हजारों वर्षों से हमें एक बात मंत्र की तरह पढ़ाई जाती है। जीवन असार है, जीवन व्यर्थ है, जीवन दु:ख है। सम्मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है । यह बात सुन-सुन कर धीरे धीरे हमारे प्राणों में पत्थर की तरह मजबूत होकर बैठ गयी है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम,सारा सौंदर्य खो दिया है। जीवन एक बोझ बन गया है। मनुष्य एक दुःख का अड्डा बन गया है।
अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्य है, तो जिसे छोड़ ही देना है, उसे सजाने, उसे निखारने, क्या जरूरत है। हम जो करते है उसी से हम निर्मित होते है। हमारा कृत्य अंतत: हमें निर्मित करता है। हमें बनाता है। हम जो करते है, वहीं धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्या कर रहे है,इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे है। जीवन के साथ हमारा क्या व्यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी। किन मार्गों पर जायेगी। किन नये जगत की खोज करेगी।
जीवन के साथ हमारा व्यवहार हमें निर्मित करता है—यह अगर स्मरण हो, तो शायद जीवन को असार, व्यर्थ मानने की दृष्टि हमें भ्रांत मालूम पड़ें; तो शायद हमें जीवन को दुःख पूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोध रूख अधार्मिक मालूम पड़े।
लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्यु वादी है, जीवन वादी नहीं, उसकी दृष्टि में मृत्यु के बाद जो है, वहीं महत्वपूर्ण है, मृत्यु के पहले जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है। अब तक के धर्म की दृष्टि में मृत्यु की पूजा है, जीवन का सम्मान नहीं। जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्यु के कुम्हला गये, जा चुके, मिट गये, फूलों की क़ब्रों की , प्रशंसा और श्रद्धा है।
अब तक का सारा धर्म चिन्तन कहता है कि मृत्यु के बाद क्या है—स्वर्ग,मोक्ष, मृत्यु के पहले क्या है। उससे आज तक के धर्म को कोई संबंध नहीं रहा है।
मृत्यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही संभालने मे असमर्थ है, तो मृत्यु के बाद जो है उसे हम संभालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्यु के पहले जो है अगर वहीं व्यर्थ छूट जाता है, तो मृत्यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश कोई पात्रता, हम अपने में पैदा नहीं करा सकेंगे। मृत्यु की तैयारी भी इस जीवन में जो आसपास है मौजूद है उस के द्वारा करनी है। मृत्यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा। जो हमने जीवन में अनुभव किया है। और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की,जीवन को विस्मरण कर देने की बात ही अब तक नहीं की गई।
जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है, न हो सकता है। जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपल्बध कर लेने की पहली सीढ़ी है। जो जीवन को ही चूक जाते है वह और सब भी चूक जायेगा,यह निश्चित है।
लेकिन अब तक का रूख उलटा रहा है। वह रूख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रूख कहता है जीवन को त्यागों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन में खोजों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन को जीने की कला सीख़ों। वह यह भी नहीं कहता है कि जीवन को जीने पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालुम पड़ता है। अगर जीवन अंधकार पूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है। अगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाये।
पाँच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है। मंदिर है, मस्जिदें है, चर्च है, पुजारी है, पुरोहित है, सन्यासी है, लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और नहीं हो सकेगी। क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म का आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं है, कब्र है। जिस धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? जिम्मेवारी किस की है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें