गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 2

 


 श्री भगवानुवाच

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। 2।।


श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन! कर्मों का संन्यास और निष्काम कर्मयोग, ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं। परंतु दोनों में कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्मयोग, साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।



कृष्ण ने कहा, कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म दोनों ही परम श्रेय को उपलब्ध कराने के मार्ग हैं। पहले इसे समझें। फिर दूसरी बात उन्होंने कही, लेकिन फिर भी सुगम होने से निष्काम कर्म साधक के लिए ज्यादा कल्याणकर है।

कर्म-संन्यास का अर्थ है, जो करने का जगत है, जहां हम सुबह से सांझ, सांझ से सुबह करने में संलग्न हैं। कर रहे हैं, बिना इस बात को ठीक से जाने कि क्यों? किस लिए? बिना ठीक से समझे कि इस सब करने की निष्पत्ति और फल क्या है! बिना इस बात को विचारे कि अतीत में जो किया है, उससे हम कहां पहुंचे हैं!

समस्त कर्मों का रूप पानी पर खींची गई रेखाओं जैसा है। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ खिंचा। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ बना। लेकिन अंगुली आगे भी नहीं बढ़ पाती कि रेखाएं मिट जाती हैं, विदा हो जाती हैं।

जो भी हम कर रहे हैं, वह अस्तित्व में पानी पर खींची गई रेखाओं से ज्यादा कुछ भी निर्मित नहीं कर पाता है। हमसे पहले भी अरबों लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं। जिस जगह आप बैठे हैं, एक-एक आदमी जहां बैठा है, वहां कम से कम एक-एक आदमी की जगह में दस-दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। वे सारे लोग ही विराट कर्म में लीन रहे हैं। उन सबके कर्मों का इकट्ठा जोड़ क्या है?

यदि आज आदमी का समाज समाप्त हो जाए, तो आकाश के तारों को कुछ भी खबर न रहेगी कि कितना विराट कर्म चला है! वृक्षों को कुछ भी पता न होगा कि कितना विराट कर्म उनके नीचे चला है! पक्षी हमारे कर्म के इतिहास की कोई कथा न कहेंगे। सूरज उगता रहेगा। सागर की लहरें तटों से टकराती रहेंगी।

आदमी समाप्त हो जाए, तो कोई दस लाख वर्ष की लंबी यात्रा में आदमी ने जो कर्म किए हैं, उनका जोड़ क्या होगा? जैसे एक आदमी समाप्त होता है, तो उसके कर्मों का सब जोड़ तिरोहित हो जाता है; ऐसे ही सारी मनुष्यता भी समाप्त हो जाए, तो सब कर्मों का जोड़ तिरोहित हो जाएगा। उसकी कहीं रेखा भी छूटकर न रह जाएगी।

कर्म-संन्यास इस समझ का नाम है कि कर्म पानी पर खींची गई रेखाओं की भांति हैं। तो व्यर्थ क्यों खींचो! जो मिट ही जाता है, उसे खींचो ही क्यों! जो टिकता ही नहीं, उसे बनाने के पागलपन में क्यों पड़ो! जो अंततः स्वप्न सिद्ध होता है, उसे सत्य मानकर क्षणभर भी क्यों जीओ!

रात सपना देखते हैं। सपने में तो सपना बहुत सच होता है, सच से भी ज्यादा सच होता है। कभी पता नहीं चलता। और बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में कई बार, करोड़ बार सपना देखा है। रोज सुबह पाया कि गलत है। और हर रात फिर भूल जाता है मन। कितने सपने देखे रोज! आज रात जब लौटकर फिर सपना देखेंगे, तो सपने में मन को याद न रहेगा कि पहले भी सपने देखे थे और सुबह पाया था कि सपने हैं। आज रात फिर सपना देखेंगे इसी भ्रम में कि सच है। आदमी का मन कुछ सीखता है या नहीं सीखता है? इतने सपने देखने के बाद भी रोज जब दुबारा फिर सपना आता है, तो फिर सच मालूम होता है।

कर्म-संन्यास कहता है कि कितने जन्मों में कितने कर्म किए, लेकिन हर बार भूल जाते हैं! फिर नया जन्म, फिर नया सपना शुरू हो जाता है। जैसे कल का सपना आज के सपने में जरा भी बाधा नहीं डालता और याद नहीं दिलाता, कोई रिमेंबरेंस पैदा नहीं होती, कोई स्मृति नहीं आती कि कल भी सपना देखा था, पाया सुबह कि गलत है। आज फिर सपना देख रहा हूं, उसी भ्रम में, जैसा कल, जैसा परसों, जैसा जीवनभर देखा है। इसका मतलब हुआ, मन ने कुछ सीखा नहीं।

हैरानी होती है। इतने सपने देखकर भी मन इतना-सा भी नहीं सीख पाता कि सपने सच नहीं हैं। जब आता है सपना, सब सच हो जाता है।

कर्म-संन्यास कहता है, हर जन्म इसी तरह विस्मरण हो जाता है। जन्म को छोड़ दें, आज तक जिंदगी में जो किया है, उससे क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। पानी पर खींची रेखाओं की तरह सब मिट गया है। लेकिन आज भी रेखाएं खींचे चले जा रहे हैं; कल भी रेखाएं खींचेंगे। मरते वक्त पाएंगे, सब खो गया। नए जन्म में फिर नई रेखाएं खींचना शुरू कर देंगे।

कर्म-संन्यास कर्म के सत्य के प्रति इस होश का नाम है कि कर्म से कुछ भी फलित नहीं होता है। कर्म एक खेल से ज्यादा नहीं है। तो जो प्रौढ़ हो जाएगा इस समझ से, वह कर्म के बाहर हो जाएगा। छोड़ देगा कर्म को। छोड़ देगा, कहना शायद ठीक नहीं है, कर्म छूट जाएंगे उससे।

जैसे बच्चा बड़ा हो गया। अब वह कंकड़-पत्थरों से नहीं खेलता। अब वह रेत पर मकान नहीं बनाता। अब वह गुड्डे और गुड़ियों का विवाह नहीं रचाता। अब उससे कोई कहता है कि पहले तो तुम बहुत रस लेते थे, अब तुमने क्यों छोड़ दिए गुड़ियों के खेल? क्यों तुम रेत पर मकान नहीं बनाते? क्यों तुम रंगीन कंकड़-पत्थर इकट्ठे नहीं करते? तो वह बच्चा यह नहीं कहता कि मैंने छोड़ दिया। वह कहता है, अब मैं बड़ा हो गया; वह सब छूट गया!

कर्म-संन्यास कर्म का त्याग नहीं, कर्म के प्रति इस सत्य का अनुभव है कि कर्म का जगत स्वप्न का जगत है। तब कर्म छूट जाता है।

कृष्ण कहते हैं, यह मार्ग भी श्रेयस्कर है। यह मार्ग भी मंगलदायी है। इस मार्ग से भी परम अनुभूति तक पहुंचा जाता है। पर कृष्ण कहते हैं, कठिन है यह मार्ग। दूसरे मार्ग को कृष्ण कहते हैं, सरल है निष्काम कर्म।

निष्काम कर्म में कर्म के ऊपर आग्रह नहीं है। निष्काम कर्म में कर्म के पीछे जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का आग्रह है। कर्म-संन्यास में कर्म को समझने का आग्रह है कि कर्म ही व्यर्थ है। निष्काम कर्म में कर्म की जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का आग्रह है कि फलाकांक्षा व्यर्थ है।

कृष्ण कहते हैं, कर्म चलता रहे, भेद नहीं पड़ता; फलाकांक्षा भर विसर्जित हो जाए। खेल चलता रहे; कोई हर्जा नहीं; लेकिन बच्चा यह जान ले कि खेल है। यह भी तभी जाना जा सकता है, जब फलाकांक्षा दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाती, इसकी प्रतीति हो जाए।

कर्म-संन्यास तब आता है, जब प्रतीति हो जाए कि कर्म स्वप्नवत है, ड्रीम लाइक है। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब ज्ञात हो जाए कि फलाकांक्षा दुख है।

लेकिन फलाकांक्षा होती सुख के लिए है। कोई आदमी दुख की आकांक्षा नहीं करता। आकांक्षा सभी सुख की करते हैं। और बड़े मजे की बात है कि जब मिलता है, तो सिर्फ दुख मिलता है--सभी को। आकांक्षा सदा सुख की, फल सदा दुख! दौड़ते हैं पाने को स्वर्ग, मंजिल आती है सदा नर्क की। सोचते हैं, लगेगा हाथ आनंद का अनुभव, हाथ सिर्फ दुख-स्वप्न, पीड़ा और संताप लगते हैं।

निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब कोई फलाकांक्षा की इस ट्रिक, फलाकांक्षा के इस रहस्य को समझ लेता है कि फलाकांक्षा सदा भरोसा देती है सुख का, लेकिन जब भी हाथ में आता है पक्षी सुख का, तो दुख का सिद्ध होता है। लेकिन होशियारी है। होशियारी यह है कि जो हाथ में आ जाता है, फलाकांक्षा उससे हट जाती; और जो पक्षी हाथ में नहीं, उस पर लग जाती है। हाथ में सदा दुख होता, आकांक्षा सदा उन पक्षियों के साथ उड़ती रहती, जो हाथ में नहीं हैं। जब उनमें से कोई भी पक्षी हाथ में आता, तो दुख सिद्ध होता। लेकिन और पक्षी उड़ते रहते हैं आकाश में, आकांक्षा उनका पीछा करती रहती है।

इसलिए आकांक्षा की इस निरंतर स्टुपिडिटी, इस निरंतर मूढ़ता का कभी अनुभव नहीं हो पाता। हाथ में आए पक्षी को हम कभी नहीं सोचते कि कल इसे भी चाहा था। आज हम कुछ और चाहने लगते हैं।

जिंदगीभर आकांक्षाएं फलित होती हैं, पूरी होती हैं, लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि जो चाहा, वह मिला? जो चाहते हैं, वह कभी नहीं मिलता है। जो नहीं चाहते हैं, वह सदा मिलता है। लेकिन जो नहीं चाहते हैं, जब वह मिल जाता है, तो हम उसके दुख को फिर किसी नई चाह के सपने में भुला देते हैं, फिर नए सपने में हम डूब जाते हैं।

निष्काम कर्म का रहस्य है, फलाकांक्षा की इस तरकीब को ठीक से देख लेना कि मन सदा ही, जो नहीं है पास, उसको खोजता रहता है। और जो पास है, उसमें दुख भोगता रहता है। और कभी यह गणित नहीं बिठाया जाता कि कल यह भी मेरे पास नहीं था, तब मैंने इसमें सुख चाहा था। और आज जब मेरे पास है, तो मैं दुख भोग रहा हूं। वर्तमान सदा दुख, भविष्य सदा सुख बना रहता है।

जब तक ऐसा दिखाई पड़ेगा कि वर्तमान दुख है और भविष्य सुख है, तब तक निष्काम कर्म फलित नहीं हो सकता। निष्काम कर्म फलित होगा, जब यह वर्तमान और भविष्य की स्थिति बिलकुल उलटी हो जाए। वर्तमान सुख बन जाए।

जैसे ही वर्तमान सुख बनता है, भविष्य की आकांक्षा तिरोहित हो जाती है। भविष्य की आकांक्षा, भविष्य में सुख था, इसीलिए थी। वर्तमान में दुख है, इसलिए भविष्य में सुख को हम प्रोजेक्ट करते हैं। आज दुख है, तो कल की कामना करते हैं कि कल सुख मिलेगा। कल के सुख की कामना में आज के दुख को झेलने में जरूर ही सुविधा बनती है। अगर कल भी सुख न हो, तो आज को गुजारना मुश्किल हो जाए। जो लोग कारागृह में बंद हैं, वे कारागृह के बाहर जब मुक्त होंगे, उस खुले आकाश की आकांक्षा में कारागृह को बिता देते हैं।

रोज हम कल के लिए टाल देते हैं। आज को झेलने में सुविधा तो बन जाती है, लेकिन इससे जीवन की पहेली हल नहीं होती। कल फिर यही हाथ लगता है। फिर कल हम परसों के लिए सोचने लगते हैं। रोज यही होता है। हमें रोज जिंदगी पोस्टपोन करनी पड़ती है, कल के लिए स्थगित कर देनी पड़ती है। वह कल कभी नहीं आता। अंत में मौत आती है और कल का सिलसिला टूट जाता है।

इसलिए तो हम मौत से डरते हैं। मौत से हम न डरें, मौत से डर का असली कारण कल के सिलसिले का टूट जाना है। मौत कहती है कि आगे कल नहीं होगा, इसलिए मौत से इतना डर लगता है। क्योंकि हम जीए ही नहीं कभी, हम तो कल की आशा में जीए। और मौत कहती है, अब कल नहीं होगा। इसलिए मौत घबड़ाती है।

अन्यथा मौत में डर का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जिसे हम जानते नहीं, उससे डरने का कोई कारण नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि मौत बुरी है। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसको बुरा कैसे कहें? कोई नहीं कह सकता है कि मौत दुख देती है, क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसे हम दुख देने वाली कैसे कहें! अपरिचित के संबंध में कोई भी निर्णय तो कैसे लिया जा सकता है!

नहीं; लेकिन मौत से हम नहीं डरते। डरने का कारण बहुत और है। वह डर यह है कि हमने जिंदगी सदा कल पर टाली। जीए आज नहीं; कहा, कल जी लेंगे। आज तो झेल लो दुख। कल सुख आएगा; सब ठीक हो जाएगा। आज है अंधेरा, कल सूरज निकलेगा। आज हैं कांटे, कल फूल खिलेंगे। आज घृणा और क्रोध है जिंदगी में, तो कल प्रेम की वर्षा होगी। लेकिन मौत एक ऐसी घड़ी ला देती है कि कल का सिलसिला टूट जाता है; आज ही हाथ में रह जाता है। तब हम तड़फड़ाते हैं। तब हम घबड़ाते हैं। मौत का डर आज के साथ जीने का डर है, और आज हम कभी जीए नहीं।

निष्काम कर्म की धारणा कहती है कि कल पर जो जीवन को टाल रहा है अर्थात फल की आकांक्षा में जो जी रहा है, वह पागल है। कल कभी आता नहीं। जो है, आज है, अभी है। अभी को जीने की कला चाहिए। अभी को जीने की क्षमता चाहिए। अभी को जीने की कुशलता चाहिए।

कृष्ण तो उसी को योग कहते हैं--आज और अभी, हिअर एंड नाउ, इसी क्षण जीने की जो क्षमता है--वही। लेकिन जिसे इस क्षण जीना है, उसे फल की दृष्टि छोड़ देनी चाहिए। इस क्षण तो कर्म है। फल? फल सदा भविष्य में है, कर्म सदा वर्तमान में है। करना अभी है, होना कल है। किया अभी जाएगा, फल कल होगा। फल कभी वर्तमान में नहीं है।

फल को छोड़ दें। लेकिन फल को हम तभी छोड़ सकते हैं, जब फल विषाक्त सिद्ध हो। फल अगर अमृत का मालूम पड़े, तो छोड़ नहीं सकते हैं। और फल अमृत का मालूम पड़ता है। यद्यपि किसी को अमृत का फल कभी मिलता नहीं। धोखा सिद्ध होता है। लेकिन मालूम पड़ता है। इस प्रतीति से कैसे छुटकारा हो सके?

इस प्रतीति से छुटकारे का एक ही मार्ग है कि अपने अतीत में जितने फलों की आकांक्षा आपने की है, उन्हें फिर से पुनर्विचार कर लें। वे मिल गए आपको। जो पत्नी चाही थी, वह मिल गई; जो पति चाहा था, वह मिल गया। जो नौकरी चाही थी, वह मिल गई; जो मकान चाहा था, वह मिल गया। ऐसा आदमी तो खोजना मुश्किल है, जिसे ऐसा कुछ भी न मिला हो, जो उसने चाहा था; कुछ न कुछ तो मिल ही गया होगा। उतना अनुभव के लिए काफी है। लेकिन मिलकर क्या मिला?

परमात्मा आसानी से मिलता नहीं। नहीं तो आप जाकर उससे कहें कि आप मिल गए, और तो कुछ नहीं मिला! अब क्या करें? वह आसानी से मिलता नहीं, इसलिए यह मौका आता नहीं। इस संसार में सब चीजें मिल जाती हैं, इसलिए दिक्कत है।

असल में जो भी फल की आकांक्षा से जी रहा है, उसे परमात्मा भी मिल जाए, तो कुछ भी नहीं मिलेगा, क्योंकि फल की आकांक्षा भ्रांत स्वप्न है। जो फल की आकांक्षा के बिना जी रहा है, उसे कुछ भी न मिले, तो भी सब मिला हुआ है। उसे नींद की झपकी भी लग जाए, तो परम आनंद है। उसे रोटी का एक टुकड़ा भी मिल जाए, तो अमृत है। परमात्मा तो दूर। परमात्मा मिल जाए, तब तो उसकी खुशी का, उसके आनंद का, उसके अनुग्रह का कोई ठिकाना ही नहीं है। लेकिन परमात्मा की छोटी-सी कृपा भी मिल जाए, तो भी उसका अनुग्रह अनंत है। और जो आकांक्षा में जी रहा है फल की, उसे परमात्मा भी मिल जाए, तो वह उदास खड़े होकर यही कहेगा कि ठीक है; आप मिल गए, लेकिन कुछ मिला नहीं!

फल की आकांक्षा खाली ही करती है, भरती नहीं। इसलिए जिस समाज में जितने फल मिल जाएंगे, जितनी आकांक्षाएं तृप्त हो जाएंगी, उतनी एंप्टीनेस पैदा हो जाएगी। गरीब मुल्क कभी भी इतना खाली नहीं होता, जितना अमीर मुल्क खाली हो जाता है। गरीब आदमी कभी भी इतना मीनिंगलेस अनुभव नहीं करता, कि अर्थहीन है मेरी जिंदगी, बेकार है। रोज काम बना रहता है। कल कुछ पाने को है। अमीर आदमी को एकदम डिसइलूजनमेंट होता है। एकदम विभ्रम। सब टूट जाता है। जो चाहा था, सब मिल गया। अब एकदम से सारी चीज ठहर गई होती है। अब कहीं कोई गति नहीं मालूम होती है। कल, खतम हो गया। अमीर आदमी--उस आदमी को अमीर कह रहा हूं, जिसे सब मिल गया, जो उसने चाहा था--वह मरने पर पहुंच गया। अब उसके आगे मौत के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसलिए दुनिया के जो यूटोपियंस हैं, जो कल्पनावादी हैं, जो कहते हैं, जमीन पर स्वर्ग ला देना है, अगर वे किसी दिन सफल हो गए, तो सारी मनुष्यता आत्महत्या कर लेगी। उसके बाद फिर जीने का कोई कारण नहीं रह जाएगा।

यह बड़े मजे की बात है कि गरीब और भूखे आदमी की जिंदगी में थोड़ा अर्थ मालूम पड़ता है। और न्यूयार्क में रहने वाला जो अरबपति है, उसकी जिंदगी में अर्थ नहीं मालूम पड़ता। आज अगर पश्चिम, विशेषकर अमेरिका के दार्शनिकों से पूछें, तो वे कहते हैं, एक ही सवाल है--मीनिंगलेसनेस, एंप्टीनेस। एक ही सवाल है कि जीवन रिक्त क्यों है? खाली क्यों है? भरा हुआ क्यों नहीं है? गरीब कौमों ने कभी नहीं पूछा कि जीवन रिक्त क्यों है! क्योंकि आकांक्षाएं जीवन को भरे रहती हैं। फल की इच्छा भरे रहती है।

अमीर कौमों की इच्छाएं करीब-करीब पूरी होने के आ जाती हैं। जो भी मिल सकता है, वह मिल गया। अच्छी से अच्छी कार दरवाजे पर खड़ी है। अच्छा से अच्छा मकान पीछे खड़ा है। तिजोरी में जितनी संपत्ति चाहिए, उससे ज्यादा भरी है। जो भी मिल सकता है, वह है। अब सब मिल गया, और लगता है, कुछ भी नहीं मिला।

निष्काम कर्म उस व्यक्ति को उपलब्ध होता है, जो फलाकांक्षा की इस व्यर्थता को अनुभव कर लेता है कि पाकर भी फल कुछ पाया नहीं जाता है। फल को पा लेना भी निष्फलता है, ऐसी जिसकी प्रतीति और समझ गहरी हो जाए, वह कर्म से नहीं भागेगा, कृष्ण कहते हैं, वह कर्म करता रहेगा। लेकिन तब कर्म उसे अभिनय से ज्यादा नहीं होगा।

कृष्ण कहते हैं, दूसरा मार्ग अर्जुन, सरल है।

इसमें एक बात आपसे कहना चाहूंगा कि यह कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि दूसरा मार्ग सरल है। यह विशेष रूप से अर्जुन से कही गई बात है। यह जरूरी नहीं है कि सबके लिए दूसरा मार्ग सरल हो। किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। इसलिए कोई इस खयाल में न पड़े कि यह बात सामान्य है। यह अर्जुन के लिए एड्रेस्ड है। अर्जुन के ढंग के जो व्यक्ति हैं, उनके लिए दूसरा मार्ग सरल है। यह भी खयाल में ले लें। क्योंकि यह जो चर्चा है, अर्जुन से सीधी है। यह सबसे नहीं है। सबसे कोई चर्चा होनी भी बहुत कठिन है।

किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। किस के लिए होगा? उस व्यक्ति के लिए पहला मार्ग सरल होगा, जिसके जीवन का प्रशिक्षण कर्म का न हो, जिसके जीवन का प्रशिक्षण स्वप्न का हो। जैसे एक कवि। एक कवि का सारा शिक्षण जो है जीवन की व्यवस्था का, वह स्वप्न का है।

एक चित्रकार। उसके जीवन की जो सारी व्यवस्था है, उसका जो प्रशिक्षण है, वह जैसे बड़ा हुआ है, वह स्वप्न का है। असल में जो जितना बड़ा स्वप्न देख सके, उतना ही बड़ा चित्रकार हो सकता है। जो जितना सपने में डूब सके, उतना बड़ा कवि हो सकता है।

एक संगीतज्ञ। वह ध्वनि में स्वप्नों को तैरा रहा है। वह ध्वनि के माध्यम से सपनों को रूपांतरित कर रहा है। उसकी सारी साधना स्वप्न को ध्वनि में रूपांतरित करने की है। वह सपने हवा में तैरा रहा है; हवा में उड़ा रहा है, सपनों को पंख दे रहा है।

अगर कृष्ण ने यह बात एक कवि से, एक संगीतज्ञ से, एक चित्रकार से कही होती, तो कृष्ण यह कभी नहीं कहते कि दूसरा मार्ग सरल है। पहला मार्ग सरल होता।

एक संगीतज्ञ को यह समझना सदा आसान है कि कर्म पानी पर खींची गई रेखाओं से खो जाते हैं। कितनी मेहनत से सितार पर जिंदगीभर वह श्रम करता है! लहूलुहान हो जाती हैं अंगुलियां। पत्थर हो जाते हैं हाथ। दिन-रात मेहनत करके जब वह संगीत पैदा कर पाता है, तो क्षणभर भी तो नहीं टिकता। सारा श्रम--संगीत--हवा में गया, और गया, और खो गया। इधर पैदा नहीं हुआ, वहां लीन हो गया।

तानसेन जैसे व्यक्ति को जिंदगीभर की साधना के बाद अगर कृष्ण यह बात कहें कि दूसरा मार्ग सरल है तानसेन! तानसेन की समझ में नहीं पड़ेगा। पहला मार्ग तत्काल समझ में पड़ जाएगा। जिंदगीभर जो की थी मेहनत, जो श्रम, वह कहां है? पानी पर भी लकीर देर से मिटती है, संगीत का स्वर तो और भी जल्दी खो जाता है!

गाए गीत! रवींद्रनाथ से कोई कहे कि दूसरा मार्ग सरल है, तो मुश्किल पड़ेगा समझना। रवींद्रनाथ को पहली बात समझ में आ सकती है, कि सब गाए गीत हवा में खो गए। कहीं कुछ बचा नहीं। सब खो जाता है।


लेकिन अर्जुन से बात बिलकुल ठीक है। अर्जुन के व्यक्तित्व के बिलकुल अनुकूल है। अर्जुन की सारी व्यवस्था जीवन की कर्म की है, स्वप्न की नहीं। और उसका कर्म ऐसा है, अगर वह किसी की छाती में छुरा भोंक दे, तो कर्म डेफिनिट हो जाता है; संगीत की तरह खो नहीं जाता। वह मुर्दा लाश सामने पड़ी रह जाती है; और वह छुरा सदा के लिए डेफिनिट हो जाता है। वह कृत्य स्थिर मालूम होता है। हालांकि जो और गहरा जानते हैं, वे कहते हैं, वहां भी कोई भेद नहीं है। लेकिन वह बहुत गहरे देखने की बात है।

अर्जुन की जो शिक्षा है, उस शिक्षा में कर्म जो है, वह बहुत कठोर और ठोस है। उसकी हिंसा की शिक्षा है। वह क्षत्रिय है। वह सैनिक है। वह मारना और मरना ही जानता है। यह किसी की गर्दन काट देना, सितार पर तार छेड़ देने जैसा नहीं है--साधारणतः। अंततः तो ऐसा ही है। अंततः तो सितार का तार टूट जाए, कि आदमी की गर्दन टूट जाए, अंततः अल्टिमेटली कोई फर्क नहीं है। पर इमीजिएटली, अभी तो बहुत फर्क है।

अर्जुन की जो जीवन की सारी की सारी बनावट है, वह कर्म की है, स्वप्न की नहीं है। सपने उसने कभी नहीं देखे; उसने कृत्य किए हैं। उसने कविताएं नहीं लिखी हैं; उसने हत्याएं की हैं। उसने तार पर संगीत नहीं उठाया; उसने तो धनुष पर बाण खींचे हैं। कर्मठ होना उसकी नियति है, उसकी डेस्टिनी है।

इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं, अर्जुन! मार्ग तो दोनों ही ठीक हैं, फिर भी दूसरा सरल है। यह अर्जुन से कही जा रही है बात कि दूसरा सरल है।

इसलिए जब भी गीता को पढ़ें, तो सदा यह देख लें कि आप अर्जुन के ढंग के आदमी हैं, तो यह बात ठीक है। अगर अर्जुन से विपरीत आदमी हैं, तो उलटा कर लें सूत्र को--पहली बात सरल है। और दो ही तरह के लोग हैं जगत में, स्वप्न में जीने वाले, और कर्म में जीने वाले। भीतर, अंतर्मुखी; और  बहिर्मुखी।

अर्जुन बहिर्मुखी है। बाहर जी रहा है।

एक कवि का जीवन भीतरी होता है। बाहर तो कभी-कभी कुछ बुदबुदे आ जाते हैं। असली जीवन तो भीतर होता है। कभी कुछ बाहर फूट जाता है, प्रासांगिक--अनिवार्य नहीं है। अधिक कविताएं तो भीतर ही उठती हैं और खो जाती हैं। लाख कविताएं पैदा होती हैं रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति में, तो एक प्रकट हो पाती है। वह भी अधूरी, पंगु। वह भी कभी पूरी प्रकट नहीं हो पाती। उससे भी रवींद्रनाथ कभी तृप्त नहीं होते।

अंतर्मुखी आदमी के जीवन की धारा भीतर घूमती है; बाहर कर्म के जगत में उसके बहुत कम स्पर्श होते हैं। बहिर्मुखी व्यक्ति की जीवन-धारा भीतर होती ही नहीं; उसके जीवन की सारी धारा बाहर घूमती है--अंतर्संबंधों में, संघर्षों में। बाहर के जगत में उसकी छाप होती है। पानी पर नहीं, वह पत्थर पर लकीरें खींचता मालूम पड़ता है। हालांकि लंबे अर्से में पत्थर भी पानी हो जाते हैं। लेकिन प्राथमिक, आज, अभी, पत्थर पर खींची गई लकीर ठहरी हुई मालूम पड़ती है।

इसलिए इस शर्त को समझ लेना आप। कृष्ण का यह वक्तव्य कंडीशनल है, शर्त के साथ है; अर्जुन को दिया गया है। इसलिए उन्होंने दोनों बातें कह दी हैं। दोनों मार्ग से पहुंच जाते हैं अर्जुन! कर्म-संन्यास से भी--सब कर्मों को छोड़कर जो निर्जरा को उपलब्ध हो जाता है, जैसे कोई महावीर। सब कर्म छोड़कर! या निष्काम कर्म से--जैसे कोई जनक, सब कर्मों को करते हुए। लेकिन दूसरा मार्ग सरल है, सुगम है। यह अर्जुन को दृष्टि में रखकर दिया गया वक्तव्य है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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