गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 9

  यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। १५।।

क्योंकिहे पुरुषश्रेष्ठदुख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकतेवह मोक्ष के लिए योग्य होता है।


विरोधी धुर्वो में बंटा हुआ जो हमारा अस्तित्व हैइन दोनों के बीचइन दोनों की आकृतियों के भेद को देखकरइनके भीतर की अस्तित्व की एकता को जो अनुभव कर लेता हैऐसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। जिसे जन्म में मृत्यु की यात्रा दिखाई पड़ जाती हैजिसे सुख में दुख की छाया दिखाई पड़ जाती हैमिलन में विरह आ जाता है जिसके पासजो प्रतिपल विपरीत को मौजूद देखने में समर्थ हो जाता हैवैसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। देखने में समर्थ हो जाता है--खयाल रखना जरूरी है। ऐसा मानने में समर्थ हो जाता हैवह ज्ञानी नहीं हो जाता है। मान लिया ऐसातो काम नहीं चलता है।



माने हुए सत्य अस्तित्व के जरा-से धक्के में गिर जाते हैं और बिखर जाते हैं। जाने हुए सत्य ही जीवन में नहीं बिखरते हैं। जो ऐसा जान लेता हैऐसा देख लेता हैया कहें कि ऐसा अनुभव कर लेता है और बड़े मजे की बात है कि अनुभव करने कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जिंदगी रोज मौका देती हैप्रतिपल मौका देती है। ऐसा कोई सुख जाना है आपनेजो दुख न बन गया होऐसा कोई सुख जाना है जीवन मेंजो दुख न बन गया होऐसी कोई सफलता जानी हैजो विफलता न बन गई होऐसा कोई यश जाना हैजो अपयश न बन गया हो?

कृष्ण कह रहे हैंवह यह कह रहे हैं कि ऐसा जो देख लेता है...! और देखने का ध्यान रखेंयह देखना  अस्तित्वगत अनुभव है। हम रोज जानते हैंलेकिन पता नहीं कैसे चूक जाते हैं देखने से! कैसे अपने को बचा लेते हैं देखने से! शायद कोई बड़ी ही चालाकी हम अपने साथ करते हैं। अन्यथा ऐसा जीवंत सत्य दिखाई न पड़ेयही आश्चर्य है।

सुख को जब हम पकड़ते हैंजब तक वह दुख बनता हैतब तक बीच में टाइम गिरता है समय गिरता है। तो हम जोड़ नहीं पाते कि ये दोनों बिंदु जुड़े हैं। यह वही सुख है जो अब दुख बन गया। नहींवह हम नहीं जोड़ पाते। मित्र को शत्रु बनने में समय लगेगा न! आखिर कुछ भी बनने में समय लगता है। तो जब मित्र बना था तबऔर जब शत्रु बना तबवर्षों बीच में गुजर जाते हैं। जोड़ नहीं पाते कि मित्र बनने में और शत्रु तक पहुंचने में इतना वक्त लगा। नहींमित्र बनने की घटना अलग है और शत्रु बनने की घटना अलग है। तब तय नहीं कर पातेतब व्यक्ति पर ही थोप देते हैं कि गलती व्यक्ति के साथ हो गई है।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू आर-पार देखपूरा देख। और जो इस पूरे को देख लेता हैवह ज्ञानी हो जाता है। और ज्ञानी को फिर ठंडा और गरमसुख और दुख पीड़ा नहीं देते। लेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना कि ज्ञानी को ठंडे और गरम का पता नहीं चलता है।

ऐसी भ्रांति हुई हैइसलिए मैं कहता हूं। ऐसी भ्रांति हुई है। तब तो वह ज्ञानी न हुआजड़ हो गया। अगर सेंसिटिविटी मर जाएतो उसको पता ही न चले। तो कई जड़-बुद्धि ज्ञानी होने के भ्रम में पड़ जाते हैंक्योंकि उनको ठंडी और गरमी का पता नहीं चलता। थोड़े अभ्यास से पता नहीं चलेगा। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं है।

ध्यान रहेज्ञानी को ठंडे और गरम सेसुख और दुख से पीड़ा नहीं होती। सुख और दुख में चुनाव नहीं रह जाताच्वाइस नहीं रह जातीच्वाइसलेसनेस हो जाती है। इसका यह मतलब नहीं है कि दिखाई नहीं पड़ता। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी को सुई चुभाएं तो पता नहीं चलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी के गले में फूल डालें तो सुगंध न आएगी और दुर्गंध फेंकें तो दुर्गंध न आएगी।

नहींसुगंध और दुर्गंध दोनों आएंगीशायद आपसे ज्यादा आएंगी। उसकी संवेदनशीलता आपसे ज्यादा होगी।  क्योंकि वह अस्तित्व के प्रति ज्यादा सजग होगाक्षण के प्रति ज्यादा जागा होगा। उसकी अनुभूति आपसे तीव्र होगी। लेकिन वह यह जानता है कि सुगंध और दुर्गंधगंध के ही दो छोर हैं।

कभीजहां सुगंध बनती हैउस फैक्टरी के पास से गुजरें तो पता चल जाएगा। असल में दुर्गंध को ही सुगंध बनाया जाता है। खाद डाल देते हैं और फूल में सुगंध आ जाती है। सुगंध और दुर्गंधगंध के ही दो छोर हैं। गंध अगर प्रीतिकर लगती हैतो सुगंध मालूम होती हैगंध अप्रीतिकर लगती हैतो दुर्गंध मालूम पड़ती है

ऐसा नहीं है कि ज्ञानी को पता नहीं चलता कि क्या सौंदर्य है और क्या कुरूप है। बहुत पता चलता है। लेकिन यह भी पता चलता है कि सौंदर्य और कुरूप आकृतियों के दो छोर हैंएक ही लहर के दो छोर हैं। इसलिए पीड़ित नहीं होताडांवाडोल नहीं होताअस्थिर नहीं होता। संतुलन नहीं खोता।

लेकिन इससे बड़ी भ्रांति हुई है। और वह भ्रांति यह हुई है कि जिस आदमी को ठंडी-गरमी का पता न चलेवह ज्ञानी हो गया! यह बहुत आसान है। वह काम बहुत कठिन हैजो मैं कह रहा हूं! ठंडी-गरमी का पता न चलेइसके लिए तो थोड़ा-सा ठंडी-गरमी का अभ्यास करने की जरूरत है। ठंडी-गरमी का पता नहीं चलेगाचमड़ी जड़ हो जाएगीउसका बोध कम हो जाएगा। जरा नाक मेंनासापुटों में जो थोड़े से गंध के तंतु हैंअगर दुर्गंध के पास बैठे रहेंवे अभ्यासी हो जाएंगे।



(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 
हरिओम सिगंल

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