा में रस, श्रवण। वे सब उसी रस के विस्तार हैं।

"वह भक्ति विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है'।

इस सूत्र को बारीकी से समझना, क्योंकि योग भी यही कहता है। तो फिर योग और भक्ति में भेद कहां होगा? योग भी कहता है: विषय-त्याग और संग-त्याग से। विषयों को छोड़ना है। विषयों की आसक्ति छोड़नी है। त्यागी भी यही कहता है और भक्त भी यही कहता है। दोनों के अर्थ तो एक नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों के आयाम अलग है। शब्द एक होंगे, अर्थ तो अलग हैं।

तो थोड़ा समझें।

त्याग दो तरह के हो सकते हैं। एक तो त्याग होता है: बिना भूमिका बदले भाग जाना। एक आदमी घर में है, गृहस्थ है। वह अपनी चेतना को तो नहीं बदलता, घर छोड़ देता है, पत्नी-बच्चे छोड़ देता है, जंगल की तरफ चला जाता है। भूमिका नहीं बदली, चेतना का तल नहीं बदला--स्थान बदल लिए। स्थिति नहीं बदली--स्थान बदल लिया। मन:स्थिति नहीं बदली--आसपास की जगह बदल ली। वह जाकर जंगल में बैठ जाए, जल्दी ही वहां फिर गृहस्थी खड़ी हो जाएगी। क्योंकि गृहस्थी का जो "ब्लू प्रिंट' है, वह उसकी चैतन्य की दशा में है, वह उसे साथ ले आया। वहां भी गृहस्थी इसी ने बनाई थी। वह कुछ आकस्मिक आकाश से न उतर आई थी। किसी शून्य से उसका आविर्भाव न हुआ था। इसके ही चैतन्य में, इसकी ही चेतना के भीतर छिपे बीज थे--वे प्रगट हुए थे।

पत्नी आकाश से नहीं आती--पति के भीतर छिपे राग से खिंचती है। पति आकाश से नहीं आता--पत्नी के भीतर छिपे राग से आता है। तुम उसी को अपने पास बुला लेते हो जिसकी गहन आकांक्षा तुम्हारे भीतर छिपी है। वही तुम्हें मिल जाता है जो तुम चाहते हो। चाहे तुम्हें पता हो न हो,चेतन हो अचेतन हो, होश में मांगा हो बेहोशी में मांगा हो--तुम्हें वही मिलता है जो तुमने मांगा है। तुम्हारे पास वही सरककर चला आता है जो तुमने चाहा है।

तुम चुंबक हो। और तुम्हारा चुंबक तुम्हारी चेतना की स्थिति में है। अब अगर एक चुंबक लोहे के कणों को खींच लेता हो, फिर लोहे के कणों से परेशान हो जाए, भाग जाए जंगल--क्या फर्क पड़ेगा? चुंबक चुंबक रहेगा। वहां भी लोह-कणों को खींचेगा। यह भी हो सकता है कि लोह-कण पास  हों, तो चुंबक कुछ भी न खींच पाए, लेकिन इससे क्या चुंबक चुंबक न हो जाएगा? चुंबक चुंबक ही रहेगा। लोह-कण होंगे तो खींच लेगा, न होंगे तो न खींचेगा; लेकिन इससे कोई चुंबक के जीवन में क्रांति न हो जाएगी।

तो एक तो त्याग है जो पलायनवादी है, भगोड़े का है। भक्त तो उस त्याग में कोई रस नहीं है। वह त्याग ही नहीं है। उसको त्याग ही कहना पहले तो गलत है। वह छोड़ना है, त्याग नहीं; भागना है, मुक्ति नहीं है।

फिर एक त्याग है चेतना के तल को बदलने से। तुम जैसे हो अभी उससे ऊपर उठते हो। जैसे ही ऊपर उठते हो, तुम्हारे आसपास का सारा संसार वैसा ही बना रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता--तुम वैसे ही नहीं रह गए। संसार में रहो तो भी संसार अब तुम में नहीं है। तुम चुंबक न रहे। तुमने चुंबकत्व छोड़ दिया। अब लोहे के टुकड़े पास ही पड़े रहें, पुराने समय में खींचे थे जब तुम चुंबक थे; अब भी पास पड़े रहेंगे, लेकिन अब तुम चुंबक नहीं हो--अब तुम में खींच न रही, आकर्षण न रहा। इसका नाम ही संग-त्याग है। पास तो है, लेकिन तुम बड़े दूर हो गए। घर में ही हो, लेकिन घर में न रहे। दुकान पर बैठे हो, दुकान में न रहे।

संसार से भागना एक बात है--वह त्याग नहीं है। संसार से उठना दूसरी बात है--वह त्याग है।

ऊपर उठो। भूमिका बदलो।

इसलिए भक्तों ने भागने का आग्रह नहीं किया।

जीवन को न तोड़ना है, न मिटाना है, न बदलना है--चैतन्य के रूप को नया करना है। तुम्हारे भीतर की ज्योति के थोड़ा बड़ा करना है, तुम थोड़े ऊपर खड़े होकर देख सको; तुम्हारी दृष्टि का विस्तार थोड़ा बड़ा हो जाए।

तो चेतना के एक-एक  तल से दूसरे तल पर जाना, चेतना के एक सोपान से दूसरे सोपान पर जाना, वही त्याग है।

"वह भक्ति विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है'...तो तुम भक्त हो!

इसे हम ऐसा समझें कि तुम जहां खड़े हो, वहां संसार है। अगर तुम स्थान के बदल लो, तो तुम संसार में ही कहीं दूसरी जगह खड़े हो जाओगे। परमात्मा से तुम्हारी दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। हिमालय परमात्मा से उतना ही दूर है जितना तुम्हारी दुकान और बाजार की जगह। हिमालय परमात्मा से जरा भी पास नहीं।

लेकिन अगर तुम अपनी चेतना के तल को बदलो तो तुम संसार से दूर लगते हो और परमात्मा के पास होने लगते हो।

एक हिमालय तुम्हें चढ़ना है जरूर, लेकिन वह हिमालय तुम्हारे भीतर की शीतलता का है; वह तुम्हारे भीतर की शांति का है; वह तुम्हारे भीतर के मौन का है। एक गौरीशंकर की यात्रा करनी है जरूर, लेकिन वह गौरीशंकर बाहर नहीं है; वह तुम्हारी अंतरात्मा का शिखर है। भीतर ऊपर उठना है। बाहर तो जहां हो, ठीक हो। बाहर से कुछ भी भेद नहीं पड़ता।

"विषय-त्याग और संग-त्याग से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति सधती है'।

भक्ति का अर्थ है: परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी कम हो जाए। भक्ति तुम्हारे और परमात्मा के बीच की दूरी के कम होने का नाम है। दूरी कम होती जाए, तो भक्ति सघन होती जाती है। एक दिन पूरी मिट जाती है, अनन्यता हो जाती है, तो भक्त भगवान हो जाता है, भगवान भक्त हो जाता है। तब "दुई' नहीं रह जाती। तब दोनों किनारे खो जाते हैं एक में ही।

इसलिए भक्त के त्याग की सूक्ष्मता को खयाल में रखना। साधारण त्यागी का त्याग सीधा-साफ है; भक्त का त्याग बड़ा सूक्ष्म है। साधारण त्यागी भागता है; भक्त रूपांतरित होता है। इसलिए भक्त को शायद तुम पहचान भी न पाओ--साधारण त्यागी को कोई भी पहचान लेगा। उसकी पहचान बड़ी ऊपरी है--घर-द्वार छोड़ दिया, काम-धंधा छोड़ा। जिसे तुम संसार कहते थे, उसे छोड़ दिया, जंगल में चला गया। इसे पहचानने में अड़चन न आएगी। भक्त जहां है वहीं है। चैतन्य बदलता है। रूपांतरण बड़ा सूक्ष्म है और भीतरी है। ऊपर से तो वैसा ही रहता है, कानों-कान किसी को खबर नहीं होती। लेकिन भीतर एक हीरे का जन्म होने लगता है। भीतर एक निखार आता है। चेतना की लौ थमती है, अकंप जलती है। इसे देखने के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा भीतर झांकना पड़े...।

और जब तक ऐसा न हो पाए तब तक तुम्हारी जिंदगी कहने को ही जिंदगी है, नाममात्र की जिंदगी है। जरा भी मूल्य नहीं उसका--दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। चाहे तुम्हारी जिंदगी सिकंदर की जिंदगी ही क्यों न हो, फिर भी दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। क्योंकि मूल्य तो अंतरात्मा का होता है। तुमने बाहर क्या किया, इससे कुछ मूल्य का संबंध नहीं--तुम भीतर क्या हुए...।

"भटक के रह गयीं नज़रें खला की बुसअत में

हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला

तबिल राहगुज़र खत्म हो गई, लेकिन

हनोज अपनी मुसाफत का मुन्तहा न मिला'।

जैसे शून्य की विशालता में आखें भटक जाएं...।

"भटक के रह गई नज़रें खला की वुसअल में !'

शून्य ने तुम्हें घेरा है। विराट है शून्य। रिक्तता है एक। उसमें आंखें खोकर रह गई हैं।

"हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला'।

प्रेमी के घर का, प्रेयसी के घर का कुछ भी पता नहीं चलता, कहां है। एक रेगिस्तान में रिक्तता के खो गए हो ।

"तबील राहगुज़र खत्म हो गयी...!'

कठिन भी राह जिंदगी की, वह भी खत्म हो गयी...

"लेकिन, हनोज अपनी मुसाफत का मुन्तहा न मिला'।

लेकिन आज तक यह ठीक से पता न चला कि हम यात्रा क्यों कर रहे थे। यात्रा खत्म भी हो गई, कठिन भी बहुत थी; लेकिन अब तक यह भी साफ न हो सका कि मुद्दा क्या था, मंजिल क्या थी, जाते कहां थे। प्रेयसी के या प्रेमी के घर की कोई झलक भी न मिली।

जब तक तुम्हारे चैतन्य की भूमिका न बदले, तब तक यही कथा है सभी की: रिक्तता में खो जाते हैं; जैसे कोई भूली भटकी नदी है और रेगिस्तान में समा जाए, और सागर का कोई रास्ता न मिले; तपती धूप में, जलती आग में, बूंद-बूंद करके, तड़फत्तड़फकर उड़ जाए, भाप बन जाए:

"हरीमे-शाहिदे-रजना का कुछ पता न मिला!'

सागर में मिलने का, सागर के साथ मिलन का, सागर के साथ एक हो जाने का कोई पता न मिले-ऐसी ही साधारण जिंदगी है।

जिसे तुम भोगी की जिंदगी कहते हो, उसे भोगी की जिंदगी कहना ठीक नहीं; भोग जैसा वहां कुछ भी नहीं है। भक्त भोगता है; भोगी क्या भोगेगा? जिसको तुम भोगी कहते हो, वह तो भोग के नाम पर सिर्फ धक्के खाता है। भोग की सोचता है, माना; भोगता कभी नहीं। भोग तो उसी के लिए है जिसे भगवान के हाथ का सहारा मिला। भोग सिर्फ भगवान का है। जिसने उस स्वाद को न जाना, वह केवल बिखरने और मिटने और रोज मरने को ही जिंदगी समझ रहा है।

नहीं, ऐसी जिंदगी में न तो किसी अर्थ का पता चलेगा। ऐसी जिंदगी में मंजिल की कोई खबर न मिलेगी। चले थे क्यों, जाते थे कहां, थे क्या--सब धुंधला-धुंधला , सब अंधेरा-अंधेरा रहेगा। पर जिंदगी की राह बड़ी कठिन है और परिणाम कुछ भी हाथ न आएगा।

जिसे तुम भोगी कहते हो, उसे वस्तुतः त्यागी कहना चाहिए। किसी दिन अगर भाषा का फिर से संशोधन हो तो जिसको तुम भोगी कहते हो, उसको त्यागी कहना चाहिए, और जिसको त्यागी कहते हैं, उसको भोगी कहना चाहिए। क्योंकि त्यागी की जानता है कि भोग क्या है। और भोगी तो सिर्फ तड़फता है, सिर्फ सोचता है, सपने बनाता है, बड़े इंद्रधनुषी सपने बनाता है, बड़े रंगीन--मगर पकड़ो तो हाथ में राख भी हाथ नहीं आती; खाली हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।

"अपने सीने से लगााये हुए उम्मीद की लाश

मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने'।

बस एक लाश लगाए हुए हैं उम्मीद की छाती से--वह भी लाश है आशा की कि मिलेगा कुछ, मिलेगा कुछ!

"अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश...!'

सब आशा मुर्दा हैं; कभी कुछ मिलता नहीं--बस मिलने का खयाल है, भरोसा है, आज नहीं मिला, कल! कल भी यही होगा। और तुम्हारी आशा फिर आगे कल के लिए स्थगित हो जाएगी। पीछे कल भी यही हुआ था। तब तुमने आज पर छोड़ दिया था; आज भी वही हो रहा है। ऐसे क्षण-क्षण करके जीवन रिक्त होता चला जाता है, और तुम उम्मीद की लाश को लिए ढोते फिरते हो।

तुमने कभी देखा, बंदरों में अकसर हो जाता है, छोटा बच्चा मर जाता है तो बंदरिया उसकी लाश को लिए सप्ताहों तक छाती से चिपटाये घूमती रहती है! तुम्हें देखकर उसे हंसी आएगी। और जिस दिन तुम अपनी तरफ देखोगे, उस दिन तो तम्हें भरोसा ही न आएगा कि उम्मीद की लाश तो तुम मुद्दतों से, जिंदगीयों से...। वह बंदरिया का बच्चा तो कभी जिंदा भी था; उम्मीद कभी भी जिंदा न थी। वह सदा से ही लाश है। लाश होना उसका स्वभाव है।

"अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश

मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने'।

और इस उम्मीद की लाश के कारण न मालूम कितने काल से जिंदगी को व्यर्थ ही खिन्न करता रहा हूं।

आशा बनाते हो, आशा फिर बिखरती है, टूटती है--दुख पाते हो। फिर आशा बनाते हो, फिर बनाते हो ताश के पत्तों के घर--फिर हवा जरा सी लहर, और नाव डूब जाती है। लाश को ढोते हो, उसका वजन भी, उसकी दुर्गंध भी, उसका बोझ भी--और फिर, उसके कारण जिंदगी रोज-रोज खिन्न होती है, उदास होती है।

तुम निराश क्यों होते हो बार-बार?

--आशा के कारण।

धन्यभागी हैं वे जिन्होंने आशा छोड़ दी; फिर उन्हें कोई निराश न कर सकेगा! जिन्होंने आशा ही छोड़ दी, उनके निराश हाने की बात ही समाप्त हो गई।

भोगी आशा में जीता है। आशा मुर्दा है। उससे न कभी कुछ पैदा हुआ न कभी कुछ पैदा होगा। आशा बांझ है, उसकी कोई संतान नहीं।

तो क्या तुम सोचते हो, भक्त कहते हैं कि निराशा में जीयो? नहीं, भक्त कहते हैं कि आशा और निराशा तो एक ही सिक्के के पहलू हैं--तुम परमात्मा में जियो!

परमात्मा अभी और यहां है। आशा, कल और वहां कहीं और। अगर ठीक से समझो तो आशा का नाम ही संसार है। संसार सदा वहां, कहीं और; परमात्मा अभी और यहां, इस क्षण! इस क्षण उसने तुम्हें घेरा है। इस क्षण सब तरफ से उसने तुम्हें घेरा है। हवाओं के झोंको में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के सायों में--उसने ही तुम्हें घेरा है।

तुम्हारे चारों तरफ जो लोग बैठे हैं, वे भी परमात्मा के रूप हैं, उन्होंने तुम्हें घेरा है। वही तुम्हें पुकार रहा है। वही तुम्हारे भीतर श्वास बनकर चल रहा है।

परमात्मा अभी है, परमात्मा कभी उधार नहीं।

स्वामी राम कहते थे, परमात्मा नगद है। वह अभी और यहां है। संसार उधार है; वह कल और कहां है। कल और वहां को भोगोगे कैसे? भविष्य को कोई कैसे भोग सकता है, कहो? भविष्य को भोगने का उपाय कहां है? भविष्य है नहीं अभी; तुम उसे भोगोगे कैसे? केवल वर्तमान भोगा जा सकता है।

संसार के त्याग का अर्थ है: भविष्य का त्याग। संसार के त्याग का अर्थ है: भविष्य के नाम पर जिस भोग को हम स्थगित करते जाते थे, उसका त्याग। संसार के त्याग का अर्थ है: इस क्षण में--इस जीवंत क्षण में--जागना। वहीं से भोग शुरू होता है।

भक्त भगवान को भोगता है। संसारी केवल भोगने की सोचता है। तुम सोचने के भ्रम में मत आ जाना। वस्तुतः सोचता वही है जो भोग नहीं पाता है। विचार वही करता है जो भोग नहीं पाता है। योजना वही बनाता है जो भोग नहीं पाता है। कल की कल्पना वही संजोता है जो भोग नहीं पाता है। जो अभी भोग रहा हो, वह कल की बात ही क्यों करे?

तुमने कभी देखा, तुम जितने दुखी होते हो, उतनी भविष्य की ज्यादा विचारणा करते हो! जितने सुखी होते हो, उतना ही भविष्य छोटा हो जाता है, वर्तमान बड़ा हो जाता है। अगर कभी-कभी एक क्षण को तुम आनंदित हो जाते हो तो भविष्य खो जाता है, वर्तमान ही रह जाता है।

संसार दुख का फैलाव है; परमात्मा, आनंद की अनुभूति।

जो व्यक्ति दुख में जी रहा है, वह कहीं से भी सुख पाने की चेष्टा करता है, टटोलता है--विषयों में, वासनाओं में, धन में, संपदा में, शरीर में। वह जगह-जगह टटोलता है। दुखी है! कहीं से भी सुख का झरना हाथ आ जाए! और जितनी देर लगती जाती है, उतना व्याकुल होता जाता है। जितना व्याकुल होता है, बेचैन होता है--उतना ही होश खोता चला जाता है, उतना और बेहोशी से टटोलता है। कभी यह पूछता ही नहीं अपने से कि "जहां मैं टटोल रहा हूं, वहीं मैंने खोया है; पहले यह तो पूछ लूं कि मैंने खोया कहां; पहले यह तो ठीक से पूछ लूं कि मेरा आनंद कहां भटक गया है'।

कोई धन में खोज रहा है, बिना पूछे। धन में खोया है आनंद को? अगर धन में खोया नहीं तो धन से पा कैसे सकोगे? कोई पद में खोज रहा है, बिना पूछे। पद में खोया है? अगर पद में खोया नहीं तो पा कैसे सकोगे?

और इसके पहले कि दुनिया की बड़ी यात्रा पर जाओ, अपने भीतर तो खोज लो। इसके पहले कि तुम पड़ोसियों के घर में खोजने लगो कोई चीज जो खो गई हो, अपने घर में तो खोज लो। बुद्धिमानी यही कहेगी, पहले अपने घर में खोज लो। यहां न मिले तो फिर पड़ोसियों के घर में खोजना; फिर चांद-सितारों पर खोजने जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम चांद-सितारों पर खोजते रहो और जिसे खोया था, वह घर में पड़ा रहे।

निकट से खोज शुरू करो। निकटतम से खोज शुरू करो। निकटतम तुम हो! और जिसने भी स्वयं पर हाथ रखा, उसका हाथ परमात्मा पर पड़ गया। जिसने गौर से अपनी धड़कन सुनी, उसने परमात्मा की धड़कन सुनी। जो भीतर गया, वह मंदिर में पहुंच गया।

"वह भक्ति विषय-त्याग, संग-त्याग से संपन्न हाती है'।

क्या मतलब हुआ विषय-त्याग, संग-त्याग से? इतना ही मतलब हुआ कि विषय में मत खोजो, वासना में मत खोजो। पहले अपने में खोज लो। और जिसने भी अपने में खोजा, फिर कहीं और खोजने न गया--मिल गया! इससे अपवाद कभी हुआ नहीं। यह शाश्वत नियम है।  जिसने अपने में खोजा, पा ही लिया। हां, अगर खोजने में रस हो तो भूलकर अपने में मत खोजना। अगर खोजी ही बने रहने में रस हो तो भूलकर अपने में मत खोजना; क्योंकि वहां खोज समाप्त हो जाती है। वहां मिल ही जाता है। अगर खोजने में ही रस हो तो बाहर भटकते ही रहना। अगर पाना हो तो बाहर जाना व्यर्थ है। जो खोज रहा है, जो चैतन्य यात्रा पर निकला है; उसी चैतन्य में मंजिल छिपी है।

..."विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है'--इसलिए कि वहां जब यात्रा बंद हो जाती है तो तुम अपने पर लौटने लगते हो। जो व्यक्ति बाहर नहीं खोजता, वहा कहां जाएगा? वह अपने घर आ जाएगा।

कोलम्बस अमरीका की खोज पर गया। तीन महीने का उसके पास सामान था, वह चुक गया। केवल तीन दिन का सामान बचा, और अभी तक कोई अमरीका की झलक नहीं, किनारों का कोई पता नहीं; जमीन कितनी दूर है, कुछ अनुमान भी नहीं बैठता। साथी घबड़ा गए। रोज सुबह पता लगाने के लिए वे कबूतर छोड़ते थे, क्योंकि अगर कबूतरों को कहीं भूमि मिल जाए तो वे वापस न लौटें। लेकिन वे कबूतर थोड़ी बहुत दूर चक्कर काटकर वापस जहाज पर लौट आते, कहीं भूमि न मिलती। पानी में तो ठहर नहीं सकते। उनका लौट आना इस बात की खबर होता कि उन्हें कोई जगह न मिली।

जिस दिन तीन दिन का भोजन रह गया, उस दिन कबूतर छोड़े--बड़ी उदासी में थे, डरते थे कि कहीं लौट न आएं, क्योंकि अब खात्मा है। अगर तीन दिन के भीतर जमीन नहीं मिलती तो गए। लौट भी नहीं सकते, क्योंकि तीन महीने का रास्ता पार कर आए। लौटकर भी तीन महीने लगेंगे पहुंचने में। तो पीछे जाने का तो कोई अर्थ नहीं है, आगे शून्य मालूम पड़ता है।

लेकिन उस दिन कबूतर वापस नहीं लौटे। नाच उठे आनंद से! कबूतरों को भूमि मिल गई!

वासनाएं तुम्हारे भीतर से बाहर जाती है। विषय और संग-त्याग का इतना ही अर्थ है: वहां से भूमि हटा लो, ताकि उनको बाहर ठहरने की कोई जगह न मिले--तुम्हारा चैतन्य तुम्हीं पर वापस लौट आए। कहीं बाहर ठहरने की कोई जगह मत दो। अगर बाहर ठहरने की जगह दी...तो यही तो तुम करते रहे हो अब तक, यही भटकाव हो गया, यही संसार है।

विषय से कोई विरोध नहीं है। धन से क्या विरोध? पद से क्या विरोध? कोई निंदा नहीं है। सिर्फ इतनी ही बात है कि वहां अगर चेतना का पक्षी बैठ जाए तो फिर वह स्वयं पर नहीं लौटता। और तुम बाहर जितने उलझते जाते हो, उतना ही अपने पर आना कठिन होता जाता है।

इसलिए भक्ति की बड़ी ठीक से व्याख्या की है: "विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है'। पक्षियों को बैठने की जगह नहीं रह जाती--चैतन्य के पक्षी अपने पर लौट आते हैं।

अगर वासना न हो तो विचार क्या करेंगे?

 "विचारों से बड़े पीड़ित हैं। विचारों को बंद करना है'। 

 "विचारों से पीड़ित हो, यह बात ठीक नहीं--वासना से पीड़ित होओगे'।

किस बात के विचार आते हैं? तो कोई कहता है, धन के विचार आते हैं; कोई कहता है, काम वासना के विचार आते हैं। तो विचार थोड़े ही असली सवाल है। विचार तो वासना का अनुषगीं है, छाया की तरह है। जब तक तुम्हारी कामवासना में रस भरा हुआ है, जब तक तुम्हारी आशा की लाश छाती से लगी हुई है, जब तक तुम कहते हो कि कामवासना से सुख मिलनेवाला है--तब तक कामवासना के विचार आने बंद हो जाएंगे।

विचारों को थोड़े ही हटाना है। विचारों को तो हटा-हटाकर भी तुम न हटा पाओगे; क्योंकि अगर मूल मौजूद रहा, जड़ मौजूद रही, तो पत्ते तुम काटते रहो, शाखाएं काटते रहो--नये निकल आएंगी।

वासना की जड़ कट जाए तो विचार के पत्ते अपने-आप आने बंद हो जाते हैं।

"अखंड भजन से भी भक्ति संपन्न होती है'। विषय-त्याग , संग-त्याग से--फिर अखंड भजन से...।

अखंड भजन का अर्थ वैसा नहीं है जैसा तुमने समझ रखा है कि लोग लाउडस्पीकर लगाकर बैठ जाते हैं चौबीस घंटे; मोहल्लेभर के लोगों को परेशान कर देते हैं; अखंड भजन कर रहे हैं! अखंड उपद्रव है यह, अखंड भजन नहीं है। और पड़ोसियों ने क्या बिगाड़ा है? तुम्हें भजन करना हो करो, दूसरों को क्यों परेशान किए हो? सोना भी मुश्किल कर देते हो।

और यह तो धार्मिक देश है, इसमें अगर कोई अखंड भजन-र्कीतन करे और कोई पड़ोसी एतराज करे तो उसको लोग अधार्मिक समझते हैं। वे तो तुम पर कृपा करके माइक लगाए हुए हैं ताकि तुम्हारे कानों में भी भजन-र्कीतन का उच्चार पड़ जाए, तो शायद तुम्हारी भी मुक्ति हो जाए।

अखंड भजन का क्या अर्थ है?

अखंड भजन का अर्थ है: तुम्हारे भीतर परमात्मा की स्मृति अविच्छिन्न हो, विच्छिन्नता न आए। कोई राम-राम, राम-राम, राम-राम जपने का सवाल नहीं है। क्योंकि अगर तुम राम-राम भी जपो, कितने ही जोर से जपो, तो भी दो राम के बीच में खण्ड तो आ ही जाएगा। इसलिए वह अखंड तो नहीं होगा। वह तो कोई रास्ता न हुआ। तुम राम-राम कितनी ही तेजी से जपो, एक राम और दूसरे राम के बीच में जगह खाली छूट जाएगी, उतनी देर को परमात्मा का स्मरण न हुआ। इसलिए राम-राम जपने से अखंड भजन का कोई संबंध नहीं हो सकता।

अखंड भजन का अर्थ तो, अगर अखंड होना है भजन को, तो विचार से नहीं सध सकता यह काम, निर्विचार से सधेगा। अगर अखंड होना है तो विचार का काम न रहा, क्योंकि विचार तो खंडित है। एक विचार और दूसरे विचार के बीच में जगह है, अविच्छिन्न धारा नहीं है। अविच्छिन्न धारा तो स्मरण की हो सकती है। स्मरण का शब्द से कोई संबंध नहीं है।

जैसे मां भोजन बनाती है, बच्चा आसपास खेलता रहता है, लेकिन उसे स्मरण बना रहता है: वह कहीं बाहर तो नहीं निकल गया, आंगन के बाहर तो नहीं उतर गया, सड़क पर तो नहीं चला गया! ऐसा वह बीच-बीच में देखती रहती है। अपना काम भी करती रहती है और भीतर एक सातत्य स्मृति का बना रहता है।

कबीर ने कहा है, जैसे कि पनघट से स्त्रियां पानी भरकर घर लौटती हैं, आपस में बात करती हैं, हंसती हैं, मजाक करती हैं--घड़े उनके सिर पर सम्हले रहते हैं, उनको हाथ भी नहीं लगातीं, स्मरण बना रहता है कि उन्हें सम्हाले हैं। बात चलती है, चर्चा होती है, हंसी-मजाक होती है--लेकिन भीतर एक सतत स्मृति बनी रहती है घड़े को सम्हालने की।

अखंड भजन का अर्थ होता है: अविच्छिन्न धारा रहे; परमात्मा के स्मरण में एक क्षण को भी व्याघात न हो; तुम उससे विमुख न होओ; तुम्हारी आंखें उस पर ही लग रहें; तुम्हारा हृदय उसकी ही तरफ दौड़ता रहे; तुम्हारे चैतन्य की धारा उसकी तरफ ही प्रवाहित रहे--जैसे गंगा सागर की तरफ अविच्छिन्न बह रही है--एक क्षण को भी व्याघात नहीं है, एक क्षण को भी बाधा नहीं है, अवरोध नहीं है।

"अव्यावृतभजनात्'।

कोई भी व्याघात न पड़े तो भजन! इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारे जीवन के साधारण कृत्य ही जब तक परमात्मा के स्मरण की व्यवस्था न बन जाएं--

उठो तो उसमें उठो!

बैठो तो उसमें बैठो!

सोओ तो उसमें सोओ!

जागो तो उसमें जागो!

--जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक तो व्याघात होता ही रहेगा।

तो ध्यान रखना: परमात्मा का स्मरण तुम्हारे और कृत्यों में एक कृत्य न हो, नहीं तो व्याघात पड़ेगा।

जब तुम दूसरे कृत्यों में उलझोगे, तो परमात्मा को भूल जाएंगे। यह तुम्हारे जीवन का कोई एक हिस्सा न हो परमात्मा; यह तुम्हारे पूरे जीवन को घेर ले; यह तुम्हारे सारे जीवन पर छा जाए। मंदिर में जाओ तो परमात्मा की याद और दुकान पर जाओ तो परमात्मा की याद नहीं; तो फिर अखंड न हो सकेगा स्मरण। मंदिर में जाओ या दुकान पर, मित्र से मिलो कि शत्रु से, इससे उसकी याद में कोई फर्क न पड़े; उसकी याद तुम्हें घेरे रहे; उसकी याद तुम्हारे चारों तरफ एक माहौल बन जाए; तुम्हारी श्वास-श्वास में समा जाए।

"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर

या वोह जगह बता जहां पर खुदा न हो'।

फिर तुम शराब भी पियो तो उसी में, मस्जिद में बैठकर। फिर तुम्हारे सारे कृत्य उसी में लपेटे हुए हों। फिर तुम्हारा कोई कृत्य ऐसा न रह जाए जो उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर होगा, वही व्याघात बन जाएगा।

तो परमात्मा और स्मृतियों में एक स्मृति नहीं है--परमात्मा महास्मृति है। वह और चीजों में एक चीज नहीं है--परमात्मा आकाश की तरह सभी चीजों को घेरता है। शराब की बोतल रखो तो भी आकाश ने उसे घेरा। भगवान की मूर्ति रखो तो उसे आकाश ने घेरा। परमात्मा तुम्हारा सब कुछ घेर ले। बुरा-भला सब तुम उसी पर छोड़ दो। बुरा भी उसका, भला भी उसका--तुम बीच से हट जाओ। क्योंकि तुम जब तक बीच में रहोगे, व्याघात पड़ेगा। तुम ही व्याघात हो। तुम्हारी मौजूदगी अखंड न होने देगी।

तो अखंड भजन का अर्थ हुआ: तुम मिट जाओ और परमात्मा रहे। तो यह कोई शोरगुला मचाने की बात नहीं है। यह तो बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। यह कोई बैंड-बाजे बजाने की बात नहीं है। यह कोई चौबीस घंटे का अखंड कीर्तन कर दिया, इतना सस्ता नहीं है मामला। क्योंकि चौबीस घंटा तो दूर, अगर चौबीस पल भी अखंड कीर्तन हो जाए तो तुम मुक्त हो गए।

 अड़तालीस सैकंड अविच्छिन्न ध्यान में रह जाए तो मुक्त हो गया! अविच्छिन्न ध्यान का अर्थ है: इस समय में, न एक विचार उठे, न एक वासना जगे, कोरा रह जाए। तुम्हें परमात्मा ऐसा घेर ले जैसा आकाश ने तुम्हें घेरा है। चुनाव न रहे। तुम्हारे सारे कृत्य उसी के समर्पण बन जाएं।

तुम्हारा जीवन ऐसा भर जाए उससे कि ऐसी कोई जगह न बचे जहां वह न हो! इसलिए बुरे-भले का हिसाब मत रखना। अच्छा-अच्छा उसे मत दिखाना, अपना बुरा भी उसके लिए खोल देना। तुम्हारे क्रोध में भी उसकी ही याद हो। और तुम्हारे प्रेम में भी उसकी ही याद हो। और तुम सब हैरान होओगे कि तुम्हारा क्रोध क्रोध न रहा, तुम्हारे क्रोध में भी उसकी सुगंध आ गई; और तुम्हारा प्रेम तुम्हारा प्रेम न रहा, तुम्हारे प्रेम में भी उसकी ही प्रार्थना बरसने लगी।

तुम जिस चीज से परमात्मा को जोड़ दोगे, वही रूपांतरित हो जाती है। तुम अपना सब जोड़ दो, तुम्हारा सब रूपांतरित हो जाएगा।

"अखंड भजन से संपन्न होता है'।

"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है

एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे...'

--एक छोटा सा क्षण भी जो तेरे प्राणों में विशालता को भर दे, विराट को भर दे!

"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है

एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे

एक लम्हा जो तेरे गीत को शोखी दे दे

एक लम्हा तो तेरी लै में मसर्रत भर दे'।

एक क्षण भी काफी है परमात्मा के स्मरण का--"जो तेरी रूह में वुसअत भर दे'--जो विराट को तेरे आंगन में बुला ले, तेरी बूंद में सागर को बुला ले। सीमाएं टूट जाएं, ऐसा एक क्षण पर्याप्त है जी लेने का।

"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है'।

फिर अखंड कीर्तन की बात ही क्या, अगर एक लम्हा, अगर एक क्षण विशालता का इतना अदभुत है, तो अखंड कीर्तन की तो बात ही क्या! सतत भजन की तो बात ही क्या! ओंठ भी हिलते नहीं सतत भजन में! भीतर परमात्मा का नाम भी स्मरण नहीं किया जाता। जो किया जाता है, जो होता है, सभी में उसकी याद होती है। भोजन करो, स्नान करो, तो स्नान में भी जलधार उसी की है। जल गिरे तो परमात्मा ही गिरे तुम्हारे ऊपर!

 भगवान सब तरफ से तुम्हें घेरे हुए हैं, तुम उससे घिरना नहीं चाहते। तुम्हारे भगवान का नाम भी तुम्हारा बचाव है। परमात्मा का स्मरण करना हो तो नदी को बहने दो, वही उसी की है। वही उसमें बहा है, बह रहा है। तुम डुबकी ले लो। इतना बोध भर रहे कि परमात्मा ने घेरा। ऊपर उठो तो परमात्मा के सूरज ने घेरा। डुबकी लो तो पानी ने, परमात्मा के जल ने घेरा। भूखे रहो तो परमात्मा की भूख ने घेरा और भोजन लो तो परमात्मा की तृप्ति ने घेरा।

और यह कोई शब्दों की बात नहीं है कि ऐसा तुम सोचो, क्योंकि तुम सोचोगे तो वही बाधा हो जाएगी। ऐसा तुम जानो। ऐसा तुम सोचो नहीं । ऐसा तुम दोहराओ नहीं। ऐसा तुम्हारा बोध हो। ऐसा तुम्हारा सतत स्मरण हो।

"लोकसमाज में भी भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से भक्ति संपन्न होती है'।

"भगवतगुण-श्रवण'...! भगवान के गुणों का श्रवण, और भगवान के गुणों का कीर्तन; उसके गुणों को सुनना और उसके गुणों को गाना।

सुनने से...अगर तुमने ठीक-ठीक सुना, अगर तुमने हृदय के पट खोलकर सुना, अगर तुमने कान से ही न सुना, प्राणों से सुना, तो तुम्हारे भीतर भगवान के गुणों को सुनते-सुनते, उसके स्मरण का सातत्य बनने लगेगा। क्योंकि हम जो सुनते हैं, वही हमारा बोध हो जाता है। जो हम सुनते हैं, वह धीरे-धीरे हम में रमता जाता है। जो हम सुनते हैं, वह धीरे-धीरे हमारे रोएं-रोएं में व्याप्त हो जाता है। जो हम सुनते हैं सतत, वह धीरे-धीरे हमें घेर लेता ह, हम उसमें डूब जाते हैं।

तो उसका श्रवण भी करो और उसके गुणों का कीर्तन भी करो। सुनने से ही कुछ न होगा। क्योंकि सुनना तो निष्क्रिय है और कीर्तन सक्रिय है। निष्क्रियता में सुनो, सक्रियता में अभिव्यक्त करो। अगर बोलो तो उसके गुणों की ही बात बोलो।

तुम कितनी व्यर्थ की बातें बोल रहे हो! कितनी व्यर्थ की चर्चाएं कर रहे हो! अच्छा हो उसके सौंदर्य की बात करो। अच्छा हो उसके विराट अस्तित्व की थोड़ी चर्चा करो। उस चर्चा में तुम्हें भी याद आएगा; जिससे तुम चर्चा करोगे उसे भी याद आएगा। क्योंकि परमात्मा को हमने खोया नहीं है, केवल भूला है। इसलिए श्रवण का और कीर्तन का उपयोग है। अगर खो दिया हो तो क्या होने वाला है? जैसे कि तुम्हारे घर में खजाना हो और तुम भूल गए हो कि कहां दबाया था; तुम्हारे खीसे में हीरा रखा हो, और तुम भूल गए हो, तो अगर हीरे की कोई बात करे तो तुम्हें याद आ जाएगा।

तुमने कभी खयाल किया? घर से तुम चले थे, चिट्ठी डालनी थी, कोई मित्र मिल गया, तुम भूल ही गए थे दिन-भर, फिर उसने कुछ बात की और उसने कहा कि पत्नी का पत्र आया है--तत्क्षण तुम्हें याद आ गया कि तुम्हें पत्र डालना है। सुनकर भूली बात स्मरण हो आई। जो तुम्हारे भीतर पड़ा था, वह चैतन्य में उठ गया।

"भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से...!'

और फिर जो तुम सुनो, उसे सुन लेना ही काफी नहीं है, क्योंकि तुम फिर-फिर भूल जाओगे। तुम्हारी नींद का कोई अंत नहीं है। उसे गाओ भी, गुनगुनाओ भी। रात जब सोने जाओ तो उसके ही गीत को गुनगुनाते सो जाओ, ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे सपनों में घेरे रहे; ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हें ऊष्मा देती रहे; ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे चारों तरफ पहरा देती रहे; ताकि तुम्हारी नींद में भी, तुम्हारी गहरी नींद में भी उसकी याद का सातत्य बना रहे।

खयाल किया तुमने, तो बात तुम रात को आखिरी सोचते हुए सोते हो, वही बात तुम्हें सुबह पहली याद आती है। न खयाल किया हो तो कोशिश करना। जो बात तुम्हारे चित्त में आखिरी होती है रात सोते वक्त, वही पहली होती है सुबह उठते वक्त; क्योंकि रातभर वह बात तुम्हारी चेतना के द्वार पर खड़ी रहती है। अगर तुम परमात्मा का स्मरण करते ही सो जाओ तो सुबह तुम पाओगे, आंख खुलते ही उसके स्मरण के साथ उठे हो।

सारी दुनिया के धर्मों ने, रात और सुबह, सोते वक्त और जागते वक्त, परमात्मा के स्मरण पर बहुत जोर दिया है, क्योंकि उस समय चेतना कि भूमिका बदलती है: जागने से नींद, तो चेतना का गेयर बदलता है; फिर सुबह नींद से जागना, फिर चेतना की भूमिका बदलती है। इन संध्या के क्षणों में, इन बदलाहट के, क्रातिं के क्षणों में, अगर परमात्मा का स्मरण तुम में व्याप्त होता जाए, तो तुम पाओगे: धीरे-धीरे तुम्हारे खून के कतरे-कतरे में परमात्मा की छाप लग गई। तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे गुनगुनाने लगेगा।

"परंतु भक्ति-साधन मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवदकृपा के लेशमात्र से होता है'।

नारद कहते हैं, यह सब ठीक, यह साधन ठीक--लेकिन इतने से ही न हो जाएगा। वस्तुतः तो महापुरुष की कृपा या भगवत्कृपा से, उसके लेशमात्र से हो जाता है। ये तुम्हारे उपाय हैं जरूरी, पर इतने को ही काफी मत समझ लेना। यहीं भक्ति का अन्य साधनों से भेद है। अन्य साधन कहते हैं: अगर ठीक से किया तो परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा; भक्ति कहती है: यह तो सिर्फ तैयार है, इससे नहीं हो जाएगा, अंततः तो वह कृपा से ही उपलब्ध होगा--महापुरुषों की, और भगवत्कृपा से।

"परंतु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है'।

सदगुरु को खोजना बड़ा कठिन है--

संग-दुर्लभ, अगम्य और अमोघ!

दुर्लभ है, क्योंकि पहले तो जिन्होंने पा लिया सत्य को, ऐसे लोग बहुत कम, फिर जिन्होंने पा लिया, उनको तुम पहचान सको, ऐसी पहचानने वाली आंखें बहुत कम। फिर तुम पहचान भी लो, किसी को, तो अगम्य। फिर पहचान के बाद सदगुरु तुम्हें ऐसे जगत में ले चलता है जो तुम्हारा पहचाना हुआ नहीं है, अगम्य है, समझ में नहीं आता है। तुम्हारी समझ डगमगाती है, तुम्हारे पैर डगमगाते हैं, तुम घबड़ाते हो। यह अपरिचित लोक है; नाव ऐसी तरफ ले जाता है, जहां तुम कभी गए नहीं, नक्शे भी तैयार नहीं, खतरा ही खतरा है।

तो पहले तो मिलना कठिन, मिल जाए तो पहचानना कठिन, पहचान में भी आ जाए तो उसके साथ जाना कठिन--अगम्य है! लेकिन अगर तुम साथ चले जाओ तो अमोघ है, फिर वह रामबाण है; फिर उसकी जरा सी भी कृपा पर्याप्त है।

सदगुरु का मिलना अचानक है। खोजते रहो, खोजते-खोजते अचानक...। क्योंकि कोई बंधे हुए नक्शे नहीं हैं, कोई पता-ठिकाना नहीं है। इसलिए अचानक...। कहां मिलेगा, इसको बताया नहीं जा सकता।

सदगुरु कोई जड़ वस्तु नहीं है--चैतन्य का प्रवाह है; ठहरा हुआ नहीं है--गत्यात्मक है, गतिमान है।

जैसे अचानक मरुस्थलों में फूल खिल गए हों! इतना ही आश्चर्यजनक है सद्गुरु का मिल जाना, जैसे मरुस्थल में अचानक फूल खिल जाएं, जैसे पत्थर से टूटकर अचानक झरना फूट पड़े, जैसे आसमान से कोई तारा जमीन की मुहब्बत में नीचे उतर आए!

संग दुर्लभ है। लेकिन जो खोजते हैं, उन्हें मिलता है। खोजनेवाला चाहिऐ। कितना ही दुर्लभ हो, खोजनेवालों को सदा मिला है। इसलिए तुम थक मत जाना और हार मत जाना। प्यास हो तो तुम्हें जल का झरना मिल ही जाएगा। असल में परमात्मा प्यास बनाने के पहले जल का झरना बनाता है; भूख देने के पहले भोजन तैयार करता है। प्यास तो बाद में बनाई जाती है, झरने पहले बनाए जाते हैं। आदमी जमीन पर बहुत बाद में आया, झील और झरने बहुत पहले आए। आदमी बहुत बाद में आया, वृक्षों में लगे फल बहुत पहले आए।

ध्यान रखना, जिस बात की भी तुम्हारे भीतर खोज है, वह खजाना कहीं न कहीं तैयार ही होगा, अन्यथा खोज की आकांक्षा ही नहीं हो सकती थी। महापुरुषों का संग दुर्लभ है माना, मगर निराश मत होना। दुर्लभ इसलिए सूत्र कह रहा है ताकि खोजने में जल्दी मत करना, धीरज रखना। और कोई मतलब नहीं है दुर्लभ का। दुर्लभ का यह मतलब नहीं है कि मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, धीरज रखना। धैर्य से खोजना।

अगम्य है। और जब सदगुरु तुम्हें अगम्य के मार्ग पर ले जाने लगे, जिसे तुम्हारी बुद्धि न समझ पाए--समझ ही न पाएगी, क्योंकि मार्ग प्रेम का है, अगम्य ही होगा, तर्कातीत होगा--तो घबड़ाना मत। इतनी हिम्मत रखना और साहस रखना। पागल होने का साहस रखना। दीवाने होने की हिम्मत रखना। भरोसा रखना।

इसी को श्रद्धा कहा है। श्रद्धा की जरूरत इसीलिए है, क्योंकि जहां अगम्य का द्वार खुलेगा, वहां तुम क्या करोगे, अगर श्रद्धा न हुई, वहां अगर तुमने कहा, पहले हम समझेंगे तब भीतर चलेंगे, तो रुकावट हो जाएगी; क्योंकि समझ तो तभी आ सकती है जब तुम भीतर पहुंच जाओ। और तुमने अगर यह शर्त रखी कि हम पहले समझेंगे, फिर भीतर चलेंगे...।

लेकिन सूत्र बड़ी अमूल्य बात कह रहा है: "दुर्लभ है, अगम्य है, पर अमोघ है'। एक बार हाथ हाथ में आ गया तो चूक नहीं है, रामबाण है। फिर तीर लग ही जाएगा। फिर तीर छिद ही जाएगा, आर-पार।

"उस भगवान की कृपा से ही महापुरुषों का संग भी मिलता है'।

यह संग भी, नारद कहते हैं, परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। क्योंकि भक्त की सारी धारणा ही कृपा पर खड़ी है, प्रसाद पर। तुम्हें सदगुरु भी मिलता है तो भी उसकी ही कृपा से मिालता है, तुम्हारी खोज से नहीं; जैसे सदगुरु के द्वारा वही तुम्हारे पास आता है; जैसे सदगुरु में वही तुम्हें मिलता है। तुम अभी इतने तैयार न थे कि सीधा-सीधा मिल सके, तो थोड़े परदे की ओट से मिलता है। हाथ तो उसी का है--दस्ताने में है। हाथ तो उसी का है। सदगुरु के भीतर भी आवाज उसी की है। लेकिन कोरे आकाश से अगर आवाज आए तो तुम समझ न पाओगे, घबड़ा जाओगे।

समझो कि यहां यह खाली कुर्सी हो और आवाज आए तो अभी तुम भाग खड़े हो जाओगे , फिर तो कहना ही क्या, फिर तो तुम लौटकर भी न देखोगे। आवाज अभी भी शून्य से ही आ रही है।

सदगुरु के द्वारा भी वही पुकारता है, वही बुलाता है,उसके ही हाथ तुम्हारी तरफ आते हैं--लेकिन हाथ तुम्हारे जैसे होते हैं, तुम भरोसा कर लेते हो; तुम हाथ हाथ में दे देते हो। देने पर पता चलेगा कि हाथ तुम्हारे जैसे नहीं थे; दिखाई पड़ते थे, धोखा हुआ।

सदगुरु परमात्मा ही है। इसलिए सूत्र कहता है: "वह भी उसकी ही कृपा से मिलता है'।

"जो कुछ है वो, है अपनी ही रफ्तोर-अमल से

बुत है जो बुलाऊं, जो खुद आए तो खुद है'।

तम्हारे बुलाने से भी आता है, ऐसा भी नहीं--"जो खुद आए खुदा है'। मूर्तियां हैं जिन्हें तुम बुलाते हो।

"बुत है जो बुलाऊं, जो खुद आए तो खुदा है'।

वह आता है अपने ही कारण। तुम जब भी तैयार हो जोते हो, तभी आ जाता है। ठीक से समझो तो ऐसा कहना चाहिए कि आता तो पहले भी रहा था, तुम पहचान न पाए। तुम जब सम्हले तो तुमने पहचाना; आता तो पहले भी रहा था; बुलाता तो पहले भी रहा था; तुमने न सुना, तुम्हारे कान तैयार न थे, तुम कुछ और सुनने में लगे थे।

"क्योंकि भगवान में उसके भक्त में भेद का अभाव है'। इसलिए सदगुरु में भी वही आता है।

"क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव है'।

तुम भी अगर अपने भीतर झांकोगे तो तुम एक ही आवाज पाओगे; तुम्हारे भी परमात्मा होने की आवाज पाओगे--जैसे हर बूंद में सागर होने की आवाज है। हर बूंद का साज है कि मैं सागर हूं और हर चैतन्य का साज है कि मैं परमात्मा हूं। जिसने पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अपनी ही ध्वनि को पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अभी नहीं पहचाना है, खोजना है--लेकिन फर्क कुछ भी नहीं है।

उस भगवान की कृपा से ही सत्पुरुषों का संग मिलता है, क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव है।

"उस सत्संग की ही साधना करो'।

"तदेव साध्यतां, तदेव साध्यताम्!'

उसकी ही साधन करो!

सत्संग की ही साधना करो!'

सदगुरु की खोज करो!

किन्हीं हाथों पर भरोसा करो और हाथ हाथ में दे दो। ऐसे ही तुम परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप पाओगे। और ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में ले पाएगा।

तो भक्ति की साधना क्या हुई? सत्संग की साधना हुई। सार

क्या हुआ?...कि ऐसे किसी व्यक्ति के साथ हो जाना है जिसने पा लिया हो। क्योंकि है तो तुम्हारे भीतर भी, लेकिन तुम्हारा साज सोया हुआ है। किसी ऐसी वीणा के पास पहुंच जाना है, जिसका साज बज उठा हो, ताकि उसकी प्रतिध्वनि में तुम्हारे तार भी कंपने लगे।

संगीतज्ञ कहते हैं कि अगर कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा पर बजाए और दूसरी वीणा कमरे में चुपचाप रखी हो तो धीरे-धीरे उसके तार भी झंकृत होने लगते हैं। तरंगें जागी वीणा की, सोयी वीणा को भी जगाने लगती हैं: ध्वनि की चोट सोयी वीणा को भी खबर देती है कि मैं भी वीणा हूं। उसके भीतर भी कोई जागने लगता है। उसके तार भी कंपने लगते हैं। रोमांच हो आता है उसे भी। दूर की खबर आती है! अपने अस्तित्व का बोध आता है।

सत्संग भक्त की साधना है।

मीरा मिल जाए तो उसके साथ हो लो। चैतन्य मिल जाएं, उनके साथ हो लो। तुम्हें अपनी याद नहीं है, उन्हें अपनी याद आ गई है--उनके साथ तुम्हें भी धीरे-धीरे तुम्हें अपनी याद आ जाएगी। कुछ और करना नहीं है।

सदगुरु तो दर्पण है--उसमें तुम्हें अपना चेहरा धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगेगा; भूली-बिसरी याद आ जाएगी।

न मालूम किस दिन अंधकार घेर ले! बस तुम्हारा उजाला हमारे पास हो तो काफी। याद भी तुम्हारे उजाले की हमारे पास हो तो काफी, क्योंकि तब हम भी उजाले हो गए। फिर कितना ही घना अंधेरा हो, अमावस की रात हो, कितना ही घेर ले, फिर भी हम उजाले ही रहेंगे।

बुद्धों के पास तुम्हें अपने उजाले की याद आई।

तो भक्त की साधना इतनी ही है कि वह सत्संग खोज ले।

भक्ति संक्रामक है।

"तदेव साध्य्तां, तदेव साध्यामाम्!'


आज इतना ही।






कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...