सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 5

 श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। ११।।

श्री कृष्ण बोले: हे अर्जुनतू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता हैऔर पंडितों के से वचनों को कहता हैपरंतु पंडितजनजिनके प्राण चले गए हैंउनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैंउनके लिए भी  शोक नहीं करते हैं।


हंसकर जो कृष्ण ने कहा हैवह और भी कठोर है। वे अर्जुन को कहते हैं कि तुम शास्त्र की भाषा बोल रहे होलेकिन पंडित नहीं होमूढ़ होमूर्ख हो। क्योंकि शास्त्र की भाषा बोलते हुए भी तुम जो निष्पत्तियां निकाल रहे होवे तुम्हारी अपनी हैं। शास्त्र की भाषा बोल रहा है--क्या-क्या अधर्म हो जाएगाक्या-क्या अशुभ हो जाएगाक्या-क्या बुरा हो जाएगा--पूरी शास्त्र की भाषा अर्जुन बोल रहा है। लेकिन शास्त्र की भाषा पर अपने को थोप रहा है। जो निष्कर्ष लेना चाहता हैवह उसके भीतर लिया हुआ है। शास्त्र से केवल गवाही और समर्थन खोज रहा है।

मूर्ख और पंडित में एक ही फर्क है। मूर्ख भी शास्त्र की भाषा बोल सकता हैअक्सर बोलता हैकुशलता से बोल सकता है। क्योंकि मूर्ख होने और शास्त्र की भाषा बोलने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन मूर्ख शास्त्र से वही अर्थ निकाल लेता हैजो निकालना चाहता है। शास्त्र से मूर्ख को कोई प्रयोजन नहीं हैप्रयोजन अपने से है। शास्त्र को भी वह अपने साथ खड़ा कर लेता है गवाही की तरह।



कृष्ण की हंसी बहुत उचित है। किनके हवाले दे रहा हैऔर बड़े मजे की बात हैपूरे समय कह रहा हैभगवन्! कह रहा हैभगवान! हे भगवान! हे मधुसूदन! और शास्त्र के हवाले दे रहा है।

वह अर्जुनजो आम पंडित की नासमझी हैवही कर रहा है। और कृष्ण सीधे और साफ कह रहे हैं। इतनी सीधी और साफ बात कम कही गई हैबहुत कम कही गई है। कृष्ण कह सकते हैंकहने का कारण है। लेकिन अर्जुन इसे भी सुनेगा या नहींयह कहना मुश्किल है! अर्जुन करीब-करीब पूरी गीता मेंबहुत समय तकअंधे और बहरे का ही प्रदर्शन करता है। अन्यथा शायद गीता की जरूरत ही नहीं थी। अगर वह एक बार गौर से आंख खोलकर कृष्ण को देख लेतातो ही बात समाप्त हो गई थी। लेकिन वह भगवान भी कहे चला जाता है और उनकी तरफ ध्यान भी नहीं दे रहा है!

जब खुद भगवान ही सारथी हैं--अगर सच में वह जानता है कि वे भगवान हैं--तो जब वे सारथी बनकर ही रथ पर बैठ गए हों और लगाम उनके ही हाथ में होतब वह व्यर्थ अपने सिर पर वजन क्यों ले रहा है सोचने का! अगर वे भगवान ही हैंऐसा वह जानता हैतो अब और पूछने की क्या गुंजाइश हैहाथ में लगाम उनके हैछोड़ दे बात! लेकिन वह कहता है भगवानजानता अभी नहीं है।

अर्जुन कहे तो चला जा रहा हैभगवानभगवान! लेकिन वह संबोधन हैवैसे ही जैसे सभी संबोधन झूठे होते हैंऔपचारिक होते हैं। अभी भगवान उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई तो उसे यही पड़ रहा है कि अपना सखा है कृष्ण। आ गया है साथसारथी का काम कर रहा है। साथ हैइसलिए पूछ लेते हैं। बाकी भगवान की जो अनुभूति हैवह अगर उसे हो जाए तो पूछने को क्या बचता है! उसे कहना चाहिए कि लगाम तुम्हारे हाथ में हैजो मर्जी। अपनी इच्छा पूरी करो।

इसलिए उसके भगवान का संबोधन अभी सार्थक नहीं है। क्योंकि वह संबोधनों के बाद भी निर्णय खुद ले रहा है। वह कह रहा हैमैं युद्ध नहीं करूंगा। कह रहा हैभगवान! कह रहा हैमैं युद्ध नहीं करूंगा। इस पर कृष्ण हंसें और कहें कि तू बड़ी विरोधी बातें बोल रहा हैतो उचित ही है। 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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