मंगलवार, 12 जुलाई 2022

मायावती

अपराह्न की मनोरम वेला में मायावती अन्तःपुर की मदनवाटिका के माधवी मण्डप में अकेली ही कुछ विचारमग्न-सी बैठी थी। आयु उसकी अभी अट्ठाईस ही वर्ष की थी, परन्तु अपनी आयु से वह बहुत कम दीख पड़ती थी। उसका रंग तप्त कांचन के समान देदीप्यमान था ही, उसकी भाव-भंगिमा भी बड़ी मोहक थी। उसका शरीर उठानदार था, कद कुछ लम्बा था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे अंग से रक्त फूटकर बाहर निकलना चाहता है। लावण्य और स्वास्थ्य की कोमलता का उसके शरीर में कुछ ऐसा सामंजस्य था कि किसी भी तरह सुषमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। उसके नेत्र काले और बड़े थे। कोये दूध जैसे सफेद थे । दृष्टि में कुछ ऐसी मादक भाव-भंगिमा थी कि जिससे उसकी आग्रही और अनुरागपूर्ण भावना का प्रकटीकरण होता था। केश उसके भौरे के समान, दो भागों में बंटे थे। उनमें बड़ी कारीगरी से मोती गूंथे गए थे। ध्यान से देखने पर उसकी बाकी भौंहें कुछ घनी प्रतीत होती थीं। कान छोटे, पतले और कोमल थे। शंख के समान कण्ठ, भरावदार उन्नत उरोज और छरहरी देह थी। उसकी देह की सुडौलता देखते ही बनती थी । वह ग्रीष्मकालीन बहुत ही महीन कौशेय शरीर पर धारण किए हुए थी, जिसमें से छन-छनकर उसके शरीर की लावण्य-छटा दुगुनी चौगुनी दीख पड़ रही थी। उसके छोटे-छोटे सुन्दर पैरों में पड़े सुनहरी उपानहों के लाल माणिक्य नेत्रों में चकाचौंध उत्पन्न कर रहे थे।


शम्बर एक प्रतापी पुरुष अवश्य था पर उसकी अवस्था पचास वर्ष से अधिक थी। वह राजकीय आवश्यकता और युद्धों से घिरा रहता था। यद्यपि वह प्रेमी, भावुक और स्वच्छ हृदय का पुरुष था; परन्तु सच्चे अर्थों में मायावती की मांग का वह पूरक न था। वह एक अच्छा पति था, पर मायावती की उद्दाम वासना पति के स्थान पर प्रेमी चाहती थी। इतने बड़े राज्य का अधिपति पचास वर्ष की ढलती आयु में प्रेमी नहीं हो सकता था। मायावती को कोई संतान भी नहीं हुई थी, इससे भी उसकी वह पिपासा भड़की हुई थी। फिर भी मायावती के चरित्र में कोई दोष न था । उसकी मानसिक भूख मन ही में थी। अपनी मर्यादा, चरित्र तथा दायित्व का उसे पूरा ज्ञान था।


रावण की अवस्था अभी लगभग मायावती के बराबर ही थी। कहना चाहिए, एकाध वर्ष कम ही थी। रावण निर्द्वन्द्व, हंसमुख, विनोदी, वीर और साहसी था। उल्लास और आकांक्षाओं से उसके रक्त की प्रत्येक बूंद भरपूर थी । माया को देखते ही रावण के नेत्रों में मद छा गया । माया उसकी साली-पत्नी की बड़ी बहन थी, अतः माया से वह न केवल खुलकर हास्य-विनोद ही करता, व्यंग्य-विनोद भी करने लगा। रावण के स्वभाव, विनय, स्वास्थ्य, सौन्दर्य और पौरुष-इन सब पर मायावती विमोहित हो गई। एक अज्ञात आकर्षण रावण के प्रति उसके मन में उत्पन्न हो गया। वह रावण को चाहने भी लगी और प्यार भी करने लगी।

माधवी-मण्डप में अकेली वह असुर सम्राज्ञी रावण ही के विचार में कुछ अनमनी सी बैठी थी। उसका मन परस्पर विरोधी भावों से आन्दोलित हो रहा था। उसके आग्रही स्वभाव और दुर्दमनीय इन्द्रिय-लालसा का नारी धर्मनीति से द्वन्द्व चल रहा था। उसका प्रेमी रमणी - हृदय परस्पर विरोधी आवेगों से अधीर हो रहा था । एकाध बार रावण से उसकी कुछ एकान्त वार्ता हुई थी। असुरराज शम्बर ने उसका आत्मीय की भांति अपने घर में स्वागत किया था और सम्राज्ञी से अपने बहनोई का सब भांति सत्कार कर उसे संतुष्ट रखने का बारंबार अनुरोध किया था। उस समय असुरराज पर देवों और आर्यों का एक अभियान होने वाला था। उसके लिए समूची असुरपुरी वैजयन्ती में भारी तैयारियां हो रही थीं। दूर-दूर के असुर भट सन्नद्ध होकर रणरंग मचाने वैजयन्ती में आ रहे थे । असुर सम्राट् इस बार शत्रु से कठिन मोर्चा लेने की भीषण तैयारियों में लगे थे। उसका प्रबल शत्रु देव मित्र पांचाल - नरेश दिवोदास था। यह एक निर्णायक युद्ध का सूत्रपात था, इसी से असुरराज इस युद्ध की ओर से बेखबर नहीं था। इसी से उसने अपने साढ़ू लंकापति रावण के आतिथ्य का भार अपनी पत्नी मायावती पर डाल दिया था। शम्बर मायावती को अत्यन्त प्रेम करता था । उन दिनों असुर, दैत्यों और दानवों की अपेक्षा संस्कृति में आर्यों से अधिक साम्य रखते थे। वे अपने को आर्यों ही की शाखा में मानते थे। इसी से विवाह मर्यादा उनमें आर्यों ही के समान थी। मायावती भी आर्य-ललना की भांति स्त्री-नीति तथा स्त्री- धर्म को समझती थी, यद्यपि आर्य-ललना होने से वह अपने अवरोध में स्वतन्त्र थी- बन्धनमुक्त थी। उन दिनों असुर महिलाएं आर्यपत्नियों से अधिक स्वाधीनता तथा समानता का उपभोग करती थीं।


मायावती जैसी आग्रही स्वभाव की थी, वैसी ही मानवती भी थी। जब वह अपनी गर्वीली चाल से हंसिनी अथवा हथिनी की भांति चलती थी, तब उसकी शोभा देखते ही बनती थी। इस समय अपने मन की चंचलता को छिपाने के लिए उसने सभी दासी-चेटियों को अलग कर दिया था। केवल एक दानवी किंकरी नंगी तलवार लिए लतागृह के द्वार पर पहरा दे रही थी। अपराह्न की सुनहरी धूप छन छनकर लता मण्डप में आ रही थी। इसी समय रावण भी उपवन में घूमता हुआ वहीं आ पहुंचा। किंकरी को नंगी तलवार लिए मण्डप के द्वार पर खड़ी देख उसने अनुमान किया कि अवश्य ही मायावती मण्डप में है। वह तेजी से कदम बढ़ाकर उसी ओर चला। किंकरी को देखकर उसने हंसकर कहा-

 “लता मण्डप में यदि स्वामिनी हैं तो उनकी सेवा में रावण का अभिवादन निवेदन कर दे। "


किंकरी ने जब मायावती को रावण की विज्ञप्ति की, तो उसकी बड़ी-बड़ी चमकीली आंखों में एक मद आ गया। उत्तेजना के मारे उसके उरोज उन्नत अवनत होने लगे। वह सम्भ्रम उठ खड़ी हुई। किंकरी पीछे हट चली गई। इसी समय रावण ने हंसते-हंसते मण्डप में प्रवेश करते हुए कहा- 

"देवी प्रसन्न हों, इस मंगलमयी सान्ध्य वेला में वनश्री की शोभा को आपने अपनी उपस्थिति से कैसा सजीव कर दिया है! ऐसा प्रतीत होता है कि इस माधवी लता से आवेष्टित मण्डप में छन-छनकर जो अस्तंगत मरीचिमाली की स्वर्णिम रश्मिराशि एकत्र हो गई है, उसे किसी जादूगर ने जैसे एकत्र कर मूर्त्त रूप दे दिया है।”

 "ओह, लंकेश्वर केवल वीर शिरोमणि ही नहीं हैं-चाटुकार भी वैसे ही हैं। इसी गुण ने शायद मन्दोदरी को मोह लिया है कि कभी वह अपने आत्मीयों को याद भी नहीं करती।”


“परन्तु आपकी आनन्द और श्रद्धा की मूर्ति तो उसी ने मेरे हृदय में अंकुरित की है। तभी तो आपके चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने इतनी दूर आया हूं।" 

“जाइए, बातें न बनाइए। श्रद्धांजलि उन्हीं चरणों में अर्पित कीजिए जो नूपुरध्वनि से लंका के मणिमहालय को मुखरित करते हैं। अपात्र में दान करने से पुण्यक्षय होता है   ऐसा नीतिकारों का वचन है । "

“आपका वचन प्रमाण है । किन्तु अभयदान मिले तो कुछ निवेदन करूं!”

मायावती हंस दी। उसने हाथ उठाकर अभिनय-सा करते हुए कहा- "अभय, लंकाधिपति, आपको अभय!"

 “तो मुझे कहने दीजिए कि रावण लंकाधिपति नहीं, आपका दास है। उसे इन चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने दीजिए।”

 हठात् रावण मायावती के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गया। मायावती ने भयभीत होकर इधर-उधर देखा। उसका मुंह लज्जा से लाल हो गया। उसने कहा-

 “उठिए, यह आप क्या कर रहे हैं?"


“आराधना कर रहा हूं उस देवी की, जिसकी अप्रतिम छवि मेरे रक्त के प्रत्येक बिन्दु में व्याप्त हो गई है। क्षमा करो सुन्दरी, यह रावण आपका दास है।" 

इतना कहकर उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर होठों से लगा लिए।


हठात् रावण के इस आचरण से मायावती विचलित-विस्मित हो गई। वह भीत चकित हरिणी की भांति कांपने लगी। उसके मुंह से बात न निकली। एक अकथनीय आनन्द से वह विह्वल हो उठी, पर तुरन्त ही सावधान होकर उसने अपना हाथ खींच लिया और कहा- 

“यह क्या लंकेश्वर?” 

“स्वीकार करता हूं, मैंने अपराध किया है। किन्तु यह आपकी इस अतुलनीय रूप माधुरी का सत्कार है। इस दिव्य ज्योति की मानसी पूजा है। आप रुष्ट क्यों हो गईं?”


“रुष्ट नहीं हूं, परन्तु आप मर्यादा से बाहर आचरण कर रहे हैं।"

 “देवी प्रसन्न हों, निस्सन्देह अकिंचन आपकी कृपा के योग्य नहीं, पर इस दिव्य सौंदर्य की पूजा से तो आप मुझ दास को वंचित मत कीजिए।”

 “यह क्या आप व्यंग्य कर रहे हैं लंकेश?”

 मायावती ने अपनी प्रशंसा सुनकर असंयत होकर धड़कते हुए हृदय से कहा।


"नहीं देवी, मैं सच कह रहा हूं। मैं चाटुकारिता नहीं करता। मैं आप पर मुग्ध हूं, मेरा हृदय आप पर न्योछावर है।"


"यह तो आप मन्दोदरी के प्रति अन्याय कर रहे हैं। " 

“मन्दोदरी को निस्सन्देह मैं प्राणों से अधिक प्यार करता हूं, पर आपके दिव्य रूप की तो मैं पूजा करता हूं, परन्तु आपके क्रोध से भय खाता हूं।" 

मायावती के आग्रहशील हृदय में प्रवृत्ति की लहरें उमड़ने लगीं। उसने मन्द-मन्द मुस्कराकर कहा- 

“वीरध्वज लंकेश भी भय खाते हैं स्त्रियों से, यह तो लंकेश के लिए प्रशंसा की बात नहीं है।" 

रावण के नेत्रों की तृष्णा उभर आई, उसने कहा- 

“आह्, तब आप मुझ पर एकदम निर्दय नहीं हैं ।”

“यह आपने कैसे समझ लिया?"


“आपके इस चन्द्रच्छटा-सम उज्ज्वल हास से ।”

 “किन्तु मैं ऐसी अकृतज्ञ नहीं हूं कि आपकी स्तुति के लिए आपका आभार न मानूं।”


“यह तो मेरे अन्तःकरण की श्रद्धा है।"

 फिर एकाएक उत्तेजित होकर उसने कहा- 

“सच तो यह है कि मेरा मन तुम पर अनुरक्त है सुन्दरी! कहो, वह कौन बड़भागी है। जिसके लिए तुमने यह साज सजा है? वह कौन भाग्यवान् है जो तुम्हारे इन कमल-सी सुगन्ध वाले अधर-पल्लवों का चुम्बन करेगा? स्वर्णघट के समान तुम्हारे यह भरे हुए कठोर कुच आज किसके आलिंगन की प्रतीक्षा में हैं? प्रिये, आज तुम मुझे रति दो। मैं लंका का स्वामी, पौलस्त्य रावण काम पीड़ित हो तुमसे नम्रतापूर्वक रतिदान मांग रहा हूं। मैं जब से यहां आया हूं तेरी मनोहारी मूर्ति हृदय में रख, रात-दिन उसकी आराधना करता हूं।"

 इतना कहकर रावण अत्यन्त उदग्र भाव से दोनों हाथ फैलाकर मायावती को अपने आलिंगन में बांधने को आगे बढ़ा। उसका यह भाव देख और उसका अभिप्राय समझ मायावती थर-थर कांपने लगी। उसने कहा-

 “लंकेश, यह तुम क्या कह रहे हो? तुम मेरी छोटी भगिनी के पति, मेरे सम्बन्धी हो । मैं धर्म से तुम्हारी ज्येष्ठा हूं। सोचो तो, मेरे पति यह सुनेंगे तो क्या कहेंगे! तुम्हारे भाई कुबेर लोकपाल त्रिलोक में विख्यात हैं। तुम भी धर्माधर्म को समझते हो ऋषिकुमार हो। इसलिए ऐसा न करो। जो मेरा पति है, उसी के लिए मैं शृंगार करती हूं। मैं असुर कुल की स्त्री हूं-पत्नी हूं! तुम्हारी रक्ष-संस्कृति है, मेरे सत्त्व की तुम रक्षा करो। कहो वयं रक्षामः।”


रावण ने हंसकर कहा- 

“कहीं असुर-रमणियों के भी पति हुआ करते हैं? फिर यह एकान्त रति का नियम तो मानवों में है। इसलिए मेरी अभिलाषा तुम्हें पूर्ण करनी पड़ेगी । "

 इतना कहकर रावण ने झपटकर मायावती को अपने अंकपाश में दबोच लिया। मायावती बाज के पंजे में दबी हुई कबूतरी की भांति छटपटाने लगी। उसका श्रृंगार अस्तव्यस्त हो गया, वस्त्र फट गए। केश बिखर गए। वह केले के पत्ते के समान कांपने लगी। मायावती की दुर्दमनीय प्रवृत्ति भी तीव्र अभिलाषाग्नि से उद्दीप्त हो उठी। कांपते हुए मृदु मन्द स्वर में कहा-

 “नहीं, नहीं मत करो, ऐसा मत करो!”

 इस पर रावण ने उसे और भी कसकर अपनी बलिष्ठ भुजाओं में भर लिया और उसके होठों के निकट अपने उत्तप्त होंठ ले जाकर कहा- 

“प्रिये, तू मेरी आराध्या है!”

 उसने अपने अधर मायावती के अधरों से मिला दिए। मायावती भी आवेश में आ रावण के अंक में समा गई। वह भूल गई अपना स्त्री- धर्म, राजपद-मर्यादा, असुरराजमहिषी का गौरवमय पद। अपने पति असुरराज को वह भूल गई। कर्त्तव्याकर्त्तव्य को भूल गई । विश्व की सब बातों को भूल गई। उसने उन्मत्त हो, सब कुछ भूल, उस नायक के आलिंगन में अधखुले नेत्रों के साथ अपना शरीर अर्पित कर दिया।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 


 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...