गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 12

  

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। 13।।

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।। 14।।


उसकी विधि इस प्रकार है कि काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किए हुए दृढ़ होकर, अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित रहता हुआ, भयरहित तथा अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला और सावधान होकर मन को वश में करके, मेरे में लगे हुए चित्त वाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे।



उस विधि (भाग 11) के और अगले कदम।

एक, शरीर बिलकुल सीधा हो, स्ट्रेट, जमीन से नब्बे का कोण बनाए। वह जो आपकी रीढ़ है, वह जमीन से नब्बे का कोण बनाए, तो सिर सीध में आ जाएगा। और जब आपकी बैक बोन, आपकी रीढ़ जमीन से नब्बे का कोण बनाती है और बिलकुल स्ट्रेट होती है, तो आप करीब-करीब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाते हैं--करीब-करीब, एप्रोक्सिमेटली। और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाना ऊर्ध्वगमन के लिए मार्ग बन जाता है, एक।

दूसरी बात, दृष्टि नासाग्र हो। पलक झुक जाएगी, अगर नासाग्र दृष्टि करनी है। नाक का अग्र भाग देखना है, तो पूरी आंख खोले रखने की जरूरत न रह जाएगी। आंख झुक जाएगी। अगर आप बैठे हैं, तो मुश्किल से दो फीट जमीन आपको दिखाई पड़ेगी। अगर खड़े हैं, तो चार फीट दिखाई पड़ेगी। लेकिन वह भी ठीक से दिखाई नहीं पड़ेगी और धुंधली हो जाएगी, धीमी हो जाएगी। दो कारण हैं।

एक, अगर बहुत देर तक नासाग्र दृष्टि रखी जाए, तो पूरा संसार आपको, आपके चारों तरफ फैला हुआ संसार, वास्तविक कम, स्वप्नवत ज्यादा प्रतीत होगा। जो कि बहुत गहरा उपयोग है। अगर आप ऐसी अर्धखुली आंख रखकर नासाग्र देखेंगे, तो चारों तरफ जो जगत आपको बहुत वास्तविक, ठोस मालूम पड़ता है, वह स्वप्नवत प्रतीत होगा।

इस जगत के ठोसवत प्रतीत होने में आपके देखने का ढंग ही कारण है। इसलिए जिसे ध्यान में जाना है, उसे जगत वास्तविक न मालूम पड़े, तो अंतर्यात्रा आसान होगी। जगत धुंधला और ड्रीमलैंड मालूम पड़ने लगेगा।

कभी देखना आप, बैठकर सिर्फ नासाग्र दृष्टि रखकर, तो बाहर की चीजें धीरे-धीरे धुंधली होकर स्वप्नवत हो जाएंगी। उनका ठोसपन कम हो जाएगा, उनकी वास्तविकता क्षीण हो जाएगी। उनका यथार्थ छिन जाएगा, और ऐसा लगेगा जैसे कोई एक बड़ा स्वप्न चारों तरफ चल रहा है।

यह एक कारण, बाहरी। बहुत कीमती है। क्योंकि संसार स्वप्न मालूम पड़ने लगे, तो ही परमात्मा सत्य मालूम पड़ सकता है। जब तक संसार सत्य मालूम पड़ता है, तब तक परमात्मा सत्य मालूम नहीं पड़ सकता। इस जगत में दो सत्यों के होने का उपाय नहीं है। इसमें एक तरफ से सत्य टूटे, तो दूसरी तरफ सत्य का बोध होगा।

आपसे आंख बंद कर लेने को कहा जा सकता था। लेकिन आंख बंद कर लेने से संसार स्वप्नवत मालूम नहीं पड़ेगा। बल्कि डर यह है कि आंख बंद हो जाए, तो आप भीतर सपने देखने लगेंगे, जो कि सत्य मालूम पड़ें। अगर आंख पूरी बंद है, तो डर यह है कि आप रेवरी में चले जाएंगे, आप दिवास्वप्न में चले जाएंगे।

पश्चिम में एक विचारक है, रान हुबार्ड। वह ध्यान को भूल से दिवास्वप्न से एक समझ बैठा। आंख बंद करके स्वप्न में खो जाने को ध्यान समझ बैठा। जानकर भारत में--आंख न तो पूरी खुली रहे, क्योंकि पूरी खुली रही तो बाहर की दुनिया बहुत यथार्थ है; न पूरी बंद हो जाए, नहीं तो भीतर के स्वप्नों की दुनिया बहुत यथार्थ हो जाएगी। दोनों के बीच में छोड़ देना है। वह भी एक संतुलन है, वह भी एक समता है, वह भी दो द्वंद्वों के बीच में एक ठहराव है। न खुली पूरी, न बंद पूरी--अर्धखुली, नीमखुली, आधी खुली।

वह जो आधी खुली आंख है, उसका बड़ा राज है। भीतर आधी खुली आंख से सपने पैदा करना मुश्किल है और बाहर की दुनिया को यथार्थ मानना मुश्किल है। जैसे कोई अपने मकान की देहलीज पर खड़ा हो गया; न अभी भीतर गया, न अभी बाहर गया, बीच में ठहर गया।

और जब आंख नासाग्र होती है, जब दृष्टि नासाग्र होती है, तो आपको एक और अदभुत अनुभव होगा, जो उसका दूसरा हिस्सा है। जब दृष्टि नासाग्र होगी, तो आपको आज्ञा चक्र पर जोर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। दोनों आंखों के मध्य में, दोनों आंखों के मध्य बिंदु पर, इम्फेटिकली, आपको जोर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। जब आंख आधी खुली होगी और आप नासाग्र देख रहे होंगे, तो नासाग्र तो आप देखेंगे, लेकिन नासांत पर जोर पड़ेगा। देखेंगे नाक के अग्र भाग को और नाक के अंतिम भाग, पीछे के भाग पर जोर पड़ना शुरू होगा। वह जोर बड़े कीमत का है। क्योंकि वहीं वह बिंदु है, वह द्वार है, जो खुले तो ऊर्ध्वगमन शुरू होता है।


आज्ञा चक्र के नीचे संसार है, अगर हम चक्रों की भाषा में समझें। आज्ञा चक्र के ऊपर परमात्मा है, आज्ञा चक्र के नीचे संसार है। अगर हम चक्रों से विभाजन करें, तो आज्ञा चक्र के नीचे, दोनों आंखों के मध्य बिंदु के नीचे जो शरीर की दुनिया है, वह संसार से जुड़ी है। और आज्ञा चक्र के ऊपर का जो मस्तिष्क का भाग है, वह परमात्मा से जुड़ा है। उस पर जोर पड़ने से--वह जोर पड़ना एक तरह की चाबी है, जिससे बंद द्वार खोलने के लिए चेष्टा की जा रही है। वह सीक्रेट लाक है। कहें कि उसको खोलने की कुंजी यह है। जैसा कि आपने कई ताले देखे होंगे, जिनकी चाबी नहीं होती, नंबर होते हैं। नंबर का एक खास जोड़ बिठा दें, तो ताला खुल जाएगा। नंबर का खास जोड़ न बिठा पाएं, तो ताला नहीं खुलेगा।

यह जो आज्ञा चक्र है, इसके खोलने की एक सीक्रेट की है, एक गुप्त कुंजी है। और वह गुप्त कुंजी यह है कि जो शक्ति, जो विद्युत हमारी आंखों से बाहर जाती है, उसी विद्युत को एक विशेष कोण पर रोक देने से उस विद्युत का पिछला हिस्सा आज्ञा चक्र पर चोट करने लगता है। वह चोट उस दरवाजे को धीरे-धीरे खोल देती है। वह दरवाजा खुल जाए, तो आप एक दूसरी दुनिया में, ठीक दूसरी दुनिया में छलांग लगा जाते हैं। नीचे की दुनिया बंद हो गई।

इसमें तीसरी बात कृष्ण ने कही है, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ।

ध्यान के इस क्षण में जब आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि और आज्ञा चक्र पर चोट पड़ रही हो, अगर आपके चित्त में जरा भी कामवासना का विचार आ गया, तो वह जो द्वार खोलने की कोशिश चल रही थी, वह समाप्त हो गई; और आपकी समस्त जीवन ऊर्जा नीचे की तरफ बह जाएगी। क्योंकि जीवन ऊर्जा उसी केंद्र की तरफ बहती है, जिसका स्मरण आ जाता है।

कभी आपने सोचा है कि जैसे ही कामवासना का विचार आता है, जननेंद्रिय के पास का केंद्र फौरन सक्रिय हो जाता है। विचार तो खोपड़ी में चलता है, लेकिन केंद्र जननेंद्रिय के पास, सेक्स सेंटर के पास सक्रिय हो जाता है। बल्कि कई दफा तो ऐसा होता है कि आपको भीतर कामवासना का विचार चल रहा है, इसका पता ही तब चलता है, जब सेक्स सेंटर सक्रिय हो जाता है। वह पीछे धीरे-धीरे सरकता रहता है। लेकिन विचार तो मस्तिष्क में चलता है और केंद्र बहुत दूर है, वह सक्रिय हो जाता है! उसकी भी कुंजी है वही। अगर विचार कामवासना का चलेगा, तो आपकी जीवन ऊर्जा कामवासना के केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाएगी।

ध्यान के क्षण में अगर कामवासना का विचार चला, तो आप ऊपर तो यात्रा कम करेंगे, बल्कि इतनी नीचे की यात्रा कर जाएंगे, जितनी आपने कभी भी न की होगी। इसलिए सचेत किया है। साधारणतः भी आप कामवासना में इतने नीचे नहीं जा सकते, जितना आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि और उस वक्त अगर काम-विचार चल जाए, तो आप इतनी तीव्रता से कामवासना में गिरेंगे, जिसका हिसाब नहीं।

इसलिए बहुत लोगों को ध्यान की प्रक्रिया शुरू करने पर कामवासना के बढ़ने का अनुभव होता है। उसका कारण है। बहुत लोगों को...न मालूम कितने लोग मुझे आकर कहते हैं कि यह क्या उलटा हुआ? हमने ध्यान शुरू किया है, तो कामवासना और ज्यादा मालूम पड़ती है! उसके ज्यादा मालूम पड़ने का कारण है।

अगर ध्यान के क्षण में कामवासना पकड़ गई, तो कामवासना को ध्यान की जो ऊर्जा पैदा हो रही है, वह भी मिल जाएगी। इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत में थिर होकर। उस क्षण तो कम से कम कोई काम-विचार न चलता हो।

तो अगर आपको चलाना ही हो, तो एक सरल तरकीब आपको कहता हूं। ध्यान करने के पहले घंटेभर काम-चिंतन कर लें। पक्का ही कर लें कि परमात्मा को स्मरण करने के पहले घंटेभर बैठकर काम का चिंतन करेंगे, यौन-चिंतन करेंगे।

और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कांशसली यौन-चिंतन करें, तो घंटाभर बहुत दूर है, पांच मिनट करना मुश्किल हो जाएगा--चेतन होकर अगर करें, सावधानी से अगर करें।

काम-चिंतन की एक दूसरी कुंजी है कि वह अचेतन चलता है, चेतन नहीं। अगर आप होशपूर्वक करेंगे, तो आप खुद ही अपने पर हंसेंगे कि यह मैं क्या-क्या मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं! वह तो बेहोशी में सोचें, तभी ठीक है। होश में सोचेंगे, तो कहेंगे, क्या मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं!

इसलिए कामुक व्यक्ति को शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। उन व्यक्तियों को, जिनकी काम-शक्ति क्षीण हो गई हो, उनको भी शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। क्योंकि वे फिर बेहोशी से इतने भर जाते हैं कि फिर काम-चिंतन में लीन हो पाते हैं।

तो ध्यान करने के पहले अगर आप घंटेभर आंख बंद कर लें। आधी आंख नहीं, आंख बंद कर लें। और सचेत रूप से मेडिटेट आन सेक्स--सचेत रूप से, अचेत रूप से नहीं--जानकर ही कि अब मैं कामवासना पर चिंतन शुरू करता हूं। और शुरू करें। पांच मिनट से ज्यादा आप न कर पाएंगे। और जैसे ही आप पाएं कि अब करना मुश्किल हुआ जा रहा है, अब कर ही नहीं सकता, तब ध्यान में प्रवेश करें। तो शायद पंद्रह मिनट, आधा घंटा आपके चित्त में कोई काम का विचार नहीं होगा। क्योंकि अर्जुन कोई ब्रह्मचारी नहीं है। पूर्ण ब्रह्मचारी हो, तब तो यह कोई सवाल नहीं उठता। तब तो ब्रह्मचर्य की याद दिलाने की भी जरूरत नहीं है।

एक बहुत मजे की घटना आपसे कहूं।

महावीर के पहले जैनों के तेईस तीर्थंकरों ने ब्रह्मचर्य की कभी बात नहीं की, नेवर। महावीर के पहले तेईस तीर्थंकरों ने जैनों के कभी नहीं कहा, ब्रह्मचर्य। वे चार धर्मों की बात करते थे--अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य। इसलिए पार्श्वनाथ तक के धर्म का नाम चतुर्याम धर्म है।

महावीर को ब्रह्मचर्य जोड़ना पड़ा, पांच महाव्रत बनाने पड़े; एक और जोड़ना पड़ा। जो लोग खोज-बीन करते हैं इतिहास की, उन्हें बड़ी हैरानी होती है कि क्या महावीर को ब्रह्मचर्य का खयाल आया! बाकी तेईस तीर्थंकरों ने क्यों ब्रह्मचर्य की बात नहीं की?

ये तेईस तीर्थंकर जिन लोगों से बात कर रहे थे, वे निष्णात ब्रह्मचारी थे। ये उपदेश जिनको दिए गए थे, उनके लिए ब्रह्मचर्य सहज था। यह लोक-चर्चा नहीं थी। यह आम जनता से कही गई बात नहीं थी, जो कि ब्रह्मचारी नहीं हैं।

महावीर ने पहली दफा तीर्थंकरों के आकल्ट मैसेज को, जो बहुत गुप्त मैसेज थी, बहुत छिपी मैसेज थी, जो कि बहुत गुप्त राज था और केवल निष्णात साधकों को दिया जाता था, उसको मासेस का बनाया। और इसीलिए दूसरी घटना घटी कि तेईस तीर्थंकर फीके पड़ गए और ऐसा लगने लगा कि महावीर जैन धर्म के स्थापक हैं। क्योंकि वे पहले, पहले पापुलाइजर हैं, पापुलाइज करने वाले हैं, लोकप्रिय करने वाले पहले व्यक्ति हैं। पहली दफा जनता में उन्होंने वह बात कही, जो कि सदा थोड़े साधकों के बीच, थोड़े गहन साधकों के बीच कही गई थी। इसलिए तेईस तीर्थंकरों को ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं करनी पड़ी। महावीर को बहुत जोर से करनी पड़ी। सबसे ज्यादा जोर ब्रह्मचर्य पर देना पड़ा, क्योंकि अब्रह्मचारियों के बीच चर्चा की जा रही थी।

कृष्ण जब अर्जुन से कह रहे हैं कि ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ! इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्मचारी, इसका इतना ही मतलब है कि ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ।

हां, यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य में ठहर जाए, क्षणभर को भी ठहर जाए, तो फिर अब्रह्मचर्य में जाना रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जब एक दफे ऊर्जा ऊपर चढ़ जाए, तो इतना आनंद लाती है, जितना नीचे सेक्स में गिराई गई ऊर्जा में सपने में भी नहीं मिल सकता है। सोचने में भी नहीं मिल सकता है। उससे कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। एक बार यह ऊपर का अनुभव हो जाए, तो ऊर्जा नीचे जाने की यात्रा बंद कर देगी।

इसलिए तीन बातें कहीं। थिर आसन में, सीधी रीढ़ के साथ बैठा हुआ, अर्धखुली आंख, नासाग्र दृष्टि, आज्ञा चक्र पर पड़ती रहे चोट, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ, तो ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे उपलब्ध हो जाता है, मुझमें प्रवेश कर जाता है, मुझसे एक हो जाता है। और जब भी कृष्ण कहते हैं मुझसे, तब वे कहते हैं परमात्मा से।

अर्जुन से वे कह सके सीधी-सीधी बात, मुझसे। क्योंकि जिसने जाना परमात्मा को, वह परमात्मा हो गया। इसमें कोई अस्मिता की घोषणा नहीं है कि कृष्ण कह रहे हैं, मैं परमात्मा हूं। इसमें सीधे तथ्य का उदघोषण है। वे हैं; हैं ही। और जो भी जान लेता है परमात्मा को, वह परमात्मा ही है। वह कहने का हकदार है कि कहे कि मुझमें। लेकिन वहां मैं जैसी कोई चीज बची नहीं है, तभी वह हकदार है। जिसका मैं समाप्त हुआ, वह कह सकता है, मैं परमात्मा हूं।

कृष्ण कहते हैं, वह मुझे जान लेता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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