गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 1 भाग 5

 काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७।।


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्।। १८।।


स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।। १९।।


श्रेष्ठ धनुष वाला काशिराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाला सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन सबने, हे राजन्! अलग-अलग शंख बजाए। और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए।


अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।

प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः।। २०।।


हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।। २१।।


यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।। २२।।


हे राजन्! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण से यह वचन कहा, हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करिए। जब तक मैं इन स्थित हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।




अर्जुन, जिनके साथ युद्ध करना है, उन्हें देखने की कृष्ण से प्रार्थना करता है। इसमें दोत्तीन बातें  समझ लेनी उचित हैं। 


एक तो, अर्जुन का यह कहना कि किनके साथ मुझे युद्ध करना है, उन्हें मैं देखूं, ऐसी जगह मुझे ले चलकर खड़ा कर दें--एक बात का सूचक है कि युद्ध अर्जुन के लिए ऊपर से आया हुआ दायित्व है, भीतर से आई हुई पुकार नहीं है; ऊपर से आई हुई मजबूरी है, भीतर से आई हुई वृत्ति नहीं है। युद्ध एक विवशता है, मजबूरी है। लड़ना पड़ेगा, इसलिए किससे लड़ना है, इसे वह पूछ रहा है, उनको मैं देख लूं। कौन-कौन लड़ने को आतुर होकर आ गए हैं, कौन-कौन युद्ध के लिए तत्पर हैं, उन्हें मैं देख लूं।


जो आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है, उसे इसकी फिक्र नहीं होती कि दूसरा युद्ध के लिए तत्पर है या नहीं। जो आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है, वह अंधा होता है। वह दुश्मन को देखता नहीं, वह दुश्मन को प्रोजेक्ट करता है। वह दुश्मन को देखना नहीं चाहता, उसे तो जो दिखाई पड़ता है, वह दुश्मन होता है। उसे दुश्मन को देखने की जरूरत नहीं, वह दुश्मन निर्मित करता है, वह दुश्मनी आरोपित करता है। जब युद्ध भीतर होता है, तो बाहर दुश्मन पैदा हो जाता है।


जब भीतर युद्ध नहीं होता, तब जांच-पड़ताल करनी पड़ती है कि कौन लड़ने को आतुर है, कौन लड़ने को उत्सुक है! तो अर्जुन कृष्ण को कहता है कि मुझे ऐसी जगह, ऐसे परिप्रेक्ष्य के बिंदु पर खड़ा कर दें, जहां से मैं उन्हें देख लूं, जो लड़ने के लिए आतुर यहां इकट्ठे हो गए हैं।


दूसरी बात, जिससे लड़ना है, उसे ठीक से पहचान लेना युद्ध का पहला नियम है। जिससे भी लड़ना हो; उसे ठीक से पहचान लेना, युद्ध का पहला नियम है। समस्त युद्धों का, कैसे भी युद्ध हों जीवन के--भीतरी या बाहरी--शत्रु की पहचान, युद्ध का पहला नियम है। और युद्ध में केवल वे ही जीत सकते हैं, जो शत्रु को ठीक से पहचानते हैं।


इसलिए आमतौर से जो युद्ध-पिपासु है, वह नहीं जीत पाता; क्योंकि युद्ध-पिपासा के धुएं में इतना घिरा होता है कि शत्रु को पहचानना मुश्किल हो जाता है। लड़ने की आतुरता इतनी होती है कि किससे लड़ रहा है, उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। और जिससे हम लड़ रहे हैं, उसे न पहचानते हों, तो हार पहले से ही निश्चित है।


इसलिए युद्ध के क्षण में जितनी शांति चाहिए विजय के लिए, उतनी शांति किसी और क्षण में नहीं चाहिए। युद्ध के क्षण में जितना साक्षी का भाव चाहिए विजय के लिए, उतना किसी और क्षण में नहीं चाहिए। यह अर्जुन यह कह रहा है कि अब मैं साक्षी होकर देख लूं कि कौन-कौन लड़ने को है। उनका निरीक्षण कर लूं, उनको आब्जर्व कर लूं।


यह थोड़ा विचारणीय है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब निरीक्षण की क्षमता बिलकुल खो जाती है। और जब क्रोध में होते हैं, तब सर्वाधिक निरीक्षण की जरूरत है। लेकिन बड़े मजे की बात है, अगर निरीक्षण हो, तो क्रोध नहीं होता; और अगर क्रोध हो, तो निरीक्षण नहीं होता। ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। अगर एक व्यक्ति क्रोध में निरीक्षण को उत्सुक हो जाए तो क्रोध खो जाएगा।


यह अर्जुन क्रोध में नहीं है, इसलिए निरीक्षण की बात कह पा रहा है। यह क्रोध की बात नहीं है। जैसे युद्ध बाहर-बाहर है, छू नहीं रहा है कहीं; साक्षी होकर देख लेना चाहता है, कौन-कौन लड़ने आए हैं; कौन-कौन आतुर हैं।


यह निरीक्षण की बात कीमती है। और जब भी कोई व्यक्ति किसी भी युद्ध में जाए--चाहे बाहर के शत्रुओं से और चाहे भीतर के शत्रुओं से--तो निरीक्षण पहला सूत्र है। अगर भीतर के शत्रुओं से भी लड़ना हो, तो राइट आब्जर्वेशन पहला सूत्र है। ठीक से पहले देख लेना, किससे लड़ना है! क्रोध से लड़ना है तो क्रोध को देख लेना, काम से लड़ना है तो काम को देख लेना, लोभ से लड़ना है तो लोभ को देख लेना। बाहर भी लड़ने जाएं तो पहले बहुत ठीक से देख लेना कि किससे लड़ रहे हैं? वह कौन है? इसका पूरा निरीक्षण तभी संभव है, जब साक्षी होने की क्षमता हो, अन्यथा संभव नहीं है।


इसलिए गीता अब शुरू होने के करीब आ रही है। उसका रंगमंच तैयार हो गया है। लेकिन इस सूत्र को देखकर लगता है कि अगर आगे की गीता का पता भी न हो, तो जो आदमी निरीक्षण को समझता है, वह इतने सूत्र पर भी कह सकता है कि अर्जुन को लड़ना मुश्किल पड़ेगा। यह आदमी लड़ न सकेगा। इसको लड़ने में कठिनाई आने ही वाली है।


क्योंकि जो आदमी निरीक्षण को उत्सुक है, वह आदमी लड़ने में मुश्किल पाएगा। वह जब देखेगा तो लड़ न पाएगा। लड़ने के लिए आंखें बंद चाहिए। लड़ने के लिए जूझ जाना चाहिए, निरीक्षण की सुविधा नहीं होनी चाहिए। गीता न भी पता हो आगे, तो जो आदमी निरीक्षण के तत्व को समझेगा, वह इसी सूत्र पर कह सकेगा कि यह आदमी भरोसे का नहीं है। यह आदमी युद्ध में काम नहीं पड़ेगा। यह आदमी युद्ध से हट सकता है। क्योंकि जब देखेगा, तो सब इतना व्यर्थ मालूम पड़ेगा। जो भी निरीक्षण करेगा, तो सब  इतना व्यर्थ मालूम पड़ेगा कि वह कहेगा कि हट जाऊं।


यह अर्जुन जो बात कह रहा है, वह बात इसके चित्त की बड़ी प्रतीक है। यह अपने चित्त को इस सूत्र में साफ किए दे रहा है। यह यह नहीं कह रहा है कि मैं युद्ध को आतुर हूं। मेरे सारथी! मुझे उस जगह ले चलो, जहां से मैं दुश्मनों का विनाश ठीक से कर सकूं। यह यह नहीं कह रहा है। कहना यही चाहिए। यह यह कह रहा है कि मुझे उस जगह ले चलो, जहां से मैं देख सकूं कि कौन-कौन लड़ने आए हैं, कितने आतुर हैं; मैं निरीक्षण कर सकूं। यह निरीक्षण बता रहा है कि यह आदमी विचार का आदमी है। और विचार का आदमी दुविधा में पड़ेगा।


या तो युद्ध वे लोग कर सकते हैं, जो विचारहीन हैं--भीम की तरह, दुर्योधन की तरह। या युद्ध वे लोग कर सकते हैं, जो निर्विचार हैं--कृष्ण की तरह। विचार है बीच में।


ये तीन बातें हैं। विचारहीनता विचार के पहले की अवस्था है। युद्ध बहुत आसान है। युद्ध के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है, ऐसी चित्त-दशा में आदमी युद्ध में होता ही है। वह प्रेम भी करता है, तो प्रेम उसका युद्ध ही सिद्ध होता है। वह प्रेम भी करता है, तो अंततः घृणा ही सिद्ध होती है। वह मित्रता भी बनाता है, तो सिर्फ शत्रुता की एक सीढ़ी सिद्ध होती है। क्योंकि शत्रु बनाने के लिए पहले मित्र तो बनाना जरूरी होता ही है। बिना मित्र बनाए शत्रु बनाना मुश्किल है। विचारहीन चित्त मित्रता भी बनाता है, तो शत्रुता ही निकलती है। युद्ध स्वाभाविक है।


दूसरी सीढ़ी विचार की है। विचार सदा डांवाडोल है। विचार सदा कंपित है। विचार सदा वेवरिंग है। दूसरी सीढ़ी पर अर्जुन है। वह कहता है, निरीक्षण कर लूं, देख लूं, समझ लूं, फिर युद्ध में उतरूं। कभी कोई दुनिया में देख-समझकर युद्ध में उतरा है? देख-समझकर तो युद्ध से भागा जा सकता है। देख-समझकर युद्ध में उतरा नहीं जा सकता।


और तीसरी सीढ़ी पर कृष्ण हैं। वह निर्विचार की स्थिति है। वहां भी विचार नहीं हैं; लेकिन वह विचारहीनता नहीं है। विचारहीनता और निर्विचार एक से मालूम पड़ते हैं। लेकिन उनमें बुनियादी फर्क है। निर्विचार वह है, जो विचार की व्यर्थता को जानकर पार चला गया।


विचार सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है--जीवन की भी, प्रेम की भी, परिवार की भी, धन की भी, संसार की भी, युद्ध की भी--विचार सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है। लेकिन अगर कोई विचार करता ही चला जाए, तो अंत में विचार विचार की भी व्यर्थता बतला देता है। और तब आदमी निर्विचार हो जाता है। फिर निर्विचार में सब ठीक वैसा ही हो जाता है संभव, जैसा विचारहीन को संभव था। लेकिन  गुण बिलकुल बदल जाता है।


एक छोटा बच्चा जैसे होता है। जब कोई संतत्व को उपलब्ध होता है बुढ़ापे तक, तब फिर छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। लेकिन छोटे बच्चे और संतत्व में ऊपरी ही समानता होती है। संत की आंखें भी छोटे बच्चे की तरह भोली हो जाती हैं। लेकिन छोटे बच्चे में अभी सब दबा पड़ा है। अभी सब निकलेगा। इसलिए छोटा बच्चा तो एक ज्वालामुखी है। अभी फूटा नहीं है, बस इतना ही है। उसकी निर्दोषता ऊपर-ऊपर है, भीतर तो सब तैयार है; बीज बन रहे हैं, फूट रहे हैं। अभी काम आएगा, क्रोध आएगा, शत्रुता आएगी--सब आएगा। अभी सबकी तैयारी चल रही है। छोटा बच्चा तो सिर्फ टाइम बम है। अभी समय लेगा और फूट पड़ेगा। लेकिन संत पार जा चुका है। वह सब जो भीतर बीज फूटने थे, फूट गए, और व्यर्थ हो गए, और गिर गए। अब कुछ भी भीतर शेष नहीं बचा; अब आंखें फिर सरल हो गई हैं, अब फिर सब निर्दोष हो गया है।


इसलिए अज्ञानी और परमज्ञानी में बड़ी समानता है। अज्ञानी जैसा ही सरल हो जाता है परमज्ञानी। लेकिन अज्ञानी की सरलता के भीतर जटिलता पूरी छिपी रहती है, कभी भी प्रकट होती रहती है। परमज्ञानी की सब जटिलता खो गई होती है।


जो विचारहीन है, उसमें विचार की शक्ति पड़ी रहती है, वह विचार कर सकता है, करेगा। जो निर्विचार है, वह विचार के अतिक्रमण में हो गया; वह ध्यान में पहुंच गया, समाधि में पहुंच गया।


जो कठिनाई पूरी गीता में उपस्थित होगी, यह जो पूरा भीतर का अंतर्द्वंद्व उपस्थित होगा...अर्जुन दो तरह से युद्ध में जा सकता है। या तो वह विचारहीन हो जाए, नीचे उतर आए, वहां खड़ा हो जाए जहां दुर्योधन और भीम खड़े हैं, तो युद्ध में जा सकता है। और या फिर वह वहां पहुंच जाए जहां कृष्ण खड़े हैं, निर्विचार हो जाए, तो युद्ध में जा सकता है। अगर अर्जुन अर्जुन ही रहे, मध्य में ही रहे, विचार में ही रहे, तो वह जंगल जा सकता है, युद्ध में नहीं जा सकता है। वह पलायन करेगा, वह भागेगा।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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