गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 16

 


 कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। 17।।


कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।


कहते हैं कृष्ण, कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप और निषिद्ध कर्म का स्वरूप जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।

निषिद्ध कर्म, वे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं, उनका स्वरूप भी जानना चाहिए।

पहले सूत्र में कर्म और अकर्म की बात की। अब वे तीसरा एक और तत्व जोड़ते हैं। वे कहते हैं, निषिद्ध कर्म, उसका स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है। गहन मतलब, सूक्ष्म, बारीक। पता नहीं चलता, रहस्यपूर्ण है। कब कर्म कर्म होता, कब अकर्म होता, यह तो है ही कठिनाई। कर्म कभी-कभी निषिद्ध कर्म भी होता है, तब और कठिनाई है। निषिद्ध कर्म के संबंध में थोड़ी बात खयाल में ले लेनी चाहिए।


निषिद्ध कर्म को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो, कि हम कुछ कर्मों को तय कर लें कि ये निषिद्ध हैं, जैसा कि अदालत करती है, कानून करता है। कानून, कर्म तय कर लेता है कि ये निषिद्ध हैं। चोरी करना निषिद्ध है; हत्या करना निषिद्ध है; आत्महत्या करना निषिद्ध है। कुछ कर्म तय कर लिए हैं। ये निषिद्ध हैं, ये नहीं करने चाहिए।

लेकिन कानून बहुत बारीक नहीं होता। धर्म और भी बारीक खोज करता है। धर्म जानता है कि कभी-कभी कोई कर्म किसी परिस्थिति में निषिद्ध हो जाता है और किसी परिस्थिति में निषिद्ध नहीं होता। हत्या साधारणतया निषिद्ध है, युद्ध के मैदान पर निषिद्ध नहीं होती है।

निषिद्ध निर्णीत चीज नहीं है; परिस्थिति के साथ बदल जाती है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि दो निषिद्ध कर्मों के बीच विकल्प खड़ा हो जाता  है। क्या करो? सच बोलो, तो हिंसा हो जाती है। हिंसा बचाओ, तो झूठ बोलना पड़ता है। फिर क्या करो? दो निषिद्ध कर्म आड़े खड़े हो जाते हैं। एक को बचाओ, तो दूसरा निषिद्ध कर्म होता है। दूसरे को बचाओ, तो पहला हो जाता है।

बहुत पुरानी एक तार्किक गुत्थी है। एक आदमी अपने रास्ते से गुजर रहा है, एक ब्राह्मण। सीधा-सादा आदमी है। एक कसाई भागा हुआ आया है। वह अपनी गाय को खोज रहा है, जो उसके हाथ से छूटकर भाग गई है। वह उस आदमी से पूछता है, ब्राह्मण से कि यहां से एक गाय भागी गई है? हाथ में उसके काटने की कुल्हाड़ी है। ब्राह्मण देखता है, कसाई है। आंखें बताती हैं, हाथ की कुल्हाड़ी बताती है, खून के धब्बे बताते हैं। वह कहता है, गाय यहां से गई है? गाय किस तरफ गई है?

वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया। बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने किताब में पढ़ा है कि झूठ बोलना निषिद्ध कर्म है। लेकिन सच बोले, तो यह कसाई गाय को पकड़ लेगा और हत्या करेगा। तो मैं भी भागीदार हो जाऊंगा। और गोहत्या तो निषिद्ध है ही। सभी हत्याएं निषिद्ध हैं। फिर हत्या में भागीदार होना निषिद्ध है। अब अगर झूठ बोलूं, तो भी निषिद्ध कर्म हो जाएगा; सच बोलूं, तो भी निषिद्ध कर्म होकर रहेगा। वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया।

उस कसाई ने कहा कि जल्दी बोलो। पता हो, तो बोलो; नहीं पता हो, तो कहो कि नहीं पता है। उस ब्राह्मण ने कहा, मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। जरा मुझे सोचने दो। निषिद्ध कर्मों का सवाल है। उस कसाई ने कहा, पागल, मैं पूछता हूं, मेरी गाय कहां है? निषिद्ध कर्मों का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ गाय का सवाल है। गाय कहां गई है? तू जानता हो, देखा हो, बोल! न जानता हो, न देखा हो, वैसा बोल! उसने कहा कि अभी ठहरो। सवाल निषिद्ध कर्मों का है।

जिंदगी जटिल है। उसमें चीजें ऐसी नहीं होतीं, जैसी शास्त्रों में होती हैं। शास्त्र सरल है, हालांकि लोग शास्त्रों को जटिल समझते हैं और जिंदगी को सरल समझते हैं। शास्त्र बिलकुल सरल हैं; जिंदगी बहुत जटिल है। क्योंकि शास्त्रों के सब सवाल निर्णीत सवाल हैं; जिंदगी के सब सवाल अनिर्णीत हैं। वहां प्रतिपल तय करना पड़ता है कि क्या करूं? और ऐसे क्षण रोज आ जाते हैं, जब कोई शास्त्र साथ नहीं देता, स्वयं ही निर्णय करना पड़ता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जटिल है, गहन है कर्म की गति। उस कर्म की गहन गति को ठीक समझने के लिए पहले तो निषिद्ध कर्म के तत्व को ठीक से समझ लेना चाहिए। कर्म और अकर्म को तो समझना ही चाहिए, निषिद्ध कर्म को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि कर्म और अकर्म तो आखिरी सवाल है। लेकिन निषिद्ध कर्म रोज का सवाल है। उठे नहीं, कि तय करना पड़ता है कि क्या करें!

रात आप करवट बदलते हैं। निषिद्ध कर्म करते हैं करवट बदलकर! आप कहेंगे, क्या पागलपन की बात करते हैं! रात करवट नहीं बदलेंगे, तो क्या होगा? महावीर की किताब पढ़ें। महावीर का शास्त्र कहता है कि रात करवट बदलना निषिद्ध है। महावीर ने करवट नहीं बदली। रातों-रात एक ही करवट सोए। क्योंकि रात करवट बदलें, पास में कोई कीड़ा-मकोड़ा दब जाए, तो उसकी हत्या हो जाए। संभावना है, रात है, अंधेरा है, करवट बदली, कीड़ा-मकोड़ा दब जाए। तो एक ही करवट सोना, कम से कम हिंसा की संभावना रहेगी। एक करवट तो सोना ही पड़ेगा। जितने मर गए, मर गए। दूसरी करवट से बचो; निषिद्ध कर्म है।

महावीर जमीन पर पैर भी फूंककर रखेंगे। सूखी जमीन पर पैर रखेंगे; इसलिए महावीर वर्षा में यात्रा नहीं करेंगे। क्योंकि गीली जमीन में कीटाणु पैदा हो जाते हैं। पानी पड़ जाए, गीली जमीन हो, कीटाणु पैदा हो जाए। तो वर्षा में पैर ही मत रखो; निषिद्ध कर्म है।

किस चीज को निषिद्ध कहें? जीसस से पूछो, मोहम्मद से पूछो, महावीर से पूछो, राम से पूछो, कनफ्यूशियस से पूछो। अगर सबकी बातें सुन लो, तो आदमी हिल भी न सके, सांस भी न ले सके। देखा है न, जैन साधु-साध्वी मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं! वह सांस से बचाने के लिए, कि सांस की गर्म हवा आस-पास के कीटाणुओं को मार देगी, तो निषिद्ध कर्म हो जाए! तो नाक पर पट्टी बांधे हुए हैं। गर्म हवा पट्टी में रुक जाए, तो थोड़ी हवा के कीटाणुओं को बचाने की सुविधा हो जाएगी। मुश्किल है!

और ऐसा नहीं है कि इन बड़े तीर्थंकरों, अवतारों, समझदारों, बुद्धिमानों, ज्ञानियों की बात से मुश्किल होती है। जिंदगी जटिल है। वे जो भी कह रहे हैं, सब ठीक कह रहे हैं। लेकिन सभी की बातें जिंदगी के निश्चित पहलू को छू पाती हैं! और जिंदगी रोज अनिश्चित है। सब बदल जाता है।

महावीर ने कहा कि खेती मत करो, क्योंकि खेती निषिद्ध कर्म है; क्योंकि खेती में बहुत हिंसा होती है। होगी ही। इसलिए महावीर को मानने वाले लोगों ने खेती बंद कर दी। खेती बंद कर दी, लेकिन महावीर ने कभी सोचा न होगा कि खेती बंद करके ये और भी निषिद्ध कर्म न करने लगें! खेती तो बंद कर दी--और महावीर के अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, क्योंकि महावीर क्षत्रिय थे। अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, तलवार उठा नहीं सकते; क्योंकि जब खेती नहीं कर सकते, तो तलवार उठाना तो बहुत निषिद्ध हो जाएगा। युद्ध में जा नहीं सकते; सैनिक का काम कर नहीं सकते; क्षत्रिय रहे नहीं। खेती कर नहीं सकते; किसान रहे नहीं। अब क्या उपाय है? शूद्र होने की हिम्मत नहीं है। ब्राह्मण दरवाजे बंद किए बैठे हैं; वे भीतर घुसने न देंगे। सिवाय वैश्य होने के उन्हें कोई रास्ता नहीं रह गया। इसलिए समस्त महावीर के मानने वाले व्यापारी हो गए, वैश्य हो गए।

लेकिन वैश्य होकर उन्होंने इतनी हिंसा की, जितनी कि वे किसान होकर कभी न करते! कभी न करते इतनी हिंसा। लेकिन दिखाई नहीं पड़ती है। रुपए को आप हाथ में लो, हिंसा का बिलकुल पता नहीं चलता। रुपया बिलकुल साफ मालूम पड़ता है। उसमें कहीं खून का धब्बा नहीं होता। हालांकि रुपए में जितने खून के धब्बे होते हैं, किसी और चीज में नहीं होते। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। एकदम साफ है।

कहना चाहिए, स्वच्छ हिंसा है; एकदम साफ-सुथरी, क्लीन वायलेंस! कहीं कोई धब्बा नहीं, दाग नहीं। धुला हुआ रुपया है; तिजोरी में सम्हालकर रखा है। कहीं कुछ पता नहीं चलता कि किसकी गर्दन कटी इसमें; किसके प्राण गए इसमें; कौन सूली लटका; किसकी जमीन बिकी; किसका मकान मिटा; कौन विधवा हुई; क्या हुआ--इसका कुछ पता नहीं चलता।

रुपया बड़ा अदभुत है। वह सब तरह के खून से गुजरे, सब तरह के अपराध से गुजरे, हमेशा ताजा बाहर आता है। वह कभी बासा नहीं होता। कितने ही हाथों से गुजरे, कुछ भी उपद्रव उस पर बीते, वह हमेशा साफ धुला बाहर निकल आता है। जब आपके हाथ में आता है, तब उसके पास कोई इतिहास नहीं बचता। इतिहास खतम हो जाता है। रुपया सीधा-साफ होता है। रुपए का कोई इतिहास नहीं बचता।

फिर रुपए इकट्ठे किए। इसलिए महावीर को मानने वाले-- महावीर ने खुद कभी न सोचा होगा कि मेरे मानने वाले! महावीर नग्न खड़े हैं रास्तों पर; धन-दौलत छोड़ दी है सब; सोचा भी न होगा कि मेरे मानने वालों के पास इस मुल्क में सबसे ज्यादा धन-दौलत इकट्ठी हो जाएगी। मगर निषिद्ध कर्म से हो गई। कहा तो ठीक ही था; निषिद्ध कर्म बताया था, ठीक बताया था; लेकिन यह सोचा न था कि एक तरफ से निषिद्ध कर्म बचे, तो दूसरी तरफ से प्रकट हो सकता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म की गति गहन है। इधर से छोड़ो, उधर से पकड़ लेती है। उधर से छोड़ो, इधर से पकड़ लेती है। तो निषिद्ध कर्म क्या है, इसे ठीक से जान लेना जरूरी है। और जो इसे ठीक से नहीं जान पाए, तो कर्म-अकर्म को जानना तो बहुत दूर है; अक्सर वह निषिद्ध कर्मों में ही जीवन को गंवा देता है। एक से बचता है, दूसरे में उलझ जाता है। जिंदगी का रास्ता कुएं और खाई के बीच है। इधर गिरो तो कुआं है, उधर गिरो तो खाई है। और बीच में चलना बहुत कठिन है। बारीक है; तलवार की धार जैसा है। इतना बारीक है कि सम्हलना मुश्किल है बीच में।

किस चीज को कृष्ण निषिद्ध कहेंगे, वह उनके आगे के सूत्र में हम उनकी व्याख्या को समझें।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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