बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 6 भाग 30

 तंत्र और योग 



असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।36 ।।


मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थात प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है, यह मेरा मत है।


कृष्ण ने दोत्तीन बातें इस सूत्र में कही हैं, जो समझने जैसी हैं।

एक, मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग की उपलब्धि अति कठिन है; असंभव नहीं कहा। बहुत मुश्किल है; असंभव नहीं कहा। नहीं ही होगी, ऐसा नहीं कहा। होनी अति कठिन है, ऐसा कहा है। तो एक तो इस बात को समझ लेना जरूरी है।

दूसरी बात कृष्ण ने कही, मन को वश में कर लेने वाले के लिए सरल है, सहज है उपलब्धि योग की

और तीसरी बात कही, ऐसा मेरा मत है। ऐसा नहीं कहा, ऐसा सत्य है। ऐसा कहा ऐसा मेरा मत है। ये तीन बातें इस श्लोक में खयाल ले लेने जैसी हैं।

पहली बात तो यह, जो बहुत अजीब मालूम पड़ेगी कि कृष्ण ऐसा कहें। कहना था कि मन को जो वश में नहीं करता, उसके लिए योग की उपलब्धि असंभव है, नहीं होगी। लेकिन कृष्ण कहते हैं, कठिन है, असंभव नहीं। इसका अर्थ? इसका अर्थ यह हुआ कि कठिन हो, लेकिन किसी स्थिति में, किसी व्यक्ति के लिए, मन को वश में बिना किए भी उपलब्धि संभव हो सकती है। कठिन है, लेकिन संभव हो सकती है। अति कठिन है, लेकिन फिर भी हो सकती है।

मन को वश में करने वाला कैसे उपलब्धि को प्राप्त होता है, उसकी हमने बात की। अब थोड़ा हम उस थोड़े-से अल्पवर्ग के संबंध में बात कर लें, जिसकी वजह से कृष्ण असंभव न कह सके।

बहुत ही छोटा वर्ग है। कभी करोड़ में एकाध आदमी ऐसा होता है, जो मन को बिना वश में किए योग को उपलब्ध हो जाता है। बहुत करीब-करीब न घटने वाली घटना है; लेकिन घटती है। खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं।

इसलिए कृष्ण ने जानकर कहा है यह, बहुत समझकर कहा है। खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं। क्योंकि अर्जुन जरूर ही पूछ लेता कि हे मधुसूदन, आपको कभी आसन लगाए नहीं देखा! आपको कभी प्राणायाम करते नहीं देखा। आपको कभी प्रभु-स्मरण करते नहीं देखा। आपको किसी तपश्चर्या में से गुजरते नहीं देखा। जिस योग-साधना की आप बात कर रहे हैं, जिस अभ्यास की आप बात कर रहे हैं, वह कभी आपके आस-पास दिखाई नहीं पड़ा। और जिस वैराग्य की आप बात कर रहे हैं, उसका तो आपके आस-पास कोई भी अंदाज नहीं मिलता, अनुमान नहीं लगता। मोर पंख बांधकर, बांसुरी बजाकर आप नाचते हैं। सुंदरतम बृज की गोपियां आपके चारों तरफ रास करती हैं। वैराग्य कहीं दिखाई नहीं पड़ता, मधुसूदन!

अर्जुन निश्चित ही ऐसा पूछता। लेकिन अर्जुन को पूछने का उपाय कृष्ण ने नहीं छोड़ा। इसलिए अर्जुन ने नहीं पूछा। क्योंकि कृष्ण ने कहा, बहुत कठिन है अर्जुन, असंभव नहीं है।

तो उस थोड़े-से वर्ग, जिसमें कृष्ण भी आते हैं और कभी एकाध-दो आदमी आ पाते हैं सदियों में, उस छोटे-से वर्ग की भी हम बात कर लें, क्योंकि उसका भी खतरा बड़ा है। क्योंकि जो उस वर्ग में नहीं आता, वह अगर सोच ले कि यह होगा कठिन, लेकिन हम कठिन मार्ग से ही जाएंगे, तो बहुत डर यह है कि वह कभी नहीं पहुंचेगा, भटकेगा, व्यर्थ समय और जीवन को कर लेगा।

ऐसा हुआ इस देश में। इस देश ने बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। तंत्र उन प्रयोगों में से है, जो उनके लिए है वस्तुतः, जो मन को वश में न करें। इसलिए तंत्र जब इसोटेरिक था, कुछ थोड़े-से लोग उस पर प्रयोग करते थे, तब वह बड़ी अदभुत प्रक्रिया थी। लेकिन और लोगों को भी लगा कि यह तो बहुत अच्छा है। मन को वश में भी न करना पड़े और योग उपलब्ध हो जाए!

तंत्र के तो सभी सूत्र उलटे हैं।

यह जो थोड़ी-सी जगह छोड़ी है कृष्ण ने, वह तंत्र के लिए छोड़ी है। उसकी बात करनी उन्होंने उचित नहीं समझी है, क्योंकि उसकी बात करनी सदा ही खतरे से भरी है। क्योंकि हम सबका मन ऐसा होगा कि अपने को अपवाद मान लें। और हम सबका मन ऐसा होगा कि जब मन को बिना वश में किए हो सकता है, तो होगा लंबा मार्ग, लेकिन यही ज्यादा आनंदपूर्ण रहेगा। मन को वश में भी न करेंगे और पहुंच भी जाएंगे योग को। दूसरे न पहुंचते होंगे, हम तो पहुंच ही जाएंगे!

इसलिए तंत्र जब व्यापक फैला, तो अति कठिनाई उसने पैदा की। हजारों लोग यह सोचकर कि ठीक है, क्योंकि तंत्र कहता है...। तंत्र के पंच मकार प्रसिद्ध हैं। वह कहता है, पांच म का जो सेवन करेगा--सेवन, त्याग नहीं--वही योग को उपलब्ध होगा। मदिरा का त्याग नहीं, सेवन। मैथुन का त्याग नहीं, सेवन। मांस का त्याग नहीं, सेवन। जो उसको भोगेगा, वही योग को उपलब्ध होगा। यह बहुत ही छोटा-सा अल्पवर्ग है, जिसके लिए यह बात बिलकुल सही है।

और ध्यान रहे, वह अल्पवर्ग अति कठिन मार्ग से गुजरता है। दिखता सरल पड़ता है कि शराब पीने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है! शराबी सड़कों पर पीकर रास्तों पर पड़े हैं। शराब पीने से ज्यादा सरल क्या होगा? लेकिन तंत्र की प्रक्रिया बहुत कठिन है, अति दूभर है।

तंत्र कहता है, शराब पीना, लेकिन बेहोश मत होना। यह साधना है। शराब पीए जाना और बेहोश होना मत। अगर बेहोश हो गए, तो साधना का सूत्र टूट गया। तो शराब पीना और बेहोश मत होना, शराब पीना और होश को कायम रखना।

हम तो होश बिना शराब पीए कायम नहीं रख पाते। शराब पीकर कायम रख पाएंगे? बिना ही पीए पीए-सी हालत रहती है दिन-रात! जरा में होश खो जाता है। तंत्र कहता है, शराब पीना, उसकी मनाही नहीं है। लेकिन होश कायम रखना।

तो तंत्र की अपनी विधि है, कि जब शराब पीयो, कितनी मात्रा में पीयो, कहां रुक जाओ; होश को कायम रखो। फिर धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाते जाओ। वर्षों की लंबी यात्रा में वह घड़ी आती है कि कितनी ही शराब कोई पी जाए, होश कायम रहता है। फिर तो तंत्र को यहां तक करना पड़ा कि कोई शराब काम नहीं करती, तो सांप पालने पड़ते थे। अभी भी आसाम में कुछ तांत्रिक सांप पालते हैं और जीभ पर सांप से कटाएंगे। और साधना की आखिरी कसौटी यह होगी कि सांप काट ले, और होश कायम रहे।

है प्रक्रिया अदभुत, पर बड़ी दूभर है। शराब छोड़ने को तंत्र नहीं कहता। तंत्र बहुत साहसियों का मार्ग है। वे कहते हैं, हम छोड़ेंगे नहीं। अगर कीचड़ में से कमल हो सकता है, तो हम शराब में से होश पैदा करेंगे। और बेहोशी में अगर होश न रह सका, तो होश की कीमत कितनी है! और अगर शराब पीकर सारी बुद्धि नष्ट हो जाए, तो ऐसी बुद्धि को बचाने में भी कितना सार है!

तंत्र कहता है, मैथुन का हम त्याग न करेंगे; ब्रह्मचर्य हम न साधेंगे। हम तो मैथुन में प्रवेश करेंगे, और वीर्य को अस्खलित रखेंगे।

बहुत कठिन है मामला। पर तंत्र ने इसके प्रयोग किए। पर इसोटेरिक थे, गुप्त थे। साधारणतः वे समूह में नहीं किए जा सकते थे। पर धीरे-धीरे खबर तो फैलनी शुरू हुई। और उनको भी पता चल गया, जो शराब पीकर नालियों में पड़े रहते थे। उन्होंने सोचा कि हम भी तंत्र की साधना क्यों न करें? यह तो बहुत ही उचित है। फिर कोई यह भी नहीं कह सकता कि शराब पीना पाप है। फिर तो शराब पीना पुण्य हो गया।

तो नाली में शराब पीकर जो पड़ा था, उसने जब शराब पीकर तंत्र की साधना शुरू की, तो मंदिर में नहीं पहुंचा, वह और नाली में, और नाली में चला गया। और मैथुन तो सारा जगत कर रहा है। तंत्र ने जब कहा कि मैथुन में ही उपलब्धि हो जाएगी परमात्मा की, कहीं भागने की जरूरत नहीं, त्यागने की जरूरत नहीं। तो लोगों ने कहा, फिर ठीक ही है। कहीं कुछ करने की जरूरत नहीं। मैथुन तो हम कर ही रहे हैं। लेकिन तंत्र की शर्त है।

एक घटना मुझे याद आती है। एक तांत्रिक के पास एक त्यागी साधु गया। वहां बड़ी-बड़ी मटकियों में भरी हुई शराब रखी थी और एक युवा तांत्रिक बैठकर ध्यान कर रहा था। साधु बहुत घबड़ाया। शराब की बास चारों तरफ थी। उस साधु ने कहा कि मटके-मटके भरकर शराब कौन पीता है यहां? उस तांत्रिक गुरु ने कहा कि यह जो युवक बैठा है, इसके लिए रखी है। एक मटका तो यह एक ही गटक में पी जाता है, एक सांस में। उस आदमी ने कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता। फिर इसकी हालत क्या होती है? उसके गुरु ने कहा कि हालत वही रहती है, जो थी। शराब अछूती गुजर जाती है। आर-पार निकल जाती है, बीच में नहीं पहुंचती है, केंद्र को नहीं छूती है। उसने कहा, मैं मानूंगा नहीं, मैं देखना चाहूंगा। एक सांस में पानी की एक मटकी पीना मुश्किल है, और शराब...!

उस तांत्रिक गुरु ने युवक को कहा कि एक मटकी शराब पी जा। उसने कहा कि एक मिनट का मुझे मौका दें, मैं अभी आया। गुरु थोड़ा हैरान हुआ कि एक मिनट का मौका उसने क्यों मांगा? एक मिनट बाद वह आया और एक मटकी उठाकर पी गया। वह साधु भी चकित हुआ। एक सांस में!

साधु के जाने पर गुरु ने उससे पूछा कि एक मिनट का समय तूने क्यों मांगा था? उसने कहा कि मैंने कभी एक दफे में पीया नहीं था, तो मैं अंदर जाकर अभ्यास करके आया, एक मटकी अंदर पीकर, कि मैं पी पाऊंगा कि नहीं पी पाऊंगा। कभी मैंने एकदम से ऐसा किया नहीं था, इसलिए जरा अभ्यास के लिए अंदर गया। एक मटकी पीकर देखी, कि ठीक है; हो जाएगा।

यह जो वर्ग था साधकों का, यह बहुत कठिन वर्ग है। मैथुन हो, स्खलन नहीं। और मैथुन की यात्रा पर आदमी निकलता ही इसलिए है कि स्खलन हो। तो आप यह मत सोचना कि तंत्र मैथुन के पक्ष में है। तंत्र तो मैथुन के अतिक्रमण की बात है।

मैथुन के लिए जाता ही आदमी इसलिए है कि स्खलन हो। जो बोझ उसके चित्त पर और शरीर पर है, वह फिंक जाए। और तंत्र कहता है, मैथुन सही, स्खलन नहीं। और अगर कोई व्यक्ति मैथुन की स्थिति में अस्खलन को उपलब्ध हो जाए, तो इससे बड़ा ब्रह्मचर्य और क्या होगा? उन ब्रह्मचारियों से, जो कि स्त्री को देखने में डरते हैं, इस आदमी के ब्रह्मचर्य की बात ही और है।

मगर यह मार्ग है अति संकीर्ण, इसलिए कृष्ण ने उसकी सिर्फ निगेटिव खबर देकर सूत्र छोड़ दिया।

कुछ लोग हैं, जो मन को बिना किसी तरह वश में किए, मन को पूरी छूट दे देते हैं। पूरी छूट! मन से कहते हैं, जो तुझे करना है कर, लेकिन उस करने में वे पार खड़े हो जाते हैं। मन को नहीं रोकते, लगाम नहीं पकड़ते मन की। घोड़ों को कह देते हैं, दौड़ो, जहां दौड़ना है। लेकिन दौड़ते हुए घोड़ों में, भागते हुए रथ में, गङ्ढों में, खाई में, खड्ड में, वह जो ऊपर रथ पर बैठा है वह, वह अकंप बैठा रहता है।

तंत्र कहता है कि लगाम सम्हालकर और आप अकंप बैठे रहे, तो कुछ मजा नहीं है। छोड़ दो लगाम; घोड़ों को दौड़ने दो; रथ को खड्डों में, खाइयों में गिरने दो; और तुम अकंप रथ पर बैठे रहो, तो ही असली मालकियत है।

पर वह मालकियत बहुत थोड़े-से लोगों का मार्ग है। भूलकर आप लगाम छोड़कर मत बैठ जाना, नहीं तो पहले ही गङ्ढे में प्राणांत हो जाएगा! दूसरे संतुलन के लिए नहीं बचेंगे आप।

इसलिए कृष्ण ने असंभव नहीं कहा। असंभव नहीं है, कृष्ण भलीभांति जानते हैं। और कृष्ण से बेहतर कोई भी नहीं जानता। यह असंभव नहीं है, बिलकुल संभव है। लेकिन बहुत ही थोड़े-से लोगों के लिए है, अत्यल्प, न के बराबर; उन्हें गिनती के बाहर छोड़ा जा सकता है। और उनकी गिनती करनी ठीक भी नहीं है, क्योंकि गिनती करने का कोई फायदा नहीं है। अपवाद को बाहर छोड़ा जा सकता है।

नियम की बात कर रहे हैं वे अर्जुन से। और अर्जुन उन लोगों में से नहीं है, जो कि तंत्र के मार्ग पर जा सके। इसीलिए कहा, दुष्प्राप्य है। बड़ी कठिनाई से मिलने वाला है; मिल सकता है। यह वैज्ञानिक चिंतक का लक्षण है। वैज्ञानिक चिंतक अल्प भी शेष हो कुछ मार्ग की सुविधा, उसे छोड़कर चलता है। उसे छोड़कर चलता है।

दूसरी बात कृष्ण ने कही, सरल है उसके लिए, जो मन को वश में कर ले। कठिन है उसके लिए, जो मन को बिना वश में किए यात्रा करे। सरल है उसके लिए, जो मन को वश में कर ले।

सरल इसलिए है मन को वश में कर लेने के बाद, कि मन ही व्यवधान डालता है। वह व्यवधान डालने वाला अब आपके काबू में है। आप सरलता से उसका अतिक्रमण कर सकते हैं, बाधाएं आपके काबू में हैं।

करीब-करीब ऐसा समझें कि कोई चाहे तो मकान की सीढ़ियों से नीचे उतर सकता है, कोई चाहे तो छलांग भी लगाकर मकान से नीचे उतर सकता है। छलांग लगाने में खतरा है। हाथ-पैर टूट जाने का खतरा है। जब तक कि हाथ-पैरों की ऐसी कुशलता न हो, जैसी कि होती नहीं है, हाथ-पैर टूटने को सदा तैयार रहते हैं। और जब आप मकान पर से कूदते हैं और आपके हाथ-पैर टूटते हैं, तो न तो मकान की लंबाई तुड़वाती है हाथ-पैर, न जमीन तुड़वाती है; आपके ही हाथ-पैर का ढंग हाथ-पैर को तुड़वा देता है।


इसलिए बच्चे इतने गिरते हैं और चोट नहीं खाते। आप जरा बच्चों की तरह गिरकर देखें, तब आपको पता चलेगा। एक दफे गिर गए, तो फैसला हुआ! और बच्चा दिनभर गिर रहा है और उठकर फिर चल पड़ा है। बात क्या है? बच्चे के पास सीक्रेट क्या है?

सीक्रेट इतना ही है कि जब वह गिरता है, तब शरीर को इस बात का कोई पक्का पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं, सम्हल जाएं। सम्हलता नहीं, इसलिए चोट नहीं खाता है। सम्हलेगा, तो चोट खा जाएगा। सम्हलने में ही चोट खा जाता है आदमी।

मकान से उतरना हो, तो सीढ़ियां ही ठीक हैं। सम्हलता है जो आदमी, उसको सीढ़ियां ही ठीक हैं। क्योंकि सीढ़ियों पर सम्हलकर उतर सकते हैं। सम्हलकर छलांग लगाई तो खतरा है।

छलांग तो वह लगा सकता है, जो गैर-सम्हले लगाता है। जो गिरता हो मकान से जमीन की तरफ, लेकिन इतना भी न अकड़े कि गिर रहा हूं। शरीर पर जिसके पता ही न चले। जो ऐसा ही गिरे मकान से, जैसा छत पर खड़ा था, ठीक वैसा ही गिरे, जरा फर्क न पड़े। शराब पी जाए, और वैसा ही रहे, जैसा शराब पीने के पहले था। मैथुन कर जाए, और चित्त वैसा ही रहे, जैसा मैथुन करने के पहले था। क्रोध कर जाए, और क्रोध के बीच वैसा ही रहे, जैसा क्रोध करने के पहले था। जरा अंतर न पड़े। तो फिर वह जो छोटा-सा संकीर्ण मार्ग है, यात्रा की जा सकती है।


कभी आपने खयाल किया है कि सीढ़ियों पर भी आप छलांग ही लगाते हैं, उतरते नहीं हैं। उतर तो कोई सकता ही नहीं। चाहे पूरे मकान की छलांग लगाएं, चाहे सीढ़ी पर। सीढ़ी पर कोई आप उतर सकते हैं? एक सीढ़ी से दूसरी पर छलांग लगाते हैं। एक आदमी एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर लगाता है। बड़ी सीढ़ी है, और कोई फर्क नहीं है। लेकिन छोटी सीढ़ी होने की वजह से आपको अड़चन नहीं आती, आप सम्हलकर उतर आते हैं। इतना ही फर्क पड़ता है।

मन को वश में करना सीढ़ियों वाला मार्ग है। और मन को निरंकुश छोड़कर छलांग लगा जाना गैर-सीढ़ियों वाला मार्ग है।


बिना गुरु के वही आदमी चल सकता है, जो छलांग लगा सकता हो। क्योंकि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। हम न कोई मार्ग पूछ रहे हैं, न हम कोई सीढ़ियां पूछ रहे हैं। सीढ़ियां और मार्ग पूछने का मतलब यह है कि कुशलता से, बिना तकलीफ के, बिना अड़चन के, सरलता से, बिना किसी झंझट के, बिना किसी उपद्रव में पड़े, बिना किसी खतरे में पड़े, मैं कैसे निकल जाऊं? गुरु ढूंढ़ने का यही मतलब है।

इसलिए छलांग लगाने वाले के लिए मार्ग बताने की कोई जरूरत नहीं है। जो छलांग लगाने वाला है, वह लगा जाता है।

यही तो झंझट होती है। कृष्णमूर्ति के पास लोग जाते हैं और पूछते हैं? और कृष्णमूर्ति कहते हैं। मत पूछो, कैसे!

नहीं, कृष्णमूर्ति को पता नहीं है कि जो पूछता नहीं है कैसे, वह आएगा काहे के लिए आपके पास! वह जो आया है, वह कैसे पूछने वाला ही है। असल में कैसे पूछने के लिए ही तो कोई आता है। नहीं तो आने की कोई जरूरत नहीं। आप जहां हैं, वहीं से छलांग लगा जाएं, पूछने की जरूरत क्या है, किस दिशा में लगाएं? कैसे लगाएं? जिसने पूछा, किस दिशा में, कैसे, किस विधि से, वह आदमी सीढ़ियां उतरेगा।

मन को वश में करना सीढ़ियों वाला उपाय है। एक-एक कदम उठाया जा सकता है। धीरे-धीरे अभ्यास किया जा सकता है। छलांग लगाने वाला मामला बहुत उलटा है। कभी-कभी कोई आदमी छलांग लगा पाता है।





कृष्ण इसलिए उस छोटे-से हिस्से में छोड़ देते हैं, दुष्प्राप्य कहते हैं, असंभव नहीं कहते हैं। सरल कहते हैं उसको, जिसने मन को वश में किया, क्योंकि मन को इंच-इंच वश में किया जा सकता है। अगर हजार घोड़े हैं आपके मन के रथ में, तो आप एक-एक घोड़े को धीरे-धीरे लगाम पहना सकते हैं। एक-एक घोड़े को धीरे-धीरे ट्रेन कर सकते हैं, प्रशिक्षित कर सकते हैं। और एक दिन ऐसा आ सकता है कि रथ ऐसा चलने लगे कि आप समता को उपलब्ध हो जाएं।

विपरीत के बीच समता को उपलब्ध होना कठिन है, सानुकूल के बीच समता को उपलब्ध होना आसान है। अनुकूल के बीच समता को उपलब्ध होना आसान है, प्रतिकूल के बीच समता को उपलब्ध होना अति कठिन है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मन को वश में करके, अनुकूल स्थिति बनाकर, शांत हो जाना सरल है।

अगर चारों तरफ हरियाली भरे वृक्ष हों, पक्षियों के मधुर गीत हों, सुबह की ताजी हवा हो, सूरज का उठता हुआ, जागता हुआ नया रूप हो, तो उसके बीच बैठकर ध्यान करना आसान है। बाजार हो, चारों तरफ उपद्रव चल रहा हो, आग लगी हो, उसके बीच बैठकर, प्रतिकूल के बीच ध्यान में उतरना कठिन है।

लेकिन असंभव नहीं है। ऐसे लोग हैं, जो मकान में आग लगी हो, और ध्यान में उतर सकते हैं। ऐसे लोग हैं, जो बीच बाजार में बैठकर ध्यान में उतर सकते हैं।

कृष्ण उन लोगों में से ही हैं। नहीं तो कृष्ण युद्ध के मैदान पर जाने को राजी न होते। राजी हो जाते हैं, क्योंकि कोई अड़चन नहीं है। वहां भी चित्त वैसा ही रहेगा। युद्ध होगा, लाशें पट जाएंगी, खून की धाराएं बहेंगी--चित्त वैसा ही रहेगा। इसीलिए तो वे अर्जुन को कह पाते हैं कि अर्जुन, तू बेफिक्री से काट, कोई कटता ही नहीं। बस, तू एक खयाल छोड़ दे कि तू काटने वाला है, बस। कटने वाला कोई भी नहीं है यहां। तेरी भ्रांति भर तू छोड़ दे कि मैं किसी को मार डालूंगा, कि कोई मेरे द्वारा मार डाला जाएगा, कि मेरे द्वारा किसी को दुख पहुंच जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, दुख सदा अपने ही द्वारा पहुंचता है, किसी और के द्वारा नहीं। तू भर यह खयाल छोड़ दे कि तेरे द्वारा! अन्यथा तेरा यह खयाल तुझे दुख पहुंचा जाएगा, और कुछ नहीं होगा। सब अपने ही कारण से मरते हैं, निमित्त कुछ भी बन जाए। तू निमित्त से ज्यादा नहीं होगा, कर्ता नहीं होगा। इसलिए तू मारने-काटने की फिक्र छोड़ दे। और फिर कौन कब कटता है! शरीर ही कटता है। वह जो भीतर है, अनकटा रह जाता है। उसे तो शस्त्र भी नहीं छेद पाते; उसे तो कोई काट नहीं पाता। आग जला नहीं पाती, पानी डुबा नहीं पाता।

यह जो कृष्ण ऐसा कह सकते हैं, ऐसा जानते हैं इसलिए। इसलिए युद्ध के मैदान पर खड़े हो सके हैं। ये वे थोड़े-से जो लोग हैं करोड़ों में, उनमें से एक आदमी युद्ध के मैदान पर खड़ा हो सकता है। नहीं तो अहिंसावादी भागेगा युद्ध के मैदान से। सिर्फ वही अहिंसावादी युद्ध के मैदान पर भी खड़ा होकर अहिंसक हो सकता है, जिसने मन को वश में करने की विधि से पार नहीं पाया, मन को स्वच्छंद छोड़कर पाया है। जिसने मन को वश में किया है, वह अहिंसावादी युद्ध से दूर भागेगा। वह कहेगा, कहीं कोई मेरी लगाम टूट जाए! युद्ध का उपद्रव, कोई घोड़ा छूट जाए! कोई झंझट हो जाए! तो मेरी सारी व्यवस्था बनी बनाई, कभी भी विशृंखल हो सकती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सरल है। और सरल से ही जाना उचित है। सरल का अर्थ ही यही है कि जो अधिकतम लोगों के लिए सुगम पड़ेगा, अनुकूल पड़ेगा, स्वभाव के साथ पड़ेगा। सहज है।

लेकिन तीसरी बात, और महत्वपूर्ण, कृष्ण कहते हैं, यह मेरा मत है। ऐसा कहने की क्या जरूरत है कृष्ण को कि यह मेरा मत है? कह सकते थे, यह सत्य है। सत्य और मत का थोड़ा फर्क समझ लें।

ट्रुथ का मतलब होता है, ऐसा है, मैं कहूं या न कहूं। कोई जाने न जाने; कोई माने न माने--ऐसा है। मत का अर्थ होता है, जैसा है, उसके बाबत मेरा विचार, ओपीनियन अबाउट दि ट्रुथ, सत्य के संबंध में मेरा विचार। सत्य नहीं, मेरा विचार। विचार में भूल-चूक हो सकती है। विचार में कमी भी हो सकती है। विचार में अभिव्यक्ति-दोष भी हो सकता है। विचार में भाषा के कारण, जो कहा गया, वह अन्यथा भी समझा जा सकता है। शब्द बोलते ही आपके हाथ में चला जाता है। मैंने शब्द बोला, तो आपके हाथ में चला जाता है। व्याख्या आप करेंगे।

इसलिए कृष्ण बहुत ही ठीक बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, यह मेरा मत है अर्जुन। मत का अर्थ है कि जैसे ही सत्य को शब्द दिया गया, वह मत हो जाता है, सत्य नहीं रह जाता। सत्य जब निःशब्द होता है, तभी सत्य होता है।

इसलिए जो लोग शब्दों में सत्य का आग्रह करते हैं, उनको सत्य का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में जो सत्य का आग्रह करता है, उसे सत्य का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में ज्यादा से ज्यादा, बस मत की बात कही जा सकती है, कि मेरा ओपीनियन है अर्जुन।

फर्क है बहुत। अगर कहें कि सत्य है यह, तो मानने का आग्रह वजनी हो जाता है। मत है यह, तो मानो न मानो, स्वतंत्रता कायम रहती है। सत्य को तो मानना ही पड़ेगा। मत को अस्वीकार भी किया जा सकता है।

फिर और भी कारण हैं। जैसे ही सत्य को हम प्रकट करते हैं, वह मत हो जाता है। इसलिए सभी शास्त्र मत हैं, ओपीनियन का संग्रह हैं। कोई शास्त्र सत्य का संग्रह नहीं है, न हो सकता है।

काश, दुनिया के सभी धर्म यह समझ पाएं कि उनका जो शास्त्र है, वह एक मत है, सत्य नहीं है, तो झगड़ा न हो। क्योंकि सत्य के संबंध में हजार मत हो सकते हैं। हजार सत्य नहीं हो सकते। लेकिन चूंकि प्रत्येक शास्त्र दावा करता है सत्य का, इसलिए दो सत्यों में--दो सत्य कैसे मानें--कलह खड़ी हो जाती है।

मत है! अर्जुन को कहा गया कृष्ण का यह वक्तव्य बड़ा कीमती है, यह मेरा मत है। कृष्ण जैसा आदमी कहे कि यह मेरा मत है, अदभुत है। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी सहज ही कह पाता है, यह सत्य है। बिना फिक्र किए, बिना सोचे-समझे उससे निकलता है, यह सत्य है, क्योंकि वह सत्य को जानता है। यह बहुत कंसीडर्ड वक्तव्य है, बहुत सोचकर कहा गया कि यह मत है अर्जुन। इसको तुम ऐसा मत समझ लेना कि यही सत्य है। अन्यथा शब्दों पर गांठ बन जाएगी और शब्दों की व्याख्या तुम करोगे।

अगर मत है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि सत्य तुम्हें पाना पड़ेगा, इस मत से सत्य नहीं मिलेगा। मत से सिर्फ सूचना मिलती है कि मुझे सत्य मिला। अगर तुम्हें भी सत्य पाना है, तो तुम्हें भी चेष्टा और श्रम और अभ्यास और साधना करनी पड़ेगी, तब तुम सत्य पाओगे। अगर मैं कहूं कि जो मैं कह रहा हूं, यही सत्य है, तो आपको शब्द से ही सत्य मिल गया। अब साधना की और क्या जरूरत रह गई है! साधना की सुविधा बनी रहे। अर्जुन को पता रहे कि सत्य अभी पाना है। जो मिला है, वह मत है। भगवान भी बोले, तो जो मिलेगा, वह मत होगा, सत्य नहीं होगा। साधना के लिए उपाय शेष रहेगा ही।

फिर साथ में यह भी जरूरी है समझ लेना कि मत को विचारा जा सकता है। इसलिए जब तक जो आदमी विचार में पड़ा है, उससे मत की ही बात की जा सकती है, सत्य की बात नहीं की जा सकती है। क्योंकि वह इस पर सोचेगा। अर्जुन जो सुनेगा, उस पर सोचेगा भी, उसका अर्थ भी निकालेगा, व्याख्या भी करेगा। और अर्थ और व्याख्याएं! अर्थ और व्याख्याएं हमारी होती हैं।

जब अर्जुन अर्थ निकालेगा, तो वह कृष्ण का नहीं होगा, वह अर्जुन का होगा। हां, अगर अर्जुन इस हालत में आ जाए कि सोचना छोड़ दे, व्याख्या करना छोड़ दे, अर्थ निकालना छोड़ दे, सिर्फ सुन सके; इतना शून्य और खाली हो जाए कि अपने मन को विदा कर दे--तो फिर मत सत्य की तरह प्रवेश कर सकता है। लेकिन ऐसा अति कठिन है। ऐसा अति कठिन है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह मत है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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