शुक्रवार, 2 जून 2023

 वे कितना चाहती हैं कि सामाजिक तथा प्रशासनिक कामों में राम का हाथ बंटाएं; पर अभी तक राम की व्यक्तिगत देखभाल के साथ स्त्रियों तथा बच्चों के कल्याण संबंधी कुछ हल्के कामों के अतिरिक्त वे कुछ नहीं कर पायी हैं। इस परिवार का ही नहीं, सारे समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है, कि नारी कहीं शोभा की वस्तु है, कहीं भोग की । कहीं वह अत्यन्त शोषित है, कहीं परजीवी । अमरबेल होकर रह गई है नारी; जो अपने पति के माध्यम से समाज का रस खींचती है। समाज से उसका सीधा कोई संबंध ही नहीं है । घर की व्यवस्था में तो फिर भी उसका स्थान है, सामाजिक उत्पादन में वह एकदम निष्प्रयोजन वस्तु है । निर्धन किसान की पत्नी उसके साथ खेत पर जाकर उसका हाथ बंटाती है, श्रमिक की पत्नी पति के साथ या स्वतंत्र रूप से श्रम करती है; किंतु धनी वर्ग की स्त्रियां मात्र जोंकें हैं। चूसने के लिए उन्हें रक्त चाहिए। उनकी सामाजिक उपयोगिता पूरी तरह शून्य है और उनकी आवश्यकताएं आसमान को छू रही हैं। उन्हें भड़कीले वस्त्र चाहिए, चमकीले आभूषण चाहिए; प्रसाधन के लिए चंदन कस्तूरी के छकड़े भी उनके लिए अपर्याप्त हैं; चर्बी चढ़ाने के लिए दुनिया भर का गरिष्ठ और स्वादिष्ट भोजन चाहिए.

इन निकम्मी, मोटी बुद्धि वाली, निरर्थक वस्तुओं को देखकर, सीता का खून जल उठता था। उनसे घड़ी आधा घड़ी बात कर सीता का दम घुटने लगता था । रानियां, मंत्राणियां, सामंत-पत्नियां, आचार्य-पत्नियां - सब ही पुराने पड़े व्यर्थ के कबाड़ - सी वस्तुएं थीं, जिनकी कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं थी ।

पर सीता स्वयं भी सक्रिय होकर अभी तक कोई बहुत महत्त्वपूर्ण काम नहीं कर पायी थीं। इस प्राय - निष्क्रियता में सदा आशंकित रहती थीं कि कहीं वे भी सार्थक परिश्रम के अभाव में उसी चमकीले कबाड़ का अंग न बन जाएं। पिछले चार वर्षो में कितनी बार पति-पत्नी में इस विषय पर कहा सुनी हुई थी। साधारण बातचीत हुई थी, तर्क हुए थे, तनातनी और झगड़े भी हुए थे। पर अंत में दोनों ने यही पाया था कि यह रूढ़ व्यवस्था नारी-शून्य, पुरुष समाज से काम करने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि नारी को अपने मध्य पाते ही, जैसे उसे पीसने लगती थी । यह व्यवस्था नारी को उसका उचित मानवीय स्थान देने के लिए किंचित् भी इच्छुक नहीं थी । नारी को पुरुष की बराबरी का स्थान दिलाने के लिए लंबा और जोरदार संघर्ष अपेक्षित था ।

नरेंद्र कोहली के उपन्यास अभ्दूय से 

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