यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। १५।।
क्योंकि, हे पुरुषश्रेष्ठ, दुख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते, वह मोक्ष के लिए योग्य होता है।
विरोधी धुर्वो में बंटा हुआ जो हमारा अस्तित्व है, इन दोनों के बीच, इन दोनों की आकृतियों के भेद को देखकर, इनके भीतर की अस्तित्व की एकता को जो अनुभव कर लेता है, ऐसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। जिसे जन्म में मृत्यु की यात्रा दिखाई पड़ जाती है, जिसे सुख में दुख की छाया दिखाई पड़ जाती है, मिलन में विरह आ जाता है जिसके पास, जो प्रतिपल विपरीत को मौजूद देखने में समर्थ हो जाता है, वैसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। देखने में समर्थ हो जाता है--खयाल रखना जरूरी है। ऐसा मानने में समर्थ हो जाता है, वह ज्ञानी नहीं हो जाता है। मान लिया ऐसा, तो काम नहीं चलता है।
माने हुए सत्य अस्तित्व के जरा-से धक्के में गिर जाते हैं और बिखर जाते हैं। जाने हुए सत्य ही जीवन में नहीं बिखरते हैं। जो ऐसा जान लेता है, ऐसा देख लेता है, या कहें कि ऐसा अनुभव कर लेता है और बड़े मजे की बात है कि अनुभव करने कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जिंदगी रोज मौका देती है, प्रतिपल मौका देती है। ऐसा कोई सुख जाना है आपने, जो दुख न बन गया हो? ऐसा कोई सुख जाना है जीवन में, जो दुख न बन गया हो? ऐसी कोई सफलता जानी है, जो विफलता न बन गई हो? ऐसा कोई यश जाना है, जो अपयश न बन गया हो?
कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि ऐसा जो देख लेता है...! और देखने का ध्यान रखें; यह देखना अस्तित्वगत अनुभव है। हम रोज जानते हैं, लेकिन पता नहीं कैसे चूक जाते हैं देखने से! कैसे अपने को बचा लेते हैं देखने से! शायद कोई बड़ी ही चालाकी हम अपने साथ करते हैं। अन्यथा ऐसा जीवंत सत्य दिखाई न पड़े, यही आश्चर्य है।
सुख को जब हम पकड़ते हैं, जब तक वह दुख बनता है, तब तक बीच में टाइम गिरता है समय गिरता है। तो हम जोड़ नहीं पाते कि ये दोनों बिंदु जुड़े हैं। यह वही सुख है जो अब दुख बन गया। नहीं, वह हम नहीं जोड़ पाते। मित्र को शत्रु बनने में समय लगेगा न! आखिर कुछ भी बनने में समय लगता है। तो जब मित्र बना था तब, और जब शत्रु बना तब, वर्षों बीच में गुजर जाते हैं। जोड़ नहीं पाते कि मित्र बनने में और शत्रु तक पहुंचने में इतना वक्त लगा। नहीं, मित्र बनने की घटना अलग है और शत्रु बनने की घटना अलग है। तब तय नहीं कर पाते; तब व्यक्ति पर ही थोप देते हैं कि गलती व्यक्ति के साथ हो गई है।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू आर-पार देख, पूरा देख। और जो इस पूरे को देख लेता है, वह ज्ञानी हो जाता है। और ज्ञानी को फिर ठंडा और गरम, सुख और दुख पीड़ा नहीं देते। लेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना कि ज्ञानी को ठंडे और गरम का पता नहीं चलता है।
ऐसी भ्रांति हुई है, इसलिए मैं कहता हूं। ऐसी भ्रांति हुई है। तब तो वह ज्ञानी न हुआ, जड़ हो गया। अगर सेंसिटिविटी मर जाए, तो उसको पता ही न चले। तो कई जड़-बुद्धि ज्ञानी होने के भ्रम में पड़ जाते हैं, क्योंकि उनको ठंडी और गरमी का पता नहीं चलता। थोड़े अभ्यास से पता नहीं चलेगा। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं है।
ध्यान रहे, ज्ञानी को ठंडे और गरम से, सुख और दुख से पीड़ा नहीं होती। सुख और दुख में चुनाव नहीं रह जाता, च्वाइस नहीं रह जाती, च्वाइसलेसनेस हो जाती है। इसका यह मतलब नहीं है कि दिखाई नहीं पड़ता। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी को सुई चुभाएं तो पता नहीं चलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी के गले में फूल डालें तो सुगंध न आएगी और दुर्गंध फेंकें तो दुर्गंध न आएगी।
नहीं, सुगंध और दुर्गंध दोनों आएंगी, शायद आपसे ज्यादा आएंगी। उसकी संवेदनशीलता आपसे ज्यादा होगी। क्योंकि वह अस्तित्व के प्रति ज्यादा सजग होगा; क्षण के प्रति ज्यादा जागा होगा। उसकी अनुभूति आपसे तीव्र होगी। लेकिन वह यह जानता है कि सुगंध और दुर्गंध, गंध के ही दो छोर हैं।
कभी, जहां सुगंध बनती है, उस फैक्टरी के पास से गुजरें तो पता चल जाएगा। असल में दुर्गंध को ही सुगंध बनाया जाता है। खाद डाल देते हैं और फूल में सुगंध आ जाती है। सुगंध और दुर्गंध, गंध के ही दो छोर हैं। गंध अगर प्रीतिकर लगती है, तो सुगंध मालूम होती है; गंध अप्रीतिकर लगती है, तो दुर्गंध मालूम पड़ती है
ऐसा नहीं है कि ज्ञानी को पता नहीं चलता कि क्या सौंदर्य है और क्या कुरूप है। बहुत पता चलता है। लेकिन यह भी पता चलता है कि सौंदर्य और कुरूप आकृतियों के दो छोर हैं, एक ही लहर के दो छोर हैं। इसलिए पीड़ित नहीं होता, डांवाडोल नहीं होता, अस्थिर नहीं होता। संतुलन नहीं खोता।
लेकिन इससे बड़ी भ्रांति हुई है। और वह भ्रांति यह हुई है कि जिस आदमी को ठंडी-गरमी का पता न चले, वह ज्ञानी हो गया! यह बहुत आसान है। वह काम बहुत कठिन है, जो मैं कह रहा हूं! ठंडी-गरमी का पता न चले, इसके लिए तो थोड़ा-सा ठंडी-गरमी का अभ्यास करने की जरूरत है। ठंडी-गरमी का पता नहीं चलेगा, चमड़ी जड़ हो जाएगी, उसका बोध कम हो जाएगा। जरा नाक में, नासापुटों में जो थोड़े से गंध के तंतु हैं, अगर दुर्गंध के पास बैठे रहें, वे अभ्यासी हो जाएंगे।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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