न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। ८।।
क्योंकि भूमि में निष्कंटक धनधान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपन को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले
शोक को दूर कर सके।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। ९।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। १०।।
संजय बोले: हे राजन, निद्रा को जीतने वाला अर्जुन अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण के प्रति इस प्रकार कहकर
फिर (श्री गोविंद को) युद्ध नहीं करूंगा,
ऐसे स्पष्ट कहकर चुप हो गया।
उसके उपरांत हे भरतवंशी धृतराष्ट्र, अंतर्यामी श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को
हंसते हुए से यह वचन कहा।
अर्जुन अति अनिश्चय की स्थिति में है। संजय कहता है, फिर भी ऐसा कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, अर्जुन रथ में बैठ गया है। अति अनिश्चय की स्थिति में ऐसा निश्चयात्मक भाव कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, सोचने जैसा है। इतना निर्णायक वक्तव्य कि मैं युद्ध नहीं करूंगा और इतनी अनिश्चय की स्थिति कि क्या ठीक है, क्या गलत है; इतनी अनिश्चय की स्थिति कि मन अविद्या से भरा है मेरा, मुझे प्रकाशित करो। लेकिन मुझे प्रकाशित करो, यह कहता हुआ भी वह निर्णय तो अपना ही ले लेता है। वह कहता है, मैं युद्ध नहीं करूंगा।
इसके जरा भीतर प्रवेश करना जरूरी होगा। अक्सर जब आप बहुत निश्चय की बात बोलते हैं, तब आपके भीतर अनिश्चय गहरा होता है। एक आदमी कहता है कि मैं दृढ़ निश्चय करता हूं। जब ऐसा कोई आदमी कहे, तो समझना कि उसके भीतर अनिश्चय बहुत ज्यादा है, नहीं तो दृढ़ निश्चय की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी कहे, मेरा ईश्वर पर पक्का भरोसा है, तो समझना कि भरोसा भीतर बिलकुल नहीं है। नहीं तो पक्के भरोसे का लेबल लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी बार-बार कहे कि मैं सत्य ही बोलता हूं, तब समझना कि भीतर असत्य की बहुत संभावना है। अन्यथा ऐसे बोलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
हम अपने भीतर जो डांवाडोलपन है, उसे निश्चयात्मक वक्तव्यों को ऊपर से थोपकर मिटाने की कोशिश में रत होते हैं। हम सभी, हम सभी जो भीतर बिलकुल निश्चित नहीं है, उसको भी बाहर चेहरे पर निश्चित करके देख लेना चाहते हैं।
अब यह अर्जुन बड़े मजे की बात कह रहा है। वह कह रहा है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। उसने तो आखिरी निर्णय ले लिया, उसने निष्पत्ति ले ली। उसने तो निर्णायक बात कह दी। अब कृष्ण के लिए छोड़ा क्या है? अगर युद्ध नहीं करूंगा, तो अब कृष्ण से पूछने को क्या बचा है? सलाह क्या लेनी है?
इसलिए दूसरी बात जो संजय कह रहा है, वह बड़ी मजेदार है। वह कह रहा है, कृष्ण ने हंसते हुए...।
वह हंसी किस बात पर है? हंसने का क्या कारण है? अर्जुन हंसी योग्य है? इतनी दुख और पीड़ा में पड़ा हुआ, इतने संकट में, और कृष्ण हंसते हैं! लेकिन अब तक नहीं हंसे थे। पहली दफे कृष्ण हंसते हैं उसके वक्तव्य को सुनकर।
उस हंसी का कारण है। कि वे देखते हैं, इतना अनिश्चित आदमी इतने निश्चय वक्तव्य दे रहा है कि युद्ध नहीं करूंगा! धोखा किसको दे रहा है? उसके धोखे पर, उसकी आत्मवंचना पर कृष्ण को हंसी आ जाती है। जो जानता है, उसे आएगी। देख रहे हैं कि नीचे तो दरारें ही दरारें हैं उसके मन में। देख रहे हैं कि नीचे तो कटा-कटा मन है उसका, टूटा-टूटा मन है। देख रहे हैं कि नीचे कुछ भी तय नहीं है और ऊपर से वह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। यह वह अपने को धोखा दे रहा है।
हम सब देते हैं। और जब भी हम बहुत निश्चय की भाषा बोलते हैं, तब भीतर अनिश्चय को छिपाते हैं। जब हम बहुत प्रेम की भाषा बोलते हैं, तो भीतर घृणा को छिपाते हैं। और जब हम बहुत आस्तिकता की भाषा बोलते हैं, तो भीतर नास्तिकता को छिपाते हैं। आदमी उलटा जीता है। ऊपर जो दिखाई पड़ता है, ठीक उससे उलटा भीतर होता है।
इसलिए कृष्ण की हंसी बिलकुल मौजूं है, ठीक वक्त पर है। असामयिक नहीं है, लगेगी असामयिक। अच्छा नहीं लगता यह। बड़ी कठोर बात मालूम पड़ती है कि कृष्ण हंसें। इतने दुख, इतने संकट में पड़ा हुआ अर्जुन, उस पर हंसें! लेकिन हंसी का कारण है। देख रहे हैं उसको कि कैसा दोहरा काम अर्जुन कर रहा है। एक तरफ कुछ कह रहा है, दूसरी तरफ ठीक उलटा वक्तव्य दे रहा है।
दो-सुरे आदमी के वक्तव्य में, दोहरे आदमी के वक्तव्य में हमेशा अंतर्विरोध होता है। अंतर्विरोध बहुत साफ है। यानी वह ऐसा काम कर रहा है, कि एक हाथ से ईंट रख रहा है मकान की और दूसरे हाथ से खींच रहा है; एक हाथ से दीवार उठाता है, दूसरे हाथ से खींचता है; दिनभर मकान बनाता है, रात गिरा लेता है। यह जो दोहरा काम वह कर रहा है, इसलिए कृष्ण हंस रहे हैं। यह हंसी उसके व्यक्तित्व के इस दोहरेपन पर, बंटे हुए पन पर हंसी के सिवाय और क्या हो सकता है!
मगर कृष्ण की हंसी में काफी इशारा है। लेकिन मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी देखी होगी। और मैं नहीं समझता कि अर्जुन ने वह हंसी सुनी होगी।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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