मंगलवार, 12 जुलाई 2022

शम्बर – संग्राम


मायावती की ओर ध्यान देने का शम्बर को समय नहीं मिला। इसी समय चर ने उसे सूचना दी कि देवों और आर्यों की सेनाएं वैजयन्तीपुरी की सीमा लांघ चुकी हैं। गिरिव्रज में आ पहुंची हैं। शम्बर ने भी तत्क्षण ही असुरों को सन्नद्ध होने का संकेत किया। भेरी, मुरज और शंख बजने लगे। दुंदुभि धमक उठी। हाथी चिंघाड़ने लगे। घोड़े हिनहिनाने लगे। असुरवाहिनी बरसाती नदी के वेग के समान दुर्मद शत्रुओं का दर्प चूर्ण करने बढ़ चली। सिंहल के विराट हाथी पर छत्र- चंवर लगाकर असुर सम्राट् बैठा । वैजयन्तीपुरी और गिरिव्रज के बीच का मार्ग सेना से आपूर्यमाण हो गया। उसकी सेना में दस हजार रथ और साठ हजार योद्धा असुर थे। उसके मित्र, बान्धव और सेनापतियों में हृष्टरोमा, महाकाम, सिंहदंष्ट्र प्रकम्पन, तन्तुकच्छ, दुरारोह, सुभाय, वज्रपंजर, धूम्रकेतु, प्रमथन और विकटाक्ष अत्यन्त पराक्रमी थे। छत्तीस छत्रधारी राजा असुर सम्राट् के नीचे युद्ध करने जा रहे थे।


गिरिव्रज की उपत्यका में पांचालपति दिवोदास और महाकोशल स्वामी के राजसिंह आर्येन्द्र दशरथ अजेय की संयुक्त वीरवाहिनी शत्रु की प्रतीक्षा कर रही थी। दिवोदास की सेना में देव, नाग, गन्धर्व और आदित्य आदि सभी सुभट थे। सुबाहु, निर्घात, मुष्टिक, गोहर, प्रलंब, प्रमाथ, कटकपिगल आदि एक सहस्र अर्धरथ थे। अंकुटी, सोमिल, देवशर्मा, पितृ शर्मा, उग्रभट, महाभट, कुमारक, वीरस्वामी, सुराधर, भण्डीर, सिंहदत्त, क्रूरकर्मा, शबरक, हरदत्त, आदि अर्धसहस्र पूर्णरथ थे । यज्ञसेन, इन्द्रवर्मा, विरोचन, कुम्भीर, दर्पित, प्रकंपन आदि तीन सौ द्विरथ और बाहुंशाल, विशाख, प्रचण्ड आदि दो सौ त्रिरथ थे। प्रवीर, वीरवर्मा, अमराम, चंद्रदत्त, सिंहभट, व्याघ्रभट आदि एक सौ पंचरथ थे। उग्रवर्मा अकेला षड्ररथ था। राजा सहस्रायु का पुत्र शतानीक महारथों के यूथ का स्वामी था। इनके अतिरिक्त महारथों के यूथपति, अतिरथों के यूथपति, पूर्णरथों के यूथप अनेक थे। इन सब यूथपतियों के अधिपति अयोध्यानाथ दशरथ थे।


दोनों ही पक्षों के भट आमने-सामने हो युद्ध करने को विकल हो उठे। आर्यों के प्रधान सेनापति ने महाशुचि व्यूह का निर्माण किया। उस व्यूह के दक्षिण पाश्र्व पर साठ अतिरथ यूथप और वाम पाश्र्व में साठ पंचरथ यूथप अपने यूथ सहित आसीन हुए। मध्य में गज-सैन्य और केन्द्र में पांचालपति दिवोदास और उसकी देवसेना । अग्रभाग में दशरथ अपने दस सहस्र अतिरथों के साथ। शम्बर ने अपनी सेना का अर्धचन्द्र व्यूह रचा। उसके मध्य में गज-सैन्य के साथ वह स्वयं रहा।


व्यूहबद्ध होने के बाद ही दोनों सेनाओं में रणवाद्य बज उठे। देखते-ही-देखते दोनों ओर से शस्त्र चलने लगे। जय-जयकार का महाशब्द होने लगा। बाणों से आकाश छिप गया। शस्त्रों के परस्पर टकराने से आग निकलने लगी। हाथी, घोड़े और सुभट मर-मरकर गिरनेलगे। उनसे रुधिर की नदी बह चली, मृत वीरों के शरीर ग्राह-से तैरने लगे। कोई सुभट सुभट से द्वन्द्व करने लगा। किसी ने अर्धचन्द्र बाण से किसी का सिर काट लिया। किसी के मर्मस्थल में बाण घुस जाने से वह चीत्कार कर घूर्णित-सा भूमि पर गिर गया। देवों की विकट मार से विकल होकर असुर इधर-उधर भागने लगे। यह देख शम्बर ने बाणों की विकट वर्षा का दिवोदास के सारथी को मार दिया। उसके घोड़े भी मर गए। यह देख असुरों ने बड़ा भारी जयनाद दिया। इस पर दिवोदास रथ से कूदकर शम्बर के रथ पर चढ़ गया।


उसने उसका धनुष काट दिया तथा ध्वजा गिरा दी। यह देख बड़े-बड़े विकट असुरों ने पांचालपति को घेर लिया। विद्याधरों के राजा विकृतदंष्ट्र पंचरथ ने यह देखा तो वह समुद्र गर्जना की भांति महानाद करता हुआ असुरों के दल पर पिल पड़ा। गन्धर्वों का विकट विक्रम देख असुर भयभीत होकर भागने लगे। शम्बर ने यह देखा तो हुंकार भरकर अपना रथ उसी ओर बढ़ाया और प्रबल पराक्रम से उनके सारथी, ध्वजा, रथ तथा घोड़ों को मार कुण्डल समेत उसका सिर काट लिया।


महाराज दशरथ के साथ कैकेयी धनुष-बाण ले राजा के पृष्ठ की रक्षा कर रही थी। महाराज दशरथ अपने यूथपों को ललकारकर विकृतदंष्ट्र का बदला लेने आगे बढ़े। उनका क्रोध देख और प्रचण्ड बाण-वर्षा से व्याकुल हो असुर चीत्कार कर भागने लगे। कुछ बाणों से विद्ध हो-होकर मरने लगे। इस पर कंकट-अंकुरी, प्रचण्ड और कालकम्पन-इन चार असुर यूथपतियों ने बाण - वर्षा से दशरथ के रथ की धज्जियां उड़ा दीं। घोड़े मार डाले, चक्र तोड़ डाले। इस पर महाराज दशरथ रथ से कूदकर खड्ग और चक्र चलाने लगे। असुर यूथपतियों मैंने उन्हें चारों ओर से दबोच लिया। उनका अंग बाणों से बिंधकर छलनी हो गया। इस पर विकट साहसकर रानी कैकेयी ने एक हाथ में चक्र को संभालकर घायल राजा को रथ पर बैठाकर बाण-वर्षा करनी आरम्भ कर दी।

पांचालपति दिवोदास ने दूर से महाराज दशरथ का यह संकट देखा। वह अपने दस सहस्र अतिरथों को ललकारकर उधर बढ़ा। उसने विकट पराक्रम से दशरथ का मूर्च्छित शरीर अपने रथ पर डाल, उन्हें निरापद स्थान में भेज दिया। फिर वह दूसरे रथ पर आरूढ़ हुआ, जिसमें सोलह श्यामकर्ण घोड़े जुते थे। अब उसने कालचक्र धनुष पर विकट महास्त्र चढ़ाकर उसका प्रहार किया। यह महास्त्र असुर यूथपतियों को काट-काटकर ढेर करने लगा। इस समय तक हाथी, घोड़े और योद्धा इतने मर चुके थे कि चारों ओर रणस्थली में कबन्ध दीख पड़ते थे। इस प्रकार असुरों का मर्दन देख असुरराज शम्बर दिवोदास के रथ की ओर बढ़ा। उसका सूर्य के समान ज्वलन्त रथ अपनी सहस्रों घंटियों की रणत्कार से रण-निमन्त्रण देता हुआ-सा पांचालपति के सम्मुख आ खड़ा हुआ। अब दोनों महावीरों ने ऐसा विकट युद्ध किया कि असुर, देव, गन्धर्व, मनुष्य सब कोई हाथ रोककर उनका द्वन्द्व देखने लगे। देखते ही-देखते दोनों के रथों के सारथी मर गए। रथों की धज्जियां उड़ गईं और दोनों विरथ हो परस्पर खड्ग- युद्ध करने लगे। दोनों ने एक प्रहर प्रचण्ड युद्ध किया। उससे शरीर से रक्त की सहस्र धाराएं बह चलीं। इसी समय अवसर पाकर दिवोदास ने शम्बर का सिर काट लिया। सिर कटने पर भी दो मुहूर्त तक उसका कबन्ध लड़ा। असुर का कबन्ध गिरते ही देवों ने विजय- शंखध्वनि की । असुर भयभीत होकर रक्त के कीचड़ में लथपथ युद्ध भूमि से भाग चले। इसी समय सूर्य अस्ताचल को गए। पांचालपति दिवोदास विजय के नगाड़े बजाता हुआ पीछे लौटा।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




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