बुधवार, 1 जून 2022

ओम मंत्र का सही उपयोग

 मंत्र के पर्त संबंध में कुछ समझ लें। उसका प्रयोग जीवन में क्रांति ला सकता है।

पहली बात— पर्त—पर्त तुम्हारे व्यक्तित्व में है; जैसे प्याज में होती है। एक—एक पर्त को उघाड़ना है, ताकि भीतर छिपे केंद्र को तुम खोज पाओ। हीरा छिपा है, खोया तुमने नहीं है। खो सकते भी नहीं हो; क्योंकि वह हीरा तुम ही हो। दब सकते हो; हीरा भी मिट्टी में दब जाता है। हीरे पर भी पर्त जम जाती है। हीरा भी पत्थर जैसा दिखाई पड़ने लगता है। पर भीतर कुछ भी नष्ट नहीं होता।

तुम्हें शायद खयाल न हो कि हीरे का इतना मूल्य क्यों है? हीरे के मूल्य के पीछे, मनुष्य की शाश्वत की खोज है। इस जगत में हीरा सबसे थीर है। सब चीजें बदल जाती हैं; हीरा बिना बदला हुआ बना रहता है। करोड़ों—करोड़ों वर्ष में भी, वह क्षीण नहीं होता। इस बदलते हुए संसार में हीरा न बदलते हुए अस्तित्व का प्रतीक है। इसलिए हीरे का इतना मूल्य है। अन्यथा वह पत्थर है। मूल्य है उसकी शाश्वतता का, उसके ठहराव का। हीरा होना तुम्हारा शाश्वत स्वभाव है। और सारी साधना तुम्हारी मिट्टी की जम गयी पर्तों को अलग करने की है। पर्तें मिट्टी की हैं; इसलिए अलग करना बहुत कठिन न होगा। और पर्तें हीरे पर हैं और मिट्टी की है, शाश्वत पर है, परिवर्तनशील की हैं, इसलिए बहुत कठिन बात नहीं होगी। मंत्र इन पर्तों को खोदने की विधि है।


जो सिर का दर्द दूर करे, वह डाक्टर; और जो सिर को ही दूर कर दे, वह मंत्र है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! सिर जब तक है, तब तक दर्द होता ही रहेगा; ऐसी भी विधि है, जिससे सिर दूर हो जाये। तुम्हारी सारी तकलीफ तुम्हारा सिर है, तुम्हारे विचार हैं, विचारों का ऊहापोह है, चितना है। अगर विचार खो जायें तो सिर खो गया! तब तुम तो रहोगे, लेकिन मन न रहेगा। मन को जो मार दे वह मंत्र है। मन की जिससे मृत्यु घटित हो जाये, वह मंत्र है। और मन जब नहीं रह जाता तो तुम्हारे और शरीर के बीच जो सेतु है वह टूट जाता है। मन ही जोड़े हुए है तुम्हें शरीर से। अगर बीच का सेतु, बीच का संबंध टूट जाये तो शरीर अलग, तुम अलग हो जाते हो। और जिसने जान लिया अपने को शरीर से अलग और मन से शून्य, वह शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है। वह परम केवली है।

इसलिए मंत्र को समझ लें। मंत्र की परिभाषा है—जिससे सिर ही खो जाये, मन न बचे। और ये जो पर्तें हैं शरीर की, मन की, इनको काटने की विधि है। एक—एक कदम बढ़ना जरूरी है। और धैर्य रखना होगा। क्योंकि मंत्र बहुत धीरज का प्रयोग है। अधैर्य जिनके मन में बहुत ज्यादा है, उन्हें मंत्र से लाभ न होगा, नुकसान हो सकता है। इसे पहले समझ लें। क्योंकि वैसे ही तुम काफी परेशान हो और मंत्र एक नई परेशानी बन जायेगी अगर अधैर्य हुआ।

तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो और नया मंत्र और एक बोझ ले आयेगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है, कि जिनको तुम साधारणतया धार्मिक आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं; क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है, धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस है। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया है; व्यस्तता और बढ गयी।

तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पडना। जैसे दवा को मात्रा में लेना होता है—यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गये तो बीमारी अभी ठीक हो जायेगी; उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी—उसे मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी  सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आयेगा भी नहीं। क्योंकि यह परम फल है। यह कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पन्द्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म—जन्म लग जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो उतना जल्दी फल आ जायेगा। और जितना अधैर्य हो, उतनी ज्यादा देर लग जायेगी।


पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त छोड़कर मंत्र का इलाज शुरू किया तो बीमारी तुम्हारी रह जायेगी, मिटेगी नहीं।  ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की तो वह सपना है। तुम अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा। विधि को समझ लो। पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले—क्योंकि शांत बैठना आसान नहीं है—पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोलकर उछलना, कूदना, नाचना, ताकि शरीर के भीतर, रग—रग, रेशे—रेशे में जो बेचैनी है, वह निकल जाये। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे। शांति से बैठने के लिए यह जरूरी रेचन है। दस—पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी तुम्हारी बेचैनी हो उस हिसाब से, तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ से हिलाना ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना—डुलाना, नाचना—कूदना, दौड़ना, फिर बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंखें आधी खुली रखना और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा कमरा हो, बंद हो और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो। इसलिए मंदिर, मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है—जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं। या घर में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी—देवताओं को भी मत रखना। बिलकुल खाली कर देना।

बस, खालीपन ही एक परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल है। 

कमरे को बिलकुल खाली रखना है। जितना शून्य हो, उतना अच्छा है; क्योंकि इसी शून्य की भीतर तलाश है। यह कमरा तुम्हारे भीतर के शून्य का प्रतीक हो, और छोटा हो, क्योंकि मंत्र में उसका उपयोग है; और खाली हो, उसका भी उपयोग है। आंख आधी खुली रखना; क्योंकि जब आंख पूरी खुली होती है, तो तुम दरवाजे पर खड़े हो अपने मकान के—पीठ मकान की तरफ, मुंह संसार की तरफ। एकदम से पीठ न मुड़ेगी। एकदम से परिवर्तन आसान नहीं। तुम सिर्फ आधी आंख खोलना, आधा संसार की तरफ बंद और आधा अपनी तरफ खुले, आधी आंख खुले होने का यही अर्थ है कि आधा संसार देख रहे हैं, आधा अपने को। यहीं से शुरू करना।

और जल्दी की कोई आवश्यकता नहीं है। आधी आंख जब खुली होती है तो तुम एक तंद्रा जैसी स्थिति अनुभव करोगे। तो अपनी नाक के शीर्ष भाग को देखते रहना। बस, उतनी ही आंख खोलनी है। एकाग्रता नहीं करनी है; शांत भाव से नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ रहा है—नासाग्र दिखाई पड़ रहा है तब ओम का पाठ जोर से शुरू करना—शरीर से, क्योंकि शरीर में तुम हो। तो जोर से ओम की ध्वनि करना कि कमरे की दीवालों से टकराकर तुम पर गिरने लगे। इसलिए खाली जरूरी है। खाली होगी तो प्रतिध्वनि होगी। जितनी प्रतिध्वनि हो उतनी लाभ की है। इसलिए अगर तुम ईसाइयों का कैथड्रल देखे हो तो वह मंत्र के लिए बनाया गया था। वहां कुछ भी बोलो तो वह ध्वनि हजारों गुनी होकर तुम पर लौट आती है। हिंदुओं ने मंदिर बनाया था, अर्धवृत्त में सिर्फ इसलिए कि उसके गुंबज में ध्वनि टकराकर वापस लौट आयेगी। वृत्ताकार वस्तु से कोई भी ध्वनि बाहर नहीं जा सकती है, भीतर लौट आती है। वे मंत्र के लिए थे।

तो तुम बैठ जाना, जोर से ओंकार—ओम.. ओम.. जितने जोर से कर सको; क्योंकि शरीर का उपयोग करना है। तुम्हारा पूरा शरीर निमज्जित हो जाये ओम। ऐसा लगने लगे कि तुमने अपनी पूरी जीवन—ऊर्जा ओम में लगा दी, कुछ बचाया नहीं—जैसे इसी पर जीवन—मरण टिका है। इससे कम में मंत्र नहीं होता। ऐसे धीरे—धीरे मुर्दे की तरह कहते रहो, आधे—आधे, उससे हल न होगा; समग्र भाव से—जैसे कि इसी पर निर्भर है कि अगर तुमने पूरी तरह ओम कहा तो ही तुम बचोगे, अन्यथा मर जाओगे। दांव पर लगा देना। आधी आंख खुली, आधी बंद, जोर से ओम का पाठ। और ध्यान रखना, जैसे कोई पत्थर फेंकता है शांत झील में, लहरें उठती हैं, चारों तरफ चली जाती है, ऐसा जब तुम ओम कहोगे, तो तुमने एक पत्थर फेंका उस शांत शून्यता में कमरे की, चारों तरफ किरणें फैली, ध्वनि गयी, टकरायी, वापस लौटी।  

तुम इतने जल्दी ओम कहना कि ओवरलैपिंग हो जाये। एक मंत्र—उच्चार के ऊपर दूसरा मंत्र—उच्चार हो जाये—ओम.... ओम... .ओम। दो ओम के बीच जगह मत छोडना। पसीना—पसीना हो जाना। सारी ताकत लगा देना। थोड़े ही दिनों में तुम पाओगे कि पूरा कक्ष ओम से भर गया। तुम पाओगे कि पूरा कक्ष तुम्हारा साथ दे रहा है; ध्वनि लौट रही है। अगर तुम कोई गोल कक्ष खोज पाओ तो ज्यादा आसान होगा। अगर गुंबदवाला कक्ष खोज पाओ तो और भी आसान होगा। बिलकुल कुछ भी न हो, ताकि ध्वनि पूरी तरह तुम पर बरसने लगे। तुम्हारा शरीर एक स्नान से गुजर जायेगा और तुम पाओगे कि ऐसी शीतलता जल के स्नान से कभी भी नहीं मिलती।

जब चारों तरफ से ओंकार तुम पर बरसने लगेगा, लौटने लगेगा तुम्हारी ध्वनि वर्तुलाकार हो जायेगी, तुम पाओगे कि शरीर का रोआं—रोआं प्रसन्न हो रहा है; रोएं रोएं से रोग झड़ रहा है; शांति, स्वास्थ्य प्रगाढ हो रहा है। तुम हैरान होकर पाओगे कि तुम्हारे शरीर की बहुत—सी तकलीफें अपने—आप खो गयीं; क्योंकि यह बडा गहरा स्नान है और बड़ी गहराई तक इसकी पकड़ और पहुंच है।

शरीर ध्वनि का ही जोड़ है। और ओंकार से अद्भुत ध्वनि नहीं। यह दस मिनट ओंकार का उच्चार जोर से, शरीर के माध्यम से, फिर आंख बंद कर लेना। ओंठ बंद कर लेना। जीभ तालू से लग जाए, इस तरह मुंह बंद कर लेना कि बिलकुल बंद है, कोई जगह न बची; क्योंकि अब जीभ का उपयोग नहीं करना है, ओंठ का उपयोग नहीं करना है।

दूसरा कदम है, दस मिनिट तक अब ओम का उच्चार करना भीतर मन में। अभी तक कक्ष था चारों तरफ, अब शरीर है चारों तरफ। अभी तक मकान के भीतर थे तुम, अब शरीर मकान है। दूसरे दस मिनिट में अब तुम अपने भीतर मन में ही गुजाना। ओंठ का, जीभ का, कण्ठ का कोई उपयोग न करना। सिर्फ मन में ओम..... ओम्. .लेकिन गति वही रखना। तीव्रता वही रखना। जैसे तुमने कमरे को भर दिया था ओंकार से, ऐसे ही अब शरीर को भीतर से भर देना ओंकार से—कि शरीर के भीतर ही कंपन होने लगे, ओम दोहरने लगे, पैर से लेकर सिर तक। और इतनी तेजी से यह ओम करना है, जितनी तेजी से तुम कर सको और दो ओम के बीच जरा भी जगह मत छोड़ना क्योंकि मन का एक नियम है कि वह एक साथ दो विचार नहीं कर सकता। एक साथ दो विचार असंभव हैं।

अगर तुमने ओम इतने जोर से गुंजाया कि दो ओम के बीच में जरा—सी भी संधि न बची तो कोई विचार न आ सकेगा। अगर जरा—सी संधि बची तो विचार आ जायेगा; उसी संधि में जगह बना लेगा। तो संधि मत छोड़ना; संधि—शून्य उच्चार। इसकी भी फिक्र न करना कि एक ओम पर दूसरा चढ़ा जा रहा है। जैसे कभी मालगाड़ी टकरा जाती है, एक डब्बे के ऊपर दूसरा डब्बा हो जाता है, ऐसा तुम ओम को एक दूसरे के ऊपर हो जाने देना। जगह बीच में मत छोड़ना और ध्यान रखना, शरीर का उपयोग नहीं करना है इसमें। आंख इसलिए अब बंद कर ली। शरीर थिर है। मन में ही गूंज  करनी है। शरीर से ही टकराकर गूंज  मन पर वापस गिरेगी, जैसे कमरे से टकराकर शरीर पर गिर रही थी। उससे शरीर शुद्ध हुआ; इससे मन शुद्ध होगा। और जैसे—जैसे गूंज  गहन होने लगेगी, तुम पाओगे कि मन विसर्जित होने लगा। एक गहन शांति, जैसी तुमने कभी नहीं जानी, उसका स्वाद मिलना शुरू हो जायेगा।

दस मिनिट तक तुम भीतर गुंजार करना। दस मिनिट के बाद गर्दन झुका लेना कि तुम्हारी दाढी छाती को छूने लगे। दो—चार दिन तकलीफ भी मालूम होगी गर्दन में, उसकी फिक्र मत करना, वह चली जायेगी। तीसरे चरण में दाढ़ी छूने लगे; जैसे गर्दन कट गयी, उसमें कोई जान न रही। और अब तुम मन में भी गुंजार मत करना ओम का। अब तुम सुनने की कोशिश करना; जैसे ओंकार हो ही रहा है, तुम सिर्फ सुननेवाले हो, करनेवाले नहीं। क्योंकि मन के बाहर तभी जा सकोगे, जब कर्ता छूट जायेगा। अब तुम साक्षी हो जाना। अब तुम गर्दन झुकाकर यह कोशिश करना कि भीतर ओंकार चल रहा है।

अब तुम सुनने की कोशिश करना। अभी तक तुम मंत्र का उच्चार कर रहे थे; अब तुम मंत्र के साक्षी बनने की कोशिश करना। और तुम चकित होओगे कि तुम पाओगे कि भीतर सूक्ष्म उच्चार चल रहा है। वह ओम जैसा है ठीक ओम नहीं है; क्योंकि भाषा में उसे लाना कठिन है; ठीक ओम् जैसा है। तुम अगर शांति से सुनोगे तो अब वह तुम्हें सुनायी पड़ेगा। शरीर से तुम हट गये। पहले मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें शरीर से काट दिया। दूसरे मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें मन से काट दिया। अब तीसरा मंत्र का प्रयोग साक्षी—भाव का है। 

इसलिए ओंकार से अद्भुत कोई मंत्र नहीं है। ओम् से अद्भुत कोई मंत्र नहीं है। ओम अरूप है।  ओम बिलकुल अर्थहीन है। ओम बड़ा अनूठा है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। न इसका कोई रूप है। न इसकी कोई प्रतिमा है। न इसकी कोई आकृति है। यह वर्णमाला का हिस्सा भी नहीं है। और यह निकटतम है उस ध्वनि के, जो भीतर सतत चल रही है; जो तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। जैसे कि झरने कलकल का नाद करते हैं—उन्हें करना नहीं पड़ता, उनके बहने से ही कलकल नाद होता रहता है; जैसे हवा गुजरती है वृक्षों से तो एक सरसराहट की आवाज होती है—वह उसे करनी नहीं पड़ती, उस के गुजरने से और वृक्षों की टकराहट से हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारा होना ही इस ढंग का है कि उसमें ओम गूंज रहा है। वह तुम्हारे होने की ध्वनि है।’

इसलिए ओम किसी धर्म की बपौती नहीं है। वह न हिंदुओं का है, न जैनों का, न बौद्धों का, न मुसलमानों का न ईसाइयों का। ओम् अकेला मंत्र है जो गैर साम्प्रदायिक है, बाकी सब मंत्र साम्प्रदायिक हैं। यह तुम जानकर चकित होओगे कि जैन भी ओम का उपयोग करते हैं, ईसाई भी उपयोग करते हैं, मुसलमान भी। थोड़ा फर्क है। वे ओम की जगह आमीन का उपयोग करते है। वह ओम् का ही रूपांतरण है; वह ओम का ही भ्रष्ट रूप है। इस मुल्क से उन तक खबर पहुंचते—पहुंचते ओम आमीन हो गया; क्योंकि इसका संबंध सोच—विचार से नहीं है। यह तो जो लोग भी निःसोच में डूब गये, उन्हें सुनायी पड़ा है।

तो दो चरण तो तुम मंत्र करोगे, तीसरे चरण में तुम मंत्र को सुनोगे; श्रावक बनोगे, साक्षी बनोगे। दो तक कर्त्ता रहोगे; क्योंकि शरीर और मन कर्तृत्व का हिस्सा है और तीसरा चरण साक्षी— भाव का है। तीसरे चरण में तुम सिर्फ सुनना। शरीर कटा, मन कटा; तब तुम बच गये। प्याज के छिलके अलग हुए, अब सिर्फ शुद्ध अस्तित्व बचा। वही शिवत्व है।

और एक बार इसका स्वाद आ जाये, तो फिर तुम जल्दी—जल्दी जाने लगोगे। फिर स्वाद ही खींचने लगेगा। फिर स्वाद एक मैगनेट बन जाता है। और जिसमे हमें स्वाद आता है, उस तरफ हम सहज ही चले जाते है। कठिनाई तो वहीं होती है, जहां हमें स्वाद नहीं आता। तुम ध्यान लगाते हो, नहीं लगता, क्योंकि तुम्हें स्वाद नहीं आया अभी। पहले स्वाद आ जाये, उसके बाद कोई अड़चन न होगी। फिर तो मन वहां—वहां अपने—आप पहुंच जाता है। जरा समय मिला आंख बंद की ।

वह स्वाद एक दफा आ जाये, वही पहला कदम कठिन है। पहला कदम आधी मंजिल के बराबर है। एक दफा स्वाद आ जाये फिर तो मन भौर की तरह वहीं—वहीं जाता है जहां रस है। मन की सहज वृत्ति है वहीं—वहीं जाने की, जहां रस है। तुम्हें रस नहीं आया अभी, इसलिए तुम ठोक—पीट करते हो बहुत कि मन को धक्का दो कि ध्यान लगाओ, कि ईश्वर का स्मरण करो और वह कहता है कि चलो बाजार, क्यों समय खराब कर रहे हो? इतनी देर में कुछ कमा ही लेते! और फिर यह बाद में कर लेना, जल्दी भी क्या है? जब समय हो, तब कर लेना; अभी दुकान का समय है, दफ्तर का समय है।

 वह बाहर भीतर ऐसे आता है जैसे हवा का झोंका आता—जाता है। न बाहर आने में कोई अड़चन है, न भीतर जाने में कोई अड़चन है। बाहर बाहर नहीं है; अब भीतर भीतर नहीं है; अब दोनों एक हो गये। तुम अपने घर के बाहर जैसी सरलता से आ जाते हो, जैसी सरलता से भीतर चले जाते हो, ऐसे ही यह जीवन तुम्हारा घर है, इसके बाहर और भीतर आने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। तो कुछ हैं, जो आसक्त हैं संसार से; फिर कुछ हैं, जो आसक्त हो जाते हैं आत्मा से। दोनों आसक्त हैं और दोनों बंधन में हैं; परम मोक्ष फलित नहीं हुआ। ज्ञानी वही है, जिसका अब कोई बंधन नहीं—न बाहर, न भीतर; जिसका प्रवाह सहज है।

मंत्र की यह प्रक्रिया—तीसरा चरण—जितनी देर तुम रह सको, सम्हालना। पहला चरण—शांत बैठना। शांत के पहले भूमिका—दस मिनिट उछल—कूद, शरीर की सब बेचैनी को बाहर फेंक देना; क्योंकि शरीर में बेचैनी भरी रहती है। 

शरीर से बाहर तो ऊर्जा के जाने का मार्ग है; बाहर गयी ऊर्जा को भीतर लाने का कोई मार्ग नहीं है।  फिर तुम ध्यान को बैठे। वह सब अटकी ऊर्जा बाधा डालेगी। इसलिए तुम कहते हो, पैर में दर्द हो रहा है। कहीं चींटी चढ़ रही है। कहीं कमर में कुछ मालूम होता है। कहीं गर्दन में खुजलाहट आती है। यह सब काल्पनिक नहीं है। यह तुम कल्पना नहीं कर रहे हो। यह हो रहा है; क्योंकि कभी तुम खाली बैठे नहीं, कुछ न कुछ में लगे रहे, ऊर्जा संलग्न थी। अब तुम खाली बैठे हो तो जहां—जहां ऊर्जा अटकी है, वहां—वहां बेचैनी, रेस्टलेसनेस पैदा होगी।

इसलिए मैं सदा जोर देता हूं कि प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरूरी है। रेचन तुम्हें सहयोगी होगा। दस मिनिट दौड़ लो, कूद लो, उछल लो; सारी ऊर्जा जो जम गयी है, उसे फेंक दो, फिर बैठ जाओ। जैसे तूफान के बाद शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शरीर हलका हो जाता है, उसकी बेचैनी खो जाती है। पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नहीं। वह मकान के बाहर की सीढ़ी है। मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है. दस मिनट ओंकार की ध्वनि—शरीर से, दस मिनिट ओंकार की ध्वनि मन से। दस मिनिट 'ओंकार की ध्वनि तुम्हें नहीं करनी, वह अस्तित्व में हो ही रही है, तुम्हें सिर्फ सुननी है।

 जो ध्वनि हो रही है, वह ओम की है। लेकिन कभी—कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है। वह ऐसा ही है जैसा तुम कभी ट्रेन में चलते हो, रेलगाड़ी आवाज करती है—छक्—छक्। उसमें तुम कोई भी चीज सोचना चाहो तो सोच सकते हो। तुम अगर सोचना चाहो—अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह, तो धीरे— धीरे तुमको लगने लगेगा कि वह छक्—छक् नहीं है, वह अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह हो रहा है; या राम, राम, राम—तो राम—राम हो रहा है। लेकिन सिर्फ छक्—छक्—छक्—छक् हो रहा है।

ओम शुद्ध ध्वनि है। अगर तुम राम को ही पकड़ कर चलोगे तो तुम्हें राम भी सुनायी पड़ने लगेगा वहां, लेकिन वह आरोपण है। और आरोपण का अर्थ हैं—मन थोड़ा जिंदा है। हम वही जानना चाहते हैं, जो है। हम वही देखना चाहते हैं, जो है। हम मन को उसके ऊपर थोपना नहीं चाहते, रंग नही देना चाहते। इसलिए मंत्र, महा मंत्र तो ओंकार है। बाकी सब मंत्र छोटे—छोटे हैं; दूसरे तक ले जा सकते हैं, तीसरे में बाधा डालेंगे। कोई जरूरत नहीं।

तुम ओम् का प्रयोग करना और इस भांति जैसा मैंने कहा। तीन महीने तुम चिंता मत करना कि क्या परिणाम आ रहे हैं। तुम परिणाम का विचार ही मत करना। तुम सिर्फ किये जाना। तुम सोचना ही मत कि कुछ हो रहा है कि नहीं हो रहा है, अभी तक हुआ कि नहीं। तुम तीन महीने तक सोचना ही मत। तुम एक तारीख तय कर लेना कि तीन महीने बाद फलां तारीख को लौटकर सोचेंगे कि कुछ हुआ कि नहीं। तब तक नहीं सोचेंगे फल को।

हरिओम सिगंल

भगवान रजनीश के शिव--सूत्र पर दिये प्रवचन पर आधारित 











कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...