"सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रूख्सार की फुहार गिरी।'
रात छायी तो रू-ए आलम पर
तेरी जुल्फों की आवशार गिरी।'
उसी की जुल्फें है रात, ढांक लेती है गहरे अंधेरे में तुम्हें। उसी का रंग-रूप है। उसी की बहार है। उसी के गीत हैं! उसी की हरियाली है! उसी का जन्म है, उसकी मृत्यु है। तुमने व्यर्थ ही अपने को बीच में खड़ा कर लिया है।
अपने को बीच में खड़ा करने के कारण परमात्मा खो गया है। और परमात्मा को तुम जब तक न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और गहराई से वंचित रहोगे।
परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी ऊंचाई! परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी गहराई! जब तक तुम उसे न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और गहराई से वंचित रहोगे।
उस मनुष्य से ज्यादा दरिद्र और कोई भी नहीं जिस मनुष्य के जीवन से परमात्मा का भाव खो गया; जिसके जीवन में परमात्मा की तरफ उठने की आकांक्षा खो गयी है। जो आदमी होने से तृप्त हो गया, उस आदमी से दरिद्र और कोई भी नहीं।
"ख्याल जिसमें है, पर तब जमाल का तेरे
उस एक खयाल की रफअत का एक छोटा-सा खयाल भी है, परमात्मा के अनंत सौंदर्य का थोड़ा-सा खयाल भी है...।
"खयाल जिसमें है पर तब जमाल का तेरे
उस एक छोटे-से विचार की रफअत किसी को क्या मालूम!'
उस एक छोटे-से विचार की गहराई किसी को क्या मालूम!
परमात्मा के खयाल की गहराई और ऊंचाई--वही तुम्हारा विस्तार है, विकास है।
इस सदी की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि उसके सौंदर्य का बोध खो गया है। और हम लाख उपाय करते हैं कि सिद्ध करने के कि वह नहीं है। और हमें पता नहीं कि जितना हम सिद्ध कर लेते हैं की वह नहीं है, उतना ही हम अपनी ही ऊंचाइयों और गहराइयों से वंचित हुए जा रहे है।
परमात्मा को भुलाने का अर्थ अपने को भुलाना है। परमात्मा को भूल जाने का अर्थ अपने को भटका लेना है। फिर दिशा खो जाती है। फिर तुम कहीं पहुंचते मालूम नहीं पड़ते। फिर तुम कोल्हू के बैल हो जाते हो, चक्कर लगाते रहते हो।
आंखें खोलो! थोड़ा हृदय को अपने से ऊपर जाने की सुविधा दो। काम को प्रेम बनाओ। प्रेम को भक्ति बनने दो।
परमात्मा से पहले तृप्त होना ही मत।
पीड़ा होगी बहुत। विरह होगा बहुत। बहुत आंसू पड़ेंगे मार्ग से। पर घबड़ाना मत। क्योंकि जो मिलनेवाला है उसका कोई भी मूल्य नहीं है। हम कुछ भी करें, जिस दिन मिलेगा उस दिन हम जानेंगे, जो हमने किया था वह ना-कुछ था।
तुम्हारे एक-एक आंसू पर हजार-हजार फूल खिलेंगे। और तुम्हारी एक-एक पीड़ा हजार-हजार मंदिरों का द्वार बन जाएगी। घबड़ाना मत। जहां भक्तों के पैर पड़ें, वहां काबा बन जाता हैं।
ओशो रजनीश
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