गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 9

  

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म बन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।। ९।।


और हे अर्जुन, बंधन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है। क्योंकि यज्ञ-कर्म के सिवाय अन्य कर्म में लगा हुआ ही यह मनुष्य कर्मों द्वारा बंधता है। इसलिए हे अर्जुन, आसक्ति से रहित हुआ उस परमेश्वर के निमित्त कर्म का भली प्रकार आचरण कर।


एक और भी अदभुत बात कृष्ण कहते हैं। वे कहते हैं, कर्मों के बंधन से बचने के ही निमित्त जो आदमी कर्म से भागता है, वह उचित नहीं करता है। जो आदमी कर्मों के बंधन से बचने के लिए ही कर्मों को छोड़कर भागता है, वह उलटे परिणाम को उपलब्ध होगा। वह और बंध जाएगा। और फिर कर्मों के बंधन से भागने की जो इच्छा है, वह स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा नहीं, स्वयं की परतंत्रता की ही घोषणा है। कर्म के बंधन से कोई भाग भी न सकेगा। क्योंकि कहीं भी जाए, कुछ भी करे, कर्म करना ही पड़ेगा। तब क्या करे आदमी?

कृष्ण कहते हैं, यज्ञरूपी कर्म। कृष्ण कहते हैं, ऐसा कर्म जो प्रभु को समर्पित है, ऐसा कर्म जो मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूं। परमात्मा ने जीवन दिया, जन्म दिया, जगत दिया, उसने ही कर्म दिया। उसके लिए ही कर रहा हूं। ऐसे यज्ञरूपी कर्म को जो करता है, वह बंधन में नहीं पड़ता है।


इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो सिर्फ बंधन से बचने के लिए जो भागता है, वह भाग नहीं पाएगा। वह नए बंधनों में घिर जाएगा। ध्यान रहे, बंधन से बचने के लिए भागने वाला शक्तिशाली व्यक्ति नहीं है। भागते सिर्फ कमजोर हैं। शक्तिशाली भागते नहीं, कमजोर ही भागता है। और जितना भागता है, उतना और कमजोर हो जाता है। भयभीत भागता है। और जो भयभीत है, वह यहां बंधन में है; जहां भी जाएगा, वहां बंधन में पड़ जाएगा। कमजोर बंधन से बचेगा कैसे!

एक आदमी गृहस्थी में है। वह कहता है, घर बंधन है। बड़े आश्चर्य की बात है। घर कहीं भी नहीं बांधता। दरवाजे खुले हैं। घर कहीं भी लोहे की शृंखला नहीं बना हुआ है! घर कहीं पैर में जंजीर की तरह अटका नहीं है। घर कहीं नहीं बांधता है। लेकिन वह आदमी कहता है, घर बांधता है। तो मैं घर छोड़ दूं। अब समझने जैसा जरूरी है कि उसको घर बांधता है? तब तो घर छोड़ने से वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन घर किसको बांधेगा? घर तो बिलकुल जड़ है। वह न बांधता है, न स्वतंत्र करता है। जब यह छोड़कर जाने लगेगा, तब इतना भी नहीं कहेगा कि रुको, कहां जा रहे हो? वह इसकी फिक्र ही नहीं करेगा! लेकिन यह कहता है, घर बांधता है।

असल में, यह बात कहीं न कहीं गलत समझ रहा है। यह घर को अपना मानता है, इससे बंधता है। घर नहीं बांधता। मेरा है घर, मेरे से घर बंधता है। लेकिन मेरा तो इसके पास ही रहेगा। यह घर छोड़कर भाग जाएगा, तब मेरा आश्रम। फिर मेरा आश्रम बांध लेगा। वह मेरा इसके साथ चला जाएगा। वह मेरा इसकी कमजोरी है। घर तो छूट जाएगा। घर छोड़ने में क्या कठिनाई है! घर जरा भी नहीं रोकेगा कि रुकिए! बल्कि प्रसन्न ही होगा कि गए तो अच्छा हुआ, उपद्रव टला! लेकिन आप उस तरकीब को तो साथ ही ले जाएंगे, जो गुलामी बनेगी। मेरा आश्रम हो जाएगा, फिर वह बांध लेगा।

पत्नी नहीं बांधती। पत्नी को छोड़कर भाग जाएं। तो क्या कामवासना पत्नी को छोड़कर भागने के साथ पत्नी के पास छूट जाएगी? तो पत्नी नहीं थी आपके पास, तब कामवासना नहीं थी? जब यात्रा पर चले जाते हैं, पत्नी नहीं होती है, तब कामवासना नहीं होती है? और जब पत्नी को छोड़कर चले जाएंगे, तो कामवासना पत्नी के पास छूट जाएगी कि आपके साथ चली जाएगी? वह कामवासना आपके साथ चली जाएगी। और ध्यान रहे, पत्नी तो पुरानी पड़ गई थी, नई स्त्रियां दिखाई पड़ेंगी जो बिलकुल नई होंगी, वह वासना उन नई पर और भी ज्यादा लोलुप होकर बंध जाएगी। भागता हुआ आदमी यह भूल जाता है कि जिससे वह भाग रहा है, वह बांधने वाली चीज नहीं है। जो भाग रहा है, वही बंधने वाला है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, भागना व्यर्थ है, पलायन व्यर्थ है, एस्केप व्यर्थ है। और ध्यान रहे, इस पृथ्वी पर एस्केप के खिलाफ, पलायन के खिलाफ कृष्ण से ज्यादा बड़ी आवाज दूसरी पैदा नहीं हुई। पलायन व्यर्थ है, भागना व्यर्थ है। भागकर जाओगे कहां? अपने से भागोगे कैसे? सबसे भाग जाओगे, खुद तो साथ ही रहोगे। और उस खुद में ही सारी बीमारियां हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म से कोई अगर बंधन से छूटने के लिए भागता है, तो नासमझ है। कर्म में कोई बंधन नहीं है। कर्म मेरा है, यही बंधन है। इसलिए अगर कर्म को परमात्मा का है, ऐसा कहने का कोई साहस जुटा ले, तो कर्म यज्ञ हो जाता है और उसका बंधन गिर जाता है। क्यों गिर जाता है? क्योंकि वह फिर मेरा नहीं रह जाता।

सार बात इतनी है कि मेरा ही बंधन है--चाहे वह मेरा मकान हो, चाहे मेरा धन हो, चाहे मेरा बेटा हो, चाहे मेरा धर्म हो, चाहे मेरा कर्म हो, चाहे मेरा संन्यास हो--जो भी मेरा है, वह बंधन बन जाएगा। सिर्फ एक तरह का कर्म बंधन नहीं बनता है, ऐसा कर्म जो मेरा नहीं, परमात्मा का है। ऐसे कर्म का नाम यज्ञ है।

यज्ञ बहुत पारिभाषिक शब्द है। इसका अनुवाद दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं हो सकता है। असल में कर्म का एक बिलकुल ही नया रूप, जिसमें मैं कर्ता नहीं रहता, बल्कि परमात्मा कर्ता होता है। कर्म की एक बिलकुल नई अवधारणा, कर्म का एक बिलकुल नया कंसेप्शन कि जिसमें मैं कर्ता नहीं होता, मैं सिर्फ निमित्त होता हूं और कर्ता परमात्मा होता है। जिसमें मैं सिर्फ बांसुरी बन जाता हूं, गीत परमात्मा का, स्वर उसके।

यज्ञरूपी कर्म बंधन नहीं लाता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू कर्म से मत भाग, बल्कि कर्म को यज्ञ बना ले। यज्ञ बना ले अर्थात उसको तू परमात्मा को समर्पित कर दे। तू कह दे पूरे प्राणों से कि मैं सिर्फ निमित्त हूं और तुझे जो करवाना हो, करवा ले।


तो जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, वह यही कह रहे हैं कि एक दफा हिम्मत करके, संकल्प करके अगर तू जान पाए कि तेरा नहीं है कृत्य, तो फिर कोई बंधन नहीं। क्यों बंधन नहीं? क्योंकि बंधने के लिए भी मैं का भाव चाहिए। बंधेगा कौन? मैं तो चाहिए ही, अगर बंधना है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि मैं अगर नहीं हूं, तो बंधेगा कौन? बंधूंगा कैसे? मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। ये दो सूत्र खयाल में ले लें। मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। मैं बनेगा कैदी और मेरा बनेगा जंजीर। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति कह पाता है, मैं नहीं, तू ही; मेरा नहीं, तेरा; उस दिन न तो बंधन बचता है और न बंधने वाला बचता है। ऐसे क्षण में व्यक्ति का जीवन यज्ञ हो जाता है। यज्ञ मुक्ति है। यज्ञ के भाव से किया गया कर्म स्वतंत्रता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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