गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुग्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।। ५।।
महानुभाव गुरुजनों को न मारकर, इस लोक में भिक्षा का अन्न भी भोगना कल्याणकारक समझता हूं,
क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। ६।।
हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छे्रयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। ७।।
इसलिए कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूं, जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।
अर्जुन अपनी ही बात कहे चला जाता है। पूछता मालूम पड़ता है कृष्ण से, लेकिन वस्तुतः कृष्ण को ही धर्म क्या है, बताए चला जाता है। पूछ रहा है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है। क्या उचित है, क्या अनुचित है, उसका मेरा बोध खो गया है। लेकिन साथ ही कहे चला जा रहा है कि अपनों को मारकर तो जो अन्न भी खाऊंगा, वह रक्त से भरा हुआ होगा। अपनों को मारकर सम्राट बन जाने से तो बेहतर है कि मैं सड़क का भिखारी हो जाऊं। निर्णय दिए चला जा रहा है। निर्णय दिए चला जा रहा है और कह रहा है, अविद्या से मेरा मन भर गया है। दोनों बातों में कोई संगति नहीं है। अविद्या से मन भर गया है, तो अर्जुन के पास कहने को कुछ भी नहीं होना चाहिए। इतना ही काफी है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है; मुझे मार्ग बताएं। मैं नहीं जानता, क्या ठीक है, क्या गलत है। नहीं, लेकिन साथ ही वह कहता है कि यह ठीक है और यह गलत है।
चित्त हमारा कितना ही कहे कि अविद्या से भर गया, अहंकार मानने को राजी नहीं होता। अहंकार कहता है, मैं और अविद्या से भर गया! मुझे पता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है।
दूसरी बात यह भी देख लेने जैसी है कि अहंकार जहां भी होता है, वहां सदा अतियों का चुनाव करता है। एक अति से ठीक दूसरी अति को चुनता है। अहंकार कभी मध्य में खड़ा नहीं होता; खड़ा नहीं हो सकता; क्योंकि ठीक मध्य में अहंकार की मृत्यु है। तो वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। दो आखिरी पोलेरिटी चुनता है। वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। अर्जुन या तो सम्राट हो सकता है या भिखारी हो सकता है, बीच में कहीं नहीं हो सकता। या तो उस छोर पर नंबर एक या इस छोर पर नंबर एक; लेकिन नंबर एक ही हो सकता है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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