अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
ईषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। ४।।
तब अर्जुन बोला, हे मधुसूदन, मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध करूंगा, क्योंकि हे अरिसूदन, वे दोनों ही पूजनीय हैं।
लेकिन अर्जुन नहीं पकड़ पाता। वह फिर वही दोहराता है दूसरे कोण से। वह कहता है, मैं द्रोण और भीष्म से कैसे युद्ध करूंगा, वे मेरे पूज्य हैं। बात फिर भी वह विनम्रता की बोलता है।
लेकिन अहंकार अक्सर विनम्रता की भाषा बोलता है। और अक्सर विनम्र लोगों में सबसे गहन अहंकारी पाए जाते हैं। असल में विनम्रता डिफेंसिव ईगोइज्म है, वह सुरक्षा करता हुआ अहंकार है। आक्रामक अहंकार मुश्किल में पड़ सकता है। विनम्र अहंकार पहले से ही सुरक्षित है।
इसलिए जब कोई कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके चरणों की धूल हूं, तब जरा उसकी आंखों में देखना। तब उसकी आंखें कुछ और ही कहती हुई मालूम पड़ेंगी। उसके शब्द कुछ और कहते मालूम पड़ेंगे।
कृष्ण ने अर्जुन की रग पर हाथ रखा है, लेकिन अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। वह दूसरे कोने से फिर बात शुरू करता है। वह कहता है, द्रोण को, जो मेरे गुरु हैं; भीष्म को, जो मेरे परम आदरणीय हैं, पूज्य हैं--उन पर मैं कैसे आक्रमण करूंगा!
यहां ध्यान में रखने जैसी बात है, यहां भीष्म और द्रोण गौण हैं। अर्जुन कह रहा है, मैं कैसे आक्रमण करूंगा? इतना बुरा मैं नहीं कि द्रोण पर और बाण खींचूं! कि भीष्म की और छाती छेदूं! नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा। यहां वह कह तो यही रहा है कि वे पूज्य हैं, यह मैं कैसे करूंगा? लेकिन गहरे में खोजें और देखें तो पता चलेगा, वह यह कह रहा है कि यह मेरी जो इमेज है, मेरी जो प्रतिमा है, मेरी ही आंखों में जो मैं हूं, उसके लिए यह असंभव है। इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। इससे तो अच्छा है, प्रतिमा बचे, शरीर खो जाए; अहंकार बचे, मैं खो जाऊं। वह जो इमेज है मेरी, वह जो सेल्फ इमेज है उसकी...।
हर आदमी की अपनी-अपनी एक प्रतिमा है। जब आप किसी पर क्रोध कर लेते हैं और बाद में पछताते हैं और क्षमा मांगते हैं, तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप क्षमा मांग रहे हैं और पछता रहे हैं। असल में आप अपने सेल्फ इमेज को वापस निर्मित कर रहे हैं। आप जब किसी पर क्रोध करते हैं, तो आपने निरंतर अपने को अच्छा आदमी समझा है, वह प्रतिमा आप अपने ही हाथ से खंडित कर लेते हैं। क्रोध के बाद पता चलता है कि वह अच्छा आदमी, जो मैं अपने को अब तक समझता था, क्या मैं नहीं हूं! अहंकार कहता है, नहीं, आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। यह क्रोध जो हो गया है, यह बीच में आ गई भूल-चूक है। मेरे बावजूद हो गया है। यह कोई मैंने नहीं किया है, हो गया, परिस्थितिजन्य है। पछताते हैं, क्षमा मांग लेते हैं।
अगर सच में ही क्रोध के लिए पछताए हैं, तो दुबारा क्रोध फिर जीवन में नहीं आना चाहिए। नहीं, लेकिन कल फिर क्रोध आता है।
नहीं, क्रोध से कोई अड़चन न थी। अड़चन हुई थी कोई और बात से। यह कभी सोचा ही नहीं था कि मैं और क्रोध कर सकता हूं! तो जब पछता लेते हैं, तब आपकी अच्छी प्रतिमा, आपका अहंकार फिर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है।
वह कहता है, देखो माफी मांग ली, क्षमा मांग ली। विनम्र आदमी हूं। समय ने, परिस्थिति ने, अवसर ने, मूड नहीं था, भूखा था, दफ्तर से नाराज लौटा था, असफल था, कुछ काम में गड़बड़ हो गई थी--परिस्थितिजन्य था। मेरे भीतर से नहीं आया था क्रोध। मैंने तो क्षमा मांग ली है। जैसे ही होश आया, जैसे ही मैं लौटा, मैंने क्षमा मांग ली है। आप अपनी प्रतिमा को फिर सजा संवारकर, फिर गहने-आभूषण पहनाकर सिंहासन पर विराजमान कर दिए। क्रोध के पहले भी यह प्रतिमा सिंहासन पर बैठी थी, क्रोध में नीचे लुढ़क गई थी; फिर बिठा दिया। अब आप फिर पूर्ववत पुरानी जगह आ गए, कल फिर क्रोध करेंगे। पूर्ववत अपनी जगह आ गए। क्रोध के पहले भी यहीं थे, क्रोध के बाद भी यहीं आ गए। जो पश्चात्ताप है, वह इस प्रतिमा की पुनर्स्थापना है।
लेकिन ऐसा लगता है, क्षमा मांगता आदमी बड़ा विनम्र है। सब दिखावे सच नहीं हैं। सच बहुत गहरे हैं और अक्सर उलटे हैं। वह आदमी आपसे क्षमा नहीं मांग रहा है। वह आदमी अपने ही सामने निंदित हो गया है। उस निंदा को झाड़ रहा है, पोंछ रहा है, बुहार रहा है। वह फिर साफ-सुथरा, स्नान करके फिर खड़ा हो रहा है।
यह जो अर्जुन कह रहा है कि पूज्य हैं उस तरफ, उन्हें मैं कैसे मारूं ? शंका यहां उनके पूज्य होने पर नहीं है। शंका यहां अर्जुन के मैं पर है कि मैं कैसे मारूं? नहीं-नहीं, यह अपने मैं की प्रतिमा खंडित करने से, कि लोक-लोकांतर में लोग कहें कि अपने ही गुरु पर आक्रमण किया, कि अपने ही पूज्यों को मारा, इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। लेकिन लोग कहें कि मर गया अर्जुन, लेकिन पूज्यों पर हाथ न उठाया। मर गया, मिट गया, लेकिन गुरु पर हाथ न उठाया।
उसके मैं को पकड़ लेने की जरूरत है। अभी उसकी पकड़ में नहीं है। किसी की पकड़ में नहीं होता है। जिसका मैं अपनी ही पकड़ में आ जाए, वह मैं के बाहर हो जाता है। हम अपने मैं को बचा-बचाकर जीते हैं। वह दूसरी-दूसरी बातें करता जाएगा। वह सब्स्टीटयूट खोजता चला जाएगा। कभी कहेगा यह, कभी कहेगा वह। सिर्फ उस बिंदु को छोड़ता जाएगा, जो है। कृष्ण ने छूना चाहा था, वह उस बात को छोड़ गया है। अनार्य-आर्य की बात वह नहीं उठाता। कातरता की बात वह नहीं उठाता। लोक में यश, परलोक में भटकाव, उसकी बात वह नहीं उठाता; वह दूसरी बात उठाता है। जैसे उसने कृष्ण को सुना ही नहीं। उसके वचन कह रहे हैं कि बीच में जो कृष्ण ने बोला है, अर्जुन ने नहीं सुना।
सभी बातें जो बोली जाती हैं, हम सुनते नहीं। हम वही सुन लेते हैं, जो हम सुनना चाहते हैं। सभी जो दिखाई पड़ता है, वह हम देखते नहीं। हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। सभी जो हम पढ़ते हैं, वह पढ़ा नहीं जाता; हम वही पढ़ लेते हैं, जो हम पढ़ना चाहते हैं। हमारा देखना, सुनना, पढ़ना, सब सिलेक्टिव है; उसमें चुनाव है। हम पूरे वक्त वह छांट रहे हैं, जो हम नहीं देखना चाहते।
एक नया मनोविज्ञान है, गेस्टाल्ट। यह जो अर्जुन ने उत्तर दिया वापस, यह गेस्टाल्ट का अदभुत प्रमाण है। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आकाश में बादल घिरे हों, तो हर आदमी उनमें अलग-अलग चीजें देखता है। डरा हुआ आदमी भूत-प्रेत देख लेता है, धार्मिक आदमी भगवान की प्रतिमा देख लेता है, फिल्मी दिमाग का आदमी अभिनेता-अभिनेत्रियां देख लेता है। वह एक ही बादल आकाश में है, अपना-अपना देखना हो जाता है।
प्रत्येक आदमी अपनी ही निर्मित दुनिया में जीता है। और हम अपनी दुनिया में...इसलिए इस पृथ्वी पर एक दुनिया की भ्रांति में मत रहना आप। इस दुनिया में जितने आदमी हैं, कम से कम उतनी दुनियाएं हैं। अगर साढ़े तीन अरब आदमी हैं आज पृथ्वी पर, तो पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब दुनियाएं हैं। और एक आदमी भी पूरी जिंदगी एक दुनिया में रहता हो, ऐसा मत सोच लेना। उसकी दुनिया भी रोज बदलती चली जाती है।
अब एक आदमी के अनेक संसार कैसे होंगे? रोज बदल रहा है। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी दुनिया के आस पास बाड़े, दरवाजे, संतरी, पहरेदार खड़े रखता है। और वह कहता है, इन-इन को भीतर आने देना, इन-इन को बाहर से ही कह देना कि घर पर नहीं हैं। यह हम लोगों के साथ ही नहीं करते, सूचनाओं के साथ भी करते हैं।
अब अर्जुन ने बिलकुल नहीं सुना है; कृष्ण ने जो कहा, वह बिलकुल नहीं सुना है। वह जो उत्तर दे रहा है, वह बताता है कि उसकी कोई संगति नहीं है।
हम भी नहीं सुनते। दो आदमी बात करते हैं, अगर आप चुपचाप साक्षी बनकर खड़े हो जाएं तो बड़े हैरान होंगे। लेकिन साक्षी बनकर खड़ा होना मुश्किल है। क्योंकि पता नहीं चलेगा और आप भी तीसरे आदमी भागीदार हो जाएंगे बातचीत में। अगर आप दो आदमियों की साक्षी बनकर बात सुनें तो बहुत हैरान होंगे कि ये एक-दूसरे से बात कर रहे हैं या अपने-अपने से बात कर रहे हैं! एक आदमी जो कह रहा है, दूसरा जो कहता है उससे उसका कोई भी संबंध नहीं है।
अर्जुन और कृष्ण की चर्चा में यह मौका बार-बार आएगा, इसलिए मैंने इसे ठीक से आपसे कह देना चाहा। अर्जुन ने बिलकुल नहीं सुना कि कृष्ण ने क्या कहा है। नहीं कहा होता, ऐसी ही स्थिति है। वह अपने भीतर की ही सुने चला जा रहा है। वह कह रहा है, ये पूज्य, ये द्रोण, ये भीष्म...। वह यह सोच रहा होगा भीतर। इधर कृष्ण क्या बोल रहे हैं, वे जो बोल रहे हैं, वह परिधि के बाहर हो रहा है। उसके भीतर जो चल रहा है, वह यह चल रहा है। वह कृष्ण से कहता है कि मधुसूदन, ये पूज्य, ये प्रिय; इन्हें मैं मार सकता हूं? मैं अर्जुन। इसे ध्यान रखना। उसने कृष्ण की बात नहीं सुनी।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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