सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 3

 गुरूनहत्वा हि महानुभावान् 

श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुग्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।। ५।।

महानुभाव गुरुजनों को न मारकरइस लोक में भिक्षा का अन्न भी भोगना कल्याणकारक समझता हूं,
क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा।

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। ६।।

हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ हैअथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहतेवे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छे्रयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। ७।।

इसलिए कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूंजो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन होवह मेरे लिए कहिएक्योंकि मैं आपका शिष्य हूंइसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।



अर्जुन अपनी ही बात कहे चला जाता है। पूछता मालूम पड़ता है कृष्ण सेलेकिन वस्तुतः कृष्ण को ही धर्म क्या हैबताए चला जाता है। पूछ रहा है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है। क्या उचित हैक्या अनुचित हैउसका मेरा बोध खो गया है। लेकिन साथ ही कहे चला जा रहा है कि अपनों को मारकर तो जो अन्न भी खाऊंगावह रक्त से भरा हुआ होगा। अपनों को मारकर सम्राट बन जाने से तो बेहतर है कि मैं सड़क का भिखारी हो जाऊं। निर्णय दिए चला जा रहा है। निर्णय दिए चला जा रहा है और कह रहा हैअविद्या से मेरा मन भर गया है। दोनों बातों में कोई संगति नहीं है। अविद्या से मन भर गया हैतो अर्जुन के पास कहने को कुछ भी नहीं होना चाहिए। इतना ही काफी है कि अविद्या से मेरा मन भर गया हैमुझे मार्ग बताएं। मैं नहीं जानताक्या ठीक हैक्या गलत है। नहींलेकिन साथ ही वह कहता है कि यह ठीक है और यह गलत है।





चित्त हमारा कितना ही कहे कि अविद्या से भर गयाअहंकार मानने को राजी नहीं होता। अहंकार कहता हैमैं और अविद्या से भर गया! मुझे पता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है।

दूसरी बात यह भी देख लेने जैसी है कि अहंकार जहां भी होता हैवहां सदा अतियों का चुनाव करता है। एक अति से ठीक दूसरी अति को चुनता है। अहंकार कभी मध्य में खड़ा नहीं होताखड़ा नहीं हो सकताक्योंकि ठीक मध्य में अहंकार की मृत्यु है। तो वह कहता हैसम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। दो आखिरी पोलेरिटी चुनता है। वह कहता हैसम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। अर्जुन या तो सम्राट हो सकता है या भिखारी हो सकता हैबीच में कहीं नहीं हो सकता। या तो उस छोर पर नंबर एक या इस छोर पर नंबर एकलेकिन नंबर एक ही हो सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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