गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 2

 



 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।। 2।।


इसलिए हे अर्जुन, जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।



संकल्पों को न त्यागने वाला पुरुष योगी नहीं होता है। और संकल्पों को जो त्याग दे, वही संन्यासी है।


संकल्प क्यों है हमारे मन में? संकल्प क्या है? इच्छा हो, तो संकल्प पैदा होता है। कुछ पाना हो तो पाने की चेष्टा, कुछ पाना हो तो पाने की शक्ति अर्जित करनी होती है। संकल्प है वासना को पूरा करने की तीव्रता, वासना को पूरा करने के लिए तीव्र आयोजन। संकल्प विल है। जब मैं कुछ पाना चाहता हूं, तो अपने को दांव पर लगाता हूं। अपने को दांव पर लगाना संकल्प है।

जुआरी संकल्पवान होते हैं। भारी संकल्प करते हैं। सब कुछ लगा देते हैं कुछ पाने के लिए। हम सब भी जुआरी हैं। मात्रा कम-ज्यादा होती होगी। दांव छोटे-बड़े होते होंगे। लगाने की सामर्थ्य कम-ज्यादा होती होगी। हम सब लगाते हैं। अपनी इच्छाओं पर दांव लगाना ही पड़ता है। सिर्फ जुआरी वही नहीं है, जिसकी कोई फलाकांक्षा नहीं है। वह जुआरी नहीं है। उसके पास दांव पर लगाने का कोई सवाल नहीं है। कोई उसका दांव नहीं है। हम तो संकल्प करेंगे ही।

कृष्ण कहते हैं, सब संकल्प छोड़ दे, वही योगी है, वही संन्यासी है।

संकल्प तभी छूटेंगे, जब कुछ पाने का खयाल न रह जाए। नहीं तो संकल्प जारी रहेंगे। मन चौबीस घंटे संकल्प के आस-पास अपनी शक्ति इकट्ठी करता रहता है। हमारे भीतर बहुत इच्छाएं पैदा होती हैं। सभी इच्छाएं संकल्प नहीं बनतीं। इच्छाएं बहुत पैदा होती हैं, फिर किसी इच्छा के साथ हम अपनी ऊर्जा को, अपनी शक्ति को लगा देते हैं, तो वह इच्छा संकल्प हो जाती है।

निष्क्रिय पड़ी हुई इच्छाएं धीरे-धीरे सपने बनकर खो जाती हैं। जिसके पीछे हम अपनी शक्ति लगा देते हैं, अपने को लगा देते हैं, वह इच्छा संकल्प बन जाती है।

संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा को पूरा करने के लिए हमने अपने को दांव पर लगा दिया। तब वह डिजायर न रही, विल हो गई। और जब कोई संकल्प से भरता है, तब और भी गहन खतरे में उतर जाता है। क्योंकि अब इच्छा, मात्र इच्छा न रही कि मन में उसने सोचा हो कि महल बन जाए। अब वह महल बनाने के लिए जिद्द पर भी अड़ गया। जिद्द पर अड़ने का अर्थ है कि अब इस इच्छा के साथ उसने अपने अहंकार को जोड़ा। अब वह कहता है कि अगर इच्छा पूरी होगी, तो ही मैं हूं। अगर इच्छा पूरी न हुई, तो मैं बेकार हूं। अब उसका अहंकार इच्छा को पूरा करके अपने को सिद्ध करने की कोशिश करेगा। जब इच्छा के साथ अहंकार संयुक्त होता है, तो संकल्प निर्मित होता है।

अहंकार, मैं, जिस इच्छा को पकड़ लेता है, फिर हम उसके पीछे पागल हो जाते हैं। फिर हम सब कुछ गंवा दें, लेकिन इस इच्छा को पूरा करना बंद नहीं कर सकते। हम मिट जाएं। अक्सर ऐसा होता है कि अगर आदमी का संकल्प पूरा न हो पाए, तो आदमी आत्महत्या कर ले। कहे कि इस जीने से तो न जीना बेहतर है। पागल हो जाए। कहे कि इस मस्तिष्क का क्या उपयोग है! संकल्प।


लेकिन साधारणतः हम सभी को सिखाते हैं संकल्प को मजबूत करने की बात। अगर स्कूल में बच्चा परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पा रहा है, तो शिक्षक कहता है, संकल्पवान बनो। मजबूत करो संकल्प को। कहो कि मैं पूरा करके रहूंगा। दांव पर लगाओ अपने को। अगर बेटा सफल नहीं हो पा रहा है, तो बाप कहता है कि संकल्प की कमी है। चारों तरफ हम संकल्प की शिक्षा देते हैं। हमारा पूरा तथाकथित संसार संकल्प के ही ऊपर खड़ा हुआ चलता है।

कृष्ण बिलकुल उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, संकल्पों को जो छोड़ दे बिलकुल। संकल्प को जो छोड़ दे, वही प्रभु को उपलब्ध होता है। संकल्प को छोड़ने का मतलब हुआ, समर्पण हो जाए। कह दे कि जो तेरी मर्जी। मैं नहीं हूं। समर्पण का अर्थ है कि जो हारने को, असफल होने को राजी हो जाए।

ध्यान रखें, फलाकांक्षा छोड़ना और असफल होने के लिए राजी होना, एक ही बात है। असफल होने के लिए राजी होना और फलाकांक्षा छोड़ना, एक ही बात है। जो जो भी हो, उसके लिए राजी हो जाए; जो कहे कि मैं हूं ही नहीं सिवाय राजी होने के। जो भी होगा, उसके लिए मैं राजी हूं। ऐसा ही व्यक्ति संन्यासी है।

तो संन्यासी का तो अर्थ हुआ, जो भीतर से बिलकुल मिट जाए; जो भीतर से बिलकुल मर जाए। संन्यास एक गहरी मृत्यु है, एक बहुत गहरी मृत्यु।

एक मृत्यु से तो हम परिचित हैं, जब शरीर मर जाता है। लेकिन वह मृत्यु नहीं है। वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि फिर मन नए शरीर निर्मित कर लेता है। वह सिर्फ वस्त्रों का परिवर्तन है। वह सिर्फ पुराने घर को छोड़कर नए घर में प्रवेश है।

इसलिए जो जानते हैं, वे मृत्यु को मृत्यु नहीं कहते, सिर्फ नए जीवन का प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे तो योग को मृत्यु कहते हैं। वे तो संन्यास को मृत्यु कहते हैं।

वस्तुतः आदमी भीतर से तभी मरता है, जब वह तय कर लेता है कि अब मेरा कोई संकल्प नहीं, मेरी कोई फल की आकांक्षा नहीं, मैं नहीं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह कहने की हिम्मत जुटा लेता है कि अब मैं नहीं हूं, तू ही है, उस क्षण महामृत्यु घटित होती है।

और ध्यान रहे, उस महामृत्यु से ही महाजीवन का आविर्भाव होता है। जैसे बीज टूटता है, तो अंकुर बनता है, वृक्ष बनता है। अंडा टूटता है, तो उसके भीतर से जीवन बाहर निकलता है; पंख फैलाता है, आकाश में उड़ जाता है। ऐसे ही हम भी एक बंद बीज हैं, अहंकार के सख्त बीज। जब अहंकार की यह पर्त टूट जाए और यह बीज की खोल टूट जाए, तो ही हमारे भीतर से एक महाजीवन का पक्षी पंख फैलाकर उड़ता है विराट आकाश की ओर।

लेकिन हम तो इस बीज को बचाने में लगे रहते हैं। हम उन पागलों की तरह हैं, जो बीज को बचाने में लग जाएं। बीज को बचाने से कुछ होगा? सिर्फ सड़ेगा। बीज को बचाना पागलपन है। बीज बचाने के लिए नहीं, तोड़ने के लिए है। बीज मिटाने के लिए है। क्योंकि बीज मिटे, तो अंकुर हो। अंकुर हो, तो अनंत बीज लगें। अहंकार हमारा बीज है, सख्त गांठ।

और ध्यान रहे, बीज की खोल जो काम करती है, वही काम अहंकार करता है। बीज की सख्त खोल क्या काम करती है? वह जो भीतर है कोमल जीवन, उसको बचाने का काम करती है। वह सेफ्टी मेजर है, सुरक्षा का उपाय है। वह जो खोल है सख्त, वह भीतर कुछ कोमल छिपा है, उसको बचाने की व्यवस्था है।

लेकिन बचाने की व्यवस्था अगर टूटने से इनकार कर दे, तो आत्महत्या बन जाएगी। जैसे कि हम एक सिपाही को युद्ध के मैदान पर कवच पहना देते हैं लोहे के। वह बचाने की व्यवस्था है कि बाहर से हमला हो, तो बच जाए। लेकिन फिर कवच इतना सख्त हो जाए और प्राणों पर इस तरह कस जाए कि जब सिपाही युद्ध से घर लौटे, तब भी कवच छोड़ने को राजी न हो; बिस्तर पर सोए, तो भी कवच को पकड़े रखे; और कह दे कि अब मैं कवच कभी नहीं निकालूंगा; तो वह कवच उसकी कब्र बन जाएगी। वह मरेगा उसी कवच में, जो बचाने के लिए था।

बीज की सख्त खोल, उसके भीतर कोमल जीवन छिपा है, उसको बचाने की व्यवस्था है। उस समय तक बचाने की व्यवस्था है, जब तक उस बीज को ठीक जमीन न मिल जाए। जब ठीक जमीन मिल जाए, तो वह बीज टूट जाए, सख्त खोल मिट जाए, गल जाए, हट जाए; अंकुरित हो जाए अंकुर; निकल आए कोमल जीवन। सूर्य को छूने की यात्रा पर चल पड़े।

ठीक हमारा अहंकार भी हमारे बचाव की व्यवस्था है। हमारा अहंकार भी हमारे बचाव की व्यवस्था है। जब तक ठीक भूमि न मिल जाए, वह हमें बचाए। ठीक भूमि कब मिलेगी?

अधिक लोग तो बीज ही रहकर मर जाते हैं। उनको कभी ठीक भूमि मिलती हुई मालूम नहीं पड़ती। उस ठीक भूमि का नाम ही धर्म है। जीवन की सारी खोज में जितने जल्दी आप धर्म के रहस्य को समझ लें, उतने जल्दी आपको ठीक भूमि मिल जाए।

यह मैं गीता पर बात कर रहा हूं इसी आशय से कि शायद आपके किसी बीज को भूमि की तलाश हो। कृष्ण की बात में, कहीं हवा में, वह भूमि मिल जाए। इस चर्चा के बहाने कहीं कोई स्वर आपको सुनाई पड़ जाए और वह भूमि मिल जाए, जिसमें आपका बीज अपने को तोड़ने को राजी हो जाए।

इसलिए तो कृष्ण पूरे समय अर्जुन से कह रहे हैं कि तू अपने को छोड़ दे, तू अपने को तोड़ दे।

सारा धर्म यही कहता है। सारी दुनिया के धर्म यही कहते हैं। चाहे कुरान, चाहे बाइबिल, चाहे महावीर, चाहे बुद्ध। दुनिया में जिन्होंने भी धर्म की बात कही है, उन्होंने कहा है कि तुम मिटो। अगर तुम अपने को बचाओगे, तो तुम परमात्मा को खो दोगे। और तुम अगर अपने को मिटाने को राजी हो गए, तो तुम परमात्मा हो जाओगे। मिटो! अपने को मिटा डालो!

तुम ही तुम्हारे लिए बाधा हो। अब इस खोल को तोड़ो। इस खोल को कई जन्मों तक खींच लिया। अब तुम्हारी आदत हो गई खोल को खींचने की। अब तुम समझते हो कि मैं खोल हूं। अब तुम, भीतर का वह जो कोमल जीवन है, उसको भूल ही चुके हो। वह जो आत्मा है, बिलकुल भूल गई है और शरीर को ही समझ लिया है कि मैं हूं। वह जो चेतना है, बिलकुल भूल गई है और मन की वासनाओं को ही समझ लिया है कि मैं हूं। अब इस खोल को तोड़ो, इस खोल को छोड़ दो।

लेकिन हम संकल्प करके इस खोल को बचाए चले जाते हैं। संकल्प इस खोल को बचाने की चेष्टा है। हम कहते हैं, मैं अपने को बचाऊंगा। हम सब एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, ताकि कोई हमें नष्ट न कर दे। हम सब संघर्ष में लीन हैं, ताकि हम बच जाएं।

धर्म कहता है कि हमने खोल को समझ लिया अंकुर, तो हम भूल में पड़ गए। यह खोल ही है। और आप मत मिटाओ, इससे अंतर नहीं पड़ता। खोल तो मिटेगी। खोल को तो मिटना ही पड़ेगा। सिर्फ एक जीवन का अवसर व्यर्थ हो जाएगा। फिर नई खोल, और फिर आप उस खोल को पकड़ लेना कि यह मैं हूं, और फिर आप एक जीवन के अवसर को खो देना!

संकल्प हमारी बचाने की चेष्टा है। हर आदमी अपने को बचाने में लगा है। आदमी ही क्यों, छोटे से छोटा प्राणी भी अपने को बचाने में लगा है। छोटा-सा पक्षी भी बचा रहा है। छोटा-सा कीड़ा-मकोड़ा भी बचा रहा है। एक पत्थर भी अपनी सुरक्षा कर रहा है। सब अपनी सुरक्षा कर रहे हैं। अगर हम पूरे जीवन की धारा को देखें, तो हर एक अपनी सुरक्षा में लगा है।

संन्यास असुरक्षा में उतरना है। संन्यास का अर्थ है, अपने को बचाने की कोशिश बंद। अब हम मरने को राजी हैं। हम बचाते ही नहीं हैं, क्योंकि हम कहते हैं कि बचाकर भी कौन अपने को बचा पाया है!

कृष्ण कहते हैं, संकल्पों को छोड़ देता है जो, वही योगी है।

लेकिन एक आदमी कहता है कि मैंने संकल्प किया है कि मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा। फिर यह आदमी संन्यास नहीं पा सकेगा। अभी इसका संकल्प है। यह तो परमात्मा को भी एक एडीशन बनाना चाहता है अपनी संपत्ति में। इसके पास एक मकान है, दुकान है, इसके पास सर्टिफिकेट्स हैं, बड़ी नौकरी है, बड़ा पद है। यह कहता है कि सब है अपने पास, अपनी मुट्ठी में भगवान भी होना चाहिए! ऐसे नहीं चलेगा। ऐसे नहीं चलेगा, ऐसे सब तरह का फर्नीचर अपने घर में है; यह भगवान नाम का फर्नीचर भी अपने घर में होना चाहिए! ताकि हम मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को दिखा सकें कि पोर्च में देखो, बड़ी कार खड़ी है। घर में मंदिर बनाया है, उसमें भगवान है। सब हमारे पास है। भगवान भी हमारा परिग्रह का एक हिस्सा है।

जो भी संकल्प करेगा, वह भगवान को नहीं पा सकेगा। क्योंकि संकल्प का मतलब ही यह है कि मैं मौजूद हूं। और जहां तक मैं मौजूद है, वहां तक परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है। बूंद कहे कि मैं बूंद रहकर और सागर को पा लेना चाहती हूं, तो आप उससे क्या कहिएगा, कि तुझे गणित का पता नहीं है। बूंद कहे, मैं बूंद रहकर सागर को पा लेना चाहती हूं! बूंद कहे, मैं तो सागर को अपने घर में लाकर रहूंगी! तो सागर हंसता होगा। आप भी हंसेंगे। बूंद नासमझ है। लेकिन जहां आदमी का सवाल है, आपको हंसी नहीं आएगी। आदमी कहता है, मैं तो बचूंगा और परमात्मा को भी पा लूंगा। यह वैसा ही पागलपन है, जैसे बूंद कहे कि मैं तो बचूंगी और सागर को पा लूंगी।

अगर बूंद को सागर को पाना हो, तो बूंद को मिटना पड़ेगा, उसे खुद को खोना पड़ेगा। वह बूंद सागर में गिर जाए, मिट जाए, तो सागर को पा लेगी। और कोई उपाय नहीं है। अन्यथा कोई मार्ग नहीं है। आदमी भी अपने को खो दे, तो परमात्मा को पा ले। बूंद की तरह है, परमात्मा सागर की तरह है। आदमी अपने को बचाए और कहे कि मैं परमात्मा को पा लूं--पागलपन है। बूंद पागल हो गई है। लेकिन बूंद पर हम हंसते हैं, आदमी पर हम हंसते नहीं हैं। जब भी कोई आदमी कहता है, मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा, तो वह आदमी पागल है। वह पागल होने के रास्ते पर चल पड़ा है। मैं ही तो बाधा है।

कबीर ने कहा है कि बहुत खोजा। खोजते-खोजते थक गया; नहीं पाया उसे। और पाया तब, जब खोजते-खोजते खुद खो गया। जिस दिन पाया कि मैं नहीं हूं, अचानक पाया कि वह है। ये दोनों एक साथ नहीं होते। इसलिए कबीर ने कहा, प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय। वह दो नहीं समा सकेंगे वहां। या तो वह या मैं।

संकल्प है मैं का बचाव। वह जो ईगो है, अहंकार है, वह अपने को बचाने के लिए जो योजनाएं करता है, उनका नाम संकल्प है। वह अपने को बचाने के लिए जिन फलों की आकांक्षा करता है, उन आकांक्षाओं को पूरा करने की जो व्यवस्था करता है, उसका नाम संकल्प है।


कृष्ण कहते हैं, लेकिन संकल्प जहां है...।

इसलिए बहुत-से लोगों को--यह मैं आपको इंगित करना उचित समझूंगा--बहुत-से लोगों को यह भ्रांति हुई है कि नीत्शे और कृष्ण के दर्शन में मेल है। क्योंकि नीत्शे भी युद्धवादी है और कृष्ण भी अर्जुन को कहते हैं, युद्ध में तू जा। इससे बड़ी भ्रांति हुई है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दोनों की जीवन की मूल-दृष्टि बहुत अलग है!

कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरा कोई संकल्प न रहे। तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरी कोई कामना न रहे। तू युद्ध में जाने की तभी योग्यता पाएगा, जब तू न रहे। संन्यासी की तरह युद्ध में जा।

कृष्ण का युद्ध धर्मयुद्ध है। बहुत और ही अर्थ है उसका। और जब नीत्शे कहता है कि युद्ध में जा, तो वह कहता है, युद्ध का अर्थ ही है, दूसरे को नष्ट करने की आकांक्षा। युद्ध का अर्थ ही है, स्वयं को सिद्ध करने का प्रयास। युद्ध का अर्थ ही है कि मैं हूं, और तुझे नहीं रहने दूंगा। युद्ध एक संघर्ष है अहंकार की घोषणा का।

 कृष्ण ने अगर अर्जुन को इस युद्ध के लिए कहा कि तू जा युद्ध में, तो युद्ध में जाने के पहले बड़ी शर्तें हैं उनकी। वे शर्तें अर्जुन पूरी करे, तो ही युद्ध की पात्रता आती है। वह शर्तें पूरी कर दे, तो अर्जुन में कुछ भी नहीं रह जाता जो अर्जुन का है, अर्जुन परमात्मा का हाथ बन जाता है। जो भी ये शर्तें पूरी कर देगा, वह परमात्मा का हाथ हो जाता है। वह एक सिर्फ बांस की पोंगरी हो गया, जिसमें गीत प्रभु का होगा अब। वह तो सिर्फ खाली जगह है, जिससे गीत बहेगा--एक पैसेज, एक मार्ग, एक जगह, एक रास्ता। बस, इससे ज्यादा नहीं।

संकल्प सब छोड़ दे कोई। और संकल्प तभी छोड़ेगा, जब इच्छाएं छोड़ दे। इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा, इच्छाएं न हों। तब दूसरे सूत्र में कहते हैं, संकल्प न हों। अगर इच्छाएं होंगी, तो संकल्प तो पैदा होंगे ही। इच्छाएं जहां होंगी, वहां संकल्प भी आरोपित होंगे।

संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा ने आपके अहंकार में जड़ें पकड़ लीं, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को अपना सहयोगी बना लिया, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को  फुसला लिया कि आओ मेरे साथ, चलो मेरे पीछे, मैं तुझे स्वर्ग पहुंचा देती हूं। अहंकार जिस इच्छा के पीछे चलकर स्वर्ग पाने की खोज करने लगा, वही संकल्प है।

इसलिए पहले सूत्र में कहा, इच्छाएं न हों; दूसरे सूत्र में कहा, संकल्प न हों; तब संन्यास है।

तो संन्यास का अर्थ संकल्प नहीं है। संन्यास का अर्थ समर्पण है--समर्पण, सरेंडर।

मंदिर में तो जाकर हम भी परमात्मा के चरणों में सिर रख देते हैं। लेकिन जरा गौर से खोजकर देखेंगे, तो बहुत हैरान होंगे। यह शरीर वाला सिर तो नीचे रखा रहता है, लेकिन असली सिर पीछे खड़ा हुआ देखता रहता है कि मंदिर में और भी कोई देखने वाला है या नहीं! अगर कोई देखने वाला होता है, तो मंत्रोच्चार जोर से होता है। अगर कोई देखने वाला न हो, तो जल्दी निपटाकर आदमी चला जाता है। वह असली अहंकार तो पीछे खड़ा रहता है। वह परमात्मा के चरणों में भी सिर नहीं झुकाता है।

असल में, हमारे जीवन का सारा ढंग सिर झुकाने का नहीं है। जीवन का सारा ढंग सिर को अकड़ाने का है। कभी-कभी झुकाते हैं, मजबूरी में! लेकिन वह अस्थायी उपाय होता है। इसलिए जिस आदमी ने आपसे सिर झुकवा लिया, उसको आपसे सदा सावधान रहना चाहिए। क्योंकि आप कभी इसका बदला चुकाएंगे। जिस आदमी ने कभी आपके सामने सिर झुकाया हो, अब उससे जरा बचकर रहना। आपने एक दुश्मन बना लिया है। वह आपसे बदला लेगा। क्योंकि सिर मन मर्जी से नहीं झुकाता। सिर मन बड़ी बेमर्जी से झुकाता है। और प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए। कब मौका मिल जाए कि मैं भी इस सिर को झुकवा लूं!

जब तक मन है, तब तक सिर नहीं झुक सकेगा। और जहां मन नहीं है, वहां सिर झुका ही हुआ है। वहां खड़ा हुआ सिर भी झुका ही हुआ है।

कृष्ण जब कहते हैं, संकल्प न रहे, तो वे यह कह रहे हैं कि भीतर वह अहंकार न रह जाए, जो क्रिस्टलाइज करता है सब संकल्पों को।

भीतर मैं का स्वर जारी रहता है चौबीस घंटे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मैं न बोलें। न! न बोलने से काम नहीं चलेगा, बोलना तो पड़ेगा ही। लेकिन जब आप बोलते हों कि मैं, तब भी जानें कि भीतर कोई मैं सघन न हो पाए। भीतर कोई मैं मजबूत न हो पाए। मैं यह सिर्फ शब्द में रहे, भाषा में रहे, व्यवहार में रहे, भीतर गहरा न हो पाए। लेकिन हमारी हालत उलटी है। हम अक्सर बाहर से मैं का उपयोग न भी करें, तो भी भीतर मैं मौजूद रहता है!


रास्ते पर आप चले जा रहे हैं। कोई नहीं है, तो आप और ढंग से चलते हैं। फिर दो आदमी रास्ते पर निकल आए, आपका मैं मौजूद हो गया। भीतर कुछ हिला; भीतर कुछ तैयार हो गया। टाई वगैरह उसने ठीक कर ली; कपड़े उसने ठीक किए; चल पड़ा। बाथरूम में आप होते हैं तब? कल खयाल करना। बाथरूम में वही आदमी रहता है, जो बैठकखाने में रहता है? तब आपको पता चलेगा कि बाथरूम में और कोई स्नान करता है; बैठकखाने में और कोई बैठता है! आप ही। आप ही जब बैठकखाने में होते हैं, तो कोई और होते हैं। आप ही जब बाथरूम में होते हैं, तो कोई और होते हैं।

बाथरूम में कोई देख नहीं रहा है, इसलिए मैं को थोड़ी देर के लिए छुट्टी है। अभी इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि मैं का सदा दूसरे के सामने मजा है, दूसरे के सामने लिया गया मजा है। बाथरूम में छुट्टी दे देते हैं। लेकिन बाथरूम में अगर आईना लगा है, तो आपको जरा मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि आईने में देखकर आप दो काम करते हैं। दिखाई पड़ने वाले का भी और देखने वाले का भी। दो हो जाते हैं, दो मौजूद हो जाते हैं आईने के साथ। आईने के सामने खड़े होकर फिर सब बदल जाता है।

सूक्ष्म, भीतर, चौबीस घंटे बोलें, न बोलें, मैं की एक धारा सरक रही है। एक बहुत अंतर्धारा, अंडर करेंट है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। उसके प्रति सजग हो जाएं, तो धीरे-धीरे आप समझ सकते हैं कि वही धारा संकल्पों को पैदा करवाती है। क्योंकि बिना संकल्प के वह धारा एक्चुअलाइज नहीं हो सकती।

ऐसा समझें कि जैसे आकाश में भाप के बादल उड़ रहे हैं। जब तक उनको ठंडक न मिले, तब तक वे पानी न बन सकेंगे, आकाश में उड़ते रहेंगे। ठंडक मिले, तो पानी बन जाएंगे। और ठंडक मिले, तो बर्फ बन जाएंगे।

ठीक हमारे मन में भी अंतर्धारा बड़ी बारीक बहती रहती है, भाप की तरह, अहंकार की। इस भाप की तरह बहने वाली अहंकार की जो बदलियां हमारे भीतर हैं, उनका हमें तब तक मजा नहीं आता, जब तक कि वे प्रकट होकर पानी न बन जाएं। पानी ही नहीं, जब तक वे बर्फ की तरह सख्त, जमकर दिखाई न पड़ने लगें सारी दुनिया को, तब तक हमें मजा नहीं आता।

तो अहंकार ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा बादल पानी बन जाएं। ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा पानी सख्त बर्फ, पत्थर बन जाए; तब लोगों को दिखाई पड़ेगा। तो अगर आप अकेले हैं, तब आपके भीतर अहंकार बादलों की तरह होता है। जब आप दूसरों के साथ हैं, तब पानी की तरह हो जाता है। और अगर आप कुछ धन पाने में समर्थ हो गए, कुछ पद पाने में सफल हो गए, कुछ स्कूल से शिक्षा जुटा ली, कुछ कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा करने में अगर आप सफल हो गए, तो फिर आपका पानी बिलकुल बर्फ, ठोस पत्थर के बर्फ की तरह जम जाता है, फ्रोजन। फिर वह साफ दिखाई पड़ने लगता है। दिखाई ही नहीं पड़ने लगता है, गड़ने लगता है दूसरों को।

और जब तक अहंकार दूसरे को गड़ने न लगे, तब तक आपको मजा नहीं आता। तब तक मजा आ नहीं सकता। जब तक आपका अहंकार दूसरे की छाती में चुभने न लगे, तब तक मजा नहीं आता। मजा तभी आता है, जब दूसरे की छाती में घाव बनाने लगे। और दूसरा कुछ भी न कर पाए, तड़फकर रह जाए, और आपका अहंकार उसकी छाती में घाव बनाए। तब आप बिलकुल विनम्र हो सकते हैं। तब आप कह सकते हैं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। भीतर मजा ले सकते हैं उसकी छाती में चुभने का, और ऊपर से हाथ जोड़कर कह सकते हैं कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, सीधा-सादा आदमी हूं!

यह जो हमारे संकल्पों की, अहंकारों की, वासनाओं की अंतर्धारा है, इस अंतर्धारा को ही विसर्जित कोई करे, तो संन्यास उपलब्ध होता है। इसलिए संन्यास एक विज्ञान है। एक-एक इंच विज्ञान है। संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि आप कहीं अंधेरे में पड़ी कोई चीज है कि बस उठा लिए। संन्यास एक विज्ञान है, एक साइंस है। और आपके पूरे चित्त का रूपांतरण हो, एक-एक इंच आपका चित्त बदले, आधार से बदले शिखर तक, तभी संन्यास फलित होता है।

आधार क्या है? आधार है फल की आकांक्षा। प्रक्रिया क्या है? प्रक्रिया है संकल्प। उपलब्धि क्या है? उपलब्धि है अहंकार। ये तीन शब्द खयाल ले लें: फल की आकांक्षा, संकल्प की प्रक्रिया, अहंकार की सिद्धि। आधार में फल की आकांक्षा, मार्ग में संकल्पों की दौड़, अंत में अहंकार की सिद्धि।

यह हमारा गृहस्थ जीवन का रूप है। जो भी ऐसे जी रहा है, वह गृहस्थ है। जो इन तीन के बीच जी रहा है, वह गृहस्थ है। जो इन तीन के बाहर जीना शुरू कर दे, वह संन्यस्त है।

कहां से शुरू करेंगे? वहीं से शुरू करें, जहां से कृष्ण कहते हैं। फल की आकांक्षा से शुरू करें, क्योंकि वहां लड़ाई सबसे आसान है। क्योंकि अभी बादल है वहां, पानी भी नहीं बना है। बर्फ बन गया, तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर बर्फ को पहले पिघलाओ, पानी बनाओ। फिर पानी को गर्म करो, भाप बनाओ। और तभी भाप से मुक्त हुआ जा सकता है, आकाश में छोड़कर आप भाग सकते हो कि अब छुटकारा हुआ। वहीं से शुरू करें।

बहुत कुछ तो आपके भीतर बर्फ बन चुका होगा। अभी उसके साथ हमला मत बोलें। बहुत कुछ अभी पानी होगा। प्रक्रिया चल रही होगी बर्फ बनने की, अभी उसको भी मत छुएं। अभी तो उन बादलों की तरफ देखें, जिनको आप पानी बना रहे हैं। जिन आकांक्षाओं को अभी आप नए संकल्प दे रहे हैं, उनकी तरफ देखें। उन आकांक्षाओं के प्रति सजग हों और लौटकर पीछे देखें कि इतनी आकांक्षाएं पूरी कीं, पाया क्या? इतने फल पाए, फिर भी निष्फल हैं।

अगर पचास साल की उम्र हो गई, तो लौटकर पीछे देखें कि पचास साल में इतना पाने की कोशिश की, इतना पा भी लिया, फिर भी पहुंचे कहां? पाया क्या? और अगर पचास साल और मिल जाएं, तो भी हम क्या करेंगे? हम वही पुनरुक्त कर रहे हैं। जिसके पास दस रुपए थे, उसने सौ कर लिए हैं। सौ की जगह वह हजार कर लेगा। हजार होंगे, दस हजार कर लेगा। दस हजार होंगे, लाख कर लेगा। लेकिन दस हजार जब कोई सुख न दे पाए! और जब एक रुपया पास में था, तो खयाल था कि दस रुपए भी हो जाएं, तो बहुत सुख आ जाएगा। दस हजार भी कोई सुख न ला पाए, तो दस लाख भी कैसे सुख ला पाएंगे?

लौटकर पीछे देखें। और अपने अतीत को समझकर, अपने भविष्य को पुनः धोखा न देने दें। नहीं तो भविष्य रोज धोखा देता है। भविष्य रोज विश्वास दिलाता है कि नहीं हुआ कल, कोई बात नहीं; कल हो जाएगा। वही उसका सीक्रेट है आपको पकड़े रखने का। कहता है, कोई फिक्र नहीं; हजार रुपए से नहीं हो सका, हजार में कभी होता ही नहीं; लाख में होता है। जब लाख हो जाएंगे, तब यही मन कहेगा, लाख में कभी होता ही नहीं; दस लाख में होता है। यह मन कहे चला जाएगा। इस मन ने कभी भी नहीं छोड़ा कि कहना बंद किया हो। जिनको पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया, उनसे भी इसने नहीं छोड़ा कि तुम तृप्त हो गए हो। उनको भी कहा कि इतने से क्या होगा?

हम गणित को ही नहीं समझते, उसको फैलाए चले जाते हैं। गणित सीधा और साफ है कि फल की दौड़ से सुख का कोई भी संबंध नहीं है। संबंध ही नहीं है। सुख का संबंध है कर्म में रस लेने से। सुख का संबंध फल में रस लेने से जरा भी नहीं है। सच तो यह है कि जिसने फल में लिया रस, मिलेगा उसे दुख।

फल में रस, दुख उसकी निष्पत्ति है। जितना ज्यादा फल में रस लिया, उतना ज्यादा दुख मिलेगा। दो कारण से दुख मिलेगा। अगर फल नहीं मिला, तो दुख मिलेगा। यह दुख मिलेगा कि फल नहीं मिल पाया, मैं हार गया। पराजित, पददलित। अगर मिल गया, तो भी दुख मिलेगा, क्योंकि मिलते ही पता चलेगा कि इतनी मेहनत की, इतना श्रम उठाया और यह मिल भी गया और फिर भी कुछ नहीं मिला!

फल दो तरह से दुख लाता है। हारे हुओं को भी और जीते हुओं को भी। हारे हुओं को कहता है कि फिर कोशिश करो, तो जीत जाओगे। जीते हुओं को कहता है कि किसी और चीज पर कोशिश करो। यह मकान तो बना लिया, ठीक है। एक हवाई जहाज और खरीद लो। क्योंकि हवाई जहाज के बिना कभी किसी को सुख मिला? हवाई जहाज जिसको मिल जाता है, उसे कुछ हुआ नहीं। कुछ और कर डालो।

और कुछ लोग ऐसी जगह पहुंच जाते हैं एक दिन, जहां कुछ करने को नहीं बचता। सब कुछ उनके पास हो जाता है। आज अमेरिका में वैसी हालत हो गई है। कुछ लोग तो उस जगह पहुंच गए हैं, जिनके पास सब है, अतिरिक्त है। तो अमेरिका में जो आज चीजें बेचने वाले लोग हैं, वे मन की तरकीब को जानते हैं। वे क्या कहते हैं? वे लोगों को समझाते हैं कि एक मकान से कहीं सुख मिला? सुख उनको मिलता है, जिनके पास दो मकान हैं। वह एक ही मकान में पति-पत्नी रह रहे हैं कुल जमा, उसमें बीस कमरे हैं। वह उनको समझा रहा है--वह जो जमीन बेचने वाला, मकान बेचने वाला आदमी--कि एक मकान से कहीं सुख मिलता है?

अमेरिका के मकानों का विज्ञापन अखबारों में देखें, तो आपको बहुत हैरानी होगी। अखबारों में विज्ञापन कहते हैं, कहीं एक मकान से सुख मिलता है? एक मकान और चाहिए हिल स्टेशन पर। जिनके पास दो मकान हैं, उनसे कहते हैं कि एक मकान और चाहिए समुद्र तट पर। वह मन की तरकीब का खयाल है कि सुख! मन हमेशा कहता है कि सुख मिल सकता है। या तो तुमने गलत चीज में सोचा था पहले। इसी मन ने समझाया था वह भी। अब यही मन समझाता है कि दूसरी चीज चुनो। या मन कहता है--अगर हार गए, तो वह कहता है--हारने में तो दुख मिलता ही है, और संकल्प करो। और संकल्प करो, तो जीत जाओगे।

मन के इस गणित को समझेंगे आप, तो कृष्ण का महागणित समझ में आ सकेगा। वह संन्यास का है, वह बिलकुल उलटा है। वह यह है कि मन की इस प्रक्रिया में जो उलझा, वह सिवाय दुख के और कहीं भी नहीं पहुंचता है।

सुख है। ऐसा नहीं कि सुख नहीं है। सुख निश्चित है, लेकिन उसकी प्रक्रिया दूसरी है। उसकी प्रक्रिया है कि बर्फ को पानी बनाओ, पानी को भाप बनाओ। भाप से छुटकारा, नमस्कार कर लो। भाप से कहो कि जाओ; यात्रा पर निकल जाओ आकाश की।

अहंकार को संकल्पों में बदलो, संकल्पों को कामनाओं में कामनाओं का छुटकारा कर दो। अहंकार को गलाओ, संकल्प का पानी बनाओ। संकल्प को भी आंच दो, ज्ञान की आंच दो, उसको भाप बन जाने दो। वह बादल बनकर तुमसे हट जाए। उसके बाहर हो जाओ।

और जिस दिन भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में आ जाता है--और कोई भी आ सकता है, क्योंकि सभी उस स्थिति के हकदार हैं। वह कृष्ण कुल अर्जुन से ही कहते हों, ऐसा नहीं है। कोई भी, जिसके जीवन में चिंतना आ गई हो, उसके लिए सिवाय इसके कोई भी मार्ग नहीं है। जिसने सोचा हो जरा भी, उसके लिए सिवाय इसके कोई मार्ग नहीं है।

और अगर आपको अब तक यह पता न चला हो कि इच्छाओं के मार्ग से सुख नहीं आता है, तो आप समझना कि आपने अभी सोचना शुरू नहीं किया। अगर आपको अभी यह खयाल न आया हो कि इच्छाएं दुख लाती हैं, तो आप समझना कि अभी आपके सोचने की शुरुआत नहीं हुई। क्योंकि जो आदमी भी सोचना शुरू करेगा, जीवन की पहली बुनियादी बात उसको यह खयाल में आएगी। यह पहला चरण है सोचने का कि इच्छाएं कभी भी सुख लाती नहीं, दुख में ले जाती हैं। फिर सुख कहां है?

तो दो उपाय हैं। या तो हम समझें कि फिर सुख है ही नहीं; या फिर एक उपाय यह है कि सुख इच्छाओं के अतिरिक्त कहीं हो सकता है। इसके पहले कि हम निर्णय करें कि सुख है ही नहीं, कुछ क्षण इच्छाओं के बिना जीकर देख लें।

ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, सुख है ही नहीं; दुख ही है। जैसे फ्रायड कहेगा, दुख ही है। आप ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकते हैं कि सहने योग्य दुख उठाएं, ज्यादा मत उठाएं। या ऐसा कर सकते हैं कि अपने को इस योग्य बना लें कि सब दुखों को सह सकें। सुख है नहीं। फ्रायड कहता है, कहीं कोई सुख नहीं है। ज्यादा और कम दुख हो सकता है; ज्यादा सहने वाला कम सहने वाला आदमी हो सकता है। लेकिन दुख ही है।

लेकिन फ्रायड का यह वक्तव्य अवैज्ञानिक है। एक तरफ से फ्रायड ठीक कहता है, क्योंकि जितना उसने समझा, सभी इच्छाएं दुख में ले जाती हैं। इसलिए उसका यह वक्तव्य ठीक है कि दुख ही है। लेकिन फ्रायड को उस क्षण का कोई भी पता नहीं है, जो इच्छाओं के बाहर जीया जा सकता है। एक क्षण का भी उसे कोई पता नहीं है, जो इच्छाओं के बाहर जीया जा सकता है।

जिनको पता है, बुद्ध को या कृष्ण को, वे हंसेंगे फ्रायड पर कि तुम जो कहते हो, आधी बात सच कहते हो। इच्छाओं में कोई सुख संभव नहीं है। लेकिन सुख संभव नहीं है, यह मत कहो। क्योंकि इच्छाओं के बिना आदमी संभव है। और इच्छाओं के बिना जो आदमी संभव है, उसके जीवन में सुख की ऐसी वर्षा हो जाती है--कल्पनातीत! स्वप्न भी नहीं देखा था, इतने सुख की वर्षा चारों ओर से हो जाती है। जैसे ही इच्छाएं हटीं, और सुख आया।

अगर इसे मैं ऐसा कहूं, तो शायद आसानी होगी समझने में। सुख और इच्छा में वैसा ही संबंध है, जैसा प्रकाश और अंधेरे में। अगर इसे ठीक से समझना चाहें, तो ऐसा समझें कि सुख के विपरीत दुख नहीं है, सुख के विपरीत इच्छाएं हैं। सुख का जो अपोजिट पोल है, वह दुख नहीं है। सुख का जो विरोधी है, वह इच्छा है। कमरे में दीया जलाया; अंधेरा नहीं रहा। कमरे में दीया बुझाया; अंधेरा भर गया। इच्छाएं भरी हों, अंधेरा भरा है। दीया जलाएं, इच्छाहीन मन को जलाएं, अंधेरा खो जाएगा। अंधेरे में दुख है; इच्छाओं में दुख है।

कृष्ण जिस संन्यास की बात कर रहे हैं, वह कोई उदास, जीवन से हारा हुआ, थका हुआ, आदमी नहीं है। कृष्ण जिस संन्यास की बात कर रहे हैं, वह हंसता हुआ, नाचता हुआ संन्यास है। उस संन्यास के होठों पर बांसुरी है।

वह संन्यास वैसा नहीं है, जैसा हम चारों तरफ देखते हैं संन्यासियों को--उदास, मुर्दा, मरने के पहले मर गए, जैसे अपनी-अपनी कब्र खोदे हुए बैठे हैं! कृष्ण उस संन्यास की बात नहीं कर रहे हैं। बड़े जीवंत, लिविंग, तेजस्वी संन्यास की बात कर रहे हैं; नाचते हुए संन्यास की; जीवन को आलिंगन कर ले, ऐसे संन्यास की। भागता नहीं है, ऐसे संन्यास की। हंसते हुए, आनंदित संन्यास की।

ध्यान रहे, जो आदमी इच्छाओं की कामना को तो नहीं छोड़ेगा, फल की कामना को नहीं छोड़ेगा, सिर्फ जीवन और कर्म के जीवन से भागेगा, वह उदास हो जाएगा। दुखी तो नहीं रहेगा, उदास हो जाएगा। इस फर्क को भी थोड़ा खयाल में ले लेना आपके लिए उपयोगी होगा।

उदास उस आदमी को कहता हूं मैं, जो सुखी तो नहीं है, और दुखी होने का भी उपाय नहीं पा रहा है। उदास वह आदमी है, जो सुखी तो नहीं है, लेकिन दुखी होने का भी उपाय नहीं पा रहा है। अगर उसको दुख भी मिल जाए, तो थोड़ी-सी राहत मिले। बंद हो गया है सब तरफ से। सुख की कोई यात्रा शुरू नहीं हुई, दुख की यात्रा बंद कर दी। हीरे-जवाहरात हाथों में नहीं आए, कंकड़-पत्थर रंगीन थे, खेल-खिलौने थे, उनको सम्हालकर छाती से बैठे थे, उनको भी फेंक दिया। ऐसा आदमी उदास हो जाता है।

कंकड़-पत्थर सम्हाले बैठे हैं आप। भूल-चूक से मैं आपके रास्ते से गुजर आया और आपसे कह दिया, क्या कंकड़-पत्थर रखे हो? अरे, पकड़ना है तो हीरे-जवाहरात पकड़ो! छोड़ो कंकड़-पत्थर। आप मेरी बातों में आ गए, फेंक दिए कंकड़-पत्थर। कंकड़-पत्थर का बोझ तो कम हो जाएगा, उनसे आने वाली दुख-पीड़ा भी कम हो जाएगी। कंकड़-पत्थर चोरी चले जाते, तो जो पीड़ा होती, वह भी नहीं होगी। कंकड़-पत्थर खो जाते, तो जो दर्द होता, वह भी नहीं होगा। कंकड़-पत्थर कोई चुरा न ले जाए, उसकी जो चिंता होती है, वह भी नहीं होगी। रात आसानी से सो जाएंगे। लेकिन खाली हाथ! हीरे जवाहरात, कंकड़-पत्थर फेंकने से नहीं आते। खाली हाथ उदास हो जाएंगे।

जिस चित्त में सुख का आगमन नहीं हुआ और दुख की स्थिति को छोड़कर भाग खड़ा हुआ, वह उदास हो जाता है। उदासी एक निगेटिव स्थिति है। वहां दुख भी नहीं है; और सुख का कोई रास्ता नहीं मिल रहा। और जो भी रास्ता मिलता है, वह फिर दुख की तरफ ले जाता है। तो वहां जाना नहीं है। सुख का कोई रास्ता नहीं मिलता। तो आंख बंद करके अपने को सम्हालकर खड़े रहना है। इस सम्हालकर खड़े रहने में उदासी पैदा होती है। संन्यास जो इतना उदास हो गया, उदासीन, उसका कारण यही है।

कृष्ण नहीं कहेंगे यह; मैं भी नहीं कहूंगा। मैं कहता हूं, कंकड़-पत्थर फेंकने की उतनी फिक्र मत करो। हीरे-जवाहरात मौजूद हैं, उनको देखने की फिक्र करो। जैसे ही वे दिखाई पड़ेंगे, कंकड़-पत्थर हाथ से छूट जाएंगे, छोड़ने नहीं पड़ेंगे। और उनके दिखाई पड़ने पर जीवन में जैसे कि बिजली कौंध गई हो, ऐसे आनंद की लहर दौड़ जाएगी।

संन्यासी अगर आनंदित नहीं है, आह्लादित नहीं है, नाचता हुआ नहीं है, प्रफुल्लित नहीं है, तो संन्यासी नहीं है।

लेकिन वैसा संन्यासी, सिर्फ कृष्ण जो कहते हैं, उस तरह से हो सकता है। कर्म को छोड़ा कि आप उदास हुए; क्योंकि आपके जीवन की जो ऊर्जा है, जो एनर्जी है, वह कहां जाएगी! उसे प्रकट होना चाहिए, उसे अभिव्यक्त होना चाहिए। अगर हम किसी झाड़ पर पाबंदी लगा दें कि तू फूल नहीं खिला सकेगा; बंद रख अपने फूलों को! तो झाड़ बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा, क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा?

ऐसे ही वह आदमी मुश्किल में पड़ जाता है, जो कर्म को छोड़ देता है; जीवन को छोड़कर भाग जाता है। प्रकट होने का उपाय नहीं रह जाता। सब झरने भीतर बंद हो जाते हैं; भीतर ही घूमने लगते हैं; विक्षिप्त करने लगते हैं। चित्त को ग्लानि और उदासी से भर जाते हैं; अनंत अपराधों से भर जाते हैं, पश्चात्तापों से भर जाते हैं। और फिर, फिर वही वासनाएं वापस मन को खींचने लगती हैं, क्योंकि उनका कोई तो अंत नहीं हुआ है।

कृष्ण कहते हैं, कर्म करो पूरा, छोड़ दो फल का खयाल। कर्म को इतनी पूर्णता से करो कि फल के खयाल के लिए जगह भी न रह जाए। और तब एक नए तरह का आनंद भीतर खिलना शुरू हो जाता है। हीरे प्रकट होने लगते हैं; फिर कंकड़-पत्थर अपने आप छूटते चले जाते हैं।

जो भी करें, उसे पूरा। अगर भोजन भी कर रहे हैं, तो इतने आनंद से और इतना पूरा कि भोजन करते वक्त चित्त में और कुछ भी न रह जाए। सुन रहे हैं मुझे, तो इतना पूरा कि सुनते वक्त चित्त में और कुछ भी न रह जाए। बोल रहे हैं, तो इतना पूरा कि बोलना ही मैं हो जाऊं; बोलते वक्त और कुछ भी भीतर न रह जाए।

अगर कर्म इतनी तीव्रता से और पूर्णता से किए जाएं, तो आपका फल अपने आप छूटने लगेगा। फल के लिए जगह न रह जाएगी मन में बैठने की।

कर्महीन क्षणों में ही फल भीतर प्रवेश करता है। निष्क्रिय क्षणों में ही फल भीतर घुसता है। और आकांक्षाएं मन को पकड़ती हैं और हम कल का सोचने लगते हैं कि कल क्या करें? जिसके पास अभी करने को कुछ नहीं होता, जिसकी शक्ति अभी में पूरी नहीं डूब पाती, उसकी शक्ति कल की योजना बनाने लगती है। आज और अभी और इस क्षण में अपनी पूरी शक्ति को जो लगा दे, फल को प्रवेश करने का मौका नहीं रह जाता।

और एक बार पूरे कर्म का आनंद आ जाए, तो फल आपसे हाथ भी जोड़े कि मुझे भीतर आ जाने दो, तो भी आप उसे भीतर नहीं आने देंगे। आप उससे कहेंगे, बात समाप्त। वह नाता टूट गया। पहचान लिया मैंने कि तुम आते हो सुख की आशा लेकर; दे जाते हो दुख! तुम्हारा चेहरा, जब तुम दूर होते हो, तो मालूम पड़ता है सुख है; और जब तुम छाती से लग जाते हो, तब पता चलता है दुख है। तुम धोखेबाज हो। फल की आकांक्षा धोखेबाज है, प्रवंचना है।

ये तीन बातें--फल की आकांक्षा, संकल्प की प्रक्रिया, अहंकार का सघन होना--ये तीन गृहस्थी की व्यवस्थाएं हैं। इन तीन के जो बाहर है, वह संन्यस्त है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...