गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 2

  


एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप।। 2।।


इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना। परंतु हे अर्जुन, वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी-लोक में लुप्तप्राय हो गया है।


परंपरा से ऋषियों ने इसे जाना, लेकिन फिर वह लुप्तप्राय हो गया--ये दो बातें। पहली बात तो आपसे यह कह दूं कि परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं है। साधारणतः हम परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन करते हैं। टे्रडीशन का अर्थ होता है, रीति। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, रूढ़ि। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, प्रचलित। परंपरा का अर्थ और है। परंपरा शब्द के लिए सच में अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।


गंगा निकलती है गंगोत्री से; फिर बहती है; फिर गिरती है सागर में। जब गंगा सागर में गिरती है, और गंगोत्री से निकलती है, तो बीच में लंबा फासला तय होता है। इस गंगा को हम क्या कहें? यह गंगा वही है, जो गंगोत्री से निकली? ठीक वही तो नहीं है; क्योंकि बीच में और न मालूम कितनी नदियां, और न मालूम कितने झरने उसमें आकर मिल गए। लेकिन फिर भी बिलकुल दूसरी नहीं हो गई है; है तो वही, जो गंगोत्री से निकली।

तो ठीक परंपरा का अर्थ होता है कि यह गंगा, परंपरा से गंगा है। परंपरा का अर्थ है कि गंगोत्री से निकली, वही है; लेकिन बीच में समय की धारा में बहुत कुछ आया और मिला।

ऐसा समझें कि सांझ आपने एक दीया जलाया। सुबह आप कहते हैं, अब दीए को बुझा दो; उस दीए को बुझा दो, जिसे सांझ जलाया था। लेकिन जिसे सांझ जलाया था, वह दीए की ज्योति अब कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को आपने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह रिप्लेस होती गई। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह आप बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने जलाया था?

यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। लेकिन फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है। यह उसी ज्योति का सिलसिला है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।

आप आज हैं; कल आप नहीं थे, लेकिन आपके पिता थे। परसों आपके पिता भी नहीं थे, उनके पिता थे। कल आप भी नहीं होंगे, आपका बेटा होगा। परसों बेटा भी नहीं होगा, उसका बेटा होगा। ठीक से समझें, तो जैसे ज्योति जली और बुझी, ठीक ऐसे ही व्यक्ति जलते और बुझते हैं, लेकिन फिर भी एक परंपरा है।

मां और बाप अपने बेटे को ज्योति दे जाते हैं। ज्योति जलती है, फिर नई संतति। अगर हम ठीक से देखें, तो आप हो नहीं सकते थे, अगर हजारों-लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति भी आपकी परंपरा में न हुआ होता। अगर लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति जो आपकी पिता की पीढ़ियों में रहा हो, न होता, तो आप कभी न हो सकते थे। वह गंगोत्री अगर वहां न होती, तो आज आप न होते। आप उसी धारा के सिलसिले हैं, शरीर की दृष्टि से आप उसी के सिलसिले हैं।

और आत्मा की दृष्टि से भी आप सिलसिला हैं, एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी--किसी और देह में, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, कंटिन्युटी।

वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, कंटीनम। अगर ठीक करीब लाना चाहें, तो परंपरा का अर्थ होगा, कंटीनम--संतति प्रवाह, सिलसिला।

कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा।

इसमें दूसरी बात भी ध्यान रखें। जोर कहने पर है; जोर सुनने पर नहीं है। इसमें कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। कृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना। जब भी कहा गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, लेकिन जोर कहने पर है। कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना जरूरी है; सुनने वाले का ऋषि होना जरूरी नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, जरूरी नहीं है। लेकिन जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं जाना होगा। जानना और बात है, सुन लेना और बात है।

इसलिए हम पुराने शास्त्रों को कहते हैं, श्रुति, सुने गए। या कहते हैं, स्मृति,  स्मरण किए गए। ध्यान रहे, शास्त्र जानने वालों ने नहीं लिखे, सुनने वालों ने लिखे हैं।

इस पृथ्वी का कोई भी महत्वपूर्ण शास्त्र लिखा नहीं गया है। सुना गया है और लिखा गया है। गीता भी सुनी गई और लिखी गई। जिसने लिखी, जरूरी नहीं कि वह जानता हो। बाइबिल लिखी गई, कुरान लिखा गया, वेद लिखे गए, महावीर-बुद्ध के वचन लिखे गए। महावीर और बुद्ध ने लिखे नहीं हैं, कहे। जिन्होंने लिखे, उनके लिए वह ज्ञान नहीं था, श्रुति थी। उसे उन्होंने सुना था, उसे उन्होंने स्मरण किया था, उसे उन्होंने लिखा था; संजोया, सम्हाला। कहना चाहिए, शास्त्र एक अर्थ में डेड प्रोडक्ट है। कहना चाहिए, मरे हुए का संग्रह है। जिन्होंने कहा, उन्होंने परंपरा से जाना।

परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र को पढ़ लें और जान लें, तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना। और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। सिर्फ इन्फर्मेशन ही होगा; नालेज नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं।

शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है। शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ी सस्ती बात हो जाएगी। फिर तो शास्त्र की जितनी कीमत है, उतनी ही कीमत सत्य की भी हो जाएगी। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, सिर्फ पहचाना जा सकता है।

लेकिन पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो, अन्यथा पहचानना मुश्किल है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप पहचान नहीं सकते।  जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने का मार्ग तो कुछ और है।

इसलिए कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। लेकिन इसमें स्मरणीय है यह बात कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में किताब नहीं है, बीच में शास्त्र नहीं है।  सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है।

मोहम्मद पहाड़ पर हैं। बेपढ़े-लिखे, मोहम्मद जैसे बेपढ़े-लिखे लोग बहुत कम हुए हैं। लेकिन अचानक उदघाटन हुआ; डाइरेक्ट कम्युनिकेशन हुआ। जिसे इस्लाम कहता है, इलहाम। ईसाइयत कहती है, रिवीलेशन। सत्य दिखाई पड़ा। इसलिए हम ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं। सत्य देखा गया। पढ़ा नहीं गया, सुना नहीं गया, देखा गया।

पश्चिम में भी ऋषियों को सीअर्स ही कहते हैं। देखा गया; देखने वाले। इसलिए हमने तो पूरे तत्व को दर्शन कहा। दिखाई जो पड़े सत्य, सीधा दिखाई पड़े; सीधा सुनाई पड़े, सीधा परमात्मा से मिले।

लेकिन परमात्मा से मिलने की भी परंपरा है। परमात्मा से आपको ही पहली दफा नहीं मिल रहा है। परमात्मा से अनेकों को और भी पहले मिल चुका है। मिलने वालों की भी परंपरा है। दो परंपराएं हैं, एक लिखने वालों की परंपरा है--लेखकों की। और एक जानने वालों की परंपरा है--ऋषियों की।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने जाना। यह परंपरा का बोध कि मुझसे पहले भी सत्य औरों को मिलता रहा है इसी भांति।

आपने आंख खोली और सूरज को जाना। जहां तक आपका संबंध है, आप पहली बार जान रहे हैं। लेकिन आपके पहले इस पृथ्वी पर जब भी आंख खोली गई है, सूरज जाना गया है। सूरज को इस भांति जानने की भी एक परंपरा है। आप पहले आदमी नहीं हैं।

और ध्यान रहे, जिस आदमी को भी भ्रम पैदा हो जाता है कि सत्य को मैं जानने वाला पहला आदमी हूं, उसको दूसरा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि मैं अंतिम आदमी भी हूं। भ्रम भी जोड़े से जीते हैं। भ्रम भी अकेले नहीं होते। जिस आदमी को भी यह खयाल पैदा हो जाएगा कि सत्य को जानने वाला मैं पहला आदमी हूं, मुझसे पहले किसी ने भी नहीं जाना, उस आदमी को दूसरा भ्रम भी अनिवार्य पैदा होगा कि मैं आखिरी आदमी हूं। मेरे बाद अब सत्य को कोई नहीं जान सकेगा। क्योंकि जो कारण पहले भ्रम का है, वही कारण दूसरे भ्रम में भी कारण बन जाएगा। पहले भ्रम का कारण अहंकार है। और ध्यान रहे, जिसका अभी अहंकार नहीं मिटा, उसको सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं हो सकता। अहंकार बीच में बाधा है।

इसलिए कृष्ण बहुत जोर देकर कहते हैं कि परंपरा से ऋषियों ने जाना। लेकिन ध्यान रखना आप, परंपरा इस तरह की नहीं कि एक ने दूसरे से जान लिया हो। परंपरा इस तरह की कि जब भी एक ने जाना, उसने यह भी जाना कि मैं जानने वाला पहला आदमी नहीं हूं; न ही मैं अंतिम आदमी हूं। अनंत ने पहले भी जाना है, अनंत बाद में भी जानेंगे। मैं जानने वालों की इस अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी, एक छोटी-सी बूंद से ज्यादा नहीं हूं। यह सूरज मेरी बूंद में ही झलका, ऐसा नहीं; यह सूरज सब बूंदों में झलका है और सब बूंदों में झलकता रहेगा। जब कोई बूंद इतनी विनम्र हो जाती है, तो उसके सागर होने में कोई बाधा नहीं रह जाती।

इसलिए परंपरा का ठीक से अर्थ समझ लेना। अन्यथा हम परंपरा का जो अर्थ लेते हैं, वह एकदम गलत, एकदम झूठ और खतरनाक है। परंपरा का ऐसा अर्थ नहीं है कि मैं सत्य आपको दे दूंगा, तो आपको मिल जाएगा। और आप किसी और को दे देंगे, तो उसको मिल जाएगा। परंपरा का इतना ही अर्थ है कि मैं पहला आदमी नहीं, आखिरी नहीं; जानने वालों की अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी हूं। यह सूर्य सदा ही चमकता रहा है; जिन्होंने भी आंख खोली, उन्होंने जाना है। ऐसी विनम्रता का भाव सत्य के जानने वाले की अनिवार्य लक्षणा है।

दूसरी बात कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य।

सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब लुप्त हो गया। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनर्आविष्कार असंभव है। उसको खोजने का फिर कोई रास्ता नहीं है।

जैसे एक चिकित्सक किसी आदमी को कहे, मृतप्राय; तो अभी जीवित होने की संभावना है। लेकिन कहे, मर गया, मृत हो गया, तो फिर कोई उपाय नहीं है। मृतप्राय का अर्थ है कि मरने के करीब है; मर ही नहीं गया। लुप्तप्राय का अर्थ है, लुप्त होने के करीब है, लुप्त हो ही नहीं गया।

सत्य सदा ही लुप्तप्राय होता है। क्योंकि एक दफे लुप्त हो जाए, तो फिर मनुष्य की सीमित क्षमता के बाहर है यह बात कि वह सत्य को खोज सके। एक किरण तो बनी ही रहती है सदा। चाहे पूरा सूरज न दिखाई पड़े, लेकिन एक किरण तो सदा ही किसी कोने से हमारे अंधकारपूर्ण मन में कहीं झांकती रहती है। जैसे कि मकान के अंधेरे में द्वार-दरवाजे बंद करके हम बैठे हैं, और खपड़ों के छेद से, कहीं एक छोटी-सी रंध्र से, छोटी-सी किरण भीतर आती हो। इतना सूर्य से हमारा संबंध बना ही रहता है। वही संभावना है कि हम सूर्य को पुनः खोज पाएं, उसी किरण के मार्ग से।

सत्य लुप्तप्राय ही होता है, लुप्त कभी नहीं होता। लुप्तप्राय का अर्थ है कि हर युग में, हर क्षण में, हर व्यक्ति के जीवन में वह किनारा और वह किरण मौजूद रहती है, जहां से सूर्य को खोजा जा सकता है। यही आशा है। अगर इतना भी विलीन हो जाए, तो फिर खोजने का कोई उपाय आदमी के हाथ में नहीं है।

दूसरी बात, लुप्तप्राय सत्य क्यों हो जाता है? जैसे कोई नदी रेगिस्तान में खो जाए; लुप्त नहीं हो जाती, लुप्तप्राय हो जाती है। रेत को खोदें, तो नदी के जल को खोजा जा सकता है। ठीक ऐसे ही, जाने गए सत्य की परंपरा, सुने गए सत्य की परंपरा की रेत में खो जाती है। जाने गए सत्य की परंपरा, द्रष्टा के सत्य की परंपरा, शास्त्रों की, शब्दों की परंपरा की रेत में खो जाती है। धीरे-धीरे शास्त्र इकट्ठे होते चले जाते हैं, ढेर लग जाता है। और वह जो किरण थी ज्ञान की, वह दब जाती है। फिर धीरे-धीरे हम शास्त्रों को ही कंठस्थ करते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं, इन शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने से ही सत्य मिल जाएगा। और सत्य की सीधी खोज बंद हो जाती है। फिर हम उधार सत्यों में जीने लगते हैं। फिर राख ही हमारे हाथ में रह जाती है।

लेकिन शास्त्रों के रेगिस्तान में भी सत्य सिर्फ लुप्तप्राय होता है, लुप्त नहीं हो जाता। अगर कोई शास्त्रों के शब्दों को भी खोदकर खोज सके, तो वहां भी सत्य खोजा जा सकता है। लेकिन पहचान बड़ी मुश्किल है। पहचान इसलिए मुश्किल है कि जिस सत्य से हम अपरिचित हैं, उसे हम शास्त्रों के शब्दों के रेगिस्तान में खोज न पाएंगे। संभावना यही है कि सत्य तो न मिलेगा, हम भी भटक जाएंगे। ऐसा ही हुआ है।

हिंदू, हिंदू शास्त्रों में खो जाता है। मुसलमान, मुसलमान के शास्त्रों में खो जाता है। जैन, जैन के शास्त्रों में खो जाता है। और कोई यह नहीं पूछता कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो उनके पास कितने शास्त्र थे! शास्त्र थे ही नहीं। महावीर के हाथ बिलकुल खाली थे। कोई नहीं पूछता कि जब मोहम्मद को इलहाम हुआ, तो कौन-सी किताबें उनके पास थीं! किताबें थीं ही नहीं। कोई नहीं पूछता कि जीसस ने जब जाना, तो किस विश्वविद्यालय में शिक्षा लेकर वे जानने गए थे!

जानने की घटना सदा ही निपट मौन और शून्य में घटी है। और हम सब जानने के लिए शब्द के मार्ग से यात्रा करते हैं। बड़ी उलटी यात्रा है। एक ही लाभ हो सकता है, और वह यह कि खोजते-खोजते इतने थक जाएं, इतने ऊब जाएं, कि शास्त्र को बंद कर दें। इतना ही लाभ हो सकता है। शब्द से इतने परेशान हो जाएं कि शब्द से हाथ जोड़ लें। पढ़ते-पढ़ते इतना समझ में आ जाए कि पढ़ने से कुछ न होगा, इतना ही लाभ हो सकता है।

सत्य के लुप्तप्राय होने की प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। वह उपयोगी है सदा। सत्य के लुप्त होने की एक व्यवस्था है। वह व्यवस्था कैसी है? वह व्यवस्था ऐसी है कि महावीर ने जाना। स्वभावतः, जिसने जाना, वह उससे कहेगा, जिसने नहीं जाना है। क्योंकि दूसरा अगर जानता ही हो, तो कहना फिजूल है।

 शून्य को किसी अंक के पास बिठाएं, तो अर्थ होता है। एक के पीछे शून्य रख दें, तो दस हो जाते हैं। दो के पीछे रख दें, तो बीस हो जाते हैं। और दो शून्यों को आस-पास रख दें, तो कुछ मतलब नहीं होता। दो शून्य भी नहीं होते जुड़कर। शून्य दो नहीं होते; शून्य एक ही रहता है। शून्य का कोई जोड़ नहीं होता। 

इसलिए सत्य को जब भी कोई जानता है, तो जो नहीं जानते, उनसे बोलता है। बस, उपद्रव शुरू हो जाता है। जो नहीं जानता, वह सुनता है। स्वभावतः, जो कहा जाता है, वह कभी नहीं सुना जाता; कुछ और ही सुना जाता है। हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। अब यह बड़ी कठिनाई हो गई। यह पैराडाक्स हो गया!

हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। जो हम नहीं जानते, वह हम सुन नहीं सकते। नहीं; सुन तो लेंगे। कान सुनने का काम पूरा कर देंगे। लेकिन भीतर वह जो मन है, वह समझ नहीं पाएगा। नहीं; समझ भी लेगा, लेकिन कुछ और समझ लेगा, जो कहा नहीं गया है। हम वही समझते हैं, जो हम समझ सकते हैं।

कृष्ण अर्जुन से बोल रहे हैं। स्वभावतः, अर्जुन वही समझेगा, जो अर्जुन समझ सकता है। वह तो अर्जुन कभी नहीं समझ सकता, जो कृष्ण बोल रहे हैं। क्योंकि अगर अर्जुन वह समझ सकता, तो कृष्ण का बोलना फिजूल हो जाता, बेकार हो जाता।

गुरु और शिष्य के बीच फासला न हो, तब बातचीत हो सकती है, लेकिन तब बातचीत बेकार हो जाती है। और गुरु और शिष्य के बीच फासला हो, तब बातचीत हो नहीं सकती, हालांकि तब बातचीत की जरूरत होती है! ऐसी स्वाभाविक कठिनाई है।

जैसे ही कृष्ण बोलते हैं, सत्य बदलने लगा। जैसे ही पहुंचा दूसरे के पास, रूप बदला, लुप्त होना शुरू हुआ। लेकिन यह तो मैंने बाहर की बात कही। अगर हम थोड़े और भीतर पहुंचें, तो और भी एक कठिनाई है। सत्य बोला गया, तब तो लुप्त होता ही है, सुनने वाले के कारण; लेकिन जब बोला जाता है, तो बोलने की प्रक्रिया के कारण भी लुप्त होता है।

असल में सत्य है विराट, और शब्द है संकीर्ण। शब्द बहुत छोटा है, सत्य बहुत बड़ा है। उस सत्य को जैसे ही शब्द में रखने की कोई चेष्टा करता है, कठिनाई शुरू हो जाती है। इसलिए सभी जानने वाले निरंतर कहने के बाद, यह कहते चले जाते हैं कि जो कहना था, वह कहा नहीं जा सका। जो कहना चाहा था, वह अनकहा छूट गया।

बात यह है, बात ठीक ऐसी ही है, जैसे कि आप देखें सुबह सूरज को उगते; पक्षियों को गीत गाते; वृक्षों को खिलते, फूलते। फिर घर जाएं, और कोई आपसे पूछे कि थोड़ा वर्णन करें, थोड़ा बताएं, कैसा था सूरज? आप कहें, बहुत कुछ कहें। फिर भी आप पाएंगे कि जो भी आपने कहा, वह धुंधली तस्वीर भी नहीं है, जो आपने देखा था। क्योंकि जो आप कहेंगे, उसमें सूरज की जरा भी गर्मी नहीं होगी। उसमें पक्षियों के गीतों का संगीत नहीं होगा। उसमें हरियाली भी नहीं होगी सुबह की। उसमें सुबह की ठंडी हवाओं की ताजगी भी नहीं होगी। उसमें फूलों के खिलने का आनंदभाव भी नहीं होगा। वह जो सुबह की एक्सटैसी थी, वह जो सुबह की समाधिस्थ अवस्था थी प्रकृति की, वह जो सुबह का ध्यानमग्न रूप था, वह कहीं भी नहीं होगा। और जब आप वर्णन करके चुक चुके होंगे, तो आप कहेंगे कि कहा तो जरूर, लेकिन जो मैंने देखा था, वह इसमें कहीं आया नहीं।

फिर वह आदमी सुनकर किसी और को बताएगा। सत्य लुप्त होना शुरू हुआ। कुछ तो आपने लुप्त किया। क्योंकि कहने में ही, कहने की प्रक्रिया में ही भूल हुई। फिर वह आदमी सुनेगा; फिर वह कहेगा, और सत्य लुप्त होना शुरू हो जाएगा। नदी चली और रेगिस्तान में खोनी शुरू हुई। यात्रा उठी भी नहीं, पहला कदम उठा भी नहीं, कि भटकाव शुरू हुआ। ऐसा है। और अब तक इसके लिए कोई उपाय खोजा नहीं जा सका। आगे भी खोजा नहीं जा सकता है। सदा ऐसा ही रहेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सत्य लुप्तप्राय है। लेकिन लुप्तप्राय! मैं सुबह के सूरज का वर्णन करूं; बिलकुल वर्णन न हो पाए, फिर भी मैं वर्णन सुबह के सूरज का ही कर रहा हूं। आप बिलकुल न समझ पाएं, फिर भी आप थोड़ा तो समझ ही जाएंगे कि सुबह का वर्णन कर रहा हूं। पक्षियों के गीत मेरे वर्णन में सुनाई नहीं पड़ेंगे; लेकिन फिर भी पक्षियों ने गीत गाए हैं, इतना तो मैं कह ही पाऊंगा। सूरज की गर्मी मेरे शब्दों में न होगी; लेकिन सूरज गर्म था, उत्तप्त था, सुखद था, इतनी खबर तो मैं दे ही पाऊंगा। और आप कितना ही गलत समझें, जब आप किसी को कुछ कहेंगे इस संबंध में फिर, बात और बिगड़ जाएगी, लेकिन फिर भी सुबह के सूरज से ही संबंधित होगी।

कितनी ही भूल-चूक होती चली जाए, रेगिस्तान में नदी कितनी ही खोती चली जाए, उसका खोजना भी मुश्किल हो जाए, लेकिन कहीं रेत को उखाड़ने से उसकी बूंदें पकड़ में आ ही जाएंगी। और अगर किसी ने सुबह का सूरज देखा हो, तो हजारवें आदमी की बात को सुनकर भी वह समझ जाएगा कि मालूम होता है, सुबह के सूरज की बात करते हैं। रिकग्नाइज कर सकेगा।

सत्य इतना तो सदा बच जाता है कि रिकग्नाइज किया जा सकता है। उसकी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। सत्य सदा ही लुप्तप्राय हो जाता है, लेकिन लुप्तप्राय होकर भी सत्य मौजूद होता है।

दूसरी बात ध्यान रखने जैसी है कि सत्य कितना ही लुप्तप्राय हो जाए, असत्य नहीं हो जाता है। तभी तो लुप्तप्राय है। अगर असत्य हो जाए, तो सत्य मर गया; फिर बचा नहीं, फिर बिलकुल नहीं बचा।

मेरी तस्वीर उतारी जाए। फिर मेरी तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। फिर उस तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। हर निगेटिव फेंट और फीका होता चला जाएगा। फिर भी तस्वीर मेरी ही रहेगी। और ऐसा भी वक्त आ सकता है हजारवें निगेटिव पर कि बिलकुल पहचानना मुश्किल हो जाए। मैं भी न पहचान सकूं कि यह मेरा निगेटिव है। लेकिन फिर भी निगेटिव मेरा ही रहेगा; कितना ही फीका, कितना ही दूर, कितनी ही दूर की प्रतिध्वनि, लेकिन मेरी ही रहेगी। हो सकता है, मैं भी न पहचान पाऊं, तो भी, तो भी मेरी ही परंपरा में वह तस्वीर होगी।

सत्य के लुप्तप्राय होने का यही अर्थ है कि कितना ही लुप्त हो जाए, फिर भी असत्य नहीं हो जाता है। सत्य की फीकी प्रतिध्वनि उसमें शेष रहती है। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि को पुनः पहचान सकते हैं। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि की प्रत्यभिज्ञा कर सकते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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