सोमवार, 23 अगस्त 2021

प्रह्लाद भक्त

मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूं! प्रह्लाद जन्मा तो दैत्यों के घर में। लेकिन घर में जन्मने से कुछ भी नहीं होता। घर बंधन नहीं है। प्रह्लाद दैत्य के घर में जन्मता है और परम भक्ति को उपलब्ध हो जाता है। शायद दैत्यों के घर में जो नहीं जन्मे हैं, वे भी इतनी भक्ति को उपलब्ध नहीं हो पाते। प्रह्लाद जैसा भक्त खोजना बिलकुल मुश्किल है।

यह बड़े मजे की बात है। दैत्य के घर में जन्मा हुआ बच्चा परम भक्त हो गया, और सदगृहस्थों, सज्जनों और देवताओं के घर में जन्मे बच्चे भी प्रह्लाद के मुकाबले एक नहीं टिक पाते। इससे कुछ बातें निकलती हैं।

एक, आप कहां पैदा होते हैं, किस परिस्थिति में, यह बेमानी है, इररेलेवेंट है। लेकिन हम सब यही रोना रोते रहते हैं कि परिस्थिति ऐसी है, क्या करें? परिस्थिति ही ऐसी है, मैं कर क्या सकता हूं? और अभी तो इस सदी में यह रोना इतना भयंकर हो गया है कि अब किसी को कुछ करने का सवाल ही नहीं है।

एक आदमी चोर है, तो इसलिए चोर है, क्योंकि परिस्थिति ऐसी है। और एक आदमी हत्या करता है, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह क्या कर सकता है! उसकी बचपन से सारी अपब्रिगिग, उसका पालन—पोषण जिस ढंग से हुआ है, उसमें वह हत्या ही कर सकता है! सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर है।


ध्यान रखें, धर्म और धर्म के विरोध में जो भी धारणाएं हैं, उनके बीच यही फासला है। धर्म कहता है, आदमी निर्माण करता है सब कुछ, परिस्थिति का और अपना। और धर्म के विपरीत जो धारणाएं हैं, वे कहती हैं, आदमी कुछ निर्माण कर नहीं सकता, परिस्थितियां सब निर्माण करती हैं, अपना भी और आदमी का भी।


धर्म कहता है, परिस्थिति कितनी ही बदलो, आदमी नहीं बदलेगा। आदमी को बदलो, तो परिस्थिति बदल जा सकती है। आदमी ज्यादा कीमती है, चेतना ज्यादा मूल्यवान है। परिस्थिति जड़ है। आदमी मालिक है।

और इसलिए कृष्ण कहते हैं, राक्षस दैत्यों के घर में पैदा हुआ, दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं।

सारी परिस्थिति विपरीत थी। सारी परिस्थिति विपरीत थी। वहां भक्त होने का कोई उपाय न था। उपाय ही न था, और प्रह्लाद इतना गहरा भक्त हो सका।

दूसरी बात आपसे कहता हूं जब विपरीत परिस्थिति हो, तब ऊपर से जो विपरीत दिखता है, उसका अगर उपयोग करना आता हो, तो वह अनुकूल हो जाता है। असल में विपरीत परिस्थिति बन जाती है चुनौती। अगर प्रहाद को कहीं अच्छे आदमी के घर में पैदा कर देते, तो शायद इतना बड़ा भक्त न हो पाता। और कभी—कभी ऐसा भी होता है कि अच्छे आदमियों के बच्चे इसीलिए बिगड़ जाते हैं कि अच्छे आदमी अच्छे होने की चुनौती नहीं देते, बुरे होने की चुनौती देते हैं।


ध्यान रखना आप, आपका बहुत अच्छा होना कहीं आपके बच्चों के लिए विपरीत चुनौती न हो जाए। इसलिए अच्छे घरों में अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। बुरे घरों में अक्सर अच्छे बच्चे पैदा हो पाते हैं। अच्छे घरों में अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। अच्छे बाप अच्छे बच्चे पैदा करने में बड़े असमर्थ सिद्ध होते हैं।

उसका कुल रहस्य इतना है कि वे इतने जोर से अच्छाई थोपते हैं ?, कि अगर बच्चा बुद्ध हो तो ही मान सकता है, और बुद्ध हो तो बहुत आगे नहीं जाता। थोड़ा बुद्धिमान हो, रिबेलियस हो जाता है, बगावती हो जाता है। उसका भी अपना अहंकार है, अपनी अस्मिता है। अगर बहुत ज्यादा दबाव डाला, तो एक सीमा के बाद या तो आदमी टूट ही जाता है, तो मिट जाता है; और या फिर भाग खड़ा होता है, विपरीत यात्रा पर निकल जाता है।

शायद प्रह्लाद के लिए भी सहयोगी हुआ पिता का होना। इससे जो मैं मतलब निकालना चाहता हूं वह यह कि आप कभी यह मत कहना कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए मैं अच्छा नहीं हो पा रहा हूं। सच तो यह है कि परिस्थिति बुरी हो, तो अच्छे होने की संभावना ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि चुनौती है।

हां, अगर कोई आदमी मुझसे कहे कि परिस्थिति इतनी अच्छी है कि मैं अच्छा नहीं हो पा रहा, तो मुझे तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। ठीक कह रहा है। बेचारा क्या कर सकता है? परिस्थिति इतनी अच्छी है, अच्छा हो भी कैसे सकता है!

लेकिन जब कोई आदमी कहता है कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए अच्छा नहीं हो पा रहा है, तो वह सिर्फ अपनी नपुंसकता, अपनी इंपोटेंस घोषित कर रहा है। उसका मतलब यह है कि वह कुछ भी नहीं हो सकता। जब परिस्थिति इतनी विपरीत है, तब भी अगर तुम अकड़कर खड़े नहीं हो सकते उसके विरोध में, तो तुम कभी भी खड़े नहीं हो सकोगे।

इसका यह मतलब हुआ कि जिसके पास समझ हो, वह विपरीत परिस्थिति को भी अनुकूल बना लेता है। और जिसके पास नासमझी हो, वह अनुकूल परिस्थिति को भी खो देता है।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।

प्रह्लाद से ज्यादा खिला हुआ, शांत और मौन और निर्दोष फूल कहां है? लेकिन दैत्यों के बीच में! पर ऐसे यह उचित ही है। कमल भी खिलता है, तो कीचड़ में! और कमल यह नहीं चिल्लाता फिरता कि कीचड़ में मैं कैसे खिलूं बहुत गंदी कीचड़ नीचे भरी पड़ी है! कमल खिल जाता है। उसी कीचड़ से रस खींच लेता है, उसी कीचड़ से सुगंध खींच लेता है। उसी कीचड़ से रंग खींच लेता है। और उस कीचड़ के पार हो जाता है। न केवल उस कीचड़ के पार हो जाता है, बल्कि उस पानी के भी पार हो जाता है जिससे प्राण पाता है। खिलता है खुले आकाश में।

हम सोच भी नहीं सकते कि कमल और कीचड़ में कोई बाप— बेटे का संबंध है, कमल और कीचड़ में कोई उत्पत्ति और जन्म का संबंध है। कमल और कीचड़ को एक साथ रखिए, समझ में भी नहीं आएगा कि इन दोनों के बीच कोई सेतु, कोई श्रृंखला है।

लेकिन कीचड़ ही कमल है। और हर कीचड़ से कमल हो सकता है। कीचड़ के लिए बैठकर जो रोता रहता है, वह नाहक ही अपने आलस्य के लिए कारण खोज रहा है। कीचड़ से कमल हो जाते हैं। और जिंदगी में जहां भी कीचड़ हो, समझ लेना कि यहां भी कोई न कोई कमल खिल सकता है। कोई भी कीचड़ हो, समझ लेना, कमल खिल सकता है। यह कमल के खिलने का अवसर है।

लेकिन हम सब ऐसे लोग हैं, हम खिलना ही नहीं चाहते। खिलने में शायद श्रम मालूम पड़ता है, मेहनत मालूम पड़ती है। हम जो हैं, वही रहना चाहते हैं। इसलिए हम इस तरह के तर्क खोज लेते हैं, जिन तर्कों के आधार से हम जो हैं, वही बने रहने में सुविधा मिलती है।

हम कहते हैं, क्या कर सकते हैं, परिस्थिति अनुकूल नहीं है! सब तरफ विरोध है, सब तरफ प्रतिकूलता है, बढ़ने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए हम नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऐसे तो हम शिखर पर पहुंच सकते थे, सुमेरु पर्वत के शिखर पर बैठ सकते थे, लेकिन परिस्थिति ही नहीं है।

परिस्थिति कभी भी नहीं होगी। परिस्थिति कभी भी नहीं थी। जो परिस्थिति के पार नहीं उठ सकता, वह किसी भी परिस्थिति में इसी रोने को लेकर बैठा रहेगा।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।

जहां ईश्वर का नाम लेने की भी मनाही थी, वहां प्रहाद केवल नाम के ही सहारे ईश्वर को पा लिया। इसे थोड़ा समझें, क्योंकि हमें तो कोई मनाही नहीं है। जितनी मौज हो लें, रोज अपनी कुर्सी पर बैठ जाएं और ईश्वर का नाम लेते रहें।

बड़े मजे की बात है! प्रह्लाद ईश्वर के नाम से पा लिया। और आप काफी लेते रहते हैं। लोग अपने बच्चों का नाम ईश्वर पर इसीलिए रख लेते हैं—किसी का नाम राम, किसी का नारायण—कि दिनभर बुलाते रहें। लेकिन बुलाने का परिणाम यह होता है कि नारायण को चांटा भी लगाना पड़ता है, गाली भी देनी पड़ती है। ये सब परिणाम होते हैं, और कुछ नहीं होता।

नाम तो लोग रखते थे भगवान पर बच्चों का इसलिए कि दिन में अकारण ही, अनायास ही, बिना वजह के भगवान का नाम आ जाए। लेकिन जो फल होता है, वह कुल इतना ही होता है कि नारायण नाहक पिटते हैं, नाहक गाली खाते हैं! और धीरे— धीरे जब नारायण को गाली देने की भी क्षमता आ जाती है, तो फिर असली नारायण भी मिल जाएं, तो गाली ही निकलेगी। आदतें हैं।

लेकिन प्रह्लाद को तो कोई अवसर भी न था, भगवान के नाम के लेने की मनाही थी। उस बीच वह आदमी भगवान के नाम के ही सहारे जीवन को इतनी उत्कृष्टता पर ले जा सका, इसका कारण क्या होगा?

इसका कारण यह है कि जीवन की जो डायनेमिक्स, जीवन का जो गत्यात्मक रूप है, वह हम नहीं समझते हैं। अगर आपको भी बंद कर दिया जाए एक कोठरी में और सख्त मनाही कर दी जाए कि राम का नाम मत लेना, तब आपके हृदय की बहुत गहराई से राम का नाम आएगा। क्योंकि यह आपकी स्वतंत्रता की घोषणा होगी। और आपको बिठाया जाए और कहा जाए कि लो राम का नाम! जैसा कि मां—बाप बिठाल रहे हैं बच्चों को ले जा ले जाकर कि लो राम का नाम! बच्चे जबरदस्ती ले रहे हैं, कहीं कोई गहराई पैदा नहीं होती। कहीं कोई गहराई नहीं पैदा होती। जीवन की गत्यात्मकता बड़ी उलटी है।

आदमी का डायनेमिक्स, आदमी के जीवन की गति जो है, वह पोलेरिटीज में होती है, ध्रुवीयता में होती है, वैपरीत्य में होती है। हम सब विपरीत की तरफ झुकते चले जाते हैं।

यह प्रहाद की घटना विचारणीय है। इसलिए अपने बच्चों पर अच्छाई जबरदस्ती मत थोपना। नहीं तो बच्चे बुराई की तरफ हट जाएंगे। इसलिए बहुत डेलिकेट है मामला। इतना ही डेलिकेट, जैसी नसरुद्दीन के बाप को मुसीबत हुई। इसका यह मतलब नहीं है कि आप बुराई थोपना बच्चे पर। बहुत डेलिकेट है, नाजुक है। अच्छाई थोपना मत। और अच्छाई को खिलने में सहयोग देना, थोपना मत। बुराई की इतने जोर से निंदा मत करना कि बुराई में रस पैदा हो जाए। निंदा से रस पैदा होता है। बुराई का इतना निषेध मत करना कि निमंत्रण बन जाए।

किसी दरवाजे पर लिख दो कि यहां झांकना मना है, फिर कोई महात्मा भी वहां से बिना झांके नहीं निकल सकता। झांकना ही पड़ेगा। और अगर महात्मा चले गए बिना झांके, तो फिर किसी बहाने उनको लौटना पड़ेगा। और अगर हिम्मत न पड़ी कि कहीं भक्तगण देख न लें कि वहां झांककर देखते हो, जहां झांकना मना है, तो रात सपने में वे जरूर वहां आएंगे। उस पट्टी को झांकना ही पड़ेगा। वह मजबूरी, वह आब्सेशन हो जाता है।

बुराई को ऑब्सेशन मत बना देना। भलाई को इतना मत थोपना कि उसके विपरीत भाव पैदा हो जाए।

इसलिए बच्चे को बड़ा करना एक बहुत डेलिकेट बात है, बहुत नाजुक बात है। और अब तक आदमी सफल नहीं हो पाया है। बच्चे को ठीक से बड़ा करने में आदमी अभी भी असफल है। अभी भी शिक्षा की सारी व्यवस्थाएं गलत हैं। क्योंकि बहुत नाजुक मामला है। और उस नाजुकपन को समझने में बड़ी कठिनाई है। बड़ी से बड़ी कठिनाई तो यह है कि हमें इस बात का खयाल ही नहीं है कि आदमी के भीतर गति कैसे पैदा होती है?

यह प्रह्लाद के भीतर जो गति पैदा हुई, यह प्रह्लाद के पिता की वजह से पैदा हुई। और चूंकि वह दैत्यों के घर में पैदा हुआ था, इसलिए जब विपरीत चला, तो ठीक दैत्यों से उलटा सारे भक्तों को पार कर गया।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...