गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 14

 


 कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माऽक्षर समुद्भवम्।

तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। १५।।


तथा उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। इससे सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।



ऐसे कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, ऐसे कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। वेद शब्द का अर्थ सिर्फ वेद के नाम से चलती हुई संहिताएं नहीं है। जिस दिन हमने यह नासमझी की कि हमने वेद को सीमित किया संहिताओं पर, चार वेद पर वेद को सीमित किया, उसी दिन भारत के भाग्य में बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो गई। वेद है ज्ञान। और ज्ञान सतत गतिमान है, डायनेमिक है, स्टैटिक नहीं है। करोड़ों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान। अरबों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान। संहिताएं सब चुक जाएंगी, तो भी ज्ञान नहीं चुकता, वह अनंत है। ऐसे ज्ञान से उत्पन्न हुआ जान।

दो तरह के कर्म हैं। एक अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जो हम करते हैं। एक ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जिसकी कृष्ण सूचना कर रहे हैं। अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, कौन-सा कर्म है? अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म वह कर्म है, जिसमें कर्ता और अहंकार मौजूद है। जिसमें हम कहते हैं, मैं कर रहा हूं, वह अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। जिसमें मैं कहता हूं, परमात्मा कर रहा है, वह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। उसमें अहंकार नहीं है। यह भी समझ लें कि अहंकार और अज्ञान संयुक्त घटना है। जहां अज्ञान है, वहीं अहंकार हो सकता है। और जहां अहंकार है, वहीं अज्ञान हो सकता है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हो सकते। ऐसा नहीं हो सकता कि अहंकार चला जाए और अज्ञान रह जाए। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि अज्ञान चला जाए और अहंकार रह जाए। अज्ञान और अहंकार संयुक्त घटना है। ज्ञान और निरहंकार संयुक्त घटना है।

तो कृष्ण जो कह रहे हैं कि यह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है, यज्ञरूपी कर्म, ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। और ज्ञान परमात्मा से उत्पन्न होता है।

जो हम यह कहते हैं कि वेद परमात्मा ने रचे, यह सिम्बालिक है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता; रच नहीं सकता। रचने का कोई कारण नहीं है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता, लेकिन परमात्मा बहुत-सी चेतनाओं में उतरता है, ज्ञान बनता है। जो चेतनाएं भी अपने अहंकार को विदा करने में समर्थ हैं, परमात्मा उनमें उतर आता है। हां, वे चेतनाएं किताब लिखती हैं। इसलिए उन चेतनाओं के द्वारा लिखी गई किताब को अगर हम परमात्मा के द्वारा लिखी हुई किताब कहें, तो एक अर्थ में सही है। इसी अर्थ में सही है कि उन्होंने वही लिखा है, जो परमात्मा ने उनके भीतर उतरकर उन्हें जनाया। अपौरुषेय हैं। वे किताबों के दावेदार, लिखने वाले यह नहीं कह रहे हैं कि हम इनके लेखक हैं। वे इतना कह रहे हैं कि हम सिर्फ माध्यम हैं; लेखक परमात्मा ही है। लेकिन जब भी किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान उतरता है, तो वह परमात्मा से उतरता है। ज्ञान परमात्मा का स्वभाव है, प्रकाश की भांति। अंधेरा अहंकार का स्वभाव है।

हम अहंकार से भरे हों, तो जीवन में जो भी कर्म होता है, वह कर्म अज्ञान से ही निकला हुआ कर्म है। और अज्ञान से निकले हुए कर्म की पहचान और परख क्या है? जिस कर्म से बंधन पैदा हो, जिस कर्म से दुख पैदा हो, जिस कर्म से संताप पैदा हो, जिस कर्म से पीड़ा पैदा हो, वह कर्म अज्ञान से निकला हुआ जानना। वह उसका लक्षण है। जिस कर्म से बंधन पैदा न हो, जिस कर्म से आनंद पैदा हो; जिस कर्म से चिंता न आए, निश्चिंतता आए; जिस कर्म में गुलामी न हो, मुक्ति हो, उस कर्म को ज्ञान से निकला हुआ कर्म जानना। और ज्ञान से वह तभी निकलेगा, जब अहंकार भीतर न हो। और जब अहंकार नहीं है, तो परमात्मा है।

अहंकार की अनुपस्थिति परमात्मा की उपस्थिति बन जाती है। जिस दिन हम मिटते हैं, उसी दिन परमात्मा हमारे भीतर प्रकट हो जाता है। जब तक हम मजबूती से बने रहते हैं, तब तक परमात्मा को जगह ही नहीं मिलती हमारे भीतर प्रवेश की।



जहां अहंकार मिटा, जहां भीतर जगह खाली हुई, इनर स्पेस, वहीं ज्ञान उतर आता है, वहीं प्रभु उतर आता है।

यज्ञरूपी कर्म जो करता है, उसके भीतर ज्ञान से कर्म विकसित होते, निकलते। और ज्ञान से निकला हुआ कर्म मुक्तिदायी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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