य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। १९।।
और, जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते हैं। क्योंकि, यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।
वह न मरता है और न मारा जाता है। और जो है हमारे भीतर, उसका नाम आत्मा है। और जो है हमारे बाहर, उसका नाम परमात्मा है। जो मारा जाता है और जो मार सकता है, या जो अनुभव करता है कि मारा गया--हमारे भीतर उसका नाम शरीर है, हमारे बाहर उसका नाम जगत है। जो अमृत है, वही चेतना है। और जो मर्त्य है, वही जड़ है। साथ ही, जो मर्त्य है, वही लहर है, असत है; और जो अमृत है, वही सागर है, सत है।
अर्जुन के मन में यही चिंता, दुविधा और पीड़ा है कि मैं कैसे मारने में संलग्न हो जाऊं! इससे तो बेहतर है, मैं ही मर जाऊं। ये दोनों बातें एक साथ ही होंगी। जो दूसरे को सोच सकता है मरने की भाषा में, वह अपने को भी मरने की भाषा में सोच सकता है। जो सोच सकता है कि मृत्यु संभव है, वह स्वभावतः दुखी हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मृत्यु एक मात्र असंभावना है। मृत्यु हो ही नहीं सकती। मृत्यु की असंभावना है।
लेकिन जिंदगी जहां हम जीते हैं, वहां तो मृत्यु से ज्यादा निश्चित और कोई संभावना नहीं है। वहां सब चीजें असंभव हो सकती हैं, मृत्यु भर सुनिश्चित रूप से संभव है। एक बात तय है, वह है मृत्यु। और सब बातें तय नहीं हैं। और सब बदलाहट हो सकती है। कोई दुखी होगा, कोई सुखी होगा। कोई स्वस्थ होगा, कोई बीमार होगा। कोई सफल होगा, कोई असफल होगा। कोई दीन होगा, कोई सम्राट होगा। और सब होगा, और सब विकल्प खुले हैं, एक विकल्प बंद है। वह मृत्यु का विकल्प है, वह होगा ही। सम्राट भी वहां पहुंचेगा, भिखारी भी वहां पहुंचेगा; सफल भी, असफल भी; स्वस्थ भी, बीमार भी--सब वहां पहुंच जाएंगे। एक बात, जिस जीवन में हम खड़े हैं, वहां तय है, वह मृत्यु है।
और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि एक बात भर सुनिश्चित है कि मृत्यु असंभावना है। न कभी कोई मरा और न कभी कोई मर सकता है। मृत्यु अकेला भ्रम है। शायद इस मृत्यु के आस-पास ही हमारे जीवन के सारे कोण निर्मित होते हैं। जो देखता है कि मृत्यु सत्य है, उसके जीवन में शरीर से ज्यादा का अनुभव नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है कि आपको मृत्यु का कोई भी अनुभव नहीं है। आपने दूसरों को मरते देखा है, अपने को मरते कभी नहीं देखा है।
समझें कि एक व्यक्ति को हम विकसित करें, जिसने मृत्यु न देखी हो, किसी को मरते न देखा हो। कल्पना कर लें, एक व्यक्ति को हम इस तरह बड़ा करते हैं, जिसने मृत्यु नहीं देखी। क्या यह आदमी कभी भी सोच पाएगा कि मैं मर जाऊंगा? क्या इसके मन में कभी भी यह कल्पना भी उठ सकती है कि मैं मर जाऊंगा?
असंभव है। मृत्यु अनुमान है, दूसरे को मरते देखकर। और मजा यह है कि जब दूसरा मरता है तो आप मृत्यु नहीं देख रहे, क्योंकि मृत्यु की घटना आपके लिए सिर्फ इतनी है कि वह कल तक बोलता था, अब नहीं बोलता; कल तक चलता था, अब नहीं चलता। आप चलते हुए को, न चलते की अवस्था में गया हुआ देख रहे हैं। बोलते हुए को, न बोलते की अवस्था में देख रहे हैं। धड़कते हृदय को, न धड़कते हृदय की अवस्था में देख रहे हैं। लेकिन क्या इतने से काफी है कि आप कहें, जो भीतर था, वह मर गया? क्या इतना पर्याप्त है? क्या इतना काफी है? मृत्यु की निष्पत्ति लेने को क्या यह काफी हो गया? यह काफी नहीं है।
असल में जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, वह जीवन का शरीर से सरक जाना है। जैसे कोई दीया अपनी किरणों को सिकोड़ ले वापस, ऐसे जीवन का फैलाव वापस सिकुड़ जाता है, बीज में वापस लौट जाता है। फिर नई यात्रा पर निकल जाता है। लेकिन बाहर से इस सिकुड़ने को हम मृत्यु समझ लेते हैं।
बटन दबा दी हमने, बिजली का बल्ब जलता था, किरणें समाप्त हो गईं। बल्ब से अंधकार झरने लगा। क्या बिजली मर गई? सिर्फ अभिव्यक्ति खो गई। फिर बटन दबाते हैं, फिर किरणें बिजली की वापस बहने लगीं। क्या बिजली पुनरुज्जीवित हो गई? क्योंकि जो मरी नहीं थी, उसको पुनरुज्जीवित कहने का कोई अर्थ नहीं है। बिजली पूरे समय वहीं थी, सिर्फ अभिव्यक्ति खो गई थी।
जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह प्रकट का फिर पुनः अप्रकट हो जाना है। जिसे हम जन्म कहते हैं, वह अप्रकट का पुनः प्रकट हो जाना है।
कृष्ण कहते हैं, न ही शरीर को मारने से आत्मा मरती है, न ही शरीर को बचाने से आत्मा बचती है। आत्मा न मरती है, न बचती है। असल में जो मरने और बचने के पार है, वही आत्मा है, वही अस्तित्व है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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