सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 13

 य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। १९।।

औरजो इस आत्मा को मारने वाला समझता हैतथा जो इसको मरा मानता हैवे दोनों ही नहीं जानते हैं। क्योंकियह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।


वह न मरता है और न मारा जाता है। और जो है हमारे भीतरउसका नाम आत्मा है। और जो है हमारे बाहरउसका नाम परमात्मा है। जो मारा जाता है और जो मार सकता हैया जो अनुभव करता है कि मारा गया--हमारे भीतर उसका नाम शरीर हैहमारे बाहर उसका नाम जगत है। जो अमृत है,  वही चेतना है। और जो मर्त्य हैवही जड़ है। साथ हीजो मर्त्य हैवही लहर हैअसत हैऔर जो अमृत हैवही सागर हैसत है।

अर्जुन के मन में यही चिंतादुविधा और पीड़ा है कि मैं कैसे मारने में संलग्न हो जाऊं! इससे तो बेहतर हैमैं ही मर जाऊं। ये दोनों बातें एक साथ ही होंगी। जो दूसरे को सोच सकता है मरने की भाषा मेंवह अपने को भी मरने की भाषा में सोच सकता है। जो सोच सकता है कि मृत्यु संभव हैवह स्वभावतः दुखी हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मृत्यु एक मात्र असंभावना है। मृत्यु हो ही नहीं सकती। मृत्यु की असंभावना है।

लेकिन जिंदगी जहां हम जीते हैंवहां तो मृत्यु से ज्यादा निश्चित और कोई संभावना नहीं है। वहां सब चीजें असंभव हो सकती हैंमृत्यु भर सुनिश्चित रूप से संभव है। एक बात तय हैवह है मृत्यु। और सब बातें तय नहीं हैं। और सब बदलाहट हो सकती है। कोई दुखी होगाकोई सुखी होगा। कोई स्वस्थ होगाकोई बीमार होगा। कोई सफल होगाकोई असफल होगा। कोई दीन होगाकोई सम्राट होगा। और सब होगाऔर सब विकल्प खुले हैंएक विकल्प बंद है। वह मृत्यु का विकल्प हैवह होगा ही। सम्राट भी वहां पहुंचेगाभिखारी भी वहां पहुंचेगासफल भीअसफल भीस्वस्थ भीबीमार भी--सब वहां पहुंच जाएंगे। एक बातजिस जीवन में हम खड़े हैंवहां तय हैवह मृत्यु है।

और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैंवे यह कह रहे हैं कि एक बात भर सुनिश्चित है कि मृत्यु असंभावना है। न कभी कोई मरा और न कभी कोई मर सकता है। मृत्यु अकेला भ्रम है। शायद इस मृत्यु के आस-पास ही हमारे जीवन के सारे कोण निर्मित होते हैं। जो देखता है कि मृत्यु सत्य हैउसके जीवन में शरीर से ज्यादा का अनुभव नहीं है।

यह बड़े मजे की बात है कि आपको मृत्यु का कोई भी अनुभव नहीं है। आपने दूसरों को मरते देखा हैअपने को मरते कभी नहीं देखा है।

समझें कि एक व्यक्ति को हम विकसित करेंजिसने मृत्यु न देखी होकिसी को मरते न देखा हो। कल्पना कर लेंएक व्यक्ति को हम इस तरह बड़ा करते हैंजिसने मृत्यु नहीं देखी। क्या यह आदमी कभी भी सोच पाएगा कि मैं मर जाऊंगाक्या इसके मन में कभी भी यह कल्पना भी उठ सकती है कि मैं मर जाऊंगा?


असंभव है। मृत्यु
 अनुमान हैदूसरे को मरते देखकर। और मजा यह है कि जब दूसरा मरता है तो आप मृत्यु नहीं देख रहेक्योंकि मृत्यु की घटना आपके लिए सिर्फ इतनी है कि वह कल तक बोलता थाअब नहीं बोलताकल तक चलता थाअब नहीं चलता। आप चलते हुए कोन चलते की अवस्था में गया हुआ देख रहे हैं। बोलते हुए कोन बोलते की अवस्था में देख रहे हैं। धड़कते हृदय कोन धड़कते हृदय की अवस्था में देख रहे हैं। लेकिन क्या इतने से काफी है कि आप कहेंजो भीतर थावह मर गयाक्या इतना पर्याप्त हैक्या इतना काफी हैमृत्यु की निष्पत्ति लेने को क्या यह काफी हो गयायह काफी नहीं है।

असल में जिसे हम मृत्यु कह रहे हैंवह जीवन का शरीर से सरक जाना है। जैसे कोई दीया अपनी किरणों को सिकोड़ ले वापसऐसे जीवन का फैलाव वापस सिकुड़ जाता हैबीज में वापस लौट जाता है। फिर नई यात्रा पर निकल जाता है। लेकिन बाहर से इस सिकुड़ने को हम मृत्यु समझ लेते हैं।

बटन दबा दी हमनेबिजली का बल्ब जलता थाकिरणें समाप्त हो गईं। बल्ब से अंधकार झरने लगा। क्या बिजली मर गईसिर्फ अभिव्यक्ति खो गई।  फिर बटन दबाते हैंफिर किरणें बिजली की वापस बहने लगीं। क्या बिजली पुनरुज्जीवित हो गईक्योंकि जो मरी नहीं थीउसको पुनरुज्जीवित कहने का कोई अर्थ नहीं है। बिजली पूरे समय वहीं थीसिर्फ अभिव्यक्ति खो गई थी।

जिसे हम मृत्यु कहते हैंवह प्रकट का फिर पुनः अप्रकट हो जाना है। जिसे हम जन्म कहते हैंवह अप्रकट का पुनः प्रकट हो जाना है।

कृष्ण कहते हैंन ही शरीर को मारने से आत्मा मरती हैन ही शरीर को बचाने से आत्मा बचती है। आत्मा न मरती हैन बचती है। असल में जो मरने और बचने के पार हैवही आत्मा हैवही अस्तित्व है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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