गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 23

  

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। 24।।


अर्पण अर्थात स्रुवादिक भी ब्रह्म है, और हवि अर्थात हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है, और ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है, इसलिए ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ हुए उस पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।



सब, सर्व, जो भी है--कर्म, कर्ता, किया गया; बोला गया, सुना गया; देखा गया, दिखाया गया--इस जगत में जो भी है, इस अस्तित्व में जो भी है, कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं, वह सभी ब्रह्म है। लेकिन ऐसा कब दिखाई पड़ता है?

जब तक मैं दिखाई पड़ता है, तब तक ऐसा दिखाई नहीं पड़ता कि सभी ब्रह्म है। ऐसा तभी दिखाई पड़ता है, जब मैं दिखाई नहीं पड़ता; तभी दिखाई पड़ता है कि सब ब्रह्म है।

दो ही तरह के अनुभव हैं। जिनका अनुभव मैं का अनुभव है, उन्हें कृष्ण का यह वचन सरासर व्यर्थ मालूम पड़ेगा। है भी फिर। फिर है भी।

जिनका एक ही अनुभव है, मैं का, और जिनका जगत मैं के इर्द-गिर्द बना हुआ एक परकोटा है; जिन्होंने सदा ही मैं को केंद्र पर रखकर जीवन को देखा है--ऐसा हम सभी ने देखा है--जो ईगोसेंट्रिक हैं, जो अहं-केंद्रित होकर जीए और अनुभव किए हैं, उनके लिए कृष्ण का यह वचन सरासर व्यर्थ मालूम पड़ेगा। क्योंकि कहां है ब्रह्म? कहीं कोई ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता! दिखाई भी नहीं पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति ब्रह्म को देखने के लिए अंधा है। और जिस चीज के प्रति हम अंधे हैं, उस चीज को हम वापस आंख पाए बिना देख नहीं सकते।

अहंकार अंधापन है ब्रह्म को देखने में।


ऐसा कब दिखाई पड़ेगा, सभी कुछ--यज्ञ भी ब्रह्म, हवन की विधि भी ब्रह्म, हवन में जलती अग्नि भी ब्रह्म, हवन में चढ़ाई गई आहुति भी ब्रह्म, हवन में चढ़ाने वाला भी ब्रह्म, हवन में मंत्र उदघोष करने वाला भी ब्रह्म--ऐसा कब दिखाई पड़ेगा कि सब ब्रह्म है?

यह तब दिखाई पड़ेगा, जब एक अंधापन मैं का टूट जाता है। उसके पहले यह नहीं दिखाई पड़ेगा। उसके पहले तो यही दिखाई पड़ेगा कि मैं ही हूं; और बाकी शेष सब मेरा साधन है। मैं ही हूं सब कुछ। चांदत्तारे मेरे लिए घूमते हैं। अस्तित्व मेरे इर्द-गिर्द चक्कर काटता है। मैं ही हूं सब कुछ, धुरी सारे अस्तित्व की। और सब मेरा साधन है।

जब तक ऐसा दिखाई पड़ता है, जब तक ऐसा ईगोसेंट्रिक विजन है, जब तक ऐसी दृष्टि है अहं-केंद्रित, तब तक यह ब्रह्म की बात नितांत व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सिर्फ शब्दों का जाल मालूम पड़ेगी। सभी ब्रह्म? नहीं; ऐसा नहीं मालूम पड़ सकता है। यह कब मालूम पड़ेगा?

पहले सूत्र को ध्यान में रखें, तो यह दूसरा सूत्र खुल सकेगा। पहले सूत्र को ध्यान में रखें, आसक्तिरहित हुआ जो व्यक्ति है, उसे बहुत शीघ्र दिखाई पड़ने लगेगा। उसके देखने के नए द्वार खुल जाएंगे। उसे दिखाई पड़ेगा कि सभी में वही है--सभी में, चारों ओर।

अभी तो हम इसे थोड़ा समझने की कोशिश करें। देखने की कोशिश तो दुरूह है, समझें। लेकिन समझने को जानना न समझ लें। समझ लें, पर इतना भी समझ लें कि यह हमने समझा है, जाना नहीं। जानना तो बहुत दुरूह, बहुत आर्डुअस है। लेकिन समझ लेना भी बड़ा सौभाग्य है। क्योंकि समझ लें, तो शायद कल जानने की यात्रा पर भी निकल पाएं। लेकिन हम बहुत होशियार हैं। हम समझने को ही ज्ञान समझ लेते हैं। हम समझकर मान लेते हैं कि बिलकुल ठीक है।


अहंकार अभ्यास कर सकता है देखने का कि सबमें ब्रह्म है। लेकिन वह अभ्यास सिर्फ एक सपना होगा। अहंकार के रहते हुए--मैं भी हूं और सब में ब्रह्म है, यह नहीं हो सकता। हां, इतना हो सकता है कि मैं अपने को धोखे में डाल लूं।  सम्मोहित कर लूं कि हां, सब ब्रह्म है। ऐसा मानकर चलने लगूं कि सब ब्रह्म है। मानता रहूं, मानता रहूं; अपने को धोखा देता रहूं, धोखा देता रहूं, तो एक दिन ऐसी घड़ी आ जाएगी कि मेरे मन का ही जाल चारों तरफ फैल जाएगा और मुझे दिखाई पड़ेगा, सब ब्रह्म है। लेकिन वह मन का ही जाल होगा। वह ब्रह्म का अनुभव न होगा। वह अहंकार का ही धोखा और डिसेप्शन होगा। वह ब्रह्म का अनुभव न होगा।

ब्रह्म का अनुभव अभ्यास से नहीं मिलता है। ब्रह्म का अनुभव अहंकार के विसर्जन से मिलता है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लेंगे। ब्रह्म का अनुभव अहंकार के अभ्यास से नहीं मिलता, ब्रह्म का अनुभव अहंकार के विसर्जन के अभ्यास से मिलता है। अहंकार खो जाए, मैं न रह जाऊं, तो जो रह जाएगा, वह ब्रह्म मालूम पड़ेगा। मैं रहूं, और जो दिखाई पड़ता है, उस पर ब्रह्म को आरोपित करूं, इम्पोज करूं, तो धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि मुझे ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे। लेकिन वह ब्रह्म, ब्रह्म नहीं, मेरा ही भ्रम है। वह ब्रह्म, ब्रह्म का अनुभव नहीं, मेरी ही कल्पना का फैलाव है। वह फैलाया जा सकता है।

इस सूत्र में ध्यान रख लेना जरूरी है कि जब कृष्ण कहते हैं, सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे पुरुष को, ऐसी चेतना को सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है। कब? जब उस मैं की ज्योति बुझ जाती है, जब उस मैं का दीया टूट जाता है। तब उपाय नहीं रहता कुछ और का, वही बच रहता है।

ठीक वैसे ही, जैसे एक घड़ा है। पानी से भरा है, नदी में चल रहा है। नदी में तैर रहा है, पानी से भरा हुआ घड़ा। उस पानी से भरे हुए घड़े को भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि जो पानी भीतर है, वही बाहर है। घड़ा कहता है, यह मेरा पानी है। बाहर जो नदी का पानी है, वह दूसरा है, अन्य है।

मिट्टी की एक पतली दीवाल घड़े के भीतर के पानी को और नदी के पानी को अलग-अलग करती है। टूट जाए घड़ा, फूट जाए घड़ा, पानी बाहर का और भीतर का एक हो जाता है।

अहंकार की झीनी-सी दीवाल मुझे और ब्रह्म को अलग-अलग करती है। टूट जाए दीवाल, फूट जाए अहंकार का घड़ा, मैं और ब्रह्म एक हो जाते हैं। और तब ही दिखाई पड़ता है कि सभी कुछ--तब ऐसा भी दिखाई नहीं पड़ता है कि ब्रह्म कण-कण में है--तब ऐसा दिखाई पड़ता है कि ब्रह्म ही कण-कण है, में भी नहीं। क्योंकि जब हम कहते हैं, कण में ब्रह्म है, तो ऐसा लगता है, कण भी अलग है और उसके भीतर ब्रह्म भी कहीं है।

नहीं, जब घड़ा टूटता है मैं का, तो ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि कण-कण में ब्रह्म है। ऐसा दिखाई पड़ता है कि कण-कण और ब्रह्म एक ही चीज के दो नाम हैं। अस्तित्व और ब्रह्म एक ही चीज के दो नाम हैं। फिर ऐसा कहना भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता है कि ईश्वर है। फिर तो ऐसा ही कहना अच्छा मालूम पड़ता है कि है और ईश्वर, एक ही बात है। जो है, वह ईश्वर ही है। अस्तित्व ही ब्रह्म है, अस्तित्व ही!

ऐसी प्रतीति के लिए भीतर से मैं की दीवाल का टूट जाना जरूरी है। बहुत बारीक है दीवाल, ट्रांसपैरेंट भी है, पारदर्शी है, इसलिए पता भी नहीं चलता। यह बहुत मजे की बात है।

अगर पत्थर की दीवाल हो, ट्रांसपैरेंट न हो, आर-पार दिखाई न पड़ता हो, तो दीवाल का पता चलता है। अगर आप कांच की दीवाल बनाएं, ट्रांसपैरेंट हो, तो पता भी नहीं चलता है कि दीवाल है; क्योंकि आर-पार दिखाई पड़ता है।

इसलिए मैं की दीवाल अगर पत्थर जैसी सख्त होती, तब तो हमें आर-पार दिखाई ही न पड़ता; हम अपने मैं के भीतर बंद हो जाते और सारी दुनिया बाहर बंद हो जाती, आर-पार कोई संबंध ही न रहता। लेकिन मैं की दीवाल ट्रांसपैरेंट है, पारदर्शी है; कांच की दीवाल है। आर-पार साफ दिखाई पड़ता है। इसलिए खयाल ही नहीं आता कि बीच में कोई दीवाल है।

कांच के पास खड़े हैं। बाहर का सब दिखाई पड़ रहा है। सूरज दिखाई पड़ता है। चांदत्तारे दिखाई पड़ते हैं। कांच की दीवाल दिखाई नहीं पड़ती। ऐसी कांच की दीवाल है। लेकिन है। प्रमाण क्या है कि है? प्रमाण यही है कि मैं आपसे अलग मालूम पड़ता हूं। जहां अलगपन का बोध हो रहा है, वहां बीच में कोई दीवाल है, कोई फासला है, कोई डिस्टेंस है, वह दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े।

कृष्ण के इस सूत्र में डिस्टेंसलेस, दूरीरहित हो जाने का खयाल है। कोई दूसरा नहीं है, वही है। जिस क्षण ऐसा दिखाई पड़ता है कि वही है, एक ही है, उस क्षण कैसा बंधन? फिर जंजीर भी वही है। उस क्षण कैसा शत्रु? फिर शत्रु भी वही है। उस क्षण कैसा दुख? फिर दुख भी वही है। उस क्षण कैसी बीमारी? फिर बीमारी भी वही है।


इस सूत्र को कृष्ण ने द्वंद्व के अतीत होने के बाद क्यों कहा है? इसीलिए कहा है कि जब तक भीतर का द्वंद्व न मिटे, तब तक बाहर का द्वंद्व भी नहीं मिट सकता। इसलिए पहले कहा कि द्वंद्वातीत हो जाता है जो पुरुष; फिर कहते हैं, सब ब्रह्म हो जाता है।

भीतर का द्वंद्व टूट जाए, भीतर के मन के दो खंड मिट जाएं, एक हो जाए भीतर, तो बाहर भी ज्यादा दिन दो नहीं रहेंगे। भीतर का एक बाहर के एक को खोज लेगा। भीतर के दो बाहर भी दो को निर्मित कर देते हैं।


अगर फकीर के भीतर जरा भी चोर होता, तो वह पुलिस वाले को चिल्लाता। पास-पड़ोस में चिल्लाहट मचा देता कि चोर घुस गया। लेकिन फकीर के भीतर अब कोई चोर नहीं है। तो मकान में चोर भी आ जाए, तो भी चोर नहीं मालूम पड़ता, दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; मित्र ही मालूम पड़ता है।

हमारे भीतर जो है, वही हमें बाहर दिखाई पड़ने लगता है। भीतर अगर द्वंद्व है, तो बाहर भी द्वंद्व दिखाई पड़ने लगता है।


 जब भीतर पीड़ा हो, तो बाहर पीड़ा दिखाई पड़ने लगती है। जब भीतर असंतोष हो, तो बाहर असंतोष दिखाई पड़ने लगता है।

भीतर जो है, वही बाहर प्रतिफलित होकर फैल जाता है। संसार हमारा ही बड़ा फैलाव है; हम ही जैसे बड़े मैग्नीफाइंग ग्लास से देखे गए हों। जैसे हमको ही बहुत बड़ा करके देखा गया हो। संसार हमारा ही बड़ा फैलाव है।

जब तक भीतर द्वंद्व है, तब तक संसार में भी द्वंद्व है। तब तक पदार्थ भी अलग दिखाई पड़ेगा, आत्मा भी अलग दिखाई पड़ेगी। तब तक सब चीजों में द्वंद्व दिखाई पड़ेगा। तब तक ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि ब्रह्म अद्वंद्व, अद्वैत, दुई-मुक्त अनुभव है।

भीतर द्वंद्व मिट जाए...। इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, द्वंद्वातीत होता जो पुरुष, और अब इस सूत्र में कहते हैं, सब कुछ ब्रह्म हो जाता है। और जब सब ब्रह्म हो जाता है, तो जीवन की जो परम निधि है, वह उपलब्ध हो जाती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


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