मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२।।
क्योंकि आत्मा नित्य है, इसलिए शोक करना अयुक्त है। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, अथवा तू नहीं था, अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
अर्जुन ऐसी चिंता दिखाता हुआ मालूम पड़ता है कि ये सब जो आज सामने खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, युद्ध में मर जाएंगे, नहीं हो जाएंगे। कृष्ण उसे कहते हैं, जो है, वह सदा से था; जो नहीं है, वह सदा ही नहीं है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। धर्म तो सदा ऐसी बात कहता रहा है, लेकिन विज्ञान ने भी ऐसी बात कहनी शुरू की है। और विज्ञान से ही शुरू करना उचित होगा। क्योंकि धर्म शिखर की बातें करता है, जिन तक सबकी पहुंच नहीं है। विज्ञान आधार की बातें करता है, जहां हम सब खड़े हैं। विज्ञान की गहरी से गहरी खोजों में एक खोज यह है कि अस्तित्व को अनस्तित्व में नहीं ले जाया जा सकता है। जो है, उसे विनष्ट करने का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, उसका सृजन करने का भी कोई उपाय नहीं है। रेत के एक छोटे से कण को भी हमारे विज्ञान की सारी जानकारी और सारे जगत की प्रयोगशालाएं और सारे जगत के वैज्ञानिक मिलकर भी विनष्ट नहीं कर सकते हैं; रूपांतरित भर कर सकते हैं; नए रूप भर दे सकते हैं।
अर्जुन जब कह रहा है कि ये सब मर जाएंगे, तब वह रूप की, आकृति की बात कह रहा है। वह कह रहा है, ये सब मिट जाएंगे। उसे आकृति से ज्यादा का कोई भी पता नहीं है।
और जब कृष्ण कहते हैं कि नहीं, जिन्हें तू आज देख रहा है, वे पहले नहीं थे, ऐसा नहीं है। वे पहले भी थे। मैं भी पहले था, तू भी पहले था। और ऐसा भी नहीं है कि जो हम आज हैं, कल नहीं होंगे। कल भी हम होंगे, सदा-सदा अनादि से अनंत तक हमारा होना है। यहां कृष्ण और अर्जुन दो अलग चीजों की बात कर रहे हैं, यह समझ लेना जरूरी है।
अर्जुन रूप की बात कर रहा है, कृष्ण अरूप की बात कर रहे हैं। अर्जुन उसकी बात कर रहा है, जो दिखाई पड़ता है; कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं, जो नहीं दिखाई पड़ता है। अर्जुन उसकी बात कर रहा है, जो आंखों और हाथों की पकड़ में आता है; कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं, जो हाथ, आंख और कान की पकड़ के पीछे छूट जाता है। अर्जुन, जैसा हम सब सोचते हैं, वैसा सोच रहा है। कृष्ण, वैसा कह रहे हैं, जैसा हम सब जान सकें कभी, तो सौभाग्य है।
जो दिखाई पड़ता है, वह सदा नहीं था। सदा तो बहुत बड़ा शब्द है। जो दिखाई पड़ता है, वह क्षणभर पहले भी नहीं था। आप मेरे चेहरे को देख रहे हैं, क्षणभर पहले यह चेहरा यही नहीं था, क्षणभर बाद यही नहीं होगा। क्षणभर में बहुत कुछ मेरे शरीर में मर गया और बहुत कुछ नया आ गया।
यह भी समझ लेना जरूरी है कि अर्जुन की चिंता एक और दूसरी सूचना भी देती है। अर्जुन कहता है, ये सब मर जाएंगे। इसका मतलब है कि अर्जुन अपने को भी रूप ही समझता है। अन्यथा ऐसा नहीं कहेगा। हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारे संबंध में ही कहा गया होता है। जब मैं किसी को मरते देखकर सोचता हूं कि मर गया, खो गया, मिट गया, तब मुझे जानना चाहिए कि मुझे अपने भीतर भी उसका पता नहीं है, जो नहीं मिटता है, नहीं मरता है, नहीं खोता है।
अर्जुन जब चिंता जाहिर कर रहा है कि ये मर जाएंगे, तो वह अपनी मृत्यु की ही चिंता जाहिर कर रहा है। वह यह जानता नहीं कि उसके भीतर भी कुछ है, जो नहीं मरता है। और जब कृष्ण कह रहे हैं कि ये नहीं मरेंगे, तब कृष्ण अपने संबंध में ही कह रहे हैं, क्योंकि वे उसे जानते हैं, जो नहीं मरता है।
अब वह अर्जुन बड़े ज्ञान की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; वह बड़े धर्म की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; लेकिन उसे इतना भी पता नहीं है कि अरूप भी है कोई, निराकार भी है कोई। अस्तित्व के आधार में कुछ है, जो अमृत है--इसका उसे कोई भी पता नहीं है। और जिसे अमृत का पता नहीं है, उसके लिए जीवन में अभी ज्ञान की कोई भी किरण नहीं फूटी। जिसे मृत्यु का पता है, वह घने अंधकार और अज्ञान में खड़ा है।
जब कृष्ण कहते हैं कि पहले भी हम थे, तू भी था, मैं भी था; ये जो लोग सामने युद्ध के स्थल पर आकर खड़े हैं, ये भी थे; बाद में भी हम होंगे--तो वे सागर की बात कर रहे हैं। और अर्जुन लहर की बात कर रहा है। और अक्सर सागर और लहर की बात करने वाले लोगों में संवाद बड़ा मुश्किल है। क्योंकि कोई पूरब की बात कर रहा है, कोई पश्चिम की बात कर रहा है।
इसलिए गीता इतनी लंबी चलेगी। क्योंकि अर्जुन बार-बार लहरों की बातें उठाएगा, और कृष्ण बार-बार सागर की बात करेंगे, और उनके बीच कहीं भी, कहीं भी कटाव नहीं होता। कहीं वे एक-दूसरे को काटते नहीं। काट दें तो बात हल हो जाए। इसलिए लंबी चलेगी बात। वह फिर दोहरकर लहरों पर लौट आएगा। उसे लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। और जिसे लहरें दिखाई पड़ती हैं, उसका भी कसूर क्या है! लहरें ही ऊपर होती हैं।
असल में जो देखने पर ही निर्भर है, उसे लहरें ही दिखाई पड़ेंगी। अगर सागर को देखना हो, तो खुली आंख से देखना जरा मुश्किल है। आंख बंद करके देखना पड़ता है। अगर सागर को देखना हो, तो सच तो यह है कि आंख से देखना ही नहीं पड़ता, सागर में डुबकी लगानी पड़ती है। और डुबकी लगाते वक्त आंख बंद कर लेनी होती है। लहरों से नीचे उतरना पड़ता है सागर में। लेकिन जो अभी अपने ही चित्त की लहरों से नीचे न उतरा हो, वह दूसरे के ऊपर उठी लहरों के नीचे नहीं जा सकता है। अर्जुन की सारी पीड़ा आत्म-अज्ञान है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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