गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 10

  भागना नहीं--जागना है

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।

और हे अर्जुनअसत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। इस प्रकारइन दोनों को हम तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।


क्या है सत्यक्या है असत्यउसके भेद को पहचान लेना ही ज्ञान हैप्रज्ञा है। किसे कहें है और किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या है स्वप्न और क्या है यथार्थइसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है। कृष्ण ने इस वचन में कहा हैजो हैऔर सदा हैऔर जिसके न होने का कोई उपाय नहीं हैजिसके न होने की कोई संभावना ही नहीं हैवही सत है। जो हैलेकिन कभी नहीं था और कभी फिर नहीं हो सकता हैजिसके न हो जाने की संभावना हैवही असत है



यहां बहुत समझ लेने जैसी बात है। साधारणतः असत हम उसे कहते हैंजो नहीं है। लेकिन जो नहीं हैउसे तो असत कहने का भी कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं हैउसे तो कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं हैउसे इतना भी कहना कि वह नहीं हैगलत हैक्योंकि हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। जब हम कहते हैं नहीं हैतब भी हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। जो नहीं हैउसके लिए नहीं हैकहना भी गलत है। जो नहीं हैवह नहीं ही हैउसकी कोई बात ही अर्थहीन है।

इसलिए असत का अर्थ नान-एक्झिस्टेंट नहीं होता है। असत का अर्थ होता हैजो नहीं हैफिर भी है; जो नहीं हैफिर भी होने का भ्रम देता हैजो नहीं हैफिर भी प्रतीत होता है कि है। रात स्वप्न देखा हैयह नहीं कह सकते कि वह नहीं है। नहीं थातो देखा कैसेनहीं थातो स्वप्न भी हो सकेयह संभव नहीं है। देखा हैजीया हैगुजरे हैंलेकिन सुबह उठकर कहते हैं कि स्वप्न था।

यह सुबह उठकर जिसे स्वप्न कहते हैंउसे बिलकुल नहींनान-एक्झिस्टेंट नहीं कहा जा सकता। था तो जरूर। देखा हैगुजरे हैं। और ऐसा भी नहीं था कि जिसका परिणाम न हुआ हो। जब रात स्वप्न में भयभीत हुए हैंतो कंप गए हैं। असली शरीर कंप गया हैप्राण कंप गए हैंरोएं खड़े हो गए हैं। नींद भी टूट गई है स्वप्न सेतो भी छाती धड़कती रही है। जागकर देख लिया है कि स्वप्न थालेकिन छाती धड़की जा रही हैहाथ-पैर कंपे जा रहे हैं।

यदि वह स्वप्न बिलकुल ही नहीं होतातो उसका कोई भी परिणाम नहीं हो सकता था। थालेकिन उस अर्थ में नहीं थाजिस अर्थ में जागकर जो दिखाई पड़ता हैवह है। उसे किस कोटि में रखें--न होने कीहोने कीउसे किस जगह रखेंथा जरूर और फिर भी नहीं है!

असत की जो कोटि हैअसत की जो केटेगरी है,  वह अनस्तित्व की कोटि नहीं है।  असत की कोटि अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच की कोटि है। ऐसा सतजो सत मालूम पड़ता हैलेकिन नहीं है।

लेकिन हम यह कैसे जानेंगेक्योंकि स्वप्न में तो पता नहीं पड़ता कि जो हम देख रहे हैंवह नहीं है। स्वप्न में तो मालूम होता हैजो देख रहे हैंवह बिलकुल है। और ऐसा नहीं है कि पहली दफे स्वप्न देखने में ऐसा मालूम पड़ता हो। जीवनभर स्वप्न देखकर भी और रोज सुबह जागकर भीजानकर कि नहीं थाआज रात फिर जब स्वप्न आएगातब स्वप्न में पूरी तरह लगेगा कि है। लगता है पूरी तरह कि हैभासता है पूरी तरह कि हैफिर भी सुबह जागकर पाते हैं कि नहीं है।

यह जो एपिअरेंस हैभासना हैयह जो दिखाई पड़ना हैयह जो होने जैसा धोखा हैइसका नाम असत है। संसार को जब असत कहा हैतो उसका यह अर्थ नहीं है कि संसार नहीं है। उसका इतना ही अर्थ है कि चेतना की ऐसी अवस्था भी हैजब हम जागने से भी जागते हैं। अभी हम स्वप्न से जागकर देखते हैंतो पाते हैंस्वप्न नहीं है। लेकिन जब हम जागने से भी जागकर देखते हैंतो पाते हैं कि जिसे जागने में जाना थावह भी नहीं है। जागने से भी जाग जाने का नाम समाधि है। जिसे अभी हम जागना कह रहे हैंजब इससे भी जागते हैंतब पता चलता है कि जो देखा थावह भी नहीं है।

कृष्ण कह रहे हैंजिसके आगे-पीछे न होना हो और बीच में होना होवह असत है। जो एक समय था कि नहीं था और एक समय आता है कि नहीं हो जाता हैउसके बीच की जो घटना हैबीच की जो हैपनिंग हैदो न होने के बीच जो होना हैउसका नाम असत है।

लेकिन जिसका न होना है ही नहींजिसके पीछे भी होना हैबीच में भी होना हैआगे भी होना हैजो तीनों तलों पर है हीसोएं तो भी हैजागें तो भी हैजागकर भी जागें तो भी हैनिद्रा में भी हैजागरण में भी हैसमाधि में भी हैजो चेतना की हर स्थिति में ही हैउसका नाम सत है। और ऐसा जो सत हैवह सदा हैसनातन हैअनादि हैअनंत है।

जो ऐसे सत को पहचान लेते हैंवे बीच में आने वाले असत के भंवर कोअसत की लहरों को देखकर न सुखी होते हैंन दुखी होते हैं। क्योंकि वे जानते हैंजो क्षणभर पहले नहीं थावह क्षणभर बाद नहीं हो जाएगा। दोनों ओर न होने की खाई हैबीच में होने का शिखर है। तो स्वप्न है। तो असत है। दोनों ओर होने का ही विस्तार है अंतहीनतो जो हैवह सत है।

कसौटीकृष्ण कीमती कसौटी हाथ में देते हैंउससे सत की परख हो सकती है। सुख अभी हैअभी क्षणभर पहले नहीं थाऔर अभी क्षणभर बाद फिर नहीं हो जाता है। दुख अभी हैक्षणभर पहले नहीं थाक्षणभर बाद नहीं हो जाता है। जीवन अभी हैकल नहीं थाकल फिर नहीं हो जाता है। जो-जो चीजें बीच में होती हैं और दोनों छोरों पर नहीं होती हैंवे बीच में केवल होने का धोखा ही दे पाती हैं। क्योंकि जो दोनों ओर नहीं हैवह बीच में भी नहीं हो सकता है। सिर्फ भासता हैदिखाई पड़ता हैप्रकट होता है।

जीवन की प्रत्येक चीज को इस कसौटी पर कसा जा सकता है। अर्जुन से कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू कसकर देख। जो अतीत में नहीं थाजो भविष्य में नहीं होगाउसके अभी होने के व्यामोह में मत पड़। वह अभी भी वस्तुतः नहीं हैवह अभी भी सिर्फ दिखाई पड़ रहा हैवह सिर्फ होने का धोखा दे रहा है। और तू धोखे से जाग भी न पाएगा कि वह नहीं हो जाएगा। तू उस पर ध्यान देजो पहले भी थाजो अभी भी है और आगे भी होगा। हो सकता हैवह तुझे दिखाई भी न पड़ रहा होलेकिन वही है। तू उसकी ही तलाश करतू उसकी ही खोज कर।

जीवन में सत्य की खोजअसत्य की परख से शुरू होती है।  मिथ्या को जानना मिथ्या की भांतिअसत को पहचान लेना असत की भांतिसत्य की खोज का आधार है। सत्य को खोजने का और कोई आधार भी नहीं है हमारे पास। हम कैसे खोजें कि सत क्या हैसत्य क्या हैहम ऐसे ही शुरू कर सकते हैं कि असत्य क्या है।

कई बार बड़ी उलझन पैदा होती है। क्योंकि कहा जा सकता है कि जब तक हमें सत्य पता न होतब तक हम कैसे जानेंगे कि असत्य  क्या हैसत्य पता होतो ही असत्य को जान सकेंगे। और सत्य हमें पता नहीं है।

लेकिन इससे उलटी बात भी कही जा सकती है। और सोफिस्ट उलटी दलील भी देते रहे हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें यही पता नहीं है कि असत्य क्या हैतो हम कैसे समझ लेंगे कि सत्य क्या है! यह चक्रीय तर्क वैसा ही हैजैसे अंडे और मुर्गी का है। कौन पहले हैअंडा पहले है या मुर्गी पहले हैकहें कि मुर्गी पहले है तो मुश्किल में पड़ जाते हैंक्योंकि मुर्गी बिना अंडे के नहीं हो सकेगी। कहें कि अंडा पहले है तो उतनी ही कठिनाई खड़ी हो जाती हैक्योंकि अंडा बिना मुर्गी के रखे रखा नहीं जा सकेगा। लेकिन कहीं से प्रारंभ करना पड़ेगाअन्यथा उस दुष्चक्र मेंउस विशियस सर्किल में कहीं कोई प्रारंभ नहीं है।

अगर ठीक से पहचानेंतो मुर्गी और अंडे दो नहीं हैं। इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है। अंडाहो रही मुर्गी हैमुर्गीबन रहा अंडा है। वे दो नहीं हैंवे एक ही प्रोसेसएक ही हिस्से केएक ही लहर के दो भाग हैं। और इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है कि कौन पहले! उनमें कोई भी पहले नहीं है। एक ही साथ हैंयुगपत हैं। अंडा मुर्गी हैमुर्गी अंडा है।

यह सत और असत का भी करीब-करीब सवाल ऐसा है। वह जिसको हम असत कहते हैंउसका आधार भी सत है। क्योंकि वह असत भी सत होकर ही भासता हैवह भी दिखाई पड़ता है। एक रस्सी पड़ी है और अंधेरे में सांप दिखाई पड़ती है। सांप का दिखाई पड़ना बिलकुल ही असत है। पास जाते हैं और पाते हैं कि सांप नहीं हैलेकिन पाते हैं कि रस्सी है। वह रस्सी सांप जैसी भास सकीपर रस्सी थी भीतर। रस्सी का होना सत है। वह सांप एक क्षण को दिखाई पड़ाफिर नहीं दिखाई पड़ावह असत था। पर वह भीउसके आधार में भी सत थासब्सटैंस मेंकहीं गहरे में सत था। उस सत के ही आभास सेउस सत के ही प्रतिफलन से वह असत भी भास सका है।

लहर के पीछे भी सागर हैमर्त्य के पीछे भी अमृत हैशरीर के पीछे भी आत्मा हैपदार्थ के पीछे भी परमात्मा है। अगर पदार्थ भी भासता हैतो परमात्मा के ही प्रतिफलन सेरिफ्लेक्शन से भासता हैअन्यथा भास नहीं सकता।

आप एक नदी के किनारे खड़े हैं और नीचे आपका प्रतिबिंब बनता है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब आप नहीं हैंलेकिन वह प्रतिबिंब आपके बिना भी नहीं है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब सत नहीं हैपानी पर बनी केवल छवि है। लेकिन फिर भी वह प्रतिबिंब जहां से आ रहा हैवहां सत है।

असतसत की ही झलक है क्षणभर को मिली। क्षणभर को सत ने जो आकृति लीअगर हमने उस आकृति को जोर से पकड़ लियातो हम असत को पकड़ लेते हैं। और अगर हमने उस आकृति में से उसको पहचान लिया जो निराकारनिर्गुणउस क्षणभर आकृति में झलका थातो हम सत को पकड़ लेते हैं।

लेकिन जहां हम खड़े हैंवहां आकृतियों का जगत है। जहां हम खड़े हैंवहां प्रतिफलन ही दिखाई पड़ते हैं। हमारी आंखें इस तरह झुकी हैं कि नदी के तट पर कौन खड़ा हैवह दिखाई नहीं पड़तानदी के जल में जो प्रतिबिंब बन रहा हैवही दिखाई पड़ता है। हमें उससे ही शुरू करना पड़ेगाहमें असत से ही शुरू करना पड़ेगा। हम स्वप्न में हैंतो स्वप्न से ही शुरू करना पड़ेगा। अगर हम स्वप्न को ठीक से पहचानते जाएंतो स्वप्न तिरोहित होता चला जाएगा।

यह बड़े मजे की बात हैकभी प्रयोग करने जैसा अदभुत है। रोज रात को सोते समय स्मरण रखकर सोएंसोते-सोते एक ही स्मरण रखे रहें कि जब स्वप्न आए तब मुझे होश बना रहे कि यह स्वप्न है। बहुत कठिन पड़ेगालेकिन संभव हो जाता है। नींद लगती जाएलगती जाएऔर आप स्मरण करते जाएंकरते जाएं कि जैसे ही स्वप्न आएमैं जान पाऊं कि यह स्वप्न है। थोड़े ही दिन में यह संभव हो जाता हैनींद में भी यह स्मृति प्रवेश कर जाती है। अचेतन में उतर जाती है। और जैसे ही स्वप्न आता हैवैसे ही पता चलता हैयह स्वप्न है।

लेकिन एक बहुत मजे की घटना है। जैसे ही पता चलता हैयह स्वप्न हैस्वप्न तत्काल टूट जाता है--तत्कालइधर पता चला कि यह स्वप्न है कि उधर स्वप्न टूटा और बिखरा। स्वप्न को स्वप्न की भांति पहचान लेनाउसकी हत्या कर देनी है। वह तभी तक जी सकता हैजब तक सत्य प्रतीत हो। उसके जीने का आधार उसके सत्य होने की प्रतीति में है।

इस प्रयोग को जरूर करना ही चाहिए।

इस प्रयोग के बाद कृष्ण का यह सूत्र बहुत साफ समझ में आ जाएगा कि वे इतना जोर देकर क्यों कह रहे हैं कि अर्जुनअसत और सत के बीच की भेद-रेखा को जो पहचान लेता हैवह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। स्वप्न से ही शुरू करें रात केफिर बाद में दिन के स्वप्न को भी जागकर देखें और वहां भी स्मरण रखें कि जो है--दो नहीं के बीच में--वह स्वप्न है। और तब अचानक आप पाएंगे कि आपके भीतर कोई रूपांतरित होता चला जा रहा है। और जहां कल मन पकड़ लेने का होता थाआज वहां मुट्ठी नहीं बंधती। कल जहां मन रोक लेने का होता था किसी स्थिति कोआज वहां हंसकर गुजर जाने का मन होता है। क्योंकि जो दोनों तरफ नहीं हैउसे पकड़नाहवा को मुट्ठी में बांधने जैसा है। जितने जोर से पकड़ोउतने ही बाहर हाथ के हो जाती है। मत पकड़ो तो बनी रहती हैपकड़ो तो खो जाती है।

जैसे ही यह दिखाई पड़ गया कि दो नहीं के बीच में जो हैहै मालूम पड़ता हैवह स्वप्न हैवैसे ही आपकी जिंदगी से असत की पकड़ गिरनी शुरू हो जाएगीस्वप्न बिखरना शुरू हो जाएगा। तब जो शेष रह जाता हैवह सत्य है। जिसको आप पूरी तरह जागकर भी नहीं मिटा पातेजिसको आप पूरी तरह स्मरण करके भी नहीं मिटा पातेजो आपके बावजूद शेष रह जाता हैवही सत्य है। वह शाश्वत हैउसका कोई आदि नहीं हैकोई अंत नहीं है। कहना चाहिएवह टाइमलेस है।

यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है।

असत हमेशा टाइम में होगासमय में होगा। क्योंकि जो कल नहीं थाआज हैऔर कल नहीं हो जाएगाउसके समय के तीन विभाजन हुए--अतीतवर्तमान और भविष्य। लेकिन जो कल भी थाआज भी हैकल भी होगाउसके तीन विभाजन नहीं हो सकते। उसका कौन-सा अतीत हैउसका कौन-सा वर्तमान हैउसका कौन-सा भविष्य हैवह सिर्फ है। इसलिए सत्य के साथ टाइम सेंस नहीं हैसमय की कोई धारणा नहीं है। सत कालातीत हैसमय के बाहर है। असत समय के भीतर है।

जैसे मैंने कहाआप नदी के तट पर खड़े हैं और आपका प्रतिफलनरिफ्लेक्शन नदी में बन रहा है। आप नदी के बाहर हो सकते हैंलेकिन रिफ्लेक्शन सदा नदी के भीतर ही बन सकता है। पानी का माध्यम जरूरी है। कोई भी माध्यम जो दर्पण का काम कर सकेकोई भी माध्यम जो प्रतिफलन कर सकेवह जरूरी है। आपके होने के लिएकोई प्रतिफलन करने वाले माध्यम की जरूरत नहीं है। लेकिन आपका चित्र बन सकेउसके लिए प्रतिफलन के माध्यम की जरूरत है।

टाइमसमय प्रतिफलन का माध्यम है। किनारे पर सत खड़ा होता हैसमय में असत पैदा होता है। समय की धारा मेंसमय के दर्पण परटाइम मिरर पर जो प्रतिफलन बनता हैवह असत है। और समय में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती। जैसे पानी में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकतीक्योंकि पानी अथिर है। इसलिए कितना ही थिर प्रतिबिंब होफिर भी कंपता रहेगा। पानी कंपन है।

ये जो कंपते हुए प्रतिबिंब हैं समय के दर्पण पर बने हुएकल थेअभी हैंकल नहीं होंगे। कल भी बड़ी बात हैबीते क्षण में थेनहीं थेअगले क्षण में नहीं हो जाएंगे। ऐसा जो क्षण-क्षण बदल रहा हैजो क्षणिक हैवह असत है। जो क्षण के पार हैजो सदा हैवही सत है। इसकी भेद-रेखा को जो पहचान लेताकृष्ण कहते हैंवह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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