गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 20

  

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६।।


तथा ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसा ही करावे।



यह सूत्र बहुमूल्य है। बहुत-सी दिशाओं से इसे समझना हितकर है। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानियों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न न करे। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानीजनों के जीवन में उत्पात न हो जाए, इसका ध्यान रखे। ज्ञानी की स्थिति वस्तुतः बहुत नाजुक है। नाजुक उसी तरह, जैसे किसी पागलखाने में उस आदमी की होती है, जो पागल नहीं है। पागलखाने में पागल इतनी नाजुक स्थिति में नहीं होते, जितनी नाजुक स्थिति में वह आदमी होता है, जो पागल नहीं होता है।


ज्ञानी की हालत करीब-करीब अज्ञानियों के बीच ऐसी ही डेलिकेट, ऐसी ही नाजुक हो जाती है। अगर ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करे, तो अनेक अज्ञानियों के लिए भटकने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध आचरण में जीए, तो अनंत अज्ञानियों के लिए और गहन अंधकार में, गहन नर्क में गिरने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध ज्ञान की बात भी कहे, तो अनेक अज्ञानियों के जीवन को अस्तव्यस्त कर देगा।

ज्ञानी कैसे आचरण करे; क्या कहे, क्या न कहे; कैसे उठे, कैसे बैठे; क्या बोले, क्या न बोले--यह बड़ा नाजुक मामला है। और कई बार जब ज्ञानी इतना स्मरण नहीं रखता, तो नुकसान पहुंचता है। बहुत बार पहुंचा है। क्योंकि ज्ञानी जहां से बोलता है, वहां से वह अज्ञानी के चित्त में प्रकाश का द्वार खोले, यह जरूरी नहीं है। जरूरी नहीं है कि उसकी वाणी, उसका आचरण सूर्य का द्वार बन जाए अज्ञानी के जीवन में। यह भी हो सकता है कि अज्ञानी का जो टिमटिमाता दीया था, जिसकी रोशनी में वह किसी तरह टटोलकर जी लेता था, वह भी बुझ जाए।

इतना तो निश्चित है कि जिसने सूर्य को देखा, वह कहेगा, बुझा दो दीयों को, इनसे क्या होने वाला है! इतना तो निश्चित है, जिसने अनासक्त कर्म को अनुभव किया, वह कहेगा, पागलपन कर रहे हो तुम। लेकिन पागलपन कह देने से कुछ पागलपन नहीं होता। और पागल एक चीज को छोड़कर दूसरे को पकड़ ले, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता; अंतर जरा भी नहीं आता। वह आदमी वही का वही रह जाता है। सिर्फ रूप, आकार बदल जाते हैं।

इसलिए कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र कह रहे हैं। शायद इस सदी के लिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण, क्योंकि इस सदी का सारा उपद्रव अज्ञानियों के कारण कम और ज्ञानियों के कारण ज्यादा है। 

कृष्ण  कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि अर्जुन, अनासक्त व्यक्ति को अज्ञानियों पर ध्यान रखकर जीना चाहिए। ऐसा न हो कि अनासक्त व्यक्ति छोड़कर भाग जाए, तो अज्ञानी भी छोड़कर भाग जाएं। अनासक्त छोड़कर भागेगा, तो उसका कोई भी अहित नहीं है। लेकिन अज्ञानी छोड़कर भाग जाएंगे, तो बहुत अहित है। क्योंकि अज्ञान में छोड़कर वे जहां भागेंगे, वहां फिर कर्म घेर लेगा। उससे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। दुकान छोड़कर मंदिर में जाएगा अज्ञानी, तो मंदिर में नहीं पहुंचेगा, सिर्फ मंदिर को दुकान बना देगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खाते-बही पढ़ते-पढ़ते एकदम से गीता पढ़ेगा, तो गीता नहीं पढ़ेगा, गीता में भी खाते-बही ही पढ़ेगा।

अज्ञानी सत्यों का भी दुरुपयोग कर सकता है, करता है। सत्यों का भी दुरुपयोग हो सकता है और असत्यों का भी सदुपयोग हो सकता है। ज्ञानी छोड़ दे सब। अज्ञानी भी छोड़ना चाहता है, लेकिन छोड़ना चाहने के कारण बिलकुल अलग हैं। ज्ञानी इसलिए छोड़ देता है कि पकड़ना, न पकड़ना, बराबर हो गया। चीजें छूट जाती हैं, दे जस्ट विदर अवे। अज्ञानी छोड़ता है; चीजें छूटती नहीं, चेष्टा करके छोड़ देता है। जिस चीज को भी चेष्टा करके छोड़ा जाता है, उसमें पीछे घाव छूट जाता है।

जैसे कच्चे पत्ते को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, कच्ची डाल को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, तो पीछे घाव छूट जाता है। पका पत्ता भी टूटता है, लेकिन कोई घाव नहीं छूटता। पके पत्ते को सम्हलकर छूटना चाहिए, कच्चे पत्तों को टूटने का खयाल न आ जाए। कच्चे पत्ते भी टूटने के लिए आतुर हो सकते हैं। पके पत्ते का आनंद देखेंगे हवाओं में उड़ते हुए और खुद को पाएंगे बंधा हुआ। और पका पत्ता हवाओं की छाती पर सवार होकर आकाश में उठने लगेगा, और पका पत्ता पूर्व और पश्चिम दौड़ने लगेगा, और पके पत्ते की स्वतंत्रता--वृक्ष से टूटकर, मुक्त होकर--कच्चे पत्तों को भी आकर्षित कर सकती है। वे भी टूटना चाह सकते हैं। वे भी कह सकते हैं, हम भी क्यों बंधे रहें इस वृक्ष से! टूटें। लेकिन तब पीछे वृक्ष में भी घाव छूट जाता और कच्चे पत्ते में भी घाव छूट जाता। और घाव खतरनाक है।

इसलिए ध्यान रखें, पका पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता नहीं। कच्चा पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता है। पका पत्ता सड़ेगा क्या! सड़ने के बाहर हो गया पककर। कच्चा पत्ता जब भी टूटेगा तो सड़ेगा। अभी कच्चा ही था; अभी पका कहां था? अभी तो सड़ेगा। और ध्यान रखें, पकना एक बात है, और सड़ना बिलकुल दूसरी बात है।

कच्चा आदमी वैसा ही होता है, जैसे कच्ची लकड़ी को हम ईंधन बना लें। तो आग तो कम जलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है। पकी लकड़ी भी ईंधन बनती है, लेकिन तब धुआं नहीं निकलता, आग जलती है। जो व्यक्ति जानकर जीवन से छूट जाता है सहज, वह पकी लकड़ी की तरह ईंधन बन जाता है, उसमें धुआं नहीं होता। कच्चे व्यक्ति अगर छूट जाते हैं पक्के लोगों को देखकर, तो आग पैदा नहीं होती, सिर्फ धुआं ही धुआं पैदा होता है। और लोगों की आंखें भर जलती हैं, भोजन नहीं पकता है।

कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी को बहुत ही...तलवार की धार पर चलना होता है। उसे ध्यान रखना होता है अपने ज्ञान का भी, चारों तरफ घिरे हुए अज्ञानियों का भी। इसलिए ऐसा उसे बर्तना चाहिए कि वह किसी अज्ञानी के कर्म की श्रद्धा को चोट न बन जाए; वह उसके कर्म के भाव को आघात न बन जाए; वह उसके जीवन के लिए आशीर्वाद की जगह अभिशाप न बन जाए।

बन गए बहुत दफा ज्ञानी अभिशाप! और अगर ज्ञान के प्रति इतना भय आ गया है, तो उसका कारण यही है। बुद्ध को देखकर लाखों लोग घर छोड़कर चले गए। चंगेज खां ने भी लाखों घरों को बरबाद किया। लेकिन चंगेज खां को इतिहास दोषी ठहराएगा, बुद्ध को नहीं ठहराएगा। हजारों स्त्रियां रोती, तड़पती-पीटती रह गईं। हजारों बच्चे अनाथ हो गए पिता के रहते। हजारों स्त्रियां पतियों के रहते विधवा हो गईं। हजारों घरों के दीए बुझ गए। कृष्ण यही कह रहे हैं...। और इसके दुष्परिणाम घातक हुए और लंबे हुए। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि संन्यास में एक तरह का भय समाहित हो गया।



बुद्ध और महावीर के अनजाने ही कच्चे पत्ते टूटे। और कच्चे पत्ते टूटे, तो पीछे घाव छूट गए। वे घाव अब तक भी मनस, हमारे समाज के मानस में भर नहीं गए हैं। अभी भी दूसरे का बेटा संन्यासी हो, तो हम फूल चढ़ा आते हैं उसके चरणों में; खुद का बेटा संन्यासी होने लगे, तो प्राण कंपते हैं। खुद का बेटा चोर हो जाए, तो भी चलेगा; संन्यासी हो जाए, तो नहीं चलता है। डाकू हो जाए, तो भी चलेगा। कम से कम घर में तो रहेगा! दो साल सजा काटेगा, वापस आ जाएगा। संन्यासी हो जाए, तो गया; फिर कभी वापस नहीं लौटता। इसलिए इस देश में संन्यास को हमने इतना आदर भी दिया, उतने ही हम भयभीत भी हैं भीतर; डरे हुए भी हैं; घबड़ाए हुए भी हैं। यह घबड़ाहट उन ज्ञानियों के कारण पैदा हो जाती है, जो अज्ञानियों का बिना ध्यान लिए वर्तन करते हैं।

तो कृष्ण कहते हैं कि तू ऐसा बर्त कि तेरे कारण किसी अज्ञानी के सहज जीवन की श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ जाए। हां, ऐसी कोशिश जरूर कर कि तेरी सुगंध, तेरे अनासक्ति की सुवास, उनके जीवन में भी धीरे-धीरे अनासक्ति की सुवास बने, अनासक्ति की सुगंध बने और वे भी जीवन में रहते हुए अनासक्ति को उपलब्ध हो सकें। तो शुभ है, तो मंगल है, अन्यथा अनेक बार मंगल के नाम पर अमंगल हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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